जटायु के कटे पंख, खण्ड-5 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुवास थोड़ा सिमटा हुआ-सा रहता था। नीरु, नेहा और नानी के बाद अतुल मामा और आकाश विकास का साथ उसे दो विपरीत दिशा में खींचते थे। एक तरफ घर का अंतःपुर उसके कारण एक अव्यक्त तनाव में रहता, तो दूसरी ओर मामा उसे हर समय नई दुनिया और मजेदार बातों के बीच हँसने, मुस्कुराने की वजह देते।

दोस्तों की धमाचौकड़ी में बहुत-सी बातें इधर-उधर उड़ जातीं। वह बड़ा भी हो रहा था। दोस्तों के साथ दूर-दूर खेलने निकल जाता। उसमें उसे सबसे प्रिय था गंगा का किनारा। सीढ़ीघाट के किनारे ही उसके दोस्त चेतन का घर था। इसी से वह चेतन के साथ उसके घर जाता तो सीढ़ीघाट पर जाकर बैठ जाता। घर में किसी को पता नहीं था कि सुवास और चेतन अकेले भी वहाँ जाकर बैठते थे, गंगा में कंकड़ फेंकते और पैरों को धोने के लिए नीचे भी उतर जाते थे।

जितिया के दिन शुक्ला जी की पत्नी गंगा नहाने ज़रा देर से पहुँची थी। नहाकर वापस आने लगी तो देखा कि चहल-पहल से दूर, दो छोटे लड़के गंगा के किनारे उ$पर झाड़ियों के बीच बैठे थे। वह गौर से देखने लगी तो सुवास को देखकर वहीं से आवाज लगाई, "सुवास वहाँ, इस दोपहरी में क्या कर रहे हो।" गंगा का हरहराता पानी था और झाउ$ के छोटे-छोटे पौधे उसमें समाते जा रहे थे। संकरी-सी जगह से रास्ता बनाकर वे लोग उतनी दूर चले गए थे। जब सुवास पास आया तो स्कूल बैग भी साथ था। शुक्लाजी की पत्नी ने पूछा, "स्कूल नहीं गए थे क्या?" "नहीं नानी ऐसी बात नहीं है, मैं स्कूल गया था, आज शनिवार है ना, तो जल्दी छुट्टी हो गई, इसी से इधर चला आया" सकुचाते हुए सुवास ने कहा। "

भीगे कपड़ों की पोटली हाथों में संभालते हुए, उन्होंने सुवास को कहा, "चलो मेरे साथ घर चलो, बच्चे गंगाजी के किनारे अकेले नहीं आते।" उनको अस्तव्यस्त देख सुवास ने कहा, "नानी आप पूजा की साजी पकड़ लें, मुझे भींगा कपड़ा दे दें मैं पहुँचा दूंगा।"

शुक्लाजी की पत्नी को सुनयना के बेटे की बोली से प्यार उमड़ आया। उन्होंने कहा-ठहर बेटा, ये कपड़े तो भारी हें, तुझसे नहीं उठेंगे। मैं मंदिर में पूजा कर लूं तो तू साजी पकड़ लेना। " सुवास उनके साथ ही उस दिन वहाँ से लौट आया।

उस शाम घर में ख़ूब कोहराम हुआ। पहले तो सब सन्न रह गए. नानी रो-रोकर अपनी बेटी को याद करने लगी। जब से सुवास को सारी बात मालुम हो गई, तब से नानी का सुनैना के नाम पर रुका दुख, पीड़ा ऐसे ही जब तब बहने लगता था। नेहा को सुवास की शैतानियों को बखान करने का मौका मिल गया। सुधीर आग बबूला होकर नीरु को डाँट रहा था, "बच्चा संभालने का बहुत घमण्ड था न, देख लो कैसा आवारा बना घूमता है यह छोकरा। पता भी नहीं चलने देता कि कहाँ जाता है? क्या करता है। चाची सोच रही होगी कि अनाथ बच्चे की कोई सुध ही नहीं लेता।" नानी तड़पकर आगे आ गई, "खबरदार जो इसे अनाथ कहा। अभी हम जिंदा हैं। इसके माँ बाप हैं। जिस दिन हममें ताकत नहीं होगी हम उन्हें सौंप देंगे।"

बात को बिगड़ते देख सुधीर भुनभुनाते हुए बाहर निकल गया। नीरु ने बाद में सुवास के कान पकड़े और एकांत में ले जाकर पूछा-कितने दिन से जा रहा था अकेले वहाँ?

