जटायु, खण्ड-24 / अमरेन्द्र

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दीपा

हम्में गाँव लौटी गेलोॅ छियै। एक तेॅ कमरूद्दीन के चिट्ठी हजारीबाग पहुंचलोॅ छेलै, दूसरा तोरोॅ चिट्ठी नें मनोॅ में एतन्हैं सपना बुनी देलेॅ छेलै कि गाँव लौटी ऐवोॅ एकदम लाचारी बनी गेलै।

आरो जों गाँव नें लौटी ऐतियै, तेॅ नैं कहलोॅ जावेॅ सकतियै कि मुखिया-चुनाव होतें-होतें रुपसा के की रूप रहतियै। एखनिये तेॅ एकरोॅ रूप शिकायत, कनफुसकी, बैर आरनी के धूरा में लेटाय-सनाय केॅ अनचिन्हार-अनुभुहार रँ लागेॅ लागलोॅ छै। तोरा ई सुनी केॅ आचरज होतौं कि वहेॅ गाँव के लोग, जे कल ताँय चाचा, बाबा, मामा छेलै, चुनाव वाला माहौल सें आय कत्तेॅ अजनबी रँ बनलोॅ-बनलोॅ चलै छै। हालांकि ई कहवोॅ एकदम ग़लत होतै कि गाँव के सब्भे टा यहेॅ रँ के होय गेलोॅ छै, मतरकि आठ आना किसिम तेॅ ज़रूरे। तोरा विश्वास नैं होतौं-अठखेली रोॅ पोता, बीस बरस रोॅ रमजीवना, पांच दिन भेलै, बीच चौबटिया पर मंसूर काका केॅ कही देलकै, " मौलवी जी, खाली बसन्ते काका के बैठकी में नें गेलोॅ करोॅ, हमरो दुआरी पर बैठकी होय छै, वहूँ ऐलोॅ करोॅ, हमरौ सिनी लेॅ दुआ-सलाम करलोॅ करोॅ। कल ताँय जेकरा मुँहोॅ में बोली नें छेलै, आय ऊ महाभारत बाँची रहलोॅ छै। यहेॅ सें तोंहे गाँमोॅ के हालत जानेॅ पारोॅ। ऊ तेॅ समझौ, शनिचर नें जानौं कहाँ सें आवी गेलै आरो बीच-बचाव करी देलकै, नें तेॅ मुसलमान-पट्टी के पचासो युवक जे रँ उधियैलोॅ छेलै कि नें कहलोॅ जावेॅ सकेॅ कि की होतियै। खुद मंसूर का, सलामत चाचा, अनवर का, वसन्त का आरो एकवाली का आरनी मिली केॅ तीन-तीन रोज घोॅरे-घोॅर जाय केॅ सबकेॅ समझैतें रहलोॅ छेलै। होना केॅ कुछू यहू चाहै छेलै कि बैर होलोॅ छै तेॅ फैसलो होय जाय। तोरा आचरज होतौं कि ई बात दोनो दिश वही सब बोली रहलोॅ छेलै, जे सिनी मंसूर का, सलामत काका, वसन्त का के गोदी में खेली-सुती केॅ जुआन भेलोॅ छै। जेना अनवर का आरो वैशाखी बाबां हाथ फैलाय-फैलाय केॅ एकरोॅ सिनी के सलामती वास्तें दुआ-मिन्नत माँगतें रहलै, हौ सब बातोॅ केॅ भुलाय देलकै आरो ई सब जानै छौ कथी लेॅ? मुखिया-सरपंच बनतै, यही लेॅ। केकरहौ विश्वास नें छेलै, कोय सोच्हौ नें सकलेॅ होतै कि है भोग-भाग वाला पद पावै के लोभोॅ में एक दिन आदमी आपनोॅ आँखी के पानी उतारी केॅ राखी लेतै। दिमाग शैतान के घोॅर बनाय लेलेॅ छै। बरस भरी पहिनें बैशाखी काका के कान्हा पर झूला झूलैवाला सलीम्मा आपनोॅ टोला में मिटिंग बुलाय केॅ यहेॅ कहलेॅ छेलै कि बैशाखी काका हिन्दू के पक्ष लै छै। हमरा सिनी ओकर्है मुखिया बनैवै, जे हमरोॅ पक्ष लेतै, सुनै में आवै छै कि वहेॅ दिनोॅ सें शनिच्चर साथें काली का, भैरो का साथें सोराजी काका के भी मुसलमान-पट्टी में ऐवोॅ-जैवोॅ तेज होय गेलोॅ छै। मतरकि है विश्वास तेॅ करवे करोॅ कि जब ताँय रुपसा में अकवाली का, बसन्त का, शिवचरण का आरो मंसूर का हेनोॅ आदमी जिन्दा छै, है गाँव देहोॅ पर हजार चोट खाय लै, मरैवाला नें छै।

मतरकि है सोचै लेॅ मजबूर तेॅ करवे करै छै कि आखिर मंसूर का आकि बसन्त का कहिया ताँय। हिनकोॅ बाद गाँव जोॅन पीढ़ी के हाथोॅ में जैतै की ऊ परफुलवा के यहेॅ पीढ़ी होतै, जे सलीम के छेकै आकि शनिचर के. हम्में तेॅ समझै छियै कि हमरोॅ पीढ़ी केॅ खराब करै में हमरोॅ सरकार सबसें जादा जिम्मेदार छै। पंचायत तेॅ हमरोॅ गामोॅ में हजारो वर्ष सें छै, कोय मुखिया होय लेॅ, मार-पीट नें करै छेलै। सब्भे केॅ पता छेलै कि मुखिया के होतै। आय मुखिया सब होय लेॅ चाहै छै, कानोॅ-कोतरोॅ सब। कैन्हें कि मुखिया होय के मतलब छै, मुख्यमंत्राी होवोॅ, प्रधानमंत्राी होवोॅ। बिड़ला-टाटा के सम्पत नाचै छै मुखिया बनै वाला के आँखी में। सम्पत तेॅ आदमी केे आय कमजोरी होय्ये नी गेलोॅ छै-न्याय नैं। गाँव तेॅ नरक बनवे करतै। चुनाव के राजनीति नें अजीब बनाय देलेॅ छै गामोॅ केॅ...जुलूस निकली रहलोॅ छै। किसिम-किसिम के झंडा लै केॅ। आमना-सामना आवी केॅ टकराय के मूडोॅ में नारा लगाय रहलोॅ छै। स्कूल बंद छै। मास्टर-चटिया सब जुलूस-राजनीति के पीछू बेहाल। ई बातोॅ के केकरौ चिन्ता नें छै। ताज्जुब छै महिना-दू-महीना में आपनोॅ ई गाँंव कत्तेॅ बदली गेलोॅ छै। हमरा लागै छै सरकार मुखिया के चुनाव नें करवाय रहलोॅ छै, गामोॅ में नेता के कारखाना बनाय रहलोॅ छै, जे नेता देश-दुनियाँ बांटी केॅ शासन करै के कला सिखावेॅ सकेॅ। ई चुनाव के राजनीति नें आपनोॅ गाँवोॅ में रामराज केॅ तेॅ उखाड़िये देनें छै, जेना लागै छै एकरोॅ सपन्हौ उखाड़ी जैतै।

तोर्हे विधाता