जनजीवन और आधुनिक मैथिली कविता / देवशंकर नवीन

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सन् 1949 को मैथिली साहित्य के इतिहास में एक नया प्राण फूँकने वाला वर्ष माना जाएगा। वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' की मैथिली कविताओं का संकलन चित्र का प्रकाशन इसी वर्ष हुआ। 'यात्री' ही हिन्दी में 'नागार्जुन' हैं। चित्र की कविताएँ संकलित होने से पूर्व ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती आ रही थीं। इस पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व हिन्दी के तारसप्तक का प्रकाशन हो चुका था। जनजीवन की परतन्त्रता ने परिवेश और मानव मन को इस कदर उद्वेलित कर रखा था कि दोनों के स्वरूप परिवर्तन तेज गति से हो रहे थे। सन् 1949 आते-आते हिन्दी में दूसरा सप्तक की भावभूमि बन चली थी। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का संघर्ष भी सामने आने लगा था और मानवीय सम्वेदनाओं के प्रबल पहलुओं को छाया-भाषा में कहने वाली काव्य-प्रवृत्ति अपनी उस यात्रा के आवरणयुक्त चरण को समाप्त कर प्रत्यक्ष संघर्ष पर उतर गई थी। सारी बातें स्पष्ट रूप से कही जाने लगीं।

इससे पूर्व का काल मैथिली साहित्य में खिचड़ी-परस्त काव्य-प्रवृत्ति का काल था। मनबोध और चन्दा झा की काव्यात्मकता से जो बदलाव इस साहित्य में आया था, उसे आगे के कवियों ने यथायोग्य बहुरंग दिया। कृष्ण-काव्य परम्परा और राम-काव्य परम्परा की लीक से अलग हटकर भी रचनाकारों ने अपनी दृष्टि दौड़ाई। बाबू भुवनेश्वर सिंह 'भुवन' और काशीकान्त मिश्र 'मधुप' के काव्य-संसार को इस विकास के क्रम में सावधानी से देखा-परखा जा सकता है। एक ही अन्तराल में और एक ही रचनाकार की अनेक रचनाओं में छायावाद, प्रगीति काव्य की प्रवृत्ति, प्रगतिशीलता आदि गड्ड-मड्ड होकर आ रही थी। ऐसे ही समय में सन् 1941 में यात्री की कविता कविक स्वप्न एक घने अन्धकार को चीरती हुई आई। 'यात्री' की काव्य-साधना वास्तविक अर्थों में मैथिली कविता के क्षेत्र में एक नए प्रस्थान-बिन्दु के रूप में देखी जानी चाहिए, जहाँ से आज तक की मैथिली काव्य-यात्रा की वस्तुगत, भाषागत, शिल्पगत उपलब्धियों का ग्राफ खींचा जा सकता है। इनसे पूर्व के काव्य सृजन में हिन्दी की तरह क्रमबद्धता नहीं थी, इस सत्य को इतिहासकार भी मानते हैं। स्वयं यात्री ने भुवनेश्वर सिंह 'भुवन' के सम्बन्ध में लिखा है: प्राचीन परिपाटी के शब्द-शिल्प नवीन भावना को अभिव्यक्त करने में लँगड़ाने लगा तो इन्होंने आगे आकर मैथिली कविता को हिन्दी छायावादी कविता के सम्मुख खड़ा कर दिया। दूसरी ओर मैथिली साहित्य के प्रबल समालोचक प्रो. रमानाथ झा ने कहा: हमारे साहित्य में नवीनता यही लाए और प्रगतिवाद के प्रवर्तक ये ही हैं। ध्यातव्य है कि भुवन का काल सन् 1907-1944 माना जाता है। एक तरफ भुवन कालप्रवाह, अन्तर्नाद, स्मृति गीत जैसे गीतकाव्य में निरपेक्ष मनोवेग को चित्रित करते थे, तो दूसरी तरफ माक्र्सवाद की प्रहारात्मक मुद्रा में नहि क्षमा करब, प्रतिशोध लेब भी कहते थे। स्पष्ट रूप से क्रमबद्धता नहीं आने का मूल कारण, मेरी समझ से, रचनाकार की कमजोरी नहीं था। वस्तुतः मिथिलांचल सदा से सारे युगीन सन्दर्भों में सबसे पिछड़ा भूखण्ड रहा है, जहाँ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक (रूढ़िग्रस्तता के सन्दर्भ में), शैक्षिक (गुणात्मक नहीं, संख्यात्मक सन्दर्भ में)राजनीतिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक विपन्नता प्रचुर मात्रा में बनी रही। ऐसे में एक खास समय में समस्याओं का पहाड़ टूट पड़ना आश्चर्यजनक नहीं होगा और सृष्टि-चक्र का ध्रुव सत्य यही है कि युगपुरुष हर दिन नहीं जन्म लेता।

विडम्बनाओं की महाधुन्ध में, जहाँ देश का कोना-कोना आधुनिकता की ओर तेजी से बढ़ रहा हो और मिथिलांचल की जनता कछुआ धर्म का निर्वाह कर अपने खोल में लगातार सिमटती जा रही हो, वहाँ की पहली आवश्यकता थी, उसकी चेतना के रुद्ध द्वार खोलने की। यात्री की कविता आगे चल कर यही काम करती है। वस्तुतः हिन्दी के और मैथिली के भी समालोचक उन्हें खास रूप से किसी खास झण्डे के नीचे नहीं रखते। कारण एक ही है, और वह यह है कि किसी झण्डे या विचारधारा में उन्हें समेट पाने का सामथ्र्य नहीं है। वस्तु और रूप--दोनों स्तरों पर यात्री का जैसा अवदान मैथिली कविता को है, उतना शायद ही किन्हीं और का।

वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' की मैथिली कविताओं के दो संकलन हैं--चित्रा और पत्रहीन नग्न गाछ। पत्रहीन नग्न गाछ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया, और अब तो उनकी करीब-करीब सभी मैथिली कविताएँ हिन्दी में भी प्रकाशित हैं।

बलचनमा, पारो तथा नवतुरिआ--मैथिली में उनके तीन उपन्यास भी हैं। सारी कविताओं का अवलोकन यह स्पष्ट करता है कि यात्री की प्रतिबद्धता किसी खास विचारधारा से नहीं है। न तो वे किसी खेमे में प्रचारवादी भूमिका अदा करते हैं और न ही वैयक्तिक स्तर पर माक्र्स अथवा फ्राॅयड से आक्रान्त हैं। आम तौर पर इस तरह के तटस्थ व्यक्तित्व का मिलना मुश्किल होता है। उनकी प्रतिबद्धता सहज मानवता से है, मानवीय मूल्य से, जन-जीवन की खण्डित अस्मिता से है, जन सामान्य की त्रासदी से है।

यात्री की सीमा आँकते हुए राजकमल चौधरी कहते हैं: कवि यात्री अर्वाचीन हैं, प्राचीन नहीं भी रहकर वे आधुनिक नहीं है। ये मनुष्य के शारीरिक, सामाजिक अपराध और पीड़ा को अनुभव करते हैं। किन्तु मनुष्य का अन्तरंग, उसका आत्मदमन, उसका आत्म-शृंगार उनको जाना अथवा देखा हुआ नहीं है। मेरी समझ से यात्री की सीमा पर यह वक्तव्य उस अर्थ में समीचीन नहीं है। व्यक्ति के हरेक मनोभाव उसकी हर अभिक्रिया को संचालित, परिचालित करते हैं। फेकनी कविता में फेकनी के आत्मदमन की व्याख्या प्रत्यक्ष रूप में नहीं भी दिखे, लेकिन एक सफल कवि की कविता बहुत कुछ नहीं कहकर भी कह डालती है। यात्री की कविताओं को इसमें महारत हासिल है।

सन् 1947 में देश स्वतन्त्र हुआ। धीरे-धीरे परिवेश बदलता गया। अज्ञेय के शब्दों में: सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमारी अनुभूतियों का क्षेत्र भी विकसित होता गया है और अनुभूतियों को व्यक्त करने के हमारे उपकरण भी विकसित होते गए हैं; राग वही रहने पर भी रागात्मक सम्बन्धों की प्रणालियाँ बदल गई हैं और कवि का क्षेत्र रागात्मक सम्बन्धों का क्षेत्र होने के कारण इस परिवर्तन का कविकर्म पर बहुत गहरा असर पड़ा है(दूसरा सप्तक, पृ. 9)। मैथिली कविता ने इस परिवर्तन को बहुत आदर के साथ स्वीकार किया। राजकमल चौधरी का काव्य-सृजन इस दिशा का उल्लेखनीय बिन्दु है।

राजकमल चौधरी का विद्रोही स्वभाव और रूढ़ि भंजन तथा कविता में आन्दोलनात्मक रुख उनके समाज एवं परिवेश का अवदान है। यह अवदान राजनीतिक बोध के स्तर पर भी और पारम्परिक रूढ़ियों से परिचय के स्तर पर भी फलीभूत हुआ। अपनी काव्य-साधना के फैलते आयामों की ओर इशारा करते हुए राजकमल लिखते हैं: '1960 के पश्चात् आधुनकि कविता मानव-जीवन और मानवों के अन्तप्र्रदेश के 'नए' क्षेत्र में प्रविष्ट हुई है। देश में स्वाधीनता आई 1947 में, किन्तु अब 1960 में आकर हमलोग समझते हैं, और निर्णय करते हैं कि स्वाधीनता हमलोगों के लिए नहीं, सत्ताधारी वणिक सम्प्रदाय और राजनीतिज्ञों के लिए आई है। सब कुछ रहते हुए कुछ भी नहीं है हमलोगों का। राजकमल इसी राजनीतिक विकृति, व्यवस्थाजन्य विसंगति से साक्षात्कार करने लगे। चित्रा के प्रकाशन के पूरे दस वर्ष बाद 1959 में राजकमल का कविता-संग्रह स्वरगन्धा प्रकाशित हुआ। स्वरगन्धा कविता-संग्रह को राजकमल मैथिली कविता में नवीन शिल्प-शैली की स्थापना का उदाहरण मानते हैं। वास्तविक अर्थों में यह सच भी है। राजकमल चौधरी, मैथिली साहित्य के उन गिने-चुने कवियों में प्रधान हैं, जिन्होंने मैथिली कविता में वस्तु और शिल्प, दोनों स्तरों पर विश्व-सन्दर्भों का जिक्र किया है, जन-जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं को एक खास संस्पर्श दिया है। शिष्टता की सीमा और विद्रोह की ऊँचाई उनकी कविता में अत्यन्त मार्मिक ढंग से सन्तुलित होती है।

मेरे जीवन और मेरी कविता में कोई भेद, कोई दूरी नहीं है। मेरी कविता, मेरे आन्तरिक जीवन और मेरे अस्तित्व के रहस्य, यथार्थ आयोजना सबको अभिव्यक्त एवं अंकित करती है। यदि मेरी कविता मुझे मुक्त नहीं करती है, तो मैं उसे एक वक्तव्य मात्र मानता हूँ, कविता नहीं(राजकमल चौधरी)।