"मैं रोज नहीं जाता था माँ, हाँ जिस दिन चेतन के घर जाता उस दिन वहीं जाकर बैठ जाता था। वहँं बहुत अच्छा लगता है" नीरू ने कपार ठोक लिया-बच्चे को खेल का मैदान अच्छा लगता है, पार्क अच्छा लगता है, बाज़ार अच्छा लगता है। मैं तुझे खिलौने की दुकान, होटल, चिल्ड्रेन पार्क सब जगह ले जाउ$ंगी बेटे पर गंगा के किनारे मत जाना वहाँ चुड़ैल पकड़ लेती है"

सुवास ने आँखे फाड़कर पहली बार चुड़ैल के बारे में सुना तो पूछ बैठा-हमें तो कहीं नहीं दिखी माँ? कैसी होती है?

वह बहुत सुंदर और बार-बार पास बुलाती है कि आदमी रुक नहीं सकता नानी ने बिना समझे कह दिया तो नीरू पीछे मुड़कर सास को देखने लगी।

नानी ने भी जब सारी बात समझी तो झेंप गई. किसी तरह उस दिन बात शांत हुई.

"मामा क्या कर रहे हो" सुवास ने अतुल के पास आकर पूछा।

भिड़े हुए दरवाजे को हटाकर जब सुवास अंदर आ गया तो अतुल घबराता हुआ बोल पड़ा, "अरे मेरे भांजे लाल तू क्यों अभी आ गया?"

"क्यों मामा?"

"अच्छा बता बाबुजी सो रहे हैं?"

"नहीं वे तो घर में नहीं हैं"

"चल, तब ठीक है, तू आकर बिना कुछ बोले बैठ जा"

घर से सटाकर एक बड़ा-सा गैरेजनुमा हाल बना था, जिसमें परिवार के सदस्य ज़्यादा होने पर और लोग भी सोते थे, लेकिन यही अतुल का कमरा था। अतुल अपने दो दोस्तों के साथ बैठकर कागज पर कुछ ऩारों को लिख रहा था। कागज, कैची, गोंद, डंडे, रस्सी सब इधर उधर बिखरे थे। किसी के आने की आहट पाकर उसे चौकी के नीचे कर देता।

सुवास को जब मन होता अपनी किताबें लिए दिए आ धमकता कि मामा के पास पढ़ने जा रहा है। शांत बैठा सुवास कसमसा रहा था, "मामा मैं कुछ मदद कर दूं"

"नहीं-नहीं तू तो दया कर मेरे भगवान, कहीं तेरे और बंधु आ गए तो कल बड़ा बाबु के दरबार में मेरी पेशी हो जाएगी।"

सुवास कुछ समझ नहीं पाया। इमरजेंसी के पहले का समय था। भागलपुर की हवा में उत्तेजना की गंध भरी हुई थी। रही सही कसर रेणुजी ने भागलपुर विश्वविद्यालय में भाषण देकर पूरी कर दी थी। अतुल नुक्कड़ नाटक मंडली का सदस्य था। सारे बैनर झंडे छिप कर बनाए जा रहे थे। श्रीवास्तव जी लड़कों के इस कमरे में नहीं आते इसी से अतुल ने यह जगह चुनी थी। असीम चटर्जी की लिखावट बड़ी अच्छी थी, वह लिख रहा था और सुवास टुकुर-टुकुर बैठा देख रहा था।

सुवास ने फिर मामा से सवाल किया। दरअसल अतुल ने उसे ऐसा ही बना दिया था-तुम इसे छिपाकर क्यों कर रहे हो? क्या कोई ग़लत काम कर रहे हो? "

अतुल चकराया, कैसे समझाए फिर कहा, "अच्छा तुम परीक्षा में लिख रहे थे तो तुम्हारा दोस्त तुम्हारी नकल कर रहा था न"

"हाँ मैंने सर को बता दिया था।" तुमने फिर छिपाकर लिखना शुरू किया था ना कि कहीं सर तुम्हें ही नकल करने वाला समझ लेंगे। "

सुवास ने गरदन हिलाई.

