जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यों हकलाऊँ / अरुण होता

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समकालीन हिंदी कविता की प्रगतिशील धारा सर्वाधिक सक्रिय है। धूमिल, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ, मुक्तिबोध, सर्वेश्वर, रघुवीर, मलयज, लीलाधर जगूड़ी, भगवत रावत, चंद्रकांत देवताले, राजेश जोशी, विष्णु खरे, उदय प्रकाश, नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल, संजय चतुर्वेदी, स्वप्निल श्रीवास्तव आदि अनेकानेक कवियों ने प्रगतिशील यथार्थ की धारा को विकसित किया, सदानीरा बनाया। आलोच्य धारा में नागार्जुन स्वनामधन्य हैं। वे सच्चे अर्थों में जनकवि हैं। अर्थात वे जनता के, जनता के लिए एवं जनता के दुख-दर्द तथा उसकी संवेदनाओं के कवि हैं।

नागार्जुन प्रगतिशील कवि हैं। साहित्य में प्रगतिशील शब्द का प्रयोग 1936 ई. के आसपास हुआ। यह प्रयोग हिंदी में ही नहीं पूरे भारतीय साहित्य में मिलता है। स्वतंत्रता के प्राक्-काल में प्रगतिशीलता मार्क्सवाद के इर्द-गिर्द घूम रही थी। परंतु आज की प्रगतिशीलता मार्क्सवाद को अपने भीतर समाहित करते हुए संसार की बहुआयामी विचारधाराओं से भरपूर है। प्रगतिशीलता मूल्यों में सन्निहित है, निरंतर उन्नत परिवर्तनशीलता का सूचक है। यह जड़ता से मुक्ति का प्रदाता है। उन्नत तथा विकसित मान्यताओं की स्थापना इसका उद्देश्य है। यथार्थवाद ही इसका पूरा कलेवर है। आशय है कि प्रगतिशीलता यथार्थ की सच्ची अभिव्यक्ति है।

मार्क्स के अनुसार साहित्य एवं जीवन अन्योन्याश्रित है। अभिन्न भी। जीवन में साहित्य की एवं साहित्य में जीवन की सुंदर प्रतिच्छवि है। जीवन-प्रसूत साहित्य ही जीवन को प्रभावित करने में समर्थ होता है। इस दृष्टि से प्रगतिशील साहित्य राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गहरे रूप से संबंधित है। राष्ट्र की भावना को राष्ट्र तक सीमित करना ही प्रगतिशील साहित्य का उद्देश्य नहीं है। यह उसे राष्ट्र की भौगोलिक सीमा को पार करता है। प्रगतिशील साहित्य के इसी उद्देश्य के कारण हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यों में प्रगतिशील आंदोलन का प्रभाव पाया जाता है। विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर को प्रगतिशील लेखक संघ के दूसरे अधिवेशन (1938) में अध्यक्षता करनी थी। अस्वस्थता के कारण वे अध्यक्षता नहीं कर पाए। परंतु इस अवसर पर उन्होंने जो लिखा था वह प्रगतिशीलता की अवधारणा को स्पष्ट करता है - जो कुछ भी हमें परमुखापेक्षी, निष्क्रिय और तर्कहीन बनाता है, वह सभी हमारे लिए प्रतिक्रियात्मक है और जो भी हममें आलोचनात्मक प्रवृत्ति जगाता है, बुद्धि और तर्क के प्रकाश में संस्थाओं और परंपराओं की समीक्षा करता है, जो भी हमें सक्रिय बनाता है, परस्पर संगठित करता है, हमें बदलकर समुन्नत करता है, उन सबको प्रगतिशील मानते हैं।

प्रगतिशीलता एक प्रवृत्ति है जो व्यक्ति को यथार्थ सत्य की ओर आकृष्ट करती हैं। यह सकारात्मक प्रतिबद्धता का भी पर्याय है। प्रगतिशीलता प्रतिगामी दृष्टि को अग्रगामी बनाती है। प्रगतिशीलता में जीने वाला रचनाकार आत्म-विश्लेषण करता है और आत्मानुशीलन से अपने समय तथा समाज के सत्य को उद्घाटित करता है। इस अर्थ में प्रगतिशील साहित्य नारेबाजी का साहित्य न होकर जनता का साहित्य बन जाता है। यह जनाकांक्षाओं को वाणी प्रदान करता है। इसमें जीवन यथार्थ की ही अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उसके रूपांतरण की इच्छा भी मौजूद रहती है। आम आदमी को शोषित एवं उत्पीड़ित जीवन जीने के लिए विवश करने वाले विचारों एवं संगठनों का विरोध करता है। यह उदार एवं मानवीय भावनाओं से संपुष्ट होता है।

