जटायु, खण्ड-9 / अमरेन्द्र

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केकर्हौ विश्वास नें छेलै कि अबकी बारिश एत्तेॅ जल्दी गिरी पड़तै। अखाड़ के पहिले दिनोॅ सें मेघ बरसवोॅ जे शुरू भेलोॅ छेलै, ऊ लगातारे पड़िये रहलोॅ छेलै। एकदम सौन-भादो नाँखि। लागै छेलै, खेती-बारी के काम ई साल जल्दिये शुरू भै जैतै, मजकि बीहन डाललोॅ केना जाय। जे रँ खेतोॅ में पानी उबटी रहलोॅ छेलै, बीहन बहिये जैतियै आकि गलिये जैतियै। से गाँवोॅ के सब्भे खेतियर बारिश के थमै के इन्तजारी में आपनोॅ-आपनोॅ घरोॅ में बैठलोॅ छेलै।

विधाता के खेती केना होतै, एकरोॅ भार अबकी शनिचरे पर छेलै। गाँव सें शहर जाय वक्ती वें शनिचर सें कही देनें छेलै, "दोस्त हमरा शहर सें लौटै में महिनो लागी जावेॅ पारेॅ। यै बीचोॅ में जों बारिश गिरी जाय आरो बीहन-बीचड़ोॅ डालै के काम शुरू होय जाय तेॅ हमरोॅ खेतोॅ के भार तोरे ऊपर रहलौ। भाइयो के उमिर होय चललोॅ छै, आबेॅ हुनका सें खेती-बारी नें होय छै, देखवे करै छैं...जमीन जग्घोॅ वाला बात छेकै। कमिश्नर साहब कखनी रहतै, कखनी नें रहतै। कबेॅ कागज तैयार करतै-है सब के जानै छै। आरो जब ताँय कागज नें तैयार भै जाय छै-लागै छै, दम मारी केॅ वांही कुछु दिन रहेॅ लेॅ लागतै...आरो जबेॅ तोहें यहाँ छैं तेॅ हमरा घरोॅ के चिन्ता कथी लेॅ?" शनिचर विधाता के कोय बातोॅ के विरोध नें करेॅ पारलेॅ छेलै। करौ नें पारै छैलै। पता नें कैन्हें विधाता के कोय बातोॅ केॅ टाली देवोॅ ओकरा सें हुऐ नें पारै।

"से बात तेॅ ठीक छै विधाता, मतरकि खेती-गृहस्थी के बात छेकै नी, ज़रा रुकी केॅ ई काम करिये लेतियैं तेॅ अच्छा। किसानोॅ लेॅ तेॅ यहेॅ सोनो रँ समय होय छै।"

"शनिचर, हमरोॅ लेॅ आबेॅ इस्कूल वाला सपनाहौ कम नें छै। सच कहैं तेॅ खेती सें ज़्यादा महत्त्वपूर्ण। तोहें मजूर लगाय दियैं। बाकी काम तेॅ दीपाहौ देखी लेतै। हम्में दीपाहौ केॅ कही देलेॅ छियै..." ई कही विधाता गाँव छोड़ी देनें छेलै आरो ठीक ओकरोॅ गेला के पाँचे रोज बाद जेना हथिया-कनिया वाला बारिश शुरू भै गेलोॅ छेलै।