अतुल ने कहा कि "अच्छे काम इसी से छिपाकर करते हैं कि कोई नकल ना कर ले।"

सुवास ने कुछ पूछने के लिए मुँह खोला ही था कि अतुल ने उस पर हाथ रखकर कहा, "अब बस कर और तू भी एक अच्छा काम कर कि ये सारा सामान जल्दी से अंदर रख दे और सबको पानी पिला।"

सुवास खुश होकर मामा के दिए काम करने लगा। वह मामा को बहुत पसंद करता था। क्योंकि वह उसे दुनिया जहान की बड़ी-बड़ी बातें बताता। पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को सेंडिस कंपाउंड ले जाता। वह गोलगप्पे खिलाता था। उस बार भी छब्बीस जनवरी के एक दिन पहले सुवास अपने कपड़े सहेजकर मामा के पास आया, "कल हम भी आपके साथ जाएंगे न मामा?"

अतुल बोला, "नहीं रे यह कैसा संविधान और कैसा गणतंत्रा? हमलोग को उस नौटंकी में नहीं जाना है।"

सुवास उदास हो गया। क्या हो गया मामा को। पहले कितना हँसते, बातें करते थे। इधर अतुल घर से ज़्यादा ही बाहर रहने लगा था। हर समय उत्तेजना में रहता, दोस्तों से घिरा हुआ। सुवास से उसकी भेंट भी कम हो पाती थी। उस दिन सुवास को उदास देख अतुल ने कहा, "तुझे मैं अच्छी जगह ले जाउंगा, कुछ दिन ठहर जा।"

सुवास को लेकर एक दिन अतुल नाटक दिखाने ले गया। घर में किसी को कुछ पता नहीं था। नुक्कड़ नाटक में वैसे भी व्यवस्था गड़बड़ थी। उस क्षेत्रा में पुलिस चौकन्ना हो चुकी थी। लाजपतपार्क की पश्चिम दिशा की ओर कुछ लड़के खड़े थे। अतुल भी वहँं पहुँचा तो सभी मानिक सरकार चौक की ओर चले। वे छितरा गए थे। फिर चौक से थोड़ा आगे बढ़कर एक जगह को घेरकर नुक्कड़ नाटक खेला जाने लगा। सुवास को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। लोग जुटते जा रहे थे। बिना साज सजावट के, लंबे कुरते पहने कुछ लड़के हाथ लहराकर कुछ बोल रहे थे, जनता ताली बजा रही थी। सुवास खड़े-खड़े थक गया था। मामा कहाँ ले आए, थोड़ा भी अच्छा नहीं लग रहा था, सब गुस्से में थे, लाठी, गोली का खेल चल रहा था। तभी पुलिस पहुँच गई और मुर्दाबाद का नारा लगाने वाले नाटक को बंद करने को कहा। लड़के अड़ गए. एक चादर बिछाई थी उसी पर बैठ गए. लोग चादरों पर पैसे डालने लगे। पुलिस कड़क होती गई. इसी बीच पुलिस ने किसी को गाली दी, लड़के उलझ गए और पुलिस ने डंडा चला दिया। सर से खून छलका और जनता इधर-उधर भागने लगी। सुवास की टांगें कापने लगीं। वह जोर-जोर से अतुल मामा, अतुल मामा चिल्लाने लगा। तभी भीड़ को चीरता अतुल बदहवाश-सा आया और उसे झपटकर भीड़ से खींचता निकल गया। लड़के पत्थरबाजी कर रहे थे, किसी सिपाही को चोट लगी तो माहौल और गरम होता जा रहा था। लड़के भागने लगे। अतुल और उसके दोस्त बंगाली टोला की संकरी गलियों में घुसते हुए भागने लगे। रास्ते में जब सब शांत हुआ तो सुवास को अतुल ने समझाया, "एकदम शांति से चलो, कुछ नहीं हुआ है और घर में ये सब नहीं बताना। नहीं तो तुम्हें फिर कहीं घुमाने नहीं ले जाउ$ंगा।" डरे सहमे सुवास ने आँखों के इशारे से बता दिया कि वह कहीं कुछ नहीं बताएगा। सचमुच उसने घर में सबसे यह बात छिपा ली, आकाश विकास से भी। कभी-कभी पेट में खलबली मचती कि वह इतनी बड़ी बात अतुल मामा के बारे में जानता है, जिसे कोई नहीं जानता।

