जब दरवाज़ा बनता था / अभिज्ञात / पृष्ठ 3

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वह रात चांदनी रात थी और अजीब। बेचन की पत्नी अपने मायके गयी थी और बच्चे खाकर सो गये थे। बेचन ने नहा-धोकर पेड़ की पूजा की थी और फिर आरी ले आया। रोशनी का इन्तजाम उसने पहले से कर रखा था। और रात भर आरी चलने की आवाज़ आती रही। जिससे वह लकड़ी बनाने का काम सीखता था उसे भी उसने बुला रखा अपने अन्य साथियों के साथ। सबकी मदद ली गयी और सुबह पेड़ का एक हिस्सा कटा पड़ा था, जो बेचन का पुश्तैनी पेड़ था और देवता भी, जिसकी उसने भी बचपन में पूजा की थी और सुख-समृद्धि सहित न जाने कितनी ही फरमाइशें की थी।

उसने घर का एक कमरा पूरी तरह से खाली किया और उसमें पेड़ का कटा हुआ हिस्सा लोगों की मदद से उसके भीतर ले गया। इसके बाद उसने बढ़ई के यहां काम पर जाना बंद कर दिया। अब उसका वह कमरा ही उसका कार्यक्षेत्र था। उसका साधना केन्द्र था, उसकी ज़िन्दगी की मंज़िल जैसे वहीं कहीं थी।

दिन में तो वहां ठक्क-ठक्क की आवाज़ें आती ही देर रात तक वह वहां काम में मशगूल रहता।

वह वहां दरवाज़ा बना रहा था। अपनी पसंद का दरवाज़ा। वैसा दरवाज़ा जैसा शायद दुनिया में कहीं नहीं था। वैसा ही जैसा उसने स्वप्न में देखा था। कई बार वह दरवाज़ा बनाते बनाते वहीं सो जाता। नींद में वह दरवाज़ा खुलता जिसके उस पार एक सुन्दर लोक था।

उसने दरवाजा बनाया। उसकी चौखट लगायी। उस पर तरह-तरह की नक्काशियां करता रहा। बचपन में वह स्कूल नहीं गया था। उसके हाथ में स्लेट-पेंसिंल नहीं आयी थी जिस पर चित्र बनाता। उसने यह काम दरवाजे पर किया। जहां जो मन में आया उकेरता गया। मनचाही आकृतियां उकेरता गया। काट-छांट करता गया। लकड़ियों की कमी नहीं थी। समय की कमी नहीं थी। चाहत और स्वप्न की भी कमी नहीं थी। उसे लगता काश यह दरवाज़ा बनकर कभी पूरा न हो क्योंकि उसमें तरह-तरह की आकृतियां बनाने का अद्भुत अबोला सुख उसे मिलता था। उसे थकान महसूस नहीं होती थी और दुनिया की तमाम चिन्ताएं उसे नहीं व्यापती थीं। कुछेक महीने बीते और उसका स्वप्नमय दरवाज़ा बनकर तैयार हो गया।

इस बीच पत्नी जब अपने मायके से लौटी तो हतप्रभ रह गयी थी। फिर धीरे-धीरे यह मान लिया था कि उसका मनोरोग पहले से बढ़ गया है। और तो और घर के देववृक्ष पर उसने आरी चलायी है और उनके कुल-खानदान पर उसका शाप लगना तय है। पता नहीं क्या बदा है तक़दीर में। घर का पूरा खर्च उठाना अब उसकी ज़िम्मेदारी थी जिसमें कई और घरों का काम करके भी वह पूरा नहीं कर पा रही थी। बेटी की शादी के लिए संचित रक़म घर खर्च में ही ख़त्म हो गयी।

हालांकि बातचीत से कहीं नहीं लगता था कि बेचन का दिमाग फिर गया है। वह पहले से अधिक खुश रहता। अच्छी और प्यारी बातें करता। कभी-कभी तो ठहाके लगाता। अपने बचपन की बातें करता। नदी, नालों, कबूतरों, नानी के गांव के नदी के तट का ज़िक्र करता। अपनी बेटी के भावी घर-वर के सपने संजोता। वह पहले से बेहतर इनसान लगता। बस कमी यही थी कि दरवाज़ा बनाने का उसके दिमाग़ पर अजीब सा फितूर चढ़ा हुआ था जिसके लिए उसने अपना काम-काज छोड़ दिया था और कुछ महीने की बढ़ईगिरी के प्रशिक्षण के आधार पर यदि लकड़ी का कुछ बनाता भी है तो क्या खाक बिकेगा। फ़िलहाल तो वह दान देने के लिए दरवाज़ा बना रहा है। चूंकि वह अपने पिता के वचन का पालन कर रहा था इसलिए कोई पुरज़ोर विरोध नहीं हुआ।

