जमीन का टुकड़ा / अखिलेश मिश्रा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ददन रात भर करवट बदलते रहे। कभी बाईं ओर तो कभी दाईं ओर! हर करवट के साथ उनकी खटिया चूँ-चूँ की आवाज करती मानो उसे ददन का बार-बार करवट बदलना पसंद नहीं और उसे तकलीफ हो रही है। वह बिस्तर से उठकर चार-पाँच बार लघुशंका के लिए गए, जबकि उन्होने रात में ज़्यादा पानी नहीं पिया था। वह रजाई को कभी सिर तक ढकते तो कभी छाती तक। कभी-कभी वह उसे अपने पैरों की तरफ ढकेल देते। लंबी और गहरी साँस लेने की कोशिश करते पर सफलता नहीं मिलती। भगवान का नाम लेने कि कोशिश करते तो मन उचट कर कहीं और चला जाता। बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें नींद नहीं आ रही थी। रात बड़ी लंबी लग रही थी। काफी जागरण के पश्चात सुबह का सूरज अपनी लालिमा बिखेरता क्षितिज पर उदय हुआ। मगर यह लालिमा, ददन के गृह नक्षत्रों के कुप्रभाव के कारण उनके जीवन में आई कालिमा को मिटा पाने में असमर्थ थी। रज्जू की शादी के लिए पैसे का जुगाड़ नहीं हो पा रहा था।

ऐसा बहुत कम ही होता था कि ददन को अपने पुश्तैनी मकान में नींद न आए, वह भी अपनी खटिया में। ददन के लिए उनका पुश्तैनी मकान ही उनका चारों धाम था।

आधा पक्का और आधी मिट्टी से बने खपरैल घर में ददन अपने संयुक्त परिवार के साथ रहते थे। घर में आठ-दस कमरे, एक बड़ी ओसारी और बीच में एक बड़ा-सा आँगन था। सुबह के समय आँगन में सूरज भगवान के साक्षात दर्शन हो जाते अतः ठंड के दिनों में घर के सब लोग सुबह आँगन में ही आकर बैठ जाते, खासकर महिलाएँ और बच्चे! घर के अगल-बगल खेत और बगिया थी। बगिया की तरफ बिजली वाला पाँच हॉर्स पावर का पंप लगा हुआ था। पीछे की तरफ जानवरों के लिए एक बड़ा-सा कम ऊँचाई का ओसारीनुमा कमरा बना था।

शादी ब्याह के समय खाने की पंगत ओसारी में बैठती और शादी आँगन में होती। इस मकान की दीवार में लगी मिट्टी और ईंटें ददन के दद्दा ने स्वयं अपने हाथों से ढोया और लगाया था।

सुबह उठकर नित्यक्रिया से निवृत्त होने के बाद पुरानी एक हत्थे कि लकड़ी की कुर्सी में कुछ चिंतित, सुस्त और शांत बैठे ददन एकटक अपने घर की तरफ देख रहे थे। छोटे अपने भाई के मन की चिंता को समझ गए पर वह असहाय महसूस कर रहे थे। वह एक निम्न मध्यम वर्ग के किसान हैं, जिसकी आमदनी की पूँजी जोड़ने लायक नहीं होती।

ददन और उनके भाई बहुत ही संतोषी प्रवृत्ति के थे। उनके पास जो भी रहता, उसी में वह सुखपूर्वक गुजर-बसर कर लेते। मगर कुछ जिम्मेदारियाँ और ज़रूरतें ऐसी होती हैं, जो इनसान को कमजोर और लाचार बना देती हैं।

ददन और छोटे इस समय कुछ-कुछ ऐसी ही दशा से गुजर रहे थे।

'भगवान यदि किसी को बिटिया दे तो उसे गरीब न बनाए. आज मैं चाहकर भी अपनी बेटियों के लिए अच्छे संपन्न घर का स्वप्न नहीं देख सकता।' ददन ने मन ही मन सोचा।

'जमीन बेचने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है। यह बात भइया को समझनी पड़ेगी।' वहीं पास में बैठे छोटे ने मन ही मन विचार किया।

जमीन! ...दद्दा की जमीन! ...पूर्वजों की जमीन! ...तीन एकड़ दद्दा को उनके हिस्सा बाँट में मिला था और तीन ही एकड़ दद्दा ने अपनी मेहनत की कमाई से खरीदा। ददन के लिए यह जमीन भगवान से भी ज़्यादा बढ़कर थी। वह दद्दा के साथ बचपन से इन खेतों में जाते थे। उन्होने अपने दद्दा का इन खेतों के प्रति लगाव और स्नेह बिल्कुल निकट से देखा था। दद्दा खेतों को अपने पूर्वजों की तरह पूजते। वह रोज खेतों का दो चक्कर ज़रूर लगाते।

कई बार ददन ने सूरज भगवान से प्रार्थना किया कि 'हे सुरिज भगवान! यदि अगला जनम इनसान का मिले तो फिर से इन्हीं खेतों में जिंदगी बिताने का अवसर मिले। मैं हर रविवार आपको एक नरियल चढ़ाऊँगा... कृपया आप मेरी इच्छा पूर्ति कर दीजिएगा।'

एक स्वाभिमानी इनसान मुफ्त में किसी से कुछ नहीं लेना चाहता।

ददन कई सालों से रविवार का व्रत रख रहे थे। रविवार का व्रत रखने से क्रोध शांत होता है। ऐसा उन्हें बसदेइया अघोर ने बताया था।

बसदेइया अघोर का इस गाँव से नाता कई पीढ़ियों पुराना था। वह साल में तीन-चार बार गाँव आकर अपने लिए कुछ अन्न, पानी का जुगाड़ कर लेता। कभी-कभी वह लोगों का हाथ देखकर जीवन, भाग्य, शादी और विद्या रेखाओं के बारे में बता दिया करता। उसे धरम-करम के बारे में भी कुछ-कुछ जानकारी थी।

ददन की अम्माँ बसदेइया से हर बार एक ही प्रश्न पूंछती कि 'मरने से पहले मुझे बुढ़ापे का कष्ट तो नहीं झेलना पड़ेगा?