प्रगतिशीलता की उपर्युक्त अवधारणा से नागार्जुन की कविता की अर्थवत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है। नागार्जुन ने कविता लिखी। साधारण जन के लिए कविता लिखी। समाज तथा देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठ एवं जागरूक कवि नागार्जुन ने अपनी कविता में सर्वहारा वर्ग के संघर्ष को चित्रित किया है। मजदूर वर्ग की आवाज को बुलंद किया है। देश की असहाय अवस्था से दुखी होकर अपना आक्रोश व्यक्त किया। नेताओं की करनी और कथनी में जमीन-आसमान का अंतर देखकर वे मर्माहत हुए। उन्होंने कभी तत्कालीन अव्यवस्था पर कुठाराघात किया तो कभी सामाजिक-अर्थनीतिक असमानता पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने 'आँखिन देखी' को ही अपनी रचना का आधार नहीं बनाया बल्कि गंध रूप रस शब्द स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर जी-भर भोगने के पश्चात अपनी रचनाशीलता का साक्षात्कार करवाया तथा मानसिक धरातल पर जुड़े रहे। इस संदर्भ में अजय तिवारी की मान्यता है - 'नागार्जुन का सचेत और अचेत भावबोध जनता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है। स्वभावतः जनता के जीवन को कष्टमय और कलहपूर्ण बनाने वाली प्रत्येक वस्तु नागार्जुन की घृणा का पात्र है। उनकी यह घृणा कितनी प्रचंड है, इसे समझना कठिन नहीं है।' बाबा नागार्जुन के इस अभिन्न जुड़ाव के कारण उनकी विशिष्टता बनी रही जबकि उनके समकालीन कवि पैंतरे बदलने में पीछे नहीं थे। नेमिचंद जैन, भारतभूषण अग्रवाल बार-बार अपना स्टैंड बदलते रहे।

नागार्जुन जीवन की संपूर्णता के कवि हैं। प्रकृति, मनुष्य, सचर-अचर, सृष्टि, जीवन, मृत्यु, प्रकाश, तिमिर, विधि, निषेध, पाप, पुण्य, यश, कलंक आदि से कवि की संबद्धता है। बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त के साथ-साथ समाज के अंधों-बधिरों को सन्मार्ग दिखलाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता है। प्रेम, उल्लास, अपनापन आदि के प्रति कवि की आबद्धता है। वास्तव में प्रतिबद्धता, संबद्धता, आबद्धता जीवन को महत्तर उद्देश्य की ओर उन्मुख करती है। इन्हें जीवन से अलग करके देखा नहीं जा सकता है। पुनः नागार्जुन की विपुल काव्यभूमि में अनुभवों का प्राचुर्य है। जीवनानुभूति से परिपूर्ण है। प्रकृति एवं मनुष्य के साथ-साथ पशु-जगत के प्रति भी कवि की व्यक्त संवेदना संपूर्ण जीवन की प्रतीति कराती है। अरुण कमल ने कहा भी है - 'नागार्जुन न तो सिर्फ व्यंग्यकार हैं, न सिर्फ राजनीतिक कवि, न सिर्फ बादलों के कवि। नागार्जुन संपूर्ण जीवन के कवि हैं।'

नागार्जुन की कविता जीवित कविता का निदर्शन है। सामान्य जन से जुड़े सवालों के प्रति उन्होंने गहरी वचनबद्धता दिखाई है। निराला की कविता 'कुकुरमुत्ता' में कुकुरमुत्ता का सर्वाधिक मन रमता है -

नाचता है सूदखोर जहाँ कहीं व्याज डुचता

नाच मेरा क्लाइमेक्स को पहुँचता।

ठीक इसी तरह नागार्जुन का कवि-मन समाज की उपेक्षित, अछूती वस्तुओं की गहराई में पहुँचता है और संवेदना का सोता प्रवाहित करता है। इस कार्य में नागार्जुन का कवि-मन सर्वाधिक विरमता है। नामवर सिंह ने कहा भी है - 'नागार्जुन की यही कल्पना रिक्शा खींचने वाले, फटी बिवाइयों वाले, गुट्ठल घट्ठो वाले, कुलिश कठोर खुरदुरे पैरों के चित्र भी आँकती है और उसकी पीठ पर फटी बनियाइन के नीचे क्षार-अम्ल विगलनकारी, दाहक पसीने का गुणधर्म, भी बतलाती है। मनुष्य के ये रूप हैं जो नागार्जुन न होते तो हिंदी कविता में शायद ही आ पाते।'