पहले तो कोई बेचन के कमरे में जाता नहीं था। एक बार बेटी गयी तो दरवाज़ा देखकर अवाक रह गयी। उसने अपनी मां और भाई को बताया। फिर तो पूरे गांव में उसके दरवाज़े की चर्चा थी। लोग देखने आते। तरह-तरह की सकारात्मक-नकारात्मक टिप्पणियां सुनायी देने लगीं। ज्यादातर लोगों ने तो उसके आकार प्रकार और अनगढ़ता के आधार पर उसे दरवाज़ा मानने तक से इनकार कर दिया। हालांकि उसके दरवाज़े की चर्चा गांव से निकलकर आस-पास के दूसरे गांवों तक जा पहुंची थी।

इसी बीच तहसील के गेस्ट हाउस में भारतीय लोक-कला पर शोध में लगा एक विदेशी विद्वान ठहरा था। गांव के कोहबर से लेकर काष्ठ शिल्प आदि पर जानकारियां जुटा रहा था। उसने बेचन के दरवाज़े के बारे में सुना तो उसके घर आया। बेचन का काम देखकर वह हैरत में था। उसने तरह-तरह के सवाल उससे किये। बेचन के जवाब ऐसे थे जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी। एक ठेला चलाने वाला अपनी आजीविका का काम-काज छोड़कर इस प्रकार एक दरवाज़ा बनने के लिए साल भर से अधिक से जद्दोजहद कर रहा है। ककहरे से लेकर, गांव-जवार के तमाम पशु-पक्षी, खेत, खलिहान, फूल-फल, लोग- बाग सब एक ही दरवाज़े पर चित्रित थे। काष्ठ-शिल्प की एक बेजोड़ कृति इस छोटे से गांव में तैयार हो रही थी। यह देखकर वह रोमांचित हो उठा। उसने कई तस्वीरें लीं। काम करता हुआ बेचन, अपने परिवार के साथ हंसता-मुस्कुराता बेचन और अपने नायाब दरवाजे के साथ बेचन। विदेशी शोधकर्ता ने गांव वालों से भी बेचन के काम और जीवन के बारे में प्रतिक्रिया ली जो रोचक थी। ज़्यादातर लोगों ने उसके प्रति संवेदनशीलता तो जताई लेकिन कलाकार मानने से इनकार कर दिया। कई लोगों ने कहा कि उन्हें तो पता ही नहीं चल रहा है कि वह क्या बना रहा है। इस तरह के काष्ठ-शिल्प की गांव या इलाके में कोई परम्परा ही नहीं है। ऐसा पहली बार हो रहा है। बेचन जो कर रहा है यह कोई बहुत सीखी हुई कला नहीं है।

शोधकर्ता तो चला गया लेकिन उसके कुछ दिन बाद तक बेचन अपने गांव में एक खास व्यक्ति बना रहा। ---

बेचन अब अपने दरवाज़े को लेकर स्कूल जाने की तैयारी कर रहा था। पास के कस्बे से मोटरवैन मंगाई गयी थी लेकिन ऐन वक्त पर मामले में थोड़ी पेंच आ गयी। दरवाज़ा इतना बड़ा था कि घर से बाहर निकले कैसे? आम दरवाज़ों की तुलना में डेढ़ गुना से भी ज्यादा। दरवाज़ा दरअसल पूरे कमरे में समा जाने को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इस बात का ध्यान नहीं रखा गया था कि दरवाज़ा अमूमन कितना बड़ा होना चाहिए या फिर उसकी आम लम्बाई-चौडाई कितनी होती है। दरवाज़े के बाहर निकलने की मुश्किल की एक वज़ह यह भी थी कि बेचन ने सिर्फ़ दरवाज़ा नहीं बनाया था बल्कि चौखट भी बनायी थी और दरवाजे को कब्जों की सहायता से चौखट में जड़ दिया था और कुंडियां भी लगा दी थीं। जबकि घर में चौखट को पहले दीवार में लगाया जाता है और फिर चौखट में दरवाजे को कब्जा लगाकर जोड़ा जाता और अंत में सांकलें और कुंडियां लगायी जाती हैं।

बेचन ने जो दरवाज़ा बनाया था उसे कमरे से निकालने के लिए घर में लगा दरवाज़ा खोल दिया गया। वह जिस दीवार में लगा था उस दीवार को काफी हद तक तोड़ दिया गया। दरवाज़े के कारण यह एक नयी मुसीबत थी जो बेचन को उठानी पड़ी थी। उसकी पत्नी ने माना यह शाप है और आखिर दरवाज़े की वजह से पुश्तैनी घर का एक हिस्सा तोड़ना पड़ा।

लेकिन दरवाज़े को लेकर मुश्किलों का अन्त यह नहीं था।

जब दरवाज़ा स्कूल पहुंचा तो बेचन ने पाया कि स्कूल का नक्शा बदला हुआ है। स्कूल सरकारी हो गया था और उसके चार कमरे बनकर तैयार थे, जिनमें पहले ही दरवाज़े लगे हुए थे। अलबत्ता दो कमरे इधर नये बनाये जा रहे थे। बेचन ने जब दरवाज़ा स्कूल को भेंट करना चाहा तो प्रबंधन उसे लेने को तैयार नहीं हुआ। उसने काफी मिन्नतें कीं। अपने स्वर्गीय पिता का हवाला दिया कि यह उनकी ख्वाइश थी। यदि वह दरवाज़ा दान में नहीं दे पाया तो उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।

प्रबंधन का कहना था कि फिर वे यह दरवाज़ा क्यों लें। जो दो कमरे बन रहे हैं उनके लिए दरवाज़े का बजट स्वीकृत हो चुका है। दरवाज़ा बनाने का ठेका दिया जा चुका है और माप-जोख हो चुकी है। उसका भुगतान किया जा चुका है। फिर इस दरवाज़े का क्या करेंगे। अगर स्कूल प्राइवेट होता तो हेरफेर किया जा सकता था किन्तु सरकारी स्कूल में एक भी कदम अपने मन से नहीं उठाया जा सकता। फिर भी यदि गांव के सरपंच कह दें तो विचार किया जा सकता है। दरवाज़ा स्कूल परिसर के बाहर ही रख दिया गया। बेचन सरपंच के घर गया। पता चला कि वे दूसरे गांव गये हैं, घर लौटने में रात हो जायेगी, वह अगली सुबह आये।

दूसरे दिन तड़के ही बेचन सरपंच के घर पहुंचा। पहले तो वे राजी नहीं हो रहे थे किन्तु जब उसने अपने पिता का हवाला दिया तो वे पिघले। बेचन से दरवाज़ा दान में देने की मंशा की अर्जी लिखायी गयी। उस पर सरपंच ने अपनी संस्तुति लिखी। वह पत्र लेकर स्कूल प्रबंधन के पास गया। तब कहीं जाकर दरवाज़ा स्कूल प्रबंधन ने स्वीकार किया और उसे स्कूल परिसर में पीछे बने गोदाम में रखवा दिया गया।

बेचन ने जब प्रबंधन से अपने पिता के नाम पर दरवाजे के दान की रसीद मांगी तो प्रबंधन ने साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था लिखित देने पर वे फंस सकते हैं। यह भी कोई दान हुआ। नकदी दो, ज़मीन दो, किताबें दो, बच्चों के लिए बस्ते दो कोई दिक्कत नहीं है। पर यह तो बेढब सा अगड़म-बगड़म बना दरवाज़ा है, उसे किस आधार पर दान खाते में चढ़ायें। बेचन अगले एक सप्ताह सरपंच से लेकर दूसरे गांव में रहने वाले विधायक तक दौड़ा तब जाकर कहीं उसे दान की रसीद प्राप्त हुई। बेचन ने चैन की सांस ली। अपने पिता का वचन उसने निभाया है।

वह घर लौटा और अगले ही दिन से वह अपनी पुरानी आजीविका में लौट आया। वह हाथ ठेला खींचने के काम में लग गया। पत्नी व बच्चे खुश थे। उन्होंने मान लिया बेचन का दिमाग सही हो गया है।