अर्थतन्त्र का व्यूह और नारी जीवन का दैन्य, राजकमल की रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु है। गाँव, समाज और परिवार के गुप्त रहस्यों को राजकमल ने जितनी संजीदगी से देखा-परखा, उतना औरों ने कम देखा-परखा है। यही कारण भी है कि उनकी अधिकांश रचनाओं का धरातल परिवार होता है। पारिवारिक सन्दर्भों का विश्लेषण और उसकी क्रूरतम व्याख्या अन्यत्र कम मिलती है और इतनी घनीभूत स्थिति विरले ही दिखती है। गाँव और गाँव की परिवेशगत विकृति ने राजकमल के रचनाकार को बुरी तरह उद्वेलित किया है।

इन दो महान रचनाकरों के अलावा मैथिली में एक वर्ग ऐसे कवियों का है, जो युग के दौर में चल सकने की क्षमता नहीं रखते थे। साहित्य में किसी भी तरह की नवीनता, युगसापेक्षता आए--यह उन्हें बुरा लगता था। सुरेन्द्र झा 'सुमन', ऐसे ही कवियों के प्रतिनिधि हैं। उन्होंने जो कथाकाव्य, मुक्तक, खण्डकाव्य, महाकाव्य विभिन्न धाराओं में लिखे हैं, वे वस्तुतः अलंकारिक विन्यास के आधार पर हैं और प्रशंसित तथा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी हैं। आजादी के तीन दशक बाद के सामाजिक सन्दर्भ को देखने-परखने के बावजूद उनका मन उसी महाकाव्यात्मक युग में जाकर रमता रहा। भाषा के स्तर पर भी, शिल्प के स्तर पर भी और वस्तु के स्तर पर भी।

दूसरा वर्ग है उन कवियों का जिनको इस प्रगति, इस नवता से काफी प्रसन्नता होती थी। वह इसके पक्षधर होते थे। यथासाध्य इन लोगों के साथ बढ़ने का प्रयास भी करते थे। पर उनका फलक विशाल नहीं था। वे अपने ही फलक के अधीन मैथिली कविता को दिशा दे रहे थे। ऐसे कवियों में प्रमुख हैं--काशीकान्त मिश्र 'मधुप', कांचीनाथ झा 'किरण', तन्त्रनाथ झा प्रभृति।

मधुप मैथिली कविता के क्षेत्र में आधुनिकता और पारम्परिकता के आश्चर्यजनक समन्वयक के रूप में दिखाई देते हैं, जहाँ राधा-विरह महाकाव्य में विषय, छन्द, अलंकार, शब्द-संयोजन की तत्सम-बहुलता, पौराणिकता दिखती है, छन्द एवं अलंकार के चमत्कारिक वैशिष्ट्य दिखते हैं, वहीं दूसरी ओर घसल अठन्नी और नवान्न जैसी कविता में छन्द मुक्ति, कोमल शब्दावली, आम नागरिक के विषय, उसके दुख-दर्द की अनुकृति आदि भी मैाजूद है। यही समन्वय महाकवि मधुप के काव्य सौष्ठव की पहचान और उत्कर्ष है।

कांचीनाथ झा 'किरण' ने यद्यपि बहुत कम लिखा। लेकिन लिखने से अधिक योगदान उनका यह है कि उन्होंने इस साहित्य के लिए एक निर्देशक का काम किया। मिथिलांचल के हर विकासोन्मुखी, प्रगतिकामी आन्दोलनों का जर्रा-जर्रा उनका उपकार नहीं भूलेगा। तटस्थ होकर देखने से यह बात साफ होती है कि किरण विशुद्ध रूप से रचनाकार थे, जिन्हें सिर्फ अपनी रचनाधर्मिता से मतलब था। मृत्यूपरान्त किरण की दो पुस्तकें प्रकाश में आईं--कथा किरण (कथा-संग्रह) तथा पराशर(महाकाव्य)। परम्परा की कोढ़ से मुक्ति की कामना ने सदैव उनका साथ दिया। लेकिन इस कामना ने उनको विद्रोही नहीं बनाकर प्रतिक्रियात्मक बनाया, आक्रोशी बनाया। जो कुछ उनकी थोड़ी-सी रचनाएँ प्रकाश में आईं, उनमें युग विसंगतियाँ कवि के आक्रोश से भरी हुई हैं। खेद का विषय है कि ऐसे रचनाकार का उचित सम्मान मैथिली के मठाधीशों ने नहीं होने दिया।

तन्त्रनाथ झा मैथिली साहित्य के माइकेल मधुसूदन दत्त भी मान लिए जाते हैं। उनकी रचनाओं की एक खास विशेषता यह है कि वे पारम्परिकता से भी जब कभी कोई विषय उठाते हैं तो उसकी प्रस्तुति अत्यन्त आधुनिक हो जाती है। अपनी रचना में वे न तो अपना आक्रोश दिखाते, न विद्रोह, सिर्फ दो परस्पर विरोधाभासों का कोलाज बनाकर रख देते हैं।

एक तीसरा वर्ग ऐसे कवियों का है, जो इन सारी चीजों से अपने को निरपेक्ष रखकर अपनी मान्यता और अवधारणा की सीमा में सृजनशील रहे। आरसी प्रसाद सिंह, उपेन्द्र ठाकुर 'मोहन', उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास', ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म' प्रभृति ऐसे ही कवियों में से हैं।

