जन-जन में जो ऊर्जा भर दे (राजेश जोशी) / नागार्जुन

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एक शांतिनिकेतनी झोला हमेशा ही नागार्जुन के पास होता था। वह कभी उनके कंधे पर लटका होता और कभी उनकी बग़ल में पड़ा रहता। वह उनकी धज का अनिवार्य हिस्सा था। उसमें कई कोरे पोस्टकार्ड होते और कई दूसरी जगहों से आयीं उनके पाठकों और मित्रों की चिट्ठियां। नागार्जुन जब भी जिस जगह की यात्रा पर निकल रहे होते वहां के मित्रों को पहले ही उनका बड़े बड़े और सुंदर अक्षरों में लिखा पोस्टकार्ड मिल जाता, अगर एक दो दिन या आठ दस दिन बाद वहां से किसी दूसरे शहर जाने का कार्यक्रम होता तो वहां के मित्रों को नागार्जुन अपना कार्यक्रम भेज देते। पोस्टकाडर््स के अलावा झोले में कोई एकाध किताब होती और दो एक पत्रिकाएं। लेकिन इस झोले में दो चीज़ें हमेशा मौजूद होतीं। एक छोटा सा ट्रांज़िस्टर और एक बड़ा सा मैग्नीफ़ाइंग ग्लास...आवर्धक लेन्स। बाबा जब भी अकेले होते, ख़ासतौर पर रात गये जब वे बिस्तर में होते तो ट्रांज़िस्टर उनके कान से सटा होता। कभी उस पर ख़बरें चल रही होतीं, हर ख़बर पर उनके कान होते। कभी कोई संगीत चल रहा होता। यह संगीत दुनिया के किसी भी हिस्से का हो सकता था। उसके शब्दों और भाषा से उनका लेनादेना ही ज़रूरी नहीं। हो सकता है उस पर अफ्ऱीकी संगीत चल रहा हो और उसे सुन सुन कर नागार्जुन मगन हो रहे हों। पहले मुझे लगता था कि नागार्जुन की कविता की लय और छंद का रिश्ता हिंदी के पारंपरिक छंद, मैथिली, पाली, प्राकृत, संस्कृत या बांग्ला से है लेकिन कई बार उनकी कविता की लय में अचानक कई ऐसी लयों की अनुगूंज मिल जाती है जिनके स्रोत ठीक ठीक निर्धारित करना आसान नहीं होता। यह संभव है कि उन लयों के स्रोत धरती के एकदम दूसरे हिस्सों से आकर नागार्जुन की हिंदी में अंतर्लीन हो गये हों। उसका कायांतरण हो गया हो। उजागर स्रोतों के पीछे कई अलक्षित स्रोत छिपे हो सकते हैं। जातीय और विजातीय का कोई झगड़ा टंटा वहां नहीं है। खाने के मामले में जिस तरह नागार्जुन एक चटोरे व्यक्ति थे, नयी नयी और तरह तरह की लयों को खोज लेने और उपयोग करने में भी उन्हें किसी तरह का कोई परहेज़ नहीं था। हिंदी का शायद ही कोई दूसरा कवि होगा जिसकी कविता में लयों की ऐसी विकट विराट बहुलता को खोजा जा सके। उनके कान बहुत चौकन्ने थे। उनसे धरती की तेज़ से तेज़ और धीमी से धीमी लगभग अनसुनी रह जाने वाली कोई आवाज़, अनसुनी नहीं रह सकती थी। इस झोले की दूसरी सबसे दिलचस्प चीज़ है मैग्नीफ़ाइंग ग्लास। कभी-कभी लगता है नागार्जुन की कविता ही एक मैग्नीफ़ाइंग ग्लास है। कभी कभी जब किसी किताब या किसी पत्रिका को वे उस मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से पढ़ रहे होते तो मेरे मन में एक सवाल अक्सर कौंधता रहता कि अगर शब्द 276 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 मैग्नीफ़ाइंग ग्लास की दूसरी तरफ़ से नागार्जुन को देख रहे होंगे तो उन्हें नागार्जुन कैसे नज़र आते होंगे? इस मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से वे छोटे-छोटे अक्षरों को बड़ा कर लेते और दूर के अक्षर उनके एकदम पास चले आते। यथार्थ की कई ऐसी परतें और सच्चाइयां