जटायु के कटे पंख, खण्ड-8 / मृदुला शुक्ला

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कई दिन बीत गए थे, लेकिन सुवास बस सिमटा-सहमा बैठा रहता। उसकी पुरानी किताबें, कपड़े ओर जूते सभी उसके छोटे भाई बादल के सामानों के साथ रख दिए गए थेे। यहाँ एक अलग दुनिया थी, अलग दिनचर्या। वह मुँह हाथ धोकर आंगन में बैठा था कि सुबह-सुबह भोंपू की आवाज सुनकर, हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। बादल जोर-जोर से हँसने लगा, "भैया यह सायरन है, पूजा का शंख नहीं, जो खड़े हो गए. इसी की आवाज को सुन मजदूर अपने काम पर भागते हैं।" सुवास झेंपकर चारपाई पर बैठ गया।

सुवास को सुबह टहलने की आदत थी जो नाना ने लगा दी थी। वह जब बाहर निकलता तो सोचता कि ये कच्चे पक्के खपरैल के घर, जगह-जगह कोयले और राख के ढेर, सिर उठाओ तो उ$पर बिजली के तारों पर चलती कोयले और बालू से भरी ट्रालियां। पेड़ पौधों पर काली धूल की मोटी चादर। नानी इसी को बिना देखे कितना बढ़ा-चढ़ाकर बताती थी। वह अक्सर भोंचक्का-सा देखता रहता था। जहाँ भी बैठता, कुर्सी, मोड़ा, चौकी से उठने पर उसके पैंट के पीछे काले रंग के धब्बे बन जाते, जिसे देख बादल फिर जोर-जोर से हँसने लगता था। बादल को इन सबका अभ्यास था, इसलिये वह बिना झाड़े कहीं नहीं बैठता था। लेकिन सुवास ने यही जाना था कि बादल हँसता बहुत था। उसे याद है पिछली गरमी की छुट्टी में दो दिन के लिए भागलपुर आया था तो शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया था, वहाँ से गिर भी पड़ा था। उस समय जीभ दाँतों के नीचे आकर कट गई, जिससे खून निकल आया था। लोग घबरा गए थे, पर बादल हँसे जा रहा था। नानी चिढ़ गई थी, झल्लाकर बोली-बिना बात हँसता है, बिल्कुल अपनी माँ पर गया है। " झरिया आने के बाद सुवास सोचने लगा कि नानी ऐसा क्यों कहती है जबकि उषा मौसी तो बिल्कुल नहीं हँसती है। यहाँ तक कि बातें भी नहीं करती। उसे सामने पाकर हड़बड़ा कर किसी काम में व्यस्त हो जाती। अपने पापा और मौसी के इस तरह गुमसुम रहने से सुवास को लगता कि शायद उसी से कोई गलती हो गई है।

सुवास का एडमीशन अभी तक नहीं हुआ था। वर्मा जी ने स्कूल से एडमिशन फार्म लाकर दीवार में बने रैक पर रख दिया। न सुवास को कुछ पूछने की हिम्मत हुई न किसी ने कुछ बताया। महीने भर फार्म, टीसी, मार्क्सशीट वहीं पड़े रहे और फिर एक दिन सुवास का एडमिशन भागा के रेलवे स्कूल में करा दिया। अगले दिन वर्माजी सुवास को लेकर झरिया गए, वहीं से स्कूल ड्रेस और किताब कापी खरीदवा दिया। लौटते समय सिंह जी मिल गए. उन्होंने पूछ लिया, "इसका नाम भी तो बादल के साथ ही इम्पीरीजल स्कूल में लिखाया होगा न।" वर्माजी ने भारी आवाज में बताया कि "कोशिश की थी, लेकिन स्कूल वाले तैयार नहीं हुए कहा कि अंग्रेज़ी मीडियम में नहीं चल पायेगा। इसी से रेलवे स्कूल में एडमीशन करा दिया है।" सिंह जी ने मानो सांत्वना के सुर में कहा, "ठीक ही किया, अरे पढ़ता स्कूल थोड़े ही है, पढ़ते तो बच्चे ही हैें। फिर वे सब स्कूल अपनी फीस भी तो बहुत लेते हैं।"