आरसी प्रसाद सिंह सातवें दशक में बहुत सक्रिय हो गए थे। हिन्दी, मैथिली--दोनों ही भाषाओं में लेखनरत थे। लेकिन उनकी कविताई का आधार कदाचित पाँच दशक पुराना था, अन्त-अन्त तक वही रहा। पूजाक फूल, माटिक दीप आदि कविता-संग्रह की कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि युग सम्मत आवश्यकता, समकालीन समाज की मनोदशा उनके साहित्य-सृजन के लिए तब भी बेमानी थी, हाँ, देश-भक्ति पर गीत लिखना, विरह वर्णन करना, प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शन उनकी कविताओं में पूरे आकर्षण के साथ अवश्य है।

उपेन्द्र ठाकुर 'मेाहन' की पुस्तक बाजि उठल मुरली सर्वप्रचलित, प्रशंसित है। करुणा का उद्रेक उनकी कविताओं का प्रधान धर्म है। परम्परा और आधुनिकता की खींचा-तानी उनकी रचनाओं में अप्रत्यक्ष रूप से उभर आती हैं। समसामयिक दैन्य, श्रमिकों की दुर्दशा आदि उनकी रचनाओं में अशक्य क्रोध और असन्तोष के रूप में उभरता है।

उपेन्द्रनथ झा 'व्यास' की प्रतिभा अनेक तरह से सराहनीय है। मैथिली, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, विज्ञान आदि विभिन्न भाषओं एवं संकायों पर समान अधिकार रखने वाले व्यास ने साहित्य में विभिन्न विधाओं में लेखनी चलाई और प्रशंसित हुए। काव्य क्षेत्र में उनके खण्डकाव्य भी काफी प्रशंसित हैं। पतन और संन्यासी के अतिरिक्त उन्होंने ढेर सारे मुक्तक भी लिखे। प्रतीक उनकी कविताओं का संकलन है।

मणिपद्म ने अपने रचनात्मक जीवन का प्रारम्भ कुछ देर से किया। लेकिन उनकी समझ और दृष्टिकोण काफी घनीभूत था। लोकजीवन की भाषा और लोकजीवन का विषय--उनकी साहित्य-साधना के मौलिक तत्व थे। कविताई के व्याकरण की यदि बात चले, तो वहाँ मणिपद्म कमजोर दिखते हैं।

यात्री और राजकमल के बीच में एक बड़े रचनाकार हैं--रामकृष्ण झा 'किसुन'। विस्तार से चर्चा की जाए, तो मैथिली साहित्य विडम्बनाओं का पिटारा है। उसी पिटारे का एक नमूना इस साहित्य में 'किसुन' का नाम भी है। स्वाधीनता आन्दोलन के समय से ही किसुन ने तीक्ष्ण लेखन किया; मैथिली साहित्य में प्रगतिवाद से नवकविता की तक की स्थिति में उन्होंने जैसा सहभाग लिया, उसका उदाहरण उनकी रचनाएँ ही हो सकत है। लेकिन, अपनी प्रशस्ति से निरपेक्ष इस युगपुरुष की चर्चा करने और विस्तार से विचार करने की फुर्सत आज तक न तो विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम निर्धारक को मिली, न शोध निदेशकों को, न ही स्वनामधन्य समालोचकों को और न ही इतिहासकारों को। पूरी तरह संस्कृतनिष्ठ परम्परा से जुड़े इस युगचेता की राजनीतिक दृष्टि शुरुआती दौर में ही साफ हो गई थी।

सन् 1963 में मैथिली में उनकी कविताओं का संग्रह आत्मनेपद आया। वह समय था, जब मिथिला और मिथिला के सारे लोग, प्रायः अपने आस-पास बिखरी विसंगतियों तक को नहीं बटोर पा रहे थे, किसुन का राजनीतिक दृष्टिकोण काफी विस्तार ले चुका था। कविता के सन्दर्भ में अपने वक्तव्य देते हुए किसुन कहते हैं, सत्य से बहुत अधिक आसक्ति है, अस्तु असत्य को भी सत्य बनाकर लिखता हूँ, यह मेरी सहज प्रवृत्ति हो गई है। मैं व्यक्तिगत रूप से अपने को अभिव्यक्त करने का सबसे उत्तम एवं सुलभ कोटि का और अधिक सशक्त 'माध्यम' कविता को समझता हूँ।

मैथिली में नई कविता के सोलह पुरोधाओं की कविताओं को संकलित कर उन्होंने कविता की इस उपलब्धि का एक प्रतिमान खड़ा किया। उनकी दृष्टि में देश बदलता है, काल बदलता है और पात्र बदलते रहते हैं। इसी कारण दृष्टि-बोध भी और इसी कारण कविता के बहिरंग के साथ-साथ बहुत हद तक अन्तरंग भी बदलता है। यह बदलाव उनकी रचना-प्रक्रिया में सहज रूप से दिख जाता है। राजनीतिक बोध से लेकर सामाजिक बोध तक उनकी कविताओं की अभिव्यक्ति का आश्रय पौराणिक मिथक होता है, व्याकरणिक या भाषाई उपादान होता है, दैनन्दिन जीवन के उपस्कर होते हैं; अर्थात् कविता कहने की शैली का इतना अधिक वैविध्य उनके बोध की सीमा को चित्रित करता है।

यात्री, किसुन और राजकमल की सृजनशीलता के नूतन पहलू जिन परवर्ती कवियों के सृजन संसार में पल्लवित पुष्पित हुए, उन्हें दो समूह में बाँटना उचित जान पड़ता है। इस कड़ी के तुरन्त बाद जिस सर्जक समूह की चर्चा होती है, उसमें अग्रगण्य हैं--मायानन्द मिश्र, धूमकेतु, सोमदेव, रमानन्द रेणु, धीरेन्द्र, हंसराज, रामदेव झा, गंगेश गुंजन, कीर्ति नारायण मिश्र, जीवकान्त, मधुकर गंगाधर, श्रीकान्त मिश्र, रामानुग्रह झा प्रभृत्ति। इस समूह विभाजन का आधार इसके सिवा और कुछ नहीं कि ये एक ही दशक में थोड़ा आगे-पीछे सृजनशील हुए और अपनी रचना के बल पर स्थापित भी हुए।