आषाढ़ के ठीक छठमोॅ दिन के भोर्है सें जे बरसां गरजवोॅ-पड़वोॅ शुरू करनें छेलै तेॅ रुकै के नामे नैं लै रहलोॅ छेलै। तुरत-तुरत मलका-मलकवोॅ आरो ठनका के ठनकवोॅ सें सौंसे इलाका धड़-धड़ करी रहलोॅ छेलै...पलनिया वाला आपनोॅ दुआरी पर बैठली दीपा आपनोॅ दोनो कानोॅ के भुरकी में अंगुरी घुसैनें कत्तेॅ देरोॅ सें ठनका आरो मेघोॅ के तमाशा देखी रहलोॅ छेलै। कै बार ओकरोॅ नानी ओकरा सें कहनें होतै, "दीपा, खटिया भीतर करी ले, बेटी, झटका सें भींगी जैवै। पहिलोॅ बारिश छेकै। जों कहीं डसी जाय, तेॅ सौ बलाय लानी दै छै।" मजकि नानी के बातोॅ पर दीपां कोय ध्याने नैं देलेॅ रहेॅ। पैर लटकैनें खटिया पर बैठलोॅ-बैठलोॅ सामनाहै में झड़ी में बिलैतें दूर-दूर तक के गाछ-बिरिछ केॅ देखतें रहलै...गाछ-बिरिछ, जे मुसलाधार बारिश में पानी-पानी बनी केॅ बही रहलोॅ छेलै...झम-झम-झम। कड़...कड़...कड़...कड़ाक...कड़ाक ...ई सब सें गदगदाय केॅ भीती के भुरभुरोॅ मिट्टी में नुकैलोॅ कन्नौ झिंगुर नें आपनोॅ मसक बाजा शुरू करी देनें छेलै। हेना में कै दिन्है सें दीपा आपना में नें रहेॅ पारी रहलोॅ छै। कोय रहौ नैं पारेॅ-ई मेघा, बरसा, ठनका हेने चीज होय छै। दुआरी पर बैठलोॅ-बैठलोॅ दीपा केॅ लागै छै-ई ठनका के आवाज आरो जोत आवाज आरो जोत नें छेकै, वोॅर ही जेना बरियाती-गाजा-बाजा साथें चललोॅ आवी रहलोॅ छै। ठनका के जोत छिनमान जेना आतिशबाजी आरो बीहा-शादी वाला बम फूटी रहलोॅ रहेॅ, जे धीरें-धीरें एकदम नगीच ऐलोॅ जैतें रहेॅ...दीपा सचमुचे में लाजोॅ सें एकदम सुकुड़याय केॅ बैठी गेलोॅ रहेॅ। दोनो ठेहुना के बीचोॅ में आपनोॅ माथोॅ गोती...ओहारी सें गिरतें लगातार बूँद आरो झिंगुर के पुकार-ओकरोॅ मुनलोॅ कानोॅ केॅ छेदी केॅ जबेॅ भीतर ताँय जाय, तबेॅ दीपा केॅ लागै, जेना ऊ डोली में गुड़मुड़ियैलोॅ बैठली छै आरो ओकरोॅ नानी भारी कंठोॅ सें गावी रहलोॅ छै,

बड़ी रे जतन सें हम सिया धिया केॅ पोसलीं
सेहा रघुवंशी लेलेॅ जाय।
कौनें रँ डोलिया सें कौने रँ ओहरिया
कौने रँ लागलै कहार

तेज हवा के झोंका सें बरसा के बूंद फुन्सी बनी-बनी दीपा के चेहरा पर बिखरी जाय छेलै आरो ओकरोॅ स्पर्श पावी केॅ ओकरा यही लागी उठै, जेना कानती-कपसती नानी के लोर ओकरोॅ देहोॅ पर गिरी रहलोॅ छै। तहियो भरलोॅ गल्ला सें नानी गैतो जाय रहलोॅ छै,

हाथी-हथसरा रोवै, घोड़ा-घोड़सरा रोवै
रानी जे रोअत रानीवास।

दीपा के मोॅन-नानी रोॅ गाँव आरो गाँव के सखी भर सें बिछोह के बात सोची केॅ एकदम व्याकुल होय उठलै आरो ओकरोॅ हाथ अनचोके कानोॅ सें हटी केॅ आगू बढ़ी जाय छै-आपनोॅ नानी, सखी सें गल्लोॅ मिली जाय लेली,

मिली लेहु, मिली लहु संग के सहेलिया हे
सिया बेटी जैती ससुरार

पर सामना में कोय नें छेलै। नें नानी, नें सखी। कोय्यो तेॅ नें। तभियो ओकरोॅ सपना कैन्हें नी टूटी रहलोॅ छेलै। वैं जानी केॅ तोड़ै लेॅ नें चाहै छेलै ...आपनोॅ आँख दीपा फेनू सें मूनी लेनें छेलै आरो खनै बाद वहेॅ आतिशबाजी, वहेॅ बरियात, वहेॅ नानी के कपसवोॅ, वहेॅ सवासिन सबके मने-मन सियारेॅ लागलेॅ छेलै

एक कोस गेली सिया जी, दुई कोस गेली
तेसर कोस लागलै पियास

आरो सचमुचे में दीपा के कंठ पियासोॅ सें बेकल होय ऐलोॅ छेलै। छटपटाय केॅ देखलेॅ छेलै-वहेॅ झमझम बारिश। वहेॅ होॅ-होॅ हवा।

"तोहें पगलाय गेलोॅ छैं कि दीपा? झटकवा सें तोरोॅ सौंसे देह भींगी गेलोॅ छौ आरो तोरा कुछु होशे नें। की सोचतेॅ रहै छैं, की गुनतें रहै छैं, समझनें मुश्किल।" भीतरी सें नानी दनदनैली ऐली आरो खटिया पर सें दीपा केॅ उठैतें कहनें छेलै, "तोरा होय की गेलोॅ छौ आयकल, जों दुआरी पर बेठलोॅ रहना छौ तेॅ कोठरी आरनी केॅ सोॅर करवाय दैं।"

नानी के बात सुनी केॅ दीपा एकदम होश में आवी गेलोॅ छेलै। वैनें नानी के बातोॅ पर गौर करनें छेल, "तोरा होय की गेलोॅ छौ आयकल" -ठिक्के तेॅ आयकल ओकरा कुछु होय गेलोॅ छै। नें तेॅ दुआरिये पर कथी लेॅ बैठलोॅ रहै छै-केकरोॅ बाट जोहतें रहेॅ छै?