एक दिन फिर अतुल ने ही सुवास से कहा, "सुवास, जयप्रकाश नारायण का नाम सुना है कभी स्कूल में।" सुवास ने स्मरणशक्ति पर जोर डाला और नहीं में सिर हिला दिया। अतुल थोड़ी तेज आवाज में, मानो अपने से बोला, हाँ-हाँ उनका नाम क्यों बताएंगे बच्चों को। यहाँ चोरों का राज है, हिटलरशाही है। " सुवास टुकुर-टुकुर मुँह देखता रहा। अतुल ने पाकेट से एक गुलाबछड़ी वाली मिठाई निकाली और उसे देता हुआ बोला-हमलोग उस दिन वह सब जो कर रहे थे, उसी महापुरुष की हिम्मत पर, समझा। ये न समझना कि तुम्हारा मामा कोई ग़लत काम कर रहा है।

सुवास तो मामा का परम भक्त था। वह भला सोच भी कैसे सकता था। कभी-कभी घर में अतुल से उसकी माँ पूछती कि "तू कहाँ भागा-भागा रहता है। कॉलेज, स्कूल बंद हो गए, तेरा कौन-सा कॉलेज है।"

अतुल कंधे उचकाते हुए बोल उठता, "आजकल हम सब दोस्त मिलकर पढ़ाई करते हैं-रोहन, विक्रम, दीपक मैं सभी। कंबाइंड स्टडी कहते हैं इसको, समझ में आया क्या कहते हैं" कहते-कहते अतुल मुस्कुरा उठा तो पास में खड़ा सुवास भी मुस्कुराने लगा। अतुल ने कहा, "देखो देखो मेरा भांजा समझ गया।" बेचारी माँ ने गरदन हिलाकर कहा-"हाँ वह सीएमएस स्कूल में पढ़ता है ना इसी से अंग्रेज़ी में समझ गया।"

अतुल हो-हो करते हुए बाहर की ओर भाग खड़ा हुआ।

एक शाम श्रीवास्तवजी किसी की शादी से लौटकर आए तो बताने लगे, "आजकल शादी में दहेज और मेहमानों के बुलाने पर पाबंदी लगाई जा रही है।"

सुधीर बोल पड़ा-ये सब नाटक है। एक तरफ संजय गांधी कहता है, "दहेज लेने वालों को छोड़ना नहीं है, दूसरी तरपफ लड़के वाले अब परदे के पीछे से दहेज की मांग करते हैं। हाँ कमजोर लोगों पर ही गाज गिरती है।"

श्रीवास्तवजी की पत्नी वहीं पर बैठी थी, बोलने लगी, "दहेज तक तो ठीक है, अब जिनका परिवार समाज बड़ा है वे कैसे उन्हें नहीं न्योतेंगे।" श्रीवास्तवजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ बुलाओ ना, तुम्हारा तो परिवार समाज बड़ा है, अच्छा है ना। अपने साथ उन्हें भी जेल की खिचड़ी खिलाना।"

"आप ऐसे ही कुबोल बोलते हैं, हम तो बस एक बात कह रहे थे।" उन दिनों हवा में तरह-तरह की बातें तैर रही थीं। समाज और देश के साथ बिहार ज़्यादा ही उत्तेजित था। जहाँ कुछ लोग अपनापन से मिले कि दबी जबान से ऐसी ही बातें होतीं।

एक दिन शिखा आई तो आते ही उसने सुवास को खोजा। जैसे ही सुवास दिखा उसे कहानी की किताब और टाफी का पैकेट पकड़ाकर कहा, "जा मिल बाँट कर खा ले।"

लेकिन आज सुवास शिखा मौसी के साथ एकांत में बात करना चाहता था, इसी से वहीं पर खड़ा रह गया। शिखा ने आँख के इशारे से पूछा कि क्या हुआ? सुवास ने सिर्फ़ इतना कहा, "मेरे कमरे में कब आएगी?"