वर्माजी को सिंह जी की आखिर में कही हुई बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने चोर नजर से सुवास को देखा ओर त्योरियां चढ़ाकर तेज चलने को कहा। लेकिन सुवास के मन की गाँंठों में एक और गाँठ पड़ चुकी थी। घर आते ही बादल उसकी किताबों पर टूट पड़ा। सुवास को अपनी किताबें, कापियां सहेजकर रखने की आदत थी। बादल पढ़ाई तो मन से करता, लेकिन किताबों को इधर उधर बिखराए रहता था। सुवास चाहकर भी अपने छोटे भाई को टोक नहीं पाता था। स्कूल जाते समय बादल के कपड़े, जूते, टाई, बैग सब कुछ मौसी देखती थी-एकदम फिटफाट सबकुछ-शुरू से नियम बना था। सुवास के सरकारी स्कूल में ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी, न तो अभिभावक को शिकायत भेजने का नियम था। फिर भी वह स्वयं सबकुछ सहेजकर रखता। उसे बड़ी मामी और अतुल मामा की बड़ी याद आती। मामी ही वहाँ, उसे स्कूल के लिए तैयार करती थी। अतुल मामा के नाटकों का क्या हुआ पता नहीं। वह यही सोच रहा था कि गली में वर्माजी की आवाज सुनाई पड़ी, "दूबे जी संभलकर रहिएगा, इमरजेंसी लग गई है।"

"यही कसर तो बाकी थी"-दूबे जी ने अपने दरवाजे पर खड़े-खड़े जवाव दिया।

दूबेजी की पत्नी गली में कच्चे कोयले को, पोड़ा (पकाने) लगाने के लिए जमा कर रही थी। नाक से आगे घूंघट खींच अंदर चली गई. "आफिस से जल्दी लौटना बंद हो जाएगा" हल्के फुल्के अंदाज में वर्मा जी ने चुहल की।

"अब हम क्या बदलेंगे वर्मा जी, जिस टाइम जाते हैं, जैसे आते हैं वैसे ही होगा सब।" दूबे जी ने खैनी मलते हुए कहा।

"आप ही ठीक हैं, परफैक्ट, हमलोग बेकार ही पिसते हैं?"

"आपको तो चेयरमैन मेडल देगा न बर्मा जी, इसी से आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?" निश्छल हँसी हँसते हुए दूबे जी बोले तो वर्मा जी भी हँसते हुए घर के अंदर चले आए.

दिन बीत रहे थे। आजकल आफिस के बाहर हंगामा या नारेबाजी की आवाज सुनाई नहीं देती। सुवास अपने स्कूल में धीरे-धीरे रमता जा रहा था, लेकिन घर अभी भी उसके लिए अनजाना-सा था उसे घर के बारे में कुछ भी बातें सिवा बादल के और किसी से मालूम ही नहीं होती थी, शायद उसमें भी उसका स्वभाव ही कारण बन जाता था। छोटी-छोटी बातें उसके दिमाग में आती, उत्सुकता का भी एक ज्वार उठता, लेकिन वह सबको पचा जाता था। उस दिन पढ़ते-पढ़ते पानी पीने के लिए रसोई में गया तो कच्चे कोयले का धुआं आँखों में लगा। आँखों को मलते हुए वह आंगन में आया। मौसी ने चूल्हे में कच्चा कोयला डाल दिया था ताकि शाम तक चूल्हा जलता रहे। अपनी आँखें मलता हुआ वह छोटे से बगान की ओर निकल गया, जिसकी मेंहदी की बाड़, धूल कोयले से अटी रहती थी और जिसमें जाने का मतलब भूत बनकर लौटना होता था। फिर भी सुवास अक्सर उस खुली जगह में चला जाता था। इस समय वह सोचने लगा कि भागलपुर में नानी कोयले का हिसाब लगाती रहती कि इस महीने, चार से पाँच मन कोयला जल गया और यहाँ तो चूल्हे में दिन-रात कोयला जलता रहता है, एक तिली या थोड़ा-सा किरासन तेल बचाने के लिए. अभी सुवास बहुत बड़ा नहीं हुआ था पर उसे दोनों घर की तुलना करने पर यह समझ में आता था कि यह तो कोयले की बर्बादी है। बादल उसकी बात पर हँस देता था, "अरे भैया हमलोग ही तो यहाँ कोयला निकालते हैं तो इसको जलाएँगे क्यों नहीं। नानाजी की तरह पैसे देकर थोड़े ही खरीदते हैं, यह तो हमें मुफ्त मिलता है।"

बगान में खड़ा-खड़ा सुवास सोचने लगा बादल भी ठीक ही कहता है। कोयले के कोई दाम तो देने नहीं पड़ते हैं। बिजली के मीटर भी नहीं लगे हैं। चारो तरफ दिन में भी बल्ब जले रहते, पंखे चलते रहते। सुवास धीरे-धीरे उसी सब में ढल रहा था, ताकि लोग उसे नया न समझे।

सर्दियों के दिन आ गए थे। मौसी चूल्हे के पास रोटी सेंक रही थी। बादल ओर वर्षा वहीं पर बैठकर आग ताप रहे थे। बादल को सुबह जल्दी स्कूल जाना होता, इसलिए वह जल्दी सोता था। सुवास देर तक पढ़ता था। उस शाम भी वह पढ़ रहा था। ठंड के कारण उसकी भी इच्छा हो रही थी चूल्हे के पास जाकर बैठे। लेकिन अंदर एक झिझक थी, इसी से बैठा रहा। मौसी ने कटोरी में सब्जी डाली और थाली में रोटी डालते हुए बिना उसका नाम लिए धीमी आवाज में कहा, "आकर खाना खा लो।"

सुवास ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह दूसरी बार पुकारने का इंतजार कर रहा था, तब तक मौसी ने खाने की थाली बादल के हाथ से भिजवा दी। सुवास को अंदर से तकलीफ हुई. मौसी ने न तो जोर से पुकारा था न ही उसका नाम लिया था। शायद मौसी चाहती ही नहीं कि वह बादल और वर्षा के बीच बैठकर खाए. बादल को खाना लाते देख, बर्मा जी जो अपने कमरे से निकल खाने के लिए ही आ रहे थे उखड़ गए. सुवास को झिड़की देते हुए कहा, "पढ़ाई लिखाई तो क्या करते हो राम जाने, लेकिन खाने के लिए पुकारने पर भी नहीं जाते, क्या खुशामद करना होगा सबको।"

सुवास हतप्रभ-सा खड़ा हो गया। वह कहना चाहता था कि वह जा ही रहा था तब तक मौसी ने थाली भिजवा दी, लेकिन वर्मा जी ने हाथ के इशारे से मना कर दिया। उसे फिर से खंजरपुर वाला नाना का घर याद आने लगा, जहाँ खाने के समय अतुल मामा की वजह से धमाचौकड़ी मची रहती, सभी की प्लेट से वे कुछ न कुछ उठा लिया करते और नानी हरदम सोचती कि सुवास कुछ खाता ही नहीं है। यहाँ तो सबकुछ ठंडा है, इसी से अच्छा भोजन भी उसे बेस्वाद लगता। उसने खाना शुरू किया तो गली में कुछ चिल्लाने रोने की आवाज आई. वर्माजी आंगन वाले दरवाजे के पास खड़े हो गए. पीताम्बर, केशव, नौरंगी सभी दौड़ते हुए आफिस की ओर भाग रहे थे। वर्मा जी ने केशव को रोका तो बोला तीन नंबर गेट के पास वाला चॉल धंस गया है, मजदूर फँसे हैं। अफरातफरी मची हुई थी। सुवास भी चादर वगैरह ओढ़ कर बाहर खड़ा हो गया। उसे पता था मौसी उसे कुछ रोकेगी, टोकेगी नहीं और पापा स्वयं आफिस के पास सेक्यूरिटी वाले के पास गए हैं। आज ही बारिश थमी थी। सरदियों की बारिश में गीली दीवार भहराकर गिर गई थी। मजदूर इस समय बाहर आग जलाकर ताप रहे थे, दो मजदूर को हल्की चोट आई थी। सुवास घर लौट आया। बादल सोते समय ढेर-सी बातें करता था, "भैया पता है जिस पर हम चल रहे हैं वहाँ भी कोयला भरा है।" सुवास ने हाँ में सिर हिला दिया। बादल ने फिर कुछ कहना चाहा तो सुवास ने इशारे से मुँह पर अंगुली रखकर उसे चुप रहने को कहा। सुवास का मन भारी था, वह सोने की कोशिश करता रहा।

सुबह सुवास स्कूल की किताबें बैग में रख रहा था। बादल के स्कूल में छुट्टी थी, मौसी नहाने गई थी, तभी वर्षा दोनों हाथों से एक बड़े से कटोरे को पकड़े आंगन में उतरने लगी। संतुलन नहीं बना पाने के कारण वह धड़ाम से गिर पड़ी। सुवास कमरे से दौड़ा, बादल आंगन में ही था, उसे बस हँसी आ गई. सुवास को बादल की यह आदत सही नहीं लगती, खुद गिरे या कोई और उसकी हँसी रुकती ही नहीं। वह छोटी-सी वर्षा को उठाकर चौकी पर लाया। उसके ओंठ सूज गए थे। वह डर भी गई थी, इसी से चुप नहीं हो रही थी। सुवास रुआँसा होकर उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा, बादल तब तक पास आकर खड़ा हो गया। मौसी जब नहाकर आई, उसने टेढ़ी नजर से बादल को देखा और उसके सिर पर चपत लगाकर कहा, "इतना बड़ा हो गया, बहन को थोड़ी देर संभाल नहीं सकता।" मौसी ने सुवास की गोदी से वर्षा को ले लिया, सुवास बिल्कुल काठ की तरह खड़ा रहा। उसे लगा कि मौसी ने उसे कुछ न कहकर मानो यह जताया कि वह तो कुछ है ही नहीं और उधर बादल उसके पास आकर बोलने लगा, "सब उसे ही मारते हैं, आप भी तो थे वहाँ पर लेकिन आपको तो कोई कुछ कहता ही नहीं। मैं बड़ा था कि आप, बोलिए." सुवास एकदम देखता रहा बादल को। सच! बादल, माँ की मार कैसी होती है, मेरे जैसा अभागा कैसे जान पायेगा। वह कुछ नहीं बोला बस अपनी किताबें समेटता हुआ स्कूल की तैयारी करता रहा।

स्कूल में आज उसके निबंध को सराहा गया। गंभीर प्रवृत्ति और अच्छी भाषा के कारण क्लास टीचर उसकी प्रशंसा करते थे। आज उसे एक पहचान मिली थी क्योंकि सभी सेक्शन में उसका निबंध प्रथम आया। वार्षिक परीक्षा करीब थी। सुवास ने निश्चय किया कि घर की चिंता छोड़ वह पढ़ाई में ध्यान लगाएगा ताकि जीवन में कुछ बन सके. उसका कोई नहीं है, लेकिन स्कूल में टीचर है, कुछ दोस्त है और यहाँ उसकी एक पहचान भी है।

शाम को खेलकर घर लौटा तो मन बना चुका था कि न बादल से न वर्षा से वह कोई संपर्क रखेगा। मौसी जैसा चाहती है वैसा ही होगा। मौसी नींद में सोई थी। वह घर के अंदर आया। घर में सन्नाटा पसरा था। वर्षा दोनों भाइयों को कमरे में न पाकर उसकी सारी किताबें, बैग से निकाल किताब छितरा कर बैठी थी। उसने सुवास की कलम की नींव तोड़कर कुछ लिखा था और पेन की स्याही उसके पूरे मुँह में फैली हुई थी। बादल दोस्त के यहाँ से प्रोजेक्ट पेपर तैयार कर लौटा तो बाहर स्थिर खड़े सुवास को देख माथा ठोका। कापियां फटी थीं, किताबें मुचड़ी हुई और वर्षा का चेहरा चित्तकबरा बना हुआ था। बादल ने थोड़ी खीज से भर कर वर्षा को उठाया और उ$पर के रैक पर बिठा दिया। वर्षा समझ चुकी थी कि उसने गलती की है, इसी से चुप थी। बादल ने अपने स्केल को वर्षा की ठुड्डी से लगाया और सुवास की ओर देखकर बोला, "भैया मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए."

सुवास इस दृश्य को भौंचक होकर देख रहा था। बादल ने बहन की ओर देखते हुए, "सत्यानाश कर दिया तूने।" मसखरी सूझी तो फिर बोल पड़ा, "कितने आदमी थे?"

नन्ही वर्षा डायलाग सुन सुनकर रट चुकी थी। उसने ओठ विसूरते हुए कहा, "सरदार तीन"

अब सुवास से रहा न गया। उसने झट रैक के उ$पर, दंड के तौर पर बैठाई गई नन्हीं वर्षा को उतारा और कलेजे से लगा लिया, "क्या कर रहे हो बादल, यह डर गई है और तू भी गब्बर सिंह बनना छोड़।" वर्षा सुवास से चिपट, मानो निर्भय हो गई. बादल ने अपनी किताबें और सुवास के सामानों को समेटना शुरू किया। दोनों भाइयों में यह अघोषित समझौता हुआ कि वर्षा की शिकायत आगे नहीं जाएगी। उस रात सुवास लेटा तो दोनों भाई बहन की नाटकीयता की याद कर मुस्कुरा पड़ा। दिन में लिया गया संकल्प ढह गया और बालमन अपनों का सान्निध्य पा मानो स्वाभाविक हो गया।