जो दूर दिखतीं, दूरी के कारण बहुत छोटी और धुंधली नज़र आतीं, उनके भीतर की कुटिलताएं, ढकी-छिपी मनुष्य विरोधी विद्रूपताएं और विसंगतियां अचानक नागार्जुन की कविता में आकर अपने विकट स्वरूप में प्रकट हो जातीं। बहुवचन एक वचन में परिणत होकर विपुल विराट हो जाता। यह मैग्नीफ़ाइंग ग्लास किसी भी बुराई या बहुत धुंधली सी दिखती मनुष्य की छोटी से छोटी अच्छाई को आवर्धित कर देता है। नागार्जुन की कविता सिर्फ़ विद्रूपताओं को ही विराट नहीं बनाती वह अच्छाइयों को भी आवर्धित कर देती है। यह मैग्नीफ़ाइंग ग्लास सिर्फ़ दृश्य चीज़ों को ही आवर्धित नहीं करता वह आवाज़ों को भी आवर्धित कर देता है। वह गंध को भी आवर्धित कर देता है। वह हमारी ऐंद्रिकता का नया संस्कार करने वाला मैग्नीफ़ाइंग ग्लास है। लेनिन ने कहीं कहा था कि छोटे-छोटे आंदोलनों और हड़तालों में भी भावी क्रांति का सर्प फुंफकारता हुआ बैठा होता है। नागार्जुन का यह मैग्नीफ़ाइंग ग्लास वास्तव में एक उपकरण मात्रा नहीं है। यह जैसे उनकी दृष्टि और उनकी कविता का एक रूपक भी है। वह अत्यंत साधारण की असाधारणता को देख सकने और दिखा सकने का एक आला है...एक लेन्स है। हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहां आभासी यथार्थ वास्तविक यथार्थ को धुंधला कर रहा है। जहां मनुष्य की कराह और ग़्ाुस्से भरी चीख़ को निरर्थक आवाज़ों में दबाया जा रहा है। जहां रोशनी की चकाचौंध हमारे देखने को बाधित कर रही है। फ़ज़ल ताबिश की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूं कि हम नहीं देख पा रहे हैं कि यह रौशनी किस जगह से काली है। ऐसे समय में कविता का यह ज़रूरी काम होता है कि वह चीज़ों को मैग्नीफ़ाई करके हमें दिखा सके। मुझे लगता है कि नागार्जुन के शांतिनिकेतनी झोले से निकला मैग्नीफ़ाइंग ग्लास जैसे हमारे समय को देखने का एक ज़रूरी उपकरण है। जब इस मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से नागार्जुन नागार्जुन को देखते हैं तो इसमें नागार्जुन कभी छोटे कभी लंबे यानी उनके अंदर बाहर के कई कई रूप नज़र आते हैं। मैग्नीफ़ाइंग ग्लास एक आईना बन जाता है। आईने वाली आकृति कहती है: बात यह हुई कि तुम्हारा सारा बचपन घुटन और कुंठा में कटा। ग़रीबी, कुसंस्कार और रूढ़िग्रस्त पंडिताऊ परिवेश तुम्हें लील नहीं पाये, यह कितने आश्चर्य की बात है! पहले तुम भी वही चुटन्ना और जनेऊ वाले पंडित जी थे न ? न पुरानी परिधि से बाहर निकलते, न आंखें खुलतीं, न इस तरह युग का साथ दे पाते ...।’ यही आकृति कहती है कि ‘आधुनिकता या मॉडर्निटी को अंगूठा दिखाने में तुम्हारी आत्मा को जाने कौन-सी परितृप्ति मिलती है!’ इस वाक्य से यह भ्रम हो सकता है कि नागार्जुन आधुनिक संवेदना के कवि नहीं हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। नागार्जुन और त्रिलोचन दोनों ही एक स्तर पर माडर्निटी का मखौल उड़ाते हैं, उसे अंगूठा दिखाते हैं। यह कुछ हद तक नयी कवितावादियों के आधुनिकतावाद का विरोध है जो इन कवियों में दिखायी पड़ता है। वस्तुतः पश्चिमी आधुनिकता के बरक्स एक देशज आधुनिकता का विवाद हिंदी साहित्य में हमेशा से बना रहा है। यह बात अलग है कि पश्चिमी आधुनिकता हमेशा वर्चस्व प्राप्त