जनशक्ति की झाँकी / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती

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अच्छा , अब उन हालतों का , उन परिस्थितियों का विचार करें , जिसने महात्मा गाँधी को आंदोलन के लिए विवश किया और फलस्वरूप महाभारत का नेतृत्व उन्हें सौंपा। जैसाकि कह चुके हैं , उस महाभारत में तीन पर्व नागपुर-दिसंबर , 1921 के पूर्व पूरे हो चुके थे। इससे भी लंबी मुद्दत में सिर्फ सामंत , स्थायी स्वार्थवाले , बुध्दिजीवी और दिमागदार लोग ही मैदान में उतरे थे। बंग-भंग वाला आंदोलन देश में दूसरी जगह फैलने पर भी एकमात्र पढ़े-लिखे बाबुओं का ही था , जिसके अगुआ तिलक थे , अरविंद थे। वह जनांदोलन न था , जनसमूह का आंदोलन न था , जनता का सामूहिक आंदोलन न था। इसलिए समूचे आंदोलन में क्रमिक प्रगति होने पर भी और जन-जागरण होने पर भी अपना ध्येय और मकसद हासिल न कर सका। जैसाकि मिस्टर मांटेग्यू ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है , ब्रिटिश सरकार का मूलाधार था जनता का सहयोग ; फिर चाहे वह स्वेच्छापूर्वक हो या अनिच्छापूर्वक। यह भी सर्वमान्य बात है कि जनता के सामूहिक सहयोग के बिना कोई भी शासन टिक नहीं सकता , चल नहीं सकता। और , जब तक उसे वह सहयोग प्राप्त है , कोई भी ताकत उस शासन को डिगा-मिटा नहीं सकती। अब तक यही बात थी। बाबू सामंत और मालदार हजार उछल-कूद करने पर भी सरकार को इसीलिए डिगा न सके कि उनने जनसमूह को इस काम में अपने साथ नहीं लिया। इसीलिए सब कुछ कर-कराकर थक गए। उनके सामने और मुल्क के सामने भी चारों ओर निराशा ही नजर आती थी।

इस कठोर सत्य को महात्माजी ने देखा और खूब ही देखा। इससे पूर्व दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जनशक्ति की झाँकी मिल चुकी थी। उनने वहाँ जनांदोलन की अपार महिमा का अस्पष्ट दर्शन किया था। भारत में भी खेड़ा , चंपारण और रॉलेट कानून के सिलसिले में उन्हें इसकी झलक नजर आई थी। उनने यह भी स्पष्ट देखा था कि मुल्क में सभी तरह के गर्जन-तर्जन आदि तो आजमाए जा चुके और नतीजा कुछ ठोस नहीं निकला ; केवल जनांदोलन की आजमाइश बाकी है।

बस , उनने गाँवों की ओर नागपुर में मुँह मोड़ा और जनांदोलन की भेरी बजाई। उन्हें आजादी लेनी थी और उसका उपाय उनके सामने दूसरा था नहीं। वे विवश थे। अपनी दृष्टि से वे इसके खतरों को भी कुछ-कुछ देखते थे─ बड़े खतरों को , जिनका सिग्नल उन्हें फौरन ही चौरी-चौरा में मिला। मगर मजबूरी थी। इतनी जल्द अलार्म सिग्नल बजेगा , उनने सोचा भी न था। उनके चलाये इस विराट जनांदोलन के फलस्वरूप शोषित-पीड़ित जनता के बहुतेरे स्वतंत्रआंदोलन महाकाय हो कर चल पड़ेंगे , इसका तो शायद उनने ख्वाब भी नहीं देखा था। इस प्रकार चौथा पर्व चला और खूब ही चला। इसने मदमत्त साम्राज्यशाही की जड़ एक बार तो बेमुरव्वती से हिला दी। बाबू लोग भी इसमें बलात खिंच आए-दिमागदार बाबू लोग! उनका इसमें विश्वास न था। क्योंकि , थे तो वे तृतीय पर्व वाले लीडरों की जमात के ही। इसीलिए एक साल के भीतर , जैसा महात्मा ने कहा था , इस जनांदोलन को सफलता न मिलने पर उन्हीं बाबुओं ने दास-नेहरू के नेतृत्व में पुनरपि वही गर्जन-तर्जनवाला अपना चिर-परिचित रास्ता पकड़ा। स्वराज्य पार्टी की असलियत यही थी।