शिखा हँस पड़ी, "अरे बाबा अभी तो आई हूँ ज़रा दम तो लेने दे।" सुवास धीरे से वहाँ से हट गया। शिखा आदतवश चौके में ही पीढ़े पर बैठ गई. नीरू सब्जी काट रही थी। शिखा को देखा तो नेहा चाय बनाने लगी। बातों के बीच नीरू ने शिखा को छेड़ा, "शिखा जी अब तो आप लगन कर ही लीजिए. माँ भी थोड़ी ठीक हो गई है। टीचर लोगों को पैसे भी अब अच्छे मिलते हैं।" नीरू फक्क से हँस पड़ी, "आज भाभी आपको क्या हो गया। अरे इस काली लड़की से कौन शादी करेगा?"

" ऐसा नहीं कहें क्या आप सुंदर नहीं हैं? और साँवली लड़की की भी क्या शादी नहीं होता। पिछली गली में जो जज साहब रहते हैं उनकी दूसरी बहू कितनी

साधारण है? "

"बोदी, दहेज तो उजला लेकर आई है ना। मेरे साथ तो वह भी नहीं है।" "आप तो खुद दहेज हैं और सुना नहीं सरकार कह रही है दहेज लेना और देना दोनों अपराध है।"

"अरे बोदी आप तो एकदम पॉलिटिक्स में जाइए. लेकिन सच है कि कुछ भी नहीं बदला है क्योंकि लोग नहीं बदले हैं और मेरी शादी का क्या किस्सा ले बैठीं।"

शिखा ने सामने रखी सब्जी की टोकरी में सब्जियों को चुनकर अलग करना शुरू कर दिया। तभी सुवास दौड़ता हुआ आया। नेहा ने चाय की प्याली पकड़ाई तो नीरू नेहा दोनों की ओर देखते हुए कहा कि मैं सुवास के कमरे से आ रही हूँ। नीरू भी ससुर की दवाई और चाय लेकर ससुर के कमरे की ओर गई. शिखा जब बाहर वाले कमरे में पहुँची तो चौकी पर अतुल गहरी नींद सोया था। चौकी के नीचे क्रिकेट के खेल के सामान थे। टेबल पर कागज, पुरजे, परचे भरे पड़े थे। शिखा ने उलट-पुलट कर देखा तो पढ़ाई से सम्बंधित कुछ भी नहीं था।

तब तक सुवास अपनी ड्राइंग कापी ले आया। इस बार फूल तितली और गंगाघाट का चित्रा नहीं था। इस बार डंडे थे, तख्तियाँ थी पुलिस और भागते हुए लोग थे।

शिखा ने चित्रों को उलट-पुलट कर देखा फिर बोल उठी, "ओरे बाबा इ सब क्या घंटाल करने लगा।"

"मौसी देखो मैंने अच्छा बनाया है ना?"

"अरे तू कम्यूनिस्ट हो गया।"

"मौसी किसी को बताना नहीं। मैं अतुल मामा के साथ मानिक सरकार चौक गया था नाटक देखने। वहाँ बहुत कुछ हुआ। लेकिन मामा ने मना कर दिया था कि किसी को बताना नहीं। अच्छे काम छिपाकर ही होते हैं। इसी से यह चित्रा बनाया, तुम्हें दिखाने के लिए, कैसा बना है।"

शिखा एक टक देखती रही सुवास को। बच्चों के दिमाग पर कैसी-कैसी छाप पड़ती है और यह सुवास अपने अंदर कितनी बड़ी दुनिया छिपाए हुए है। कोई होता आज, जो उसकी अंगुली पकड़कर आगे ले चलता। बीस दिन से बच्चा मेरी राह देख रहा था। लेकिन वह भी क्या कर सकती है सिवा कुछ अच्छी कहानी की किताब देने के.