उपन्यासकार और कहानीकार के रूप में तो मायानन्द की ऊँची छवि है ही, अभिव्यंजना नाम की पत्रिका प्रकाशित करते हुए, उन्होंने मैथिली कविता में प्रगति, प्रयोग आदि विभिन्न वादों के बजाय अभिव्यंजनावाद की समझ विकसित की। मैथिली साहित्य के इतिहास पर भी उन्होंने तर्कपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। इन सबके अलावा उनकी एक अमिट छवि एक गीतकार की है। प्रांजलता भरी हुई उनकी कुछ रससिक्त गीति रचनाओं में काव्यात्मकता और कोमल कल्पनाशीलता का प्रतीक है। नभ आँगनमे पवनक रथ पर, कारी-कारी बादल आएल जैसे कुछ गीतों की सम्पन्नता आज के जनवादियों के लिए भी आकर्षण की चीज बनी हुई है। उनके ऐसे गीतों का मुख्य विषय प्रेम और सौन्दर्य होता है, जबकि वही मायानन्द, नव कविता में कदम रखते हुए युग-यथार्थ के चरम बोध से परिपूर्ण नजर आते हैं।

मायानन्द मिश्र और राजकमल चौधरी के बीच यद्यपि बड़ा अन्तराल नहीं है, पर मायानन्द की कविताओं में किसुन और राजकमल की काव्य-दिशा का मिला-जुला रूप दिखता है। सचाई है कि राजकमल जिस स्तर तक आम जन-जीवन के चूल्हे-चक्की तक की खबर लेते हैं, मायानन्द उससे कुछ पहले ही अपनी हदबन्दी कर आम जीवन के औपचारिक परिवेश और विश्व-क्षितिज की राजनीतिक दशा-परिदशा में भ्रमण करते हैं। पौराणिक बिम्बों का आश्रय उनके यहाँ भी लिया गया है। पारम्परिक थाती से सायास असम्पृक्ति के भाव इस बिम्बयोजना में उभरते हैं। दिशान्तर कविता संकलन की कविताएँ और उसकी भूमिका, चित्रा और स्वरगन्धा की परम्परा की ही अगली कड़ी है।

धूमकेतु उन थोड़े से रचनाकारों में से हैं, जो बहुत कम लिखकर काफी ऊँचाई पर हैं। अन्य विधाओं में भी उन्होंने कम ही लिखा। शब्द-प्रयोग पर अनुशासन उनकी रचना की खास विशेषता है। क्षिति, जल, आकाश, पेड़, पहाड़ आदि का सहारा उनकी कविताई को बरबस लेना पड़ता है। घर-परिवार उनके यहाँ अक्सर काव्य-विषय होते हैं। युग-जीवन की विशेष अनुभूति जब उन्हें असह्य हो जाती, तब वे कविता लिखते हैं।

सन् 1965 में सोमदेव की कविताओं का संकलन कालध्वनि प्रकाशित हुआ। कविता पर आलेख लिखते हुए राजकमल चौधरी ने धीरेन्द्र द्वारा लिखी गई इसकी भूमिका की काफी चर्चा भी की है। अनेक समालोचकों, इतिहासकारों और साहित्यकारों की नजर से सोमदेव मैथिली साहित्य की इस पीढ़ी के श्रेष्ठ कवियों में से हैं। प्रकारान्तर से इस कविता संकलन की भूमिका यही कहती है कि ये कविताएँ सहजतावादी हैं और सहजतावादी कविता ही श्रेष्ठ काव्य गुणों से युक्त होगी। पर सचाई है कि सोमदेव के काव्य की यह खूबी अधिकांश पाठकों को नजर आएगी, क्योंकि उनकी कविताओं को समझना एक जटिल सबक है। मेरी नजर में तो इससे भी जटिल है उनकी कविताओं की जटिलता और कविताओं को सहजतावादी कहने का ताल-मेल(?)।

मधुकर गंगाधर, श्रीकान्त मिश्र और रामानुग्रह झा, किसी समय में मैथिली कविता के पुरोधाओं के रूप में गिने गए थे। कविता की जमीन पर इन लोगों की अच्छी खासी पकड़ थी। एक तरफ रामानुग्रह झा इतिहास, पुराण और राजनीति की विसंगतियों को समकालीन सन्दर्भ में चित्रित करने के आग्रही दिखाई देते हैं, तो दूसरी ओर मधुकर गंगाधर दैनन्दिन जीवन-प्रणाली की छोटी-छोटी अभिक्रियाओं से कवित्वपूर्ण अभिव्यंजना उठाते दिखते हैं। श्रीकान्त सामान्य जन-जीवन की महज मामूली बातों को परिचय, परिभाषा और शैली में घनीभूत जीवनानुभूति के रूप में प्रस्तुत करते दिख रहे हैं। परन्तु इन कवियों के कवित्व का लाभ, मैथिली साहित्य को अधिक दिनों तक नहीं मिला। बाद में इन लोगों ने अपनी सक्रियता की दिशा मोड़ ली।