नागार्जुन जनता के कवि हैं। जनता के प्रति उनकी संवेदना का स्वर सदा मुखरित हुआ है। उन्होंने अपने जीवन संघर्ष से जनता के जीवन-संघर्ष को केंद्रीभूत किया। जनता के मनोभावों एवं उसकी आकांक्षाओं को मूर्त करने का प्रयास किया। वे केवल जनता के बीच नहीं गए बल्कि उन्होंने उसे अपना बनाया। तादात्म्य स्थापित किया। इसलिए उनकी कविता जनता से प्रत्यक्ष रागात्मक संबंध स्थापित करने में सफल होती है। वास्तव में जनता का विश्वास अर्जित करने के लिए जनता का होना जरूरी है। जनता के बीच जाकर कविता करना आवश्यक है। नागार्जुन ने 'अन्न पचीसी के दोहे' (1974) में लिखा है -

'कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ

बंदा क्या घबराएगा, जनता देगी साथ

छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट

मिल सकती कैसे भला, अन्न चोर को छूट।'

नागार्जुन ने जहाँ कहीं अन्याय देखा, जन-विरोधी चरित्र की छ्द्मलीला देखी, उन सबका जमकर विरोध किया उन पर तीव्र प्रहार किया। पश्चिम बंगाल की राजनीति में सत्तर के दशक में हो रही सरकारी तांडवलीला से परिचित कराते हुए उन्होंने 1966 ई. में 'शासन की बंदूक' शीर्षक कविता लिखी। तत्कालीन राजनीति का मुखौटा उघाड़ते हुए बेबाक टिप्पणी प्रस्तुत करने में कवि नहीं चूकता -

'सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक

जहाँ-तहाँ दगने लगी, शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक

बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक।'

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जनता को रामराज्य का सपना दिखाया गया था। राजनीतिक आजादी मिल गई। रामराज्य के सपने स्वप्न बने रहे। फलस्वरूप भारतीयों को हताशा एवं निराशा का सामना करना पड़ा। भारतीय जन-जीवन में जीने वाले कवि नागार्जुन ने भी इसे हृद्बोध किया। निराला ने नेहरू पर कविता लिखी थी, व्यंग्यात्मक शैली में। पर नागार्जुन ने नेहरू पर जिस चुटीले अंदाज में कविता लिखी वह अन्यत्र दुर्लभ है। ब्रिटेन की महारानी के भारत आगमन को नागार्जुन ने देश का अपमान समझा और लिखा -

'आओ रानी हम ढोएँगे पालकी

यही हुई है राय जवाहरलाल की

रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की

यही हुई है राय जवाहरलाल की।'

नागार्जुन ने ब्रिटेन तथा अमेरिका जैसी महाशक्तियों का विरोध उस समय निर्द्वंद्व भाव से किया है जब देश के कर्णधार एवं तथाकथित बुद्धिजीवी आशाभरी नजर से 'प्ले बॉयज' की भूमिका अदा करते थे। नागार्जुन के इस विरोध तथा व्यंग्यात्मक भाव ने हिंदी कविता को नई गति दी। उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद पर करारा प्रहार करते हुए लिखा है -

'जाओ, भस्मासुरी नृत्य का कहीं और ही करो रिहर्सल।'

नेशनल इमरजेंसी के दौर में कवि ने इंदिरा गांधी की आपातकालीन घोषणा की तीव्र निंदा की, स्वैराचार का विरोध किया। इंदिरा जी को बाघिन कहने में उन्हें कोई हिचक न हुई। नागार्जुन के शब्दों में -

'इंदु जी, इंदुजी

क्या हुआ आपको?