बसदेइया का एक ही जबाब होता, 'अम्माँ तुम चलते-फिरते ही मर जाओगी।'

'कब? ...कितनी उमर है मेरी?' अम्माँ आगे पूछतीं।

'तिथि, महीना और बरस यह सब हम नहीं बता सकते अम्माँ। मैं इतना बड़ा ज्योतिषी नहीं हूँ और झूठ बोलना मैंने कभी सीखा नहीं है। मेरे पिताजी कहा करते थे कि इस विद्या में झूठ नहीं बोलना चाहिए वरना यह ज्ञान नष्ट हो जाता है।'

'सही बोल रहे हो, बसदेइया! इनसान को झूठ नहीं बोलना चाहिए.' यह कहकर अम्माँ उसकी खुली हुई गठरी में दो कुरई गेंहू और चने की दाल डाल देती।

'बड़ा भोलाभाला इनसान है बसदेइया! घोर तपस्या करने के बाद ही अघोर बनते हैं, पर इसमें तपस्या का अभिमान बिलकुल नहीं है।' ददन की अम्माँ बसदेइया के जाने के बाद खुद ही बोल पड़ती, अपने आप से!

बसदेइया अघोर की कुछ भविष्यवाणियाँ सही भी हुई थीं। उसने गाँव के कोद्दे गौतम को बचपन में ही बोल दिया था कि वह विदेश जाएँगे और ऐसा सच में हुआ। कोद्दे बचपन में बड़े उद्दंड और टंटपलिहा थे और उनका पढ़ने में मन बिल्कुल नहीं लगता था। लेकिन बाद में कोद्दे पढ़ाई के प्रति लगनशील हो गए और बड़े इंजीनियर बने। वह पूरे तीन साल विदेश में रहे।

ददन को उदास देखकर, सुबह कि चाय की चुस्की लेते हुए छोटे अपने मन की बात बोले, 'भइया! खेती से जब आमदनी नहीं होती है, तब कुछ जमीन बेच देने में क्या हर्जा है?'

'छोटे! ...जमीन बेचने की बात दुबारा मत करना। मैं अपने पुरखों की जमीन कभी नहीं बेंचूँगा।' ददन भावावेश में आकर हिदायत देते हुए बोले।

छोटे चुप हो गए. वह ददन का बड़ा लिहाज करते थे और कभी उनसे बात नहीं भिड़ाते थे।

भतीजी की शादी को लेकर वह भी बहुत परेशान थे।

ददन का चेहरा कुछ सिकुड़ गया और उनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह गुस्से में हैं। गुस्से के समय उनके चेहरे की आकृति बिगड़ जाती और देखने में वह कुछ अजीब से लगते।

अम्माँ अक्सर कहतीं कि ददन नकचढ़े और छिरहा हैं। गुस्सा उनके नाक में रहता है। पर वह दिल से बड़े साफ हैं। उनका गुस्सा जितना जल्दी आता है, उतना ही जल्दी उतर जाता है।

चाय के बाद सब अपने-अपने काम में लग गए. किसान का नाश्ता तो गुड, चना और चाय ही होता है।

नवंबर का महीना था। ठंड जोर पकड़ रही थी। खेतों में जुताई और बुवाई का काम बड़ी तेजी से चल रहा था। हर साल की तरह मुख्यतः गेंहू ही बोया जा रहा था। कुछ खेतों में रहिला (चना) और मसुरी भी बोई जा रही थी। चारो तरफ ट्रैक्टर और पंप की आवाज सुनाई देती। ट्रैक्टर और डीजल पंप से निकले धुएँ ने वायुमंडल के काफी ऊपरी हिस्से तक अपनी पहुँच बना लिया। ऐसा लगता, मानो यह धुआँ ऊपर जाकर नीले आकाश को धुँधला कर देगा। खेतों में सफेद रंग के बकुले अपने भोजन की व्यवस्था में इधर-उधर घूमते रहते। लोग कहते कि यह बकुले हर साल इस मौसम में दूसरे देश से भारत आते हैं। यह हमारे अतिथि हैं और हमारी भलाई के लिए आते हैं।

ददन और छोटे खेती का काम देखते जबकि भूरे व्यापार सँभालते थे। भूरे के अनुसार व्यापार बिना फायदे का था पर वह इस सोच के साथ इसमें जमे हुए थे कि एक न एक दिन व्यापार से उन्हें बहुत पैसा मिलेगा। भूरे सकारात्मक सोच के थे और संघर्ष की भावना उनके अंदर कूट-कूट कर भरी हुई थी। संघर्ष की भावना उन्हें अपने खानदान से मिली। ददन और छोटे भी उनका हौंसला बढ़ाते रहते। तीनों भाइयों का प्रेम और एक दूसरे पर विश्वास आसपास के इलाके में एक उदाहरण था।

ददन खेत में काम करते समय भी कुछ परेशान थे। वह मन ही मन सोच रहे थे कि ऐसी खेती से क्या फायदा, जिससे घर की छोटी मोटी ज़रूरतें भी पूरी न हो सके. इसी कारण लोग खेती से दूर भाग रहे हैं। यदि इस दिशा में जल्द ही कुछ प्रयास नहीं किए गए तो लोग खेती करना बंद कर देंगे। इसके बाद खेती भी उद्योगपतियों के हाथ में चली जाएगी और तब आम लोगों को खाने के लिए दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी। जो गोभी हम दो रुपए किलो में बेचते हैं, वह बाज़ार में तीस रुपए किलो में बिकती है। उद्योगपतियों के हाथ में खेती जाने के बाद यही गोभी सौ रुपए किलो बिकेगी। इसका नाम बदलकर कुछ अँग्रेजीनुमा नाम हो जाएगा। मकई का हाल हम सबको पता है। पहले इसे बड़े हेय दृष्टि से देखा जाता था, पर आज यह रईसों के खाने की टेबल में सम्मान पाता है। इसी तरह कोदव को गरीबों का भोजन कहा जाता था, पर आज यही कोदव कोडोराइस के नाम से फाइव स्टार होटल की डिश है। जो लोग इसकी तरफ देखते तक नहीं थे, आज बड़े सम्मान के साथ खाते हैं और कई गुना पैसा अदा करते हैं। सच में! हम भारतीय गुलाम मानसिकता लेकर पैदा होते हैं। यह शायद कई वर्षों की गुलामी झेलने के कारण हुआ है, पर अब तो हम लोगों को अपने अंदर स्वाभिमान की भावना जगानी चाहिए. खैर! ऊपर वाला कुछ न कुछ विधान सोचकर रखा ही होगा।

यही सोचते-सोचते ददन खेत में बनी नाली में गिर पड़े। उन्हें कुछ चोट भी लग गई. मगर वह खेत से वापस नहीं आए. किसान इतनी चोट को चोट नहीं समझता है। वह तो बना ही है, बड़ी-बड़ी चोट खाने के लिए!

छोटे किसी बात को मन में ज़्यादा देर तक नहीं दबा पाते थे। गाँव घर के लोग कहते कि छोटे के पेट में कोई बात पचती नहीं है। यद्यपि वह आहार बहुत लेते और उसे ठीक तरह से पूरा पचा भी लेते। उन्होने अपने जीवन में कभी कोई चूरण नहीं खाया।

सुबह वाली बात छोटे ने शाम को फिर से कह दी, 'भइया! यदि यही हाल रहा तो खेती एक दिन बंद हो जाएगी।'

'खेती बंद हो जाएगी तो इतनी बड़ी आबादी को खाना कहाँ से मिलेगा?'

'यदि खेती से साल में दो पैसे की भी आमदनी नहीं होगी, तो कौन करेगा ऐसी खेती?'

'बात तो तुम्हारी सही है। युवा लोग इसी कारण खेती से भाग रहे हैं।'

'युवा लोग कहीं भी दो हजार की नौकरी कर लेंगे पर खेती करना उन्हें नहीं सोहाता है।'

'सही कह रहे हो!'

'लेकिन भइया! किसान दुखी रहेगा तो दुनिया में खुशहाली कैसे रहेगी?'

'दुनिया में खुशहाली है ही कहाँ? सब असंतुष्ट और भूखे हैं। जिसके पास सब कुछ है, वह और के लिए भूखा है... बल्कि वह सबसे ज़्यादा भूखा है।'

ददन यह कहकर शांत हो गए. उन्होने सिर को पकड़कर एक लंबी-सी आह भरी।

छोटे समझ गए कि ददन बात करने के मूड में नहीं हैं। वैसे भी ठंड सबके मुँह में जकड़न पैदा कर रही थी। सब लोग जल्दी से जल्दी रजाई के अंदर घुसना चाहते थे। रात को दो बजे बिजली आएगी तो उठकर पंप चलाना पड़ेगा। इसकी ड्यूटी छोटे की थी। अपने काम में छोटे कभी फेल नहीं होते।

ददन चुप्पी तोड़ते हुए अचानक बोले, मानो उन्हें कुछ याद आ गया हो, 'तुम तो कह रहे थे कि कृषि विभाग के वैज्ञानिक आर एन सिंह खेती का बड़ा उज्ज्वल भविष्य बता रहे थे?'

'वह बोल तो रहे थे कि आनेवाले समय में खेती सबसे बड़ा व्यापार बनेगा और पढ़े लिखे लोग खेती से जुड़ेंगे।'

'ऐसा कब तक में होगा? वह कुछ समय बताए हैं क्या?'

'2025 तक में!'

'भगवान करे ऐसा ही हो!'

यह कहकर ददन ने रजाई सिर से ओढ़ ली। ठंड के मारे उनके दाँत कटकटा रहे थे। उनकी स्वेटर बहुत पुरानी थी और कई जगह से फटी हुई थी। रजाई में भी रूई की मात्रा कम हो गई थी। यह रजाई दस वर्ष पुरानी थी और उन्होने इसे शादी में मिले कंबल और रजाई के फटने के बाद बनवाई थी।

चोट की वजह से उन्हें कुछ दर्द भी महसूस हो रहा था। बार-बार घूम-फिरकर उनके दिमाग में रज्जू की शादी की ही बात आती। जवान बेटी का घर पर रहना, माँ बाप के लिए चौबीसों घंटे की चिंता का विषय दे देता है। परिचित और रिश्तेदार भी एक ही प्रश्न पूछते हैं, 'कब कर रहे हो बिटिया की शादी?'

'बिटिया की शादी की चिंता सारे गाँव को रहती है पर मदद कोई नहीं करता।' यह सोचकर ददन ने एक लंबी जम्हाई ली।

'गारी गाँवय जनक जी की नारियाँ, दूलह श्री रामजी लला... करके सुंदर श्रंगार चले अपनी ससुराल, लिहीन आरती सजाय... सासा लाई पूजन की थारियाँ, दूलह श्री रामजी लला।' ददन की अम्माँ रजाई के अंदर कुछ गा रही थीं।

ददन की माँ रोज सुबह और शाम के वक्त का बड़ी बेसब्री से इंतजार करती। इस समय वह बेटों के साथ बैठकर कुछ दरबार कर लेतीं। दिनभर तो बेटे इधर-उधर काम में लगे रहते। उन्हें भी रज्जू कि शादी की बड़ी चिंता हो रही थी।

'क्या गा रही हो, अम्माँ?' ददन ने पूछा।

'सोहाग!'

'आज अचानक सोहाग गाने की इच्छा कैसे हो गई?'

'रज्जू की शादी का ख्याल मन में आया, तो गाने लगी।'

ददन चुप हो गए.

'रज्जू की शादी इस साल कर देनी चाहिए. मेरी भतीजी की शादी पढ़ाई के कारण पच्चीस साल तक नहीं हुई थी, इसके बाद लड़का ढूँढ़ने में बड़ी समस्या आई थी।' अम्माँ ने ददन की खामोशी को तोड़ते हुए कहा।

'सोच तो मैं भी रहा हूँ कि इस साल रज्जू की शादी कर दिया जाए.'

'फिर समस्या क्या है?'

'दहेज के लिए पैसा?'

'उधार ले लो?'

'कोई नहीं दे रहा है!'

'क्यों?'

'पिछले साल रानी की शादी में पैसे उधार लिए थे और वह अभी तक चुका नहीं पाए हैं।'

'खेती बेचने से जो पैसे मिले थे, उससे ऋण चुका दो!'

'वह पैसे बहुत कम हैं, माँ!'

'फिर क्या करोगे?'

'वही तो सोच रहा हूँ।'

कुछ देर शांत रहने के बाद ददन ने छोटे से उत्साहित होकर कहा, 'दुकौड़ी काका से पैसे माँगकर देखें?'

'काका सब बात सुन सकते हैं, मगर पैसे की बात सुनते ही उन्हें जम्हाई आने लगती है।'

'क्या हम उधार लेकर कहीं भाग जाएँगे?'

'अब कौन समझाए काका को? वह हृदय से साफ हैं पर पैसे के मामले में उनकी बुद्धि बहुत संकुचित हो जाती है।'

'वाह रे पैसा! कोई लेकर आज तक ऊपर तो नहीं गया है... लेकिन तब भी इतना मोह!'

'भइया! ... लगता है आनेवाले समय में पैसा सारे रिश्तेनातों की मर्यादा को समाप्त कर देगा।'

'सही कह रहे हो! कलयुग में पैसे का महत्त्व बहुत बढ़ गया है और दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।'

दरबार करते-करते बियारी का समय हो गया। रज्जू ने अंदर से आकर कहा, 'खाना तैयार है।'

'क्या बनाया है, मेरी बिटिया ने?'

'रोटी, तरकारी।'

'काहे कि तरकारी?'

'कद्दू की!'

'छोटे! रज्जू ने तरकारी बनाई है, तो वह स्वादिष्ट होगी ही। जल्दी खाने के लिए चलते हैं। ठंड बढ़ रही है।'

खाने के पश्चात सब बिस्तर में घुस गए.

नींद आज भी ददन के साथ आँख-मिचौली खेल रही थी। जैसे ही उन्हें महसूस होता कि वह सो गए हैं, उनकी नींद खुल जाती और उनके दिमाग में पैसे वाली बात घूमने लगती।

'कम से कम चार पाँच लाख का खर्चा तो आएगा ही। पिछले साल रानी की शादी में चार लाख खर्च हुए थे। हम लोग थोड़ी बहुत जमीन जायदाद वाले लोग हैं, खुद को गरीब गोरुवा भी नहीं कह सकते। एक किसान, दूसरे किसान की हालत समझ सकता है पर दिखावटीपन ने दुनिया के ऊपर एक आवरण-सा ढक दिया है। लोग समझते हुए भी कुछ नहीं समझते हैं। लगता है जमीन का कुछ हिस्सा बेचना ही पड़ेगा।'

दद्दा ने मरते समय कहा था, 'बेटा! जमीन मत बेचना।'

'ज्यादातर जमीन दद्दा ने अपने मेहनत की कमाई से खरीदा था। सब नात-रिश्तेदार भी कहेंगे कि कैसे नालायक बेटे हैं, कुछ बना तो नहीं सके बल्कि जो कुछ भी था उसे भी बेच रहे हैं। लोग उलाहना और सलाह बिना माँगे ही दे देते हैं जबकि मदद माँगने पर भी नहीं देते। क्या हम किसी का पैसा मार देंगे? एक साल में नहीं तो तीन-चार साल में सब कुछ पटा ही देंगे, पर किसी को इतना धैर्य नहीं है। ब्याज भी तीन रुपया सैकड़ा मासिक! मतलब एक बार ऋण लिया तो पटाते-पटाते दाढ़ी सफेद हो जाएगी।'

यही सोचते-सोचते ददन रात को गुजार रहे थे। करवट और लघुशंका का दौर पिछली रात की ही तरह चल रहा था। आजकल ददन को रातें बड़ी लंबी लगतीं। वह मन से नहीं चाहते कि दिन के बाद रात आए. यदि उनका बस चलता तो वह ग्रहों की गति बदल देते पर वह तो किसान हैं, कोई तांत्रिक, नेता, वैज्ञानिक नहीं!

गरीबों और किसानों के लिए ठंड का मौसम खुशी और कष्ट दोनों देनेवाला होता है। खेतों में उगे फसल के नन्हें-नन्हें पौधे देखकर किसान खुश होता है। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखती है। कुछ समय के लिए यह हरियाली थोड़ा सुकून और विश्वास ज़रूर देती है, मगर किसान के हृदय के भीतर दूर तक फैले वीरान मरुस्थल को यह पूरी तरह खत्म नहीं कर पाती है। माघ-पूष की ठंड भी किसानों और गरीबों के शरीर की हड्डियों को इधर-उधर हिलाकर ढीला कर देती है।

छोटे के अंदर जमीन का हिस्सा बेच देने की बात उफनाती नदी के पानी की तरह उछाल मार रही थी। वह गंभीर अधीरता के चंगुल में बुरी तरह जकड़ गए थे। वह मौका देखकर इसे बार-बार बोलना चाहते।

सुबह चाय की चुस्की लेते हुए ददन कुछ सोचते हुए बड़े चिंतित भाव से अपने बाएँ पैर के अँगूठे की तरफ देख रहे थे। छोटे से जब रहा नहीं गया तो उन्होने उस बात को कह ही दिया जो ददन सुनना पसंद नहीं करते थे।

'भइया! जमीन बेच देते हैं।'

आज ददन चुप रहे।

'कुछ हिस्सा बेच देने से पिछला कर्ज पट जाएगा और रज्जू की शादी के लिए पैसे का जुगाड़ भी हो जाएगा।' छोटे ने कहा।

'अम्माँ बहुत दुखी हो जाएँगी।'

'हम लोग समझाएँगे तो वह मान जाएँगी। रज्जू की शादी के लिए आखिर वह भी चिंतित हैं।'

'किसको समझाने की बात चल रही है?' अम्माँ ने वहाँ पहुँचकर पूछा।

'अम्माँ! हम सोच रहे हैं कि सड़क के किनारे वाली जमीन का कुछ हिस्सा बेच देते हैं।' छोटे ने कहा।

'क्यों?'

'पैसे का और कोई दूसरा उपाय नहीं दिख रहा है।'

'वह जमीन तुम्हारे बाबूजी ने अपनी मेहनत से खरीदा था और उन्हें वह बहुत पसंद थी।'

'हमें पता है अम्माँ! ...पर हम विवश हैं।' छोटे ने कहा।

अम्माँ ने ज़्यादा बहस करना उचित नहीं समझा। वह सिर नीचे करके वहीं बैठ गईं और अपने पैर की उँगलियों को हाँथों से पकड़-पकड़कर इस तरह से देखने लगीं मानो उन्हें पहली बार देख रहीं हों।

विवशता इनसान को खोखला कर देती है। इनसान अपने आप तक ही सिमटने लगता है।

थोड़ी ही देर के बाद अम्माँ उठकर अपने कमरे में चली गईं।

'हे चिरहुला के बजरंगवली! यही दिखाने के लिए आप मुझे जीवित रखे हुए हैं? मैंने तो हमेशा आपकी मनौती समय पर दी है, सदैव आप पर विश्वास किया है। क्या आपके पास हमारी समस्या का कोई उपाय नहीं है? गरीबों के लिए यदि आप नहीं सोचेंगे, तो कौन सोचेगा?' अम्माँ ने मन ही मन चिरहुला नाथ से प्रश्न किया।

'हे चिरहुला नाथ! यदि बिना जमीन बेचे ही पैसे का जुगाड़ हो जाएगा तो मैं शुद्ध घी के रोट चढ़ाऊँगी, इसी साल आषाढ़ के पूर्णमाषी को!' अम्माँ ने बजरंगवली को सुमिरकर यह कहा।

बजरंगवली ने उनकी हर उस माँग को सुना है, जो उनके हित की रही हो। बाकी अम्माँ भी जानती हैं कि भाग्य में लिखा हुआ मिट नहीं सकता।

ददन और छोटे ने सहमति बना ली। दोनों ने भूरे से राय माँगी तो उन्होंने भी अपनी सहमति दे दी। इस तरह सड़क किनारे वाली जमीन का कुछ हिस्सा बेचने का निर्णय कर लिया गया।

कुछ वर्ष पहले तक गाँव की जमीन की कीमत तीन लाख रुपए एकड़ थी। उदारीकरण के बाद आए अथाह पैसे ने लोगों का ध्यान जमीन में निवेश की तरफ खींचा। जब शहर की जमीन नहीं बची तो निवेशक गाँव की तरफ मुड़ गए. कुछ सालों में भूमाफियाओं ने ऐसा खेल खेला कि अब गाँव की जमीन भी पच्चीस लाख रुपए एकड़ में बिक रही थी। गरीब किसान अब जमीन बेच सकता था पर खरीद नहीं सकता। सड़क से लगी खेती की जमीन पर अब प्लाट्स ही प्लाट्स दिखते थे। शहर से लगा इलाका फैलता ही जा रहा था। ऐसा लगता कि कुछ सालों के बाद भूमाफिया गाँव की पूरी जमीन ही खरीद लेंगे।

खेती की बुबाई के बाद रज्जू के लिए लड़का ढूँढ़ा जाने लगा।

जल्दी ही बगल के गाँव में एक पढ़ा-लिखा लड़का मिल गया। वह गाँव की स्कूल में गणित का मास्टर था। घर में खेती बारी भी थी। यह लोग बहुत अच्छे थे और दहेज वगैरह लेने-देने के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। पर ददन को पिछले साल का अनुभव याद था और फिर बेटी को कुछ न कुछ देना भी तो था।

शादी की तारीख पक्की कर दी गई. अम्माँ रज्जू की शादी की बात को लेकर बहुत खुश थीं पर मन ही मन वह उदास रहने लगीं। उन्हें अपना गुजरा हुआ वक्त याद आने लगा। शादी के बाद जब वह ससुराल आईं थी तो पूरी जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी। वह ददन के दद्दा के लिए खाना लेकर खेत जाया करतीं। दयाराम ने रात-दिन मेहनत करके कई खेत खरीदे। सड़क के किनारे वाला खेत उन्हें सबसे ज़्यादा प्रिय था। उन्होने इसमें एक सुंदर बगिया लगवाई जिसमें आम, अमरूद, जामुन, नीबू, केला, कटहल इत्यादि के विभिन्न पेड़ थे। उन्होने खेतों के मेंढ़ में सुंदर-सुंदर गुलाब के फूल भी लगवाए. कभी-कभी इन्हीं गुलाब के पेंडो से फूल तोड़कर वह ददन की अम्माँ के कानों में लगा देते। दयाराम की मौत के बाद यह खेत ददन की अम्माँ को भावनात्मक रूप से उनके पति से जोड़ता। वह दिन में एक बार इन खेतों का चक्कर ज़रूर लगातीं। ऐसा करने से वह खुद को अपने पति के नजदीक महसूस करतीं। वह सोचतीं कि यदि यह खेत बिक गया तो वह अपने पति को ऊपर जाकर क्या मुँह दिखाएगी?

शादी तय हो जाने के बाद खेत को बेचने की तैयारी होने लगी। छोटे, गाँव के ही मुन्ना भाई के साथ शहर के एक सेठ से मिलने गए. सेठ ने आसपास के गाँव की कई एकड़ जमीन खरीद रखी थी। सेठ ने अपने धंधे के लिए एक एजेंट रखा हुआ था।

'सड़क के किनारे की जमीन बेचनी है।' मुन्नाभाई ने सेठ से कहा।

'एजेंट से बात कर लीजिए.'

एजेंट मजीद भाई वहीं खड़े थे।

'कौन-सी जमीन है?' मजीद भाई ने छोटे से पूछा।

छोटे ने जमीन के बारे में विस्तार से समझाया।

'बीस लाख रुपए देंगे!' मजीद भाई ने कहा।

'चलो छोटे! ...कहीं और बात कर लेते हैं।'

'अरे रुकिए, मुन्ना जी! ...आप बड़ा जल्दी निर्णय ले लेते हैं।' मजीद भाई ने कहा।

'आप हम लोगों को भिखारी समझते हैं क्या? हम अपनी जमीन की कीमत माँग रहे हैं, आप नहीं देंगे तो कोई और मिल जाएगा।'

'चलिए! ...पच्चीस लाख दे देते हैं।'

मुन्ना भाई छोटे को लेकर उठकर जाने लगे।

'रुकिए... रुकिए! ...आप क्या कीमत लगाए हैं?'

'पैंतीस लाख खेत का और पाँच लाख बगिया का।'

'यह ज़्यादा है।'

'ठीक है! ...हम कहीं और बात कर लेते हैं। इतने पैसे जब कोई नहीं देगा, तब हम वापस आकर आपसे बात कर लेंगे।' यह कहकर मुन्ना भाई उठने लगे।

'चलिए! यह सौदा मुझे मंजूर है।'

'पैसा कब तक में मिलेगा?'

'दस लाख अभी, बाकी रजिस्ट्री के बाद!'

'मंजूर है!'

'रजिस्ट्री हम अपने हिसाब से कम रेट में करेंगे।'

'ठीक है। हमें कोई आपत्ति नहीं है। हम लोगों को भी पता है कि आप लोग यही सब करके अपने धन की रक्षा करते हैं।'

'मुन्ना भाई आपको इस धंधे के बारे में सब पता है।' मजीद भाई ने कहा।

'आप लोगों ने गाँव के अगल-बगल की सारी जमीन खरीद ली है। यही सब सुन-जानकर हम लोगों को रेट के बारे में पता चलता है।'

'आप लोग बेचते हैं, तो हम खरीदते हैं। इसमें हमारा क्या दोष है? आजकल जमीन बेचना शौक बन गया है।'

'हम शौक के लिए जमीन बेच रहे हैं?'

'मैं आप लोगों को नहीं कह रहा हूँ। लेकिन ज्यादातर लोग जमीन बेचकर आलीशान घर बनवाते हैं और महँगी गाड़ी खरीदते हैं। जब जमीन से मिले पैसे खतम हो जाते हैं और पेट्रोल के लिए पैसा नहीं रहता है, तब सस्ती कीमत में गाड़ी को बेच देते हैं। बाप-दादा कि मेहनत की कमाई कौड़ियों के भाव बिक जाती है और दोष हम लोगों को दिया जाता है। आप बगल के गाँव के चौबे जी की कहानी जानते ही होंगे। लड़कों को पढ़ाने के लिए उन्होने सारी जमीन बेच दी। लंबा डोनेशन देकर बच्चों का प्राइवेट कालेज में एमबीए में दाखिला करवाया। लड़कों ने किसी तरह खींच-खाँच कर पढ़ाई पूरी किया, लेकिन नौकरी नहीं मिली। कालेज से पढ़कर घर वापस आने के बाद उनके खर्चे अलग से बढ़ गए. दूसरों की देखा-देखी उन्होने लड़कों के लिए एक महँगी कार खरीद दिया। घर में कुछ कमाई थी नहीं अतः जब पेट्रोल के लिए पैसा नहीं बचा, तब गाड़ी को बहुत कम कीमत में बेचना पड़ा। आज यह हालत है कि दो वक्त की रोटी के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं। जब तक जमीन थी तो कम से कम खाने की चिंता नहीं रहती थी। एक सामाजिक हैसियत भी बनी हुई थी, पर दिखावटीपन ने सब कुछ दो चार साल के भीतर ही नष्ट कर दिया।'

मुन्ना भाई चुप रहे। यह तो घर-घर की कहानी थी।

सब समय का खेल है। नई पीढ़ी बिना मेहनत किए सब सुख भोगना चाहती है। उसे सब कुछ बहुत जल्दी-जल्दी चाहिए. पूर्वजों के परिश्रम कि कीमत का आकलन वह नहीं कर पा रही है। कैसे रात-दिन कष्ट सहकर पूर्वज मेहनत करते थे और अपनी आगे वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित भविष्य देने की कोशिश करते थे, इसका अंदाज नई पीढ़ी को नहीं है। आज की पीढ़ी के पास सोचने समझने का ज़्यादा वक्त नहीं है। वह बेचैन है। उसे आने वाली पीढ़ियों कि नहीं बल्कि अपनी चिंता है। वह जीना चाहती है... भरपूर... झकास तरीके से... एकदम बिंदास! ...बिना किसी परेशानी और तनाव के!

छोटे इतने पैसे पाकर खुश हो गए. इस पैसे से सारा ऋण चुक जाएगा और रज्जू की शादी भी धूमधाम से हो जाएगी। बचे हुए पैसे से कहीं सस्ती जमीन भी खरीद लेंगे। कुल-मिलाकर हमारे पास पहले के बराबर ही जमीन हो जाएगी।

छोटे ने घर वापस जाकर सारी बात ददन और भूरे को बताई. दोनों बहुत खुश हुए. इतने पैसे की उम्मीद इन दोनों ने भी नहीं लगाई हुई थी। दोनों ने मुन्नाभाई की होशियारी की खुले दिल से तारीफ की।

ददन निश्चिंत हो गए कि अब शादी बड़े आराम से हो जाएगी।

'लड़के वालों ने कुछ माँग नहीं कि है अतः शानदार स्वागत होना चाहिए.' ददन ने छोटे और भूरे से कहा।

'ज़रूर भइया!'

'चलो फिर जुट जाते हैं, अपने-अपने काम में!' यह कहकर ददन पनही पहनकर खेत की तरफ चले गए. भूरे अपना शादी का कोट और बूट पहनकर, पुरानी स्कूटर लेकर व्यवसाय के काम से शहर निकल गए. यह स्कूटर उनके मामा के लड़के ने उन्हें दिया था और यह इक्कीस साल पुरानी थी।

छोटे ने अपने कमरे में आकर सारी बात पत्नी को बड़े विस्तार से बताई. वह हर काम में पत्नी से सलाह मशविरा ज़रूर करते। गाँव घर में कुछ लोग छोटे को मेहरा भी कह देते पर वह किसी की परवाह नहीं करते। हाँ...अम्माँ भी जब कभी-कभी गुस्से से उन्हें जोरू का गुलाम कहतीं तब उन्हें ज़रूर थोड़ा कष्ट होता था।

पैसे का जुगाड़ हो जाने से छोटे बड़ी राहत महसूस कर रहे थे।

'दइदे बुलौवा राधे का अवध म हो... दइदे बुलौवा राधे का... राधे बिन होरी को खेली अवध म हो... दइदे बुलौवा राधे का... मिलकर होरी सब खेलब अवध म हो... दइदे बुलौवा राधे का।' छोटे खुश होकर फाग गाने लगे।

फाग! ...फसल के पकने के समय गाया जाता है। शुरुआत बसंत से होती है और फिर होलिका दहन से अगले कुछ दिन तक इसे गाया जाता है। सब लोग एक दूसरे के घर जाकर मिलते हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों का यह एक मुख्य लोकगीत है।

पर आज की नई पीढ़ी फगुआ में रुचि नहीं लेती है। फगुआ भी अब इतिहास बनने के कगार पर है।

रबी की फसल के कटाई व गहाई हो जाने के बाद शादी की तैयारी चालू कर दी गई. सभी नात-रिश्तेदारों को निमंत्रण दिया जाने लगा। ददन, छोटे और भूरे सब जगह जाकर अपने हाथों से निमंत्रण कार्ड दे रहे थे।

