जटायु, खण्ड-4 / अमरेन्द्र

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दीपा के कोठरी में बैठलोॅ-बैठलोॅ जानें कत्तेॅ देरी सें विधाता ओकरे इन्तजार करी रहलोॅ छेलै। मनोॅ में कै बारी होलोॅ छेलै कि उठी केॅ चली दौं। हौ तेॅ दीपा के नानिये छेलै कि विधाता केॅ आवी-आवी कही जाय, "तोहें जइयो नें, दीपां तोरा ई कहै लेॅ कही गेलोॅ छौं कि हम्में तुरत्ते लौटी रहलोॅ छियै, भागियोॅ नें बेटा... की कहियौं बेटा, एकरोॅ माय-बाबू जहिया सें एकरा सें अलग भै गेलै, तहिया सें हम्मी एकरोॅ माय आरो सहेली। आबेॅ तेॅ तोरा बातोॅ में ई एत्तेॅ डूबलोेॅ रहेॅ छै कि पटनो जाय के बाते नें बोलै छै। ...आबेॅ तोहें चल्लोॅ जैवा बेटा, तेॅ ऊ हमरा पर गुस्सैती। हम्में केन्हौ केॅ चाय बनाय छिहौं। आबेॅ दीपा रँ तेॅ नहिंये बनावेॅ पारभौं। तबेॅ देखै छिहौं। हमरा सिनी के जमाना में तेॅ एक गिलास औंटलोॅ दूध मेहमानोॅ केॅ देलोॅ जाय छेलै। आबेॅ तेॅ बस दू बूँद दूध, चायपत्ती आरो पानी। दूधो तेॅ पानिये आबेॅ छै। आबेॅ पानी में पानी मिलाय केॅ अतिथि के खातिर करलोॅ जाय छै। चिनियो पड़ै छै तेॅ चुटकी भर। नैं सोॅर, नैं स्वाद। तबेॅ नया युगोॅ के नया लोग। एक गिलास औंटलोॅ दूध पीतै तेॅ छोॅ दिन पेट खराब...जैय्योॅ नें बेटा, आवै छियौं।"

खूब छै दीपा के ई नानियो। नानी के आँगन दिश गेला के बाद विधातां मने-मन सोचलकै आरो नानी के सबटा कहलोॅ बात याद करी केॅ एक अजीब सुख सें गनगनाय गेलै कि तखनिये दीपाहौ आवी गेलै।

"बहुत देर बैठै लेॅ पड़लौं की? बोर होलौ?" दीपा रोॅ चेहरा पर अजीब प्रसन्नता आरो चंचलता छेलै। ओकरोॅ यही प्रसन्नता आरो चंचलता तेॅ विधाता केॅ मिन्टो दीपा केॅ टुक-टुक ताकै लेॅ विवश करतें रहेॅ छै। तखनी विधाता कुछु नें बोलै छै। आपनोॅ आँख पत्थल नाँखि स्थिर करी दीपा केॅ निहारतें रहेॅ छै, जेना कोय नदी के बीच आकाश सें उतरलोॅ परी केॅ हेरतें रहे ॅ, जेकरा कहियो नें देखलेॅ छै, फेनू कहियो नैं देखेॅ पारतै ...विधाता केॅ है रँ आपना केॅ निहारतें देखी केॅ दीपाहो के सब चंचलता अनचोके पहले नाँखि खतम भै गेलै।

"अरे तोरा की भै गेलोॅ छौं। हेना चुप कैन्हें भै गेलौ?"

"चुप कहाँ छेलियै। अपना-आप सें बात करी रहलोॅ छेलियै।"

"फेनू हमरा सें के बात करतै?" दीपा बड़ी अर्थपूर्ण आँखी सें विधाता केॅ ई कही देखलेॅ छेलै।

"अभी मनेमन जेकरा सें बात करी रहलोॅ छेलियै, ऊ भी तेॅ दीपाहे छेलै।" शायत दीपा केॅ आपनोॅ प्रश्नोॅ के उत्तर मिली गेलोॅ छेलै। सुनत्हैं आँख झुकी गेलोॅ छेलै।

"बस, हम्में कहै छियौं नी-है आपनोॅ आँख उठैनें राखोॅ। तोरा नें मालूम, जब ताँय हम्में तोरोॅ आँख देखतेॅ रहेॅ छौं, नें जानौं कत्तेॅ-कत्तेॅ संकल्प के मेघ उमड़तेॅ-घुमड़तेॅ रहेॅ छै हमरोॅ मनोॅ के पर्वत पर।"

"पहिले एगो संकल्प केॅ तेॅ पूरा करोॅ। विद्यापीठ पूरा करै के संकल्प।"

"दीपा, एकरा तेॅ जेना होतै, पूरा करवै। महतो का के भी यही इच्छा छै-एकटा इस्कूल होतियै तेॅ घरे-घर राजेन्द्र बाबू पैदा करी देतियै। है होतियै तेॅ बच्चा-बुतरू की...जे कहोॅ मेहता का के सपना राजेन्द्र बाबू सें कम बड़ोॅ नें छै।"

'मतरकि हमरा तेॅ कभियो-कभियो भय बनी जाय छौं। एखनी हम्में चूल्हो का आरो भोला काका कन सें आवी रहलोॅ छियौं, हुनका सिनी केॅ मिटिंग में आवै के खबर दै के. चूल्हो कां की कहलकौं, जानलौ? कहलकौं,' बेटी शनिचर के दोस्त परफुल आरो ढीवा सें ज़रा सावधाने रही केॅ काम करियोॅ। अरे शनिचर विधाता के दोस्त छेकै तेॅ की, आदमी के महत्त्वकांक्षा बढ़ी जाय तेॅ बहुओ-माय के गर्दन काटै में नें चुकै छै। हमरा तेॅ लागै छौं, तोरोॅ दोस्त सिनी कुछु-न-कुछु भांगटोॅ खाड़ोॅ करथौं। "

"यै बारें में तोरा नें सोचना छौं। गाय आकि बरद के एक्के माथोॅ पर दू सींघ होय छै, एकदम अलग, मजकि दोनों केॅ एक-दूसरा केॅ कभी चोट आकि घायल करते देखलेॅ छौ। हों विपत्ती ऐला पर दोनों मिली केॅ एक्के बार दुश्मन पर बार करै छै। शनिचर हमरोॅ बच्चा के दोस्त छेकै। ओकरा हम्मी ठीक-ठीक बुझै छियै ...खैर छोड़ोॅ, इखनी हम्में चलै छियौं, मंटू का सें मिलै लेॅ। देखियै मिटिंग के सब सरँजाम होलोॅ छै की नें।"

"आरो नानी जे दूध-चाय के काढ़ा बनाय केॅ लानी रहलोॅ छै, ऊ के पीतै?"

"तोहें। हम्में चलै छियौं। हम्में तेॅ ई कहै लेॅ ऐलोॅ छेलियौं कि शनिचर के मिटिंग में लानै के भार तोरहेॅ पर रहलौं। आरो ई काम अइये निपटाय लेना छै, की समझलौ?" एतना कही केॅ विधाता सुट सना कोठरी सें निकली घरोॅ के बाहर भै गेलै। दीपा है समझौ नें पारलकी कि हेनोॅ होय जैतै।