बेटे को तार दिया

बोर दिया बाप को।'

और इसके पश्चात् कवि नागार्जुन ने व्यंग्य रूपी हथियार को धार देते हुए कहा है -

'देवी, अब तो कटें बंधन पाप के

लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके।'

स्पष्ट है कि नागार्जुन की इन कविताओं में संघर्ष एवं विद्रोह है। परंतु जनता की विजय-भावना के प्रति कवि की दृढ़ आस्था भी है। जनशक्ति के प्रति उनका अगाध विश्वास है। इसलिए अराजक व्यवस्था पर वे पूरी शक्ति से निर्मम प्रहार करते रहे। नामवर सिंह के अनुसार - 'इस प्रहार में धार वहाँ आती है जहाँ आवेश संयत होकर व्यंग्य का रूप लेता है और कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन बन जाती है।'

नागार्जुन ने अपने समय की राजनीति के द्वंद्व एवं विद्रूप को उभारने का सफल प्रयास किया है। दिल्ली से टिकट मार के लौटने वाले एम.एल.ए. या एम.पी. के अभ्यर्थी प्रसन्नचित हैं। उनके हथकंडों पर विद्रूप करते हुए नागार्जुन 'आए दिन बहार के' (1966) शीर्षक कविता में कहते हैं -

'सपने दिखे कार के

गगन-विहार के

सीखेंगे नखरे, समुंदर-पार के

लौटे टिकट मार के

आए दिन बहार के।'

इसी प्रकार 'मंत्र' शीर्षक लंबी कविता में राजनीतिक पक्षों में विद्यमान विद्रूप एवं वीभत्सता का जो यथार्थ प्रस्तुत है, 'कर दो वमन' में आर्थिक विषमता पर जो व्यंग्य है उसके मूल में कवि की आम जनता से घनिष्ठता ही है। जन-जन में ऊर्जा भर देने के लिए कटिबद्ध कवि ने अपना परिचय देते हुए कहा है -

'प्रतिहिंसा ही स्थायीभाव है मेरे कवि का

जन-जन में जो ऊर्जा भर दे, मैं उदगाता हूँ कवि का।'

नागार्जुन सामाजिक समस्याओं के प्रति सचेष्ट दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने जीवन और कविता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाया है। सामाजिक यथार्थ के प्रति सजग एवं संवेदनशील बने रहना कवि नागार्जुन की कविता की आत्मा है। 'हरिजन गाथा' शीर्षक कविता में बेलछी नरसंहार को आधार बनाया गया है। हरिजनों पर पाशविक अत्याचार की पृष्ठभूमि में रचित उक्त कविता में गर्भकुक्षियों के अंदर भ्रूण तक को सहन करने पड़े जुल्म का मार्मिक चित्रण है। साथ ही, श्याम सलोने शिशु के हाथों में बरछा-भाला-बम इत्यादि के निशान लेकर जन्म-ग्रहण करने का चित्रण गोधरा काण्ड की नृशंसता एवं वीभत्सता को तरोताजा कर देता है-

'आड़ी-तिरछी रेखाओं में

हथियारों के ही निशान हैं

खुखरी है, बम है, असि भी है

गंडासा-भाला प्रधान है।'

नागार्जुन ने आर्थिक समानता पर आधारित समाज का सपना देखा था, ऐसे समाज की स्थापना उनकी प्रमुख चिंता थी। इस चिंता का समाधान उनकी दृष्टि में लाल रंग में था। इसलिए उन्होंने लाल रंग का सहारा लिया। क्रांति की पक्षधरता का परिचय प्रदान किया। तेलंगाना, नक्सलबाड़ी या भोजपुर ने इन्हें अपनी ओर खींचा। कवि ने भोजपुर (1981) कविता में मिट्टी यानी यथार्थ का गुणगान किया है -

'चमत्कार है इस माटी में

आओ, आओ, आओ, आओ

तुम भी आओ, तुम भी आओ

देखो, जनकवि, भाग न जाओ

तुम्हें कसम है इस माटी की

इस माटी की। इस माटी की। इस माटी की।'

एक ओर आर्थिक असमानता से उत्पन्न हाहाकार तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार, अविश्वास से भरपूर साम्राज्य का साक्षात्कार करने के पश्चात कवि मर्माहत हो उठता है। ईमानदारी को दफनाकर लोग भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं -

'नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल

बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल

नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल

सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल

अंदर टँगे पड़े गांधी तिलक-जवाहरलाल'

प्रगतिशील कवि नागार्जुन ने धार्मिक बाह्याचार, ढोंग, पाखंड, अंधविश्वासों, पुरानी मान्यताओं, दकियानूसी विचारों, जर्जर, रूढ़ियों एवं गलित परंपराओं पर गुरु हथौड़ा से प्रहार किया है। 'प्यासी पथराई आँखें' काव्य-संकलन की 'काली माई' कविता में कवि की व्यंग्योक्ति है -