कर लेती रही है, क्योंकि शक्ति केंद्र ओर पत्रिकाएं उसी को प्रश्रय देती रहीं। लेकिन यह भी सच है कि प्रगतिवादी कवियों ने एक देशज आधुनिकता को अपने लिए अर्जित किया। इसे देर से पहचाना गया लेकिन अब वह एक ऐसी अवधारणा नहीं है जो कहीं रेखांकित न की गयी हो। नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 277 यह जादुई मैग्नीफ़ाइंग ग्लास नागार्जुन की कविता की बनावट में कहीं केंद्रीय रूप से मौज़्ाूद है। इस ग्लास ने हमारे आसपास और दूर-दराज़ की अनेक अलक्षित और धुंधली सच्चाइयों को, बुराइयों और अच्छाइयों को हमारे एकदम निकट ला दिया है ...उन्हें आवर्धित कर दिया है। तलवों के सहारे पी गयी माघी आकाश की हिमानी ओस और बादल पानी और नागार्जुन। नागार्जुन और पानी के संबंधों को लेकर अनेक किंवदंतियां हैं। नागार्जुन को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि आप प्रकृति के उन पक्षों के प्रति ज़्यादा इंद्रियग्राह्य होते हैं जिनसे आप अधिक से अधिक बचने की कोशिश करते हैं। स्वास्थ्य कारणों से नागार्जुन शीत और पानी से बचने की कोशिश करते थे, ऐसा सभी जानते हैं। शायद इस दूरी ने उन्हें पानी के प्रति बहुत ऐंद्रिय सेन्स्युअॅस...बनाया होगा। नागार्जुन निराला के बाद पानी के प्रति सबसे सेन्स्युअॅस कवि हैं। पत्राहीन नग्न गाछ में एक कविता है: सुबह ही सुबह आया हूं टहल दूब भरी लॉन में सुबह ही सुबह रौंद आया हूं मोतियों का पथार सुबह ही सुबह किया है अनुभव पुलकित हो रहे हैं रोम रोम स्पर्श के प्रभाव से किस तरह सुबह ही सुबह पैरों के तलवों के सहारे पी आया हूं माघी आकाश की हिमानी ओस सुबह ही सुबह आया हूं टहल दूबभरी लॉन में। नागार्जुन को इस अनुभव ने कहीं ज़रूर इतना रोमांचित किया होगा कि मैथिली की इसी कविता से मिलती-जुलती एक कविता नागार्जुन ने ‘सुबह-सुबह’ शीर्षक से हिंदी में भी लिखी। यहां भी माघ का ही महीना है और सुबह-सुबह उन्होंने नंगे पांव चहलक़दमी की है,रात्रि शेष की भीगी दूबों पर। दूब के मोतियों के पथार को रौंद आना और तलवों से माघी आकाश की हिमानी ओस को पीना यह इंद्रियग्राह्यता उस व्यक्ति में शायद इस तरह न हो जिसकी देह पानी के प्रति लगभग अभ्यस्त है। ओस के स्पर्श से रोम-रोम के पुलकित होने का भाव शायद उसमें होना संभव नहीं होगा। रघुवीर सहाय की कविता की एक पंक्ति ‘मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं’, का सहारा लेकर कहा 278 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 जा सकता है कि नागार्जुन की कविता पानी के संस्मरणों का एक पूरा अलबम है। निराला के ‘बादल राग’ और नागार्जुन के ‘बादल को घिरते देखा है’ के बीच बहुत महीन सा रिश्ता है। स्वाधीनता-संग्राम का वह विप्लव का वीर यहां जन-संघर्षों का बादल राग बन जाता है। विप्लव का वीर यहां महामेघ हो जाता है। नागार्जुन बहुवचन को जोड़कर महा-एकवचन बना देते हैं: मैंने तो भीषण जाड़ों में नभचुंबी कैलाश शीर्ष पर महामेघ को झंझानिल से गरज गरज भिड़ते देखा है बादल को घिरते देखा है। बादल और पानी को लेकर नागार्जुन की एक कविता को याद करें तो एक के बाद एक कविताएं याद आने लगती हैं। ‘अंतश्रावण का यह मेघ’, ‘देखना ओ गंगा मइया’, ‘बाढ़-67’, ‘सिंधु नद’, ‘बदलियां हैं’, ‘मन करता है’ ....