उसने उस दिन कहा, "तू मुझे खोज रहा था, सुवास लेकिन यहाँ सब को अकेले ही चलना पड़ता है। विश्वकवि रवीन्द्र बाबू का गीत है," जदी तोर डाक सुने केओ ना आसे तबे एकला चलो रे। "शिखा की भर्राइ आवाज से सुवास ने क्या समझा पता नहीं, मौसी की गोद में सिर रख बोला," मैं अकेला भी चल सकता हूँ मौसी, पर आप तो मेरे साथ होंगी ना। "

शिखा सोचती रही कि कैसे-कैसे अजीब रिश्ते बन जाते हैं जीवन में। उसे सुवास की नानी ने बताया था कि जिस दिन नीरू अपने मायके गई और सुवास को पता चला कि नीरू उसकी माँ नहीं है, वह पहले से बहुत गंभीर और समझदार हो गया है। ना किसी चीज के लिए जिद करता है ना आकाश विकास से लड़ता है।

शिखा ने मन में सोचा कि कह दें, "चाची सुवास समझदार नहीं हुआ है। इसने अपना बचपना खो दिया है। वह अकेला होता जा रहा है उसे संभाल लो।" लेकिन बात को मन में घोंट दिया।

सुवास एकमात्रा अतुल के साथ रहना चाहता था। एक दिन अतुल भी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में घंटाघर के पास जुलूस और धरना प्रदर्शन करते हुए पकड़ा गया और जेल पहुँच गया। सारे घर में सन्नाटा खिंच गया। श्रीवास्तव जी ऐसे भी अतुल से खिंचे-खिंचे रहते थे। इस कांड से तो वे घर पर सभी पर बरस पड़े। लेकिन पिता का फर्ज जीवन भर नहीं चुकता, इसी से किसी तरह अपनी सारी शक्ति और स्रोत लगाकर उसे जेल से छुड़ाया, उसका नाम भी लिस्ट से कटवाया। अतुल अपने दोस्तों को वहाँ छोड़कर अपने आपको और अपने पिता को माफ नहीं कर पा रहा था। घर पर नजरबंद-सा रहता और चिड़चिड़ा हो रहा था। ऐसे में सुवास को हँसने-हँसाने वाला तरह-तरह के मजेदार खेल खेलने वाला दोस्त मामा खो गया था।

फिर भी एक वही था जो उसके पास नाश्ता लेकर जाता, पानी दे आता, गंदे कपड़ों को उसके कमरे से निकाल कर नानी के पास धुलने के लिए दे आता था। सुवास से घर की बातें जानकर शिखा ने अतुल को टोका, "अतुल अब बड़ा हो गया। कम्पटीशन की तैयारी करनी चाहिए. समय बीत जाएगा तो परेशानी होगी।"

अतुल ने लाचारी से कहा, "दीदी अब किसी चीज में मन नहीं लगता। जो नौकरी करते हैं वही कौन-सा सुखी हें। सरकार अंधी बहरी बनकर सारे ग़लत काम करती रहेगी और उनके कर्मचारी उस पर लीपापोती के लिए बाध्य होंगे।"

"इतना निगेटिव नहीं सोचते, विकास भी हो रहा है और नौकरियों की गंुजाइश भी बढ़ती जा रही है।" शिखा ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर समझाना चाहा।

तब तक सुधीर आफिस से आ गया था। मुँह हाथ धोकर बातों में शामिल हो गया, "मैं भी इससे यही कहता हूँ कि कम्पटीशन की तैयारी कर और अच्छे पोस्ट पर लग जा। मैं तो जो नौकरी हाथ लगी, हड़बड़ी में उसी में घुस गया। पर तेरे पास तो वक्त है।"

बड़े भाई को देख अतुल धीरे से खिसकने लगा। थोड़ी देर बाद सुधीर एक लंबा-सा भाषण देता और अतुल गुस्से से भर कुछ भी बक देता। शिखा ने कनखी से उसे देख, जाने का इशारा किया। वह एल आई-सी के कागजातों को लेकर आई थी, उसी को समझने लगी-मैं नॉमिनी में किसका नाम दूं भैया। माँ का नाम देना चाहा तो-दफ्तर वालों ने मना किया कि ओल्ड लेडी है, बीमार चल रही है। मैं क्या बताती कि मेरा और कोई नहीं है।

सुधीर ने कहा यह तो तुम्हें ही सोचना पड़ेगा। अंत में शिखा को याद आया कि गाँव में रहते हैं, " भोलू दा' कभी-कभी वह आते हैं, उनके लड़के का ही नाम दे देगी। वह पढ़ने में भी अच्छा है। पैसे का सदुपयोग करेगा।