हंसराज और रामदेव झा भी इस समूह के सधे-मँजे कवि हुआ करते थे। कविता की जरूरत, कविता के स्वरूप, उसके विषय और शिल्प का चयन इनलोगों के यहाँ पूर्ण सम्वेदनशीलता और परिपक्वता से हुआ। लेकिन बाद के दिनों में इनलोगों की सक्रियता भी समाप्तप्राय हो गई। ऐसे यह घोषणा पूरे विश्वास के साथ करना कठिन है। कारण, रचनाकारों की सक्रियता, उस भाषा की पत्रिका में दिखती है, जिसकी हालत मैथिली में अत्यन्त जर्जर है और अलग से कोई संग्रह काफी दिनों से नहीं दिखा है, जबकि अन्य क्षेत्र में वे यत्किंचित क्रियाशील हैं। यूँ हंसराज की सक्रियता लगातार बरकरार रही है।

इस पीढ़ी में रमानन्द रेणु और धीरेन्द्र के यहाँ मैथिली कविता को फैलने का पर्याप्त अवसर मिला। नागरिक परिवेश का जीवन-यापन और निजी जीवनानुभूति उनकी कविताओं में अधिक जाना-पहचाना लगता है। शब्दों के नूतन प्रयोग और मौलिक बिम्बयोजना विशेष रूप से प्रेक्षणीय है। कविता के अतिरिक्त उपन्यासकार और कहानीकार के रूप में भी रेणु और धीरेन्द्र ख्यात हैं। मेरी नजर में तो वे कवि के रूप में अपनी अन्य विधाओं की अपेक्षा कमजोर ही दिखते हैं।

इस पीढ़ी के थोड़े-से अन्तराल पर आते हैं--गंगेश गुंजन, कीर्तिनारायण मिश्र, जीवकान्त। इन तीनों कवियों की कविताएँ पूर्व वर्णित पीढ़ी और परवर्ती कवियों के बीच एक मजबूत सम्बन्ध स्थापित करती हैं। इतिहासकारों, समीक्षकों ने गंगेश गुंजन के काव्य-सन्धान को अतियथार्थवादी कहा; पर किसी रचना या रचनाकार को इस तरह कठघरे में बन्द करना, उसके फलक की विस्तृति को संकुचित करना होगा। विदित है कि बीसवीं सदी का सातवाँ दशक आते-आते स्वाधीन भारत का परिदृश्य विचित्रताओं, विसंगतियों का उदाहरण बन गया। शासन-व्यवस्था में वर्चस्व की लड़ाई, राजनीतिज्ञों के बीच दलगत द्वेष और आन्तरिक बिखराव, जनसरोकार और मानवीय सम्बन्धों से निरपेक्ष राजनीति में लगे लोगों की दानवीयता, बेकारी-बेगारी-भूख-अकाल-अभाव-शोषण के पराभव से त्रस्त आम नागरिक की बदहाल जिन्दगी ने उस दौर को विकृत और विद्रूप समाज का उदाहरण बना दिया था। कीर्तिनारायण और जीवकान्त जहाँ इस नई स्थिति के चित्रण-विश्लेषण से सन्तुष्ट हो जाते हैं और कदाचित रोग बताकर उपचार ढूँढने का इशारा कर देते हैं, वहीं गुंजन व्याधि के उपचार ढूँढने का भी प्रयास करते हैं। परिमाणात्मक और गुणात्मक रूप से भी इस समूह ने मैथिली कविता के क्षेत्र में प्रशंसनीय काम किया है।

रामलोचन ठाकुर चूँकि अपनी तरह के अकेले कवि हैं, इसलिए उन्हें किसी पीढ़ी में या किन्हीं के साथ गिना जाना उचित नहीं है। यूँ उनके एक स्वभाव की परिपुष्टि अग्निपुष्प और नरेन्द्र की रचनाशीलता में दिखी कि वे शिष्टोक्ति में बात नहीं करेंगे। युग यथार्थ पर उभरे क्रोध को वे शालीनता का जामा नहीं पहनाएँगे। यूँ अग्निजीवी पीढ़ी की बातें भी इन दिनों मैथिली में चलने लगीं। जिनमें मुख्य रूप से अग्निपुष्प और नरेन्द्र की क्रियाशीलता थी, पर यह क्रम बहुत लम्बा नहीं चल सका।... रामलोचन ठाकुर यदि अपनी तरह के अकेले कवि माने जा रहे हैं, तो उनके साथ कई स्थितियाँ एक साथ मिलती हैं। उनके यहाँ भाषा शिल्प एवं शब्द-चयन अलग अन्दाज है। व्यंग्योक्ति, क्रोध, प्रहार आदि को मिलाकर देखें तो यहाँ यात्री और राजकमल का मिलाजुला स्वरूप नजर आएगा। कविताओं में आवरणविहीन और स्पष्ट बात करना उनका मूल स्वभाव है। सर्वथा अलग मिजाज की रचनाशीलता के कारण उन्हें किसी से जोड़ना उचित नहीं है।

इनके बाद के दो दशकों में मैथिली कविता में एक लम्बी सूची तैयार होती है। नौवें दशक में थोड़ी ही संख्या में लोग कविकर्म में प्रखर हुए और इस अनुज पीढ़ी ने अलग से कोई नई धारा कायम नहीं की। अतः इन सबकी चर्चा समग्रता में ही करना उचित होगा। इस समूह में प्रमुख नाम हैं--उदय चन्द्र झा 'विनोद', महाप्रकाश, कुलानन्द मिश्र, उपेन्द्र दोषी, सुकान्त सोम, भीमनाथ झा, महेन्द्र, ललितेश मिश्र, नचिकेता, शेफालिका वर्मा, विभूति आनन्द, अग्निपुष्प, केदार कानन, तारानन्द वियोगी, नारायणजी, शिवशंकर श्रीनिवास, अशोक, हरेकृष्ण झा, कुमार पवन, कुमार शैलेन्द्र, रमेश, विद्यानन्द झा, सारंग कुमार, नवीन कुमार दास, सुस्मिता पाठक तथा स्वयं यह लेखक।