न जाने कितनी कविताएं...। पता नहीं नागार्जुन पर कितने कवियों ने कितनी कविताएं लिखी हैं। एक संग्रह ऐसा तैयार किया जाना चाहिए जिसमें कवियों द्वारा कवियों पर लिखी कविताओं को संकलित किया जा सके। शायद निराला पर हिंदी के अधिकांश कवियों ने कविताएं लिखी हैं। नागार्जुन पर लिखी गयी कविताओं में एक प्रसिद्ध कविता केदारनाथ अग्रवाल की हैμनागार्जुन के बांदा आने पर। हालांकि यह कविता नागार्जुन की शख़्सियत के पक्षों को उजागर नहीं करती। उसमें नागार्जुन के बांदा आने की खुशी और कृतज्ञता अधिक है। उसमें केदारनाथ अग्रवाल का अपना अकेलापन है। दोस्तों के बांदा नहीं आने की शिकायत है और निराला, रामविलास शर्मा, महादेव साहा आदि कुछ मित्रों के बांदा आने का और उससे पैदा हुई खुशी का इज़हार है। शमशेर की कविता ‘बाबा हमारे, नागार्जुन बाबा’ छोटी मगर बहुत दिलचस्प कविता है। यह बहुत कम शब्दों में नागार्जुन की शख़्सियत और उनकी कविता की कुछ खूबियों की ओर संकेत करती है। पहला ही बंद है: ‘खुल सीसेम !‘ सबों के सामने- कहते सबों के सामने - ख़ज़ानों की गुफ़ाएं सबों के लिए खुल पड़तीं, क्लासिक क्रांतिकारी ख़ज़ाने इस अलीबाबा के खज़ाने क्लासिक और क्रांतिकारी खज़ाने हैं। नागार्जुन की कविता कभी न हार मानने वाली जनता के बहादुर तराने और ज़िंदा फ़साने हैं। वे आज के इतिहास को छंद में समझाने वाले हैं। नागार्जुन की कविता की जिन विशेषताओं को आलोचना का एक लंबा लेख भी अपने में पूरी तरह न समेट पाता उसे शमशेर ने बहुत सीमित शब्दों की एक छोटी सी कविता में समेट लिया है। नागार्जुन की कविता के छंद की भी कई विशेषताओं की ओर शमशेर इंगित करते हैं: कभी धीमी गुनगुनाहट में कभी थिरकते व्यंग्य में नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 279 कभी करुण सन्नाटे में तो कभी बिगुल बजाते और कभी चिमटा। इसी कविता में आगे की कुछ पंक्तियां हैं: इसी मस्ती से क्रोध और आवेश के कड़ुए घूंट को किसी तरह मीठा-सा बनाये जनता के, जलते हुए अभावों की आग में नागार्जुन की कविता की यह विशेषता रही है कि वह अपने क्रोध और आवेश को भी एक ख़ास तरह की नाटकीयता में रूपांतरित कर लेती है। शमशेर की यह कविता नागार्जुन की कविता की अनेक बारीक़ियों की तरफ़ इंगित करती है। वह युग की गंगा में उनके गोते लगाने के हुनर को भी जानती है और उनके अदभुत स्वांग को भी। कभी-कभी लगता है कि नागार्जुन की सारी कविताएं एक घुमक्कड़ कवि की यात्रा-डायरियां हैं। उसमें हमारे भूगोल, हमारे रहन-सहन, हमारी बोली-बानी, हमारे सुख-दुख, हमारी प्रतिपल परिवर्तित होती प्रकृति और आसपास घटती राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाएं सभी कुछ दर्ज है। उसमें कटहल के पकने, नये भुट्टों के आने और बस सर्विस बंद होने जैसी अनेक सूचनाएं हैं, जिन्हें हम अक्सर अनदेखा और अनसुना कर जाते हैं। यह कविता न किसी को बख़्शती है न अदेखा करती है। नागार्जुन स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का। उनकी कविता में बुद्ध की करुणा और कबीर का मुंहफटपन है। वे एक ऐसे कवि हैं, जो एक ऐसे रवि का उद्गाता है, जो जन-जन में ऊर्जा भर दे। फोन: 0755-2770046