"तहूँ तेॅ नानी, हमर्है पीछू लागलोॅ रहेॅं छैं। पाँच मिनिट बाहरोॅ में बैठिये गेलियै तेॅ की? तोरा तेॅ तभिये शांति, जबेॅ कि हम्में तोरोॅ पीछू-पीछू लागलोॅ रहौं आकि तोहें हमरोॅ पीछू-पीछू। ...आबेॅ तोहीं सोचैं...कल पानी थमतै...फेनू बीहन गिरतै...शनिचर दां पर भार दै गेलोॅ छेलै आरो शनिचर दां सें भेंट नें होय रहलोॅ छै। ई झोॅड़-पानी में कोय दिखैवो नें करै छै जे ऊ टोला ताँय संवादो दै आवै। आबेॅ तोंही सोचैं-जे हमरा सिनी पर खेती के भार दै भागलपुर चल्लोॅ गेलोॅ छै, की वै बारै में सोचना हमरा सिनी के धरम नें छेकै...वहेॅ तेॅ सोची रहलोॅ छेलियै।"

"बेटी, ई धरम सोचै लेॅ तेॅ जिनगी पड़लोॅ छै। आपना केॅ बचावें-यहू धरमे छेकै।" कहतें-कहतें नानी खटिया उठैनें सीधे घोॅर चली देनें छेलै। चौखटी के मोखा सें सट्टी केॅ खाड़ोॅ दीपां सोचेॅ लागली-नानी है कि कही देलकै, " धरम सोचै लेॅ तेॅ जिनगी पड़लोॅ छै, ...की नानी हेने कही देलकै, बिना कुछ सोचले? की नानी...नैं नानी हेने नें कहलेॅ होतै। कुछु मानें, कुछु रहस्य ज़रूरे छै ई बातोॅ में...तेॅ की नानी कहीं हमरोॅ कमजोरी तेॅ नें पकड़ी रहलोॅ छै...आखिर हम्में विधाता वास्तें एत्तेॅ सोचेॅ कैन्हें लागलोॅ छियै...के होय छै विधाता हमरोॅ? कोय तेॅ होय्ये गेलोॅ छै, नें तेॅ है रँ दीपा ओकरे बारे में सोचतेॅ कैन्हें रहेॅ छै...खैतें, पीतें, उठतें-बैठतें, जागतें, सोतें, पागल करी देनें छै विधातां ओकरा।

"दीपा ऽ-ऽ ऽ..."

"की ई...ई...ई..." दीपा के चेहरा आरो बोली में अनचोके खीझ उभरी ऐलोॅ छेलै आरो भीतर आवी केॅ औसरा पर बिछाय देलोॅ गेलोॅ खटिया पर घम्म सें गिरतें कहनें छेलै, "आबेॅ तेॅ संतोख होय गेलौं नी कि दीपा कैदी नाँखि जेलोॅ में बन्हलोॅ छै...ले हम्में सुतलियौ, हमरा जिनगी भर जगाय के ज़रूरत नें छै।" ई कही केॅ दीपा खटिया पर चित्त होय गेलोॅ छेलै। आपनोॅ दोनो आँख मुनी लेनें छेलै। शायत पैहिलके वाला सपना आँखी में खीची लानै लेॅ। मजकि एकबार जे सपना बिगड़ी जाय छै, ऊ की दोबारा बनैल्हौ सें बनी जाय छै? सपना तेॅ सपना छेकै...आपनो कांही होय छै? तेॅ दीपा के केना होतियै...मजकि ऊ सपना केन्होॅ सुन्दर सपना छेलै! आँखोॅ सें केन्हौं केॅ दूर करवोॅ मुश्किल। वैनें करवट लेलकै, नानी दिश पीठ करी केॅ। शायत करवट लेला सें ऊ सपनाहों करवट लै लियेॅ। ——-नानी नें दीपा केॅ कनखी सें देखलेॅ छेलै आरो औसरा के पानी उफची-ऊफची केॅ ऐंगना में फेकवोॅ रोकी केॅ अँचरा सें आपनोॅ मूँ के हँस्सी रोकै में बेहाल होय गेलोॅ छेलै।