इस वर्ग के कवियों के रचना-सन्धान को सामाजिक यथार्थ के मर्मों के आलोक में देखें तो स्पष्ट रूप से अनुभूति और वैचारिकता का फर्क नजर आता है। कुछ कवियों ने सामान्य जीवन-क्रम की विसंगतियों का चित्रण वीक्षक की तरह किया है; जबकि कई कवियों ने उन विसंगतियों, दंश-दैन्य-दुविधाओं को भोक्ता की तरह रेखांकित किया है; उनकी यथार्थनुभूति प्रथम भोक्ता के अनुभव के रूप में बाहर आई है। ऐसी कुछ कविताएँ--रमेश, कुमार शैलेन्द्र, सुस्मिता पाठक और एक सीमा तक नवीन कुमार दास, अशोक आदि के यहाँ मिलती हैं; पर यह भी सच है कि उनकी कविताओं में कहीं-कहीं और कभी-कभी उपस्थापन का कच्चापन भी दिखता है। अशोक अपनी कविता में अधिक मुखर हो जाते हैं और साफगोई की ओर उन्मुख हो जाते हैं। यह स्थिति उनकी कविता की शैली पर आघात करती है, जो उसे अखबारी हालत में ले आती है। सरलता, सहजता आम पाठकों के लिए बेशक अच्छी बात है, पर वह कविता के प्रभाव को आहत करती है। कविता में कथन की संक्षिप्तता भी बहुत आवश्यक है। संक्षिप्तता के अभाव का दोष कहीं-कहीं शिवशंकर श्रीनिवास के यहाँ भी खटकता है। यूँ बिम्बयोजना में श्रीनिवास, अशोक की अपेक्षा अधिक पटु दिखते हैं। प्राकृतिक उपादानों का मानवीकरण श्रीनिवास की बिम्बयोजना में निखार लाता है। हाँ, इतना तय है कि अपनी कविताओं में खूब फैलकर भी विभूति आनन्द, श्रीनिवास और रमेश सुगठित रह जाते हैं। ऐसे रमेश और श्रीनिवास की कुछ छोटी-छोटी कविताएँ ही अधिक पैनी हुई हैं।

विभूति आनन्द अपनी पीढ़ी के और कवियों की अपेक्षा शब्द प्रयोग में अधिक प्रतिबद्ध दिखते हैं। स्थितियों के प्रतिमान स्थापित करने के लिए उनके यहाँ मैथिली के ऐसे शब्द मिल जाते हैं, जो आज की पीढ़ी के लिए आधुनिकता की होड़ में अतीत होते जा रहे हैं। ऐसे शब्दों को पुनर्जीवन देने के ख्याल से भी विभूति प्रशंसा के पात्र हैं। पारम्परिक पाखण्ड, आभिजात्य अहंकार आदि के प्रति अस्वीकृति उनकी कविता का मूल स्वर है, जो भिन्न-भिन्न रूपों में इस पीढ़ी के हर कवि के यहाँ दिखता है। विभूति, केदार कानन, तारानन्द वियोगी, हरेकृष्ण झा, देवशंकर नवीन, सारंग कुमार, विद्यानन्द झा प्रभृति की कविताएँ भी आज की व्यवस्था की विडम्बनाओं एवं हैवानी की हद तक पहुँची समकालीन विसंगतियों का प्रतिपक्षी सैन्यबल है।

इस पीढ़ी की तमाम कविताएँ कुल मिलाकर इस त्रासदी से संघर्ष करने का एक मुकाम तैयार करती है। यात्री, किसुन और राजकमल ने माक्र्स, फ्रायड आदि की जिस विचारधारा से अनुप्राणित भावबोध का समावेश कविता में किया था, नौवें दशक आते-आते वह अनेक दिशाओं में फैलकर वह सचाई, ईमानदारी, विवेक और निष्पक्षता की वकालत करने लगा, विसंगतियाँ खोज कर उसका हल ढूँढने लगा। सारांशतः, वह परम्परा चार दशक की दूरी तय कर यथेष्ट विस्तार पर गई।

इस कविता की ऐसी सफल यात्रा में पूर्ववर्ती पीढ़ी ने प्रभूत प्रेरणा और मदद दी है। उदय चन्द्र झा 'विनोद', महाप्रकाश, कुलानन्द, उपेन्द्र दोषी, सुकान्त सोम, भीमनाथ झा, महेन्द्र, ललितेश और शेफालिका इस पीढ़ी के प्रमुख रचनकार हैं। देश की स्वाधीनता के पश्चात् विकृत जनतन्त्र के डरावने चेहरे और अनुज पीढ़ी के सामने सुरसा की तरह मुँह फैलाए विकाराल समस्या के बीच पूर्व से ही विकासमान सामाजिक और राजनीतिक विकृतियों के अलावा अन्य कोई भी नवीन स्थिति नहीं आई। बावजूद इस शून्यता के जन सम्वेदना का इतना सघन चित्रण, इस पीढ़ी के रचनाकारों की युयुत्सु प्रवृत्ति का परिचय प्रखर रूप में देता है। शेफालिका के काव्य में मानव सम्बन्ध की आर्द्र सम्वेदना, प्रेम-प्रसंगों की सूक्ष्मतर स्थितियों, आर्थिक परतन्त्रता और नैतिकता के पाखण्ड से आवृत नारी मनोदशा, मिथिलांचल की वैवाहिक समस्या के घृणास्पद रूप आदि मुख रूप से आते हैं।