'कितना खून पिया है, जाती नहीं खुमारी

सुर्ख और लंबी है मइया जीभ तुम्हारी।'

'पुनः कल्पना के पुत्र हे भगवान में' कवि ने अपनी प्रगतिशीलता का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए भगवान को मानव-कल्पना प्रसूत बताया है। कवि के शब्दों में -

'परिधि यह संकीर्ण, इसमें ले न सकते साँस

गले को जकड़े हुए हैं यम-नियम के फाँस

- पुराने आचार और विचार

गगन में नीहारिकाओं को न करने दे अभिसार।'

सन 1975 ई. में विरचित 'थकित-चकित-भ्रमित-भग्नमन' कविता में बाबा नागार्जुन ने सदियों से चली आ रही मठाधीशों की जड़ता की खिल्ली उड़ाई है। धर्मभीरु जनता को सत्य का साक्षात्कार कराकर उसे जागरूक बनाने का प्रयास किया है -

'धर्म भीरु पारंपरिक जन-समुदायों की

बूँद-बूँद संचित श्रद्धा के सौ-सौ भाँड़

जमा है, जमा होते रहेंगे

मठों के अंदर...

तो क्या मुझे भी बुढ़ापे में पुष्टई के लिए

वापस नहीं जाना है किसी मठ के अंदर।'

प्रगतिशील नागार्जुन की कविता में देश-प्रेम की भावना विशेषोन्मुखी है। कवि ने अपनी जन्मभूमि तरउनी ग्राम के प्रति प्रेम-भाव दिखाया है। अपने गाँव से दूर रहकर कवि को स्मरण होता है -

याद आता मुझे अपना वह तरउनी ग्राम

याद आती लीचियाँ औ आम

याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग

याद आते धान

याद आते कमल, कुमुदिनी और ताल मखान

याद आते शस्यश्यामल जनपदों के

रूप-गुण-अनुसार ही रखे गए वे नाम

याद आते वेणु-वन के नीलिमा के निलय अति अभिराम।

प्रगतिशील कवि नागार्जुन ने 'वह तुम थी', 'सिंदूर तिलकित भाल' जैसी कविताओं में राबर्ट ब्राउनिंग अथवा निराला की तरह पत्नी को प्रेयसी के रूप में चित्रित किया है। निराला ने पुत्री-प्रेम पर आधारित 'सरोजस्मृति' शीर्षक कविता लिखी तो नागार्जुन ने उसे आगे बढ़ाते हुए निम्नवर्ग में विद्यमान सौंदर्य चेतना को रूपायित किया है। 'गुलाबी चूड़ियाँ' ऐसी कविता है। नागार्जुन ने प्रगतिशील सौंदर्यशास्त्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। कथन की पुष्टि के लिए खुरदुरे पैर की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

'देर तक टकराए

उस दिन इन आँखों से वे पैर

भूल नहीं पाऊँगा फटी बिवाइयाँ

खुब गई दूधिया निगाहों में

धँस गई कुसुम-कोमल मन में।'

जीवन की संपूर्णता के कवि नागार्जुन ने प्रगतिशील काव्यधारा में युगांतकारी भूमिका अदा की। कबीर और निराला के पश्चात नागार्जुन ही ऐसे कवि हैं जिन्होंने कभी भी गिड़गिड़ाना नहीं सीखा। टूट भले जायें पर झुकना नहीं सीखा। लंबे जीवन-संघर्ष के पश्चात् जीवन का मूलमंत्र प्राप्त किया। 'कवि हूँ पीछे, पहले तो मैं मानव हूँ' - को आप्त वाय माना, सत्ता का क्रूर खेल हो, पूँजीपति की शोषणकारी लीलाएँ अथवा धर्म के ध्वजाधारियों की स्वार्थपरता इन तमाम विषयों पर नागार्जुन ने व्यंग्यवाण छोड़े, गर्जन किया। नागार्जुन अपने कवि-जीवन के प्रारंभ से अंत तक जनता से जुड़े रहे, जनता के बनकर रहे और जनता के लिए कविता लिखते रहे। वे आजीवन जनशक्ति के उपासक रहे। मानववादी संवेदना को अपनी कविता के माध्यम से सींचते रहे। कवि की भूमिका का निर्वहन करते हुए उन्होंने जो 1965 ई. में कहा था उसे मानों आज भी साकार कर रहे हों -

'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ

जनकवि हूँ, मैं साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ'