जटिल समस्याओं के सरल नुस्खे / जयप्रकाश चौकसे

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जटिल समस्याओं के सरल नुस्खे
प्रकाशन तिथि : 04 दिसम्बर 2013


एक विज्ञापन फिल्म में युवक युवती से प्रेमी की तरह आग्रह कर रहा है कि वह कल भी उसे बस स्टॉप पर मिलने का वादा करे और वह युवती के पीछे-पीछे उसके घर चला गया तथा युवती भी उससे लौटने का आग्रह कर रही है कि घर में माता-पिता हैं। सीढिय़ां चढ़कर युवती दरवाजे पर दस्तक देती है और एक स्त्री दरवाजा खोलकर कहती है कि बहू आज देर कर दी, तब युवक अपनी मां से कुछ कहता है गोयाकि ये युवा लोग विवाहित हैं परंतु अविवाहित प्रेमियों की तरह बातें कर रहे थे। संदेश स्पष्ट है कि विवाहित जीवन में तरह-तरह की भूमिकाएं करके प्रेम को जीवित और रोचक बनाए रखना होता है। सभी रिश्तों में नई ऊर्जा का संचार करने पर ही वे बने रहते हैं। दरअसल किसी भी रिश्ते का निर्वाह उसके लिए स्थापित तौर तरीकों से परे जाकर करना होता है। सिनेमा की तरह जीवन में भी कोई निश्चित कार्यक्रम या फॉर्मूला नहीं है। फिल्म इतिहास में अधिकांश सफलतम फिल्में लीक से हटकर बनी हैं। दरअसल पूर्व परिभाषित दोहराव से बचना चाहिए। यह धारणा भी गलत है कि कलाकार ही सृजन करते हैं, आम आदमी रोजमर्रा के जीवन में सृजन का काम कर सकता है। रिश्तों में ऊर्जा बनाए रखना और अपने जीवन को निरंतर मनोरंजक बनाए रखना भी सृजन का ही काम है। गंभीरता ओढ़कर भारी भरकम श?दों से बोझिल बनाकर कही गई बातें दर्शनशास्त्र नहीं है, जीवन में आनंद लेना और दूसरों को देना भी सृजन जैसा ही कार्य है। ऋषिकेश मुखर्जी की 'आनंद' में कैंसर पीडि़त नायक अपने इर्द-गिर्द के परायों को अपना बनाता है और चरित्र भूमिका में जॉनी वॉकर भी यही काम करते हैं।

प्राय: मध्यम वर्ग के परिवार में रात के बचे हुए भोजन को सुबह मिश्रित करके तड़का लगा देते हैं और उसी बचे हुए खाने में नया स्वाद आ जाता है। जो प्रक्रिया हम भोजन के साथ करते हैं, उसी प्रक्रिया का उपयोग रिश्तों नातों में क्यों नहीं करते? विदेशों के सारे भोजन भारत में हमारा अपना तड़का लगाकर बेचे जाते है। जो चायनीज हम भारत में खाते हैं, वह चीन के लोग पहचान भी नहीं पाएंगे। यही हमारी अपनी पाक विद्या की कल्पनाशीलता हमें रिश्तों में भी प्रयोग करनी चाहिए। कल्पना का अभाव ही रिश्तों को बोझ बना देता है।

राजनीति के पुराने बर्तनों की कलई खुल गई है। व्यक्ति राष्ट्र से अपने रिश्ते में नई ऊर्जा क्यों नहीं भरता। शरीर में व्याधियों के उपचार में भी कुछ नया करने का प्रयास किया जाता है। यह कितने आश्चर्य की बात हैं कि एक हाथ से खून निकाल कर उसी खून को पुन: शरीर में प्रवाहित करने की विधि से भी रोग ठीक हो जाते हैं। सामान्य तर्क से यह बात हजम नहीं होती परंतु प्रयोग की सफलता कुछ और कहती है। खाली कैप्सूल में शक्कर भरकर खिलाए जाने पर भी रोगी को लाभ हो जाता है- इसे प्लेसेबू कहते हैं। फिल्म 'शायद' में लाइलाज रोग से पीडि़त नसीरुद्दीन शाह खाली कैप्सूल में साइकिल का घर्रा डालता है तो कैप्सूल हथेली पर खड़ा हो जाता है और मांसपेशियों की हरकत पर नृत्य सा करता दिखता है जिसे देखकर उसकी बेटी हंसती है और बेटी की प्रसन्नता उसे भी रोग से मुक्त होने का भरम देती है। इस तरह क्ल्पनाशीलता रोग के दंश को कम कर देती है।

दरअसल मनुष्य के शरीर में ही किसी एक अंग में उसकी आध्यात्मिकता की कुंजी है। चार्ली चैपलिन की 'डिक्टेटर' में हिटलर की हंसोढ़ छवि देखकर पूरा पश्चिम हिटलर के आतंक से मुक्ति महसूस करता है। आरके लक्ष्मण के कार्टून ने अनगिनत लोगों के जीवन में रंग भरा है। पीजी वुडहाऊस को मेडिकल विश्वविद्यालय द्वारा मानद डॉक्टरेट दी जानी चाहिए थी। आज जीवन की आपाधापी में हम सरल नुस्खों को आजमाना भूल गए हैं। अजवाइन से भरी पोटली की सेक से दर्द भाग जाता है। पत्नी को प्रेम-पत्र लिखना अब दकियानूसी माना जाता है परंतु कल्पनाशीलता को प्रकट करने का यह नायाब तरीका है। पत्नी को प्रेयसी की तरह स्वीकार करने से जीवन की उम्र कम हो जाती है।