मनुष्य की वैयक्तिक आस्था और उल्लास की हिलती नींव पर स्वप्न की खड़ी इमारत के प्रति सहज आर्द्र भाव ललितेश की कविता का केन्द्रीय तत्व होता है। यूँ तो समग्र रूप से इस पीढ़ी की रचनाएँ जीवन के घोर नैराश्य और विषाद की स्थिति को ढोती है, पर ललितेश की रचनाओं में ये निराशाएँ और ये विषाद अत्यन्त क्लेश के साथ उपस्थित होते हैं। इस पीढ़ी के रचनाकार सामान्यतया इस घोर अन्धकार के क्षण में किसी किरणमाला का अनुसन्धान नहीं कर, यथास्थिति के चित्रण में विश्वास करते हैं। महेन्द्र इस पीढ़ी के स्थापित और प्रमुख कवियों में से हैं। मैथिली गीत-गजल की कोमलता से पूरी तरह वाकिफ कवि महेन्द्र जब कविता करते हैं, तो मानवीय आकांक्षाओं के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं।

कुलानन्द मिश्र और सुकान्त की कविताएँ माक्र्सवादी विचारधारा से लबालब रहती हैं। निम्न वर्ग और निम्न-मध्यमवर्ग की पल-पल, क्षण-क्षण की विडम्बनाएँ उनके कवि की आत्मा को चुभती रहती हैं। कवि का आत्मसंघर्ष प्रबल हो उठता है और इसी संघर्ष में कवि अपने को विजयी मान बैठते हैं। समय और परवर्ती पीढ़ी द्वारा होने वाली पूरी लड़ाई उनके सामने लड़ी जाने लगती है। कुछ अर्थों में इसी विजय का उल्लास तथा बाकी समसामयिक जनपीड़ा का अवसाद और फिर इस अवसादक तत्व के विनाश की आकांक्षाएँ उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से आती हैं।

उदय चन्द्र झा 'विनोद' और उपेन्द्र दोषी जनशक्ति और जनविजय के प्रति पूर्ण आस्थावान कवि हैं। उनकी अधिकांश कविताएँ घटना-चित्रण की शैली में आती हैं, जहाँ समसामयकि अत्याचार, पापाचार, तथाकथित लोकाचार (किन्तु क्लेशपूर्ण), नीति निर्धारकों का पाखण्ड अपने मौलिक रूप में उपस्थित होते हैं, समग्रता में यह खरोंचने वाला व्यंग्य उपस्थित करता है। घर, परिवार, समाज की अत्यन्त सामान्य घटनाएँ भी उनकी लेखनी के संस्पर्श से निखर उठती हैं और अपनी विस्तृति के दूरस्थ छोर तक पहुँच जाती हैं। लेकिन, ये सारी स्थितियाँ एक व्यंग्य उत्पन्न कर निश्चिन्त हो जाती हैं। पाठकों के हृदय को उद्वेलित कर चुप हो जाती हैं। इस पीढ़ी के रचनाकारों में आन्दोलन छेड़ने का यह भी एक अपना तरीका है।

महाप्रकाश अपने वैयक्तिक जीवन दर्शन की भिन्नता के कारण अभिव्यक्ति के स्तर पर अन्य सहवर्ती कवियों से कुछ भिन्न हो जाते हैं। युग-प्रहार के अवसाद का चित्र उनकी कविता में एक उच्छ्वास उत्पन्न करता है और लगता है कि इस पीड़ा की अभिव्यक्ति, शायद कवि की आत्मानुभूति की सीमा निर्धारित करती है, दंशभोग की अनुमाप कहती है। श्रम और प्रतिभा के अवमूल्यन के साथ कीड़े-मकोड़े की जिन्दगी व्यतीत करते जन समुदाय की त्रासदी की जिस सीमा तक महाप्रकाश जाते हैं, मनुष्य के आत्मिक अवसाद के अनुसन्धान के लिए उनकी सम्वेदनाएँ जहाँ तक पहुँचती हैं, उनकी पीढ़ी के अन्य रचनाकारों की पहुँच वहाँ तक विरले ही होती हैं। उनकी कविताएँ जीवन में चतुर्दिक व्याप्त घोर अन्धकार के दुर्ग को ढहाने के लिए विस्फोटक का काम करती हैं।

इसी बीच मैथिली में गजल लिखने की भी परम्परा आई। मैथिली गजल पर आलेख तैयार करते हुए लोग जीवन झा से इस विधा का प्रारम्भ मानने लगते हैं। लेकिन बिना अधिक लाग-लपेट के यहाँ संक्षेप में कहना उचित होगा कि आरसी प्रसाद सिंह, रवीन्द्र, डॉ. महेन्द्र, कलानन्द भट्ट, सियाराम सरस, विभूति आनन्द, तारानन्द वियोगी, रमेश, धीरज, देवशंकर नवीन प्रभृति ने इस विधा में भी अपनी नवीन चेतना का परिचय दिया है।

इतने सारे कवियों की अति संक्षिप्त भूमिका प्रस्तुत करने के साथ मैथिली कविता के सन्दर्भ में यह कह देना भी आवश्यक है कि इस पूरी सूची के बीच-बीच में और भी कतिपय नए-पुराने नाम हैं, जिन्होंने अपने-अपने हिसाब में मैथिली कविता का दोहन-पोषण किया है। किन्तु एक निबन्ध में 'आलोचना' की दृष्टि से भी, समालोचना की दृष्टि से भी और प्रशंसा की दृष्टि से भी सारे कवियों की चर्चा हो जाए, इतनी छोटी सूची अब मैथिली कवियों की नहीं है।