जनतंत्र का तमाशा , मदारी की भाषा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जनतंत्र का तमाशा , मदारी की भाषा

प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2012

आज का पावन दिन राष्ट्रीय प्रसन्नता का दिन है। क्या आज उत्सव मनाना महज रस्मअदायगी रह जाएगी या सचमुच मन में आनंद है? देश के थोड़े-से लोग प्रसन्नता महसूस कर सकते हैं, क्योंकि देश की स्वतंत्रता ने उन्हें खूब धन कमाने का अवसर दिया, परंतु अधिकांश लोगों को आजादी ने कुछ भी नहीं दिया। यह भी गौरतलब है कि देश से हमें बहुत अपेक्षाएं थीं, जो पूरी नहीं हुईं, परंतु देश को हमसे जो उम्मीद थी, वह भी हमने नहीं किया। इस अजब-गजब भारत में आजादी कुछ लोगों के लिए वरदान लेकर आई और बहुत लोगों के जीवन में सदियों से चला आ रहा शाप समाप्त नहीं हुआ। पौराणिकता के धागों से बने सामूहिक अवचेतन में आज भी वरदान और शाप सार्थक शब्द हैं, क्योंकि इस तरह का वर्णन भी है कि संतों को क्रोध आता है और वे शाप देते हैं। संत को माया, मोह और क्रोध से मुक्त होना चाहिए और उनका हाथ हमेशा आशीर्वाद के लिए उठना चाहिए तथा मुंह से 'तथास्तु' निकलना चाहिए। शायद हर जगह का अवाम अपनी सुविधा की पौराणिकता ही रचता है और ईश्वर की कल्पना भी व्यक्तिगत भीतरी बनावट पर निर्भर करती है। हमारे यहां तो ठग भी लूट और हत्या के लिए जाते समय अपने इष्ट देव से प्रार्थना करके जाते हैं और कई बार सफल भी होते हैं। जिनका धन लुटा और गले कटे, शायद उनका ईश्वर उपलब्ध नहीं था या उसने शाप दिया था।

बहरहाल आज जिस वर्ग को आजादी ने समृद्ध बनाया, उनके पास इस तरह की बातों के लिए समय नहीं है और उत्सव की उनकी परिभाषा ही बदल गई है। बड़े वर्ग के मन में स्वतंत्रता समारोह मनाने की गहरी इच्छा है, परंतु साधन नहीं हैं। आज के दिन वह अपने अभावों और अवसरों की कमी पर रोएगा नहीं, शायद इसी तरह उत्सव मनाने के लिए वह बाध्य है। आज उसका गमजदा न होना भी छोटी-सी बात नहीं है। इन दो आर्थिक रूप से बंटे वर्गों के अतिरिक्त एक मध्यम वर्ग भी है, जिसके पास अगर उत्सव मनाने की वजह नहीं है तो गमजदा होने का भी कारण नहीं है। इस मध्यम वर्ग की चिंताएं अलग किस्म की हैं। वह अभी तक अंग्रेजों के जमाने की विक्टोरियन छद्म नैतिकता से मुक्त नहीं है। वह दो-ढाई सौ वर्ष बाद भी आध्यात्मिकता की अफीम चाटता है। कुंठाओं को पाल-पोसकर विकराल बनाने में उसे महारत हासिल है। इस वर्ग की बनावट रशियन गुडिय़ा की तरह है - गुडिय़ा भीतर गुडिय़ा है। इसका एक टुकड़ा भ्रष्टाचार और उसके विरोध में आयोजित किसी आंदोलन से कोई परहेज नहीं करता। पाखंड उसका मुखौटा नहीं, उसकी आत्मा है; उसका केंचुल नहीं, उसका जहर है।

पूरे देश की आबादी का अच्छा-खासा प्रतिशत जनजातियों का है, जिससे अब तक मीडिया अपरिचित है। वहां आज भी खतरों की सूचना नगाड़े पीटकर दी जाती है। विकास के नाम पर अनियोजित कार्य किए जाते हैं और हम जंगल खा रहे हैं, अत: इस वर्ग का जीवन आधार सिकुड़ता जा रहा है। इस वर्ग को मालूम भी नहीं होता कि स्वतंत्रता दिवस आकर चला गया। सूखी टहनियां सर्वत्र फहरा रही हैं- यही उनके लिए झंडा फहराना है। कभी-कभी कोई भूला-भटका मंत्री यहां आता है। धूमिल कहते हैं - 'एक पौधा लगाया और कहा वन महोत्सव?' हमारे सारे कार्यक्रम इसी तरह रस्मअदायगी बनकर रह जाते हैं।

आज चीन में भी विरोध की लहर है, परंतु वह दबाया जा रहा है। वहां स्वतंत्र मीडिया नहीं है, परंतु दमन-चक्र जारी है। हमारे दुश्मन-दोस्त पड़ोसी पाकिस्तान में विघटन की प्रक्रिया जारी है। उन्होंने विभाजन को विजय की तरह माना था, जबकि हिंदुस्तान में उसे एक दुर्घटना माना गया और गांधीजी ने तो उसे 'आध्यात्मिक त्रासदी' कहा था। पाकिस्तान के स्कूलों में औरंगजेब को नायक की तरह पढ़ाया जाता है। हमारे स्कूलों में अकबर नायक है। वहां अदब की कक्षा इकबाल से शुरू होती है और शिक्षक गालिब को पढ़ाने से डरता है। दोनों ही देशों में पूर्वग्रह, अहंकार और तर्कहीनता से रचा सच्चा-झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है। पाकिस्तान धर्मनिरपेक्षता के अभाव में खंड-खंड बिखर रहा है और हमारे यहां भी प्रयास हो रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता के मार्ग को छोड़ दिया जाए। वहां मजहब का काढ़ा पिलाया गया, यहां उसी का चरणामृत बांटा जा रहा है। हमने अराजकता के स्वागत की पूरी तैयारी कर ली है। हमने गणतंत्र व्यवस्था को, जो एक मूचे वाक्य की तरह थी, अब तोड़कर शब्दों में बांट दिया है और संदर्भहीन शब्द प्राणहीन होते हैं।

वर्तमान समय रायपुर के लेखक संजीव बख्शी के उपन्यास 'भूलन कांदा' की याद दिलाता है। विष्णु खरे ने बताया कि छत्तीसगढ़ में एक किंवदंती है कि मनुष्य का पैर 'भूलन कांदा' पर पड़ता है तो वह स्मृति खोकर निश्चेष्ट खड़ा रह जाता है और उसे चहुंओर घना मार्गविहीन जंगल दिखाई देता है। ठीक इसी तरह की कथा स्कॉटलैंड में भी है। कहते हैं कि ऐसी दशा में किसी अन्य व्यक्ति के स्पर्श से भूलन कांदा के प्रभाव से व्यक्ति मुक्त होता है। इस समय भारत भी भूलन कांदा के प्रभाव में अपनी सांस्कृतिक विरासत भूल चुका है और कठोर यथार्थ के स्पर्श से ही मुक्त हो सकता है।