जन-गण-मन / जगदीश कश्यप

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चवन्नी लेकर फीते जैसी सफेद देसी चुइंगम, तिरंगी झण्डी वाली सींक पर लपेटकर फेरी वाले ने बच्चे के हाथ में थमाते हुए कहा–- "लो बेटे, आज दो–दो मज़े लो। आज आज़ादी का दिन है। मिठाई खाओ और इसके तिरंगे झण्डे को लहराओ!"

मिठाई का फ़ीता मुँह में चबाते हुए मुन्ने की निगाह में सुबह का दृश्य घूम गया। स्कूल में तिरंगा झण्डा लहराते हुए हेड मास्टर जी को उसने देखा था और सबने 'जन–गण–मन' गाया था।

मुन्ने ने कुछ सोचा और आस–पास खेल रहे मुहल्ले के चार–पाँच बच्चों को पास बुलाया। फिर वह छत पर चढ़ गया और मुंडेर के एक छेद में तिरंगी झण्डी युक्त सींक को फँसा कर नीचे उतर आया। -- "आओ हम भी झण्डा लहराएंगे और जन–गण–मन गाएंगे।"

इस पर पिण्टू ने मुन्ने की ओर हिक़ारत से देखा और बोला–- "तुमने इस झण्डी की मिठाई हमें नहीं खिलाई....हम नहीं गाते जन–गण–मन!" और सभी उसे चिढ़ाते हुए भाग गए।

वह रुआंसे अंदाज़ में माँ के पास गया और बच्चों की शिकायत करते हुए अपने साथ 'जन–गण–मन' गाने की जिद करने लगा। माँ ने घर के काम में व्यस्त होने का बहाना बनाते हुए उसे झिड़क दिया। वह फिर उदास हो गया।

कुछ सोचता हुआ मुन्ना बाहर आया। ख़ुद को आदेश देते हुए वह सावधान–विश्राम की कवायद करने लगा और सैल्यूट मारते हुए तन्मय होकर गाने लगा–- "जन–गण–मन अधिनायक जय हे... !" झण्डी हवा में फड़फड़ा रही थी। मुन्ने ने देखा कि चींटियों की एक लकीर उस मीठी सींक पर चढ़–उतर रही थी।