तैयारी में लगे रहने से दिन कैसे बीत गए, इसका पता ही नहीं चला।

आखिर वह शुभ दिन आ ही गया जब ददन के घर बारात का आगमन हुआ। करीब दो सौ बाराती थे। बारात बस से आई. दूल्हे के लिए फूलों से सजी पुरानी मारुति कार थी।

जनमाश से लेकर ददन के घर तक बारातियों ने दुलदुल घोड़ी नचवाई. नए लड़कों ने फिल्मी नाच किया। पेलंद दुबे और पउवा ठाकुर ने खूब मस्त होकर नाचा। यह घराती थे मगर ज़्यादा पी लेने से बारातियों की तरफ से नाचने लगे।

पेलंद दुबे और पउआ ठाकुर को मजबूरी में अपने पूर्वजों की जमीन बेचनी पड़ी थी। दोनों को इस बात से गहरा सदमा लगा और वह निराशा की गर्त में चले गए. इसी समय ग़लत संगति की वजह से उन्हें शराब पीने की आदत पड़ गई. इसके बाद उनकी बची हुई जमीन शराब की लत की वजह से बिक गई. अब वह अपने क्षेत्र में नौटंकी करते हुए जीवन व्यतीत कर रहे थे। दोनों दिल से बहुत साफ हैं और दूसरों की भलाई के लिए हर समय तैयार रहते हैं।

'हमरे दुआरे पिपरिया के बिरिबा, कुसुम चुअय आधी रात... देहा न मोरी माया सोने के टुकुनिया, फुलबा बिनय हम जाब... फुलबा बिन-बिन कोट लगायों, मोरे बाबुल चुनरी रंगाव।' गाँव की औरतें बियाह गा रहीं थीं।

बैंड, बाजा, दुलदुल घोड़ी, बढ़िया पकवान...क्या-क्या व्यवस्था नहीं किया था ददन ने! ददन की व्यवस्था बरातियों से बीस ही थी, उन्नीस नहीं!

द्वारपूजा छोटे ने करवाई. द्वारपूजा के बाद बारातियों को भोजन के लिए ले जाया गया।

रात्रि के भोजन के समय औरतें आँगन के एक तरफ बैठकर बरातियों के लिए गारी गा रहीं थीं। बारातियों के लिए खाने की पंगत आँगन में ही लगवाई गई क्योंकि गर्मी के मौसम में ओसारी के अंदर बड़ी गरमी हो जाती थी। आँगन में रात्रि को खुले आसमान का चाँद कुछ शीतलता प्रदान करता था।

'मैं तो खेलन गई बारू रेत, मुदरिया मोरी होईं रे गिरी... मैं तो ससुरा जगायों आधी रात, सास मोर गारी देत उठी... मैं तो जेठा जगायों आधी रात, जेठानी मोर गारी देत उठी।'

'सलगे बाराती हैं अनपढ़, कि अंग्रेजी सारे जानय नहीं... मुर्गा बनाबा ईं सबका, ...ए बी-सी डी पढाबा ईं सबका, कि अंग्रेजी सारे जानय नहीं... वन टू पढाबा ईं सबका, कि अंग्रेजी सारे जानय नहीं।'

बाराती अपने लिए गारी सुनकर बहुत हँस रहे थे।

सबने भोजन का जमकर आनंद लिया। ददन ने बीसों प्रकार के व्यंजन बनवाए. खट्टे, मीठे, नमकीन, तीखे और मिश्रित स्वाद के अलग-अलग व्यंजन!

खाने के बाद बढ़िया बँगला पान!

बाराती ऐसे प्रेम भरे स्वागत से गद्गदा गए.

इससे पहले आस-पास के क्षेत्र में ऐसा स्वागत उन्होने न कभी सुना था और न देखा था।

बाराती लड़के के पिता को बधाई दे रहे थे कि इतना बढ़िया नात-रिश्तेदार मिले हैं।

धन्य हो रामसहोदर... धन्य हो! ...ऐसा दिलदार समधी मिला है।

बिदाई में भी बहुत-सा सामान दिया गया और सभी बारातियों को पूरे पचास-पचास रुपए बिदाई. बुजुर्गों को धोती और कुर्ते का कपड़ा अलग से!

'झूंकुर मूंकुर दिया बारय, बारय सगली रात... बाबू के चौपाल माया उनकी झाँपी सांजय, सांजय सगली रात।'

ढम्म...ढम्म...ढोल बज रहा है। इसी गीत के साथ रज्जू की बिदाई हो गई.

ददन के आँखों में आँसू थे पर इसमें बेटी की बिदाई के दुख के साथ-साथ उसके अच्छे घर में जाने की खुशी भी शामिल थी। वह अपनी लड़कियों को बहुत मानते थे।

अम्माँ ने भी रज्जू को गले लगाकर आशीर्वाद दिया। वह बहुत खुश थीं कि रज्जू को अच्छा घर मिला है। सभी नात रिश्तेदारों के आने के कारण घर में चहल-पहल बनी हुई थी। अम्माँ सभी के साथ मिल-जुलकर रहने की कोशिश करतीं पर जमीन बिकने की बात से वह अंदर ही अंदर बहुत दुखी थीं। उन्हें लग रहा था कि उनके पति उन्हें दुबारा छोड़कर चले गए हैं।

रज्जू ने दादी से गले लगकर रोते हुए वादा किया कि वह जल्द ही उनसे मिलने वापस आएगी। उसने दादी को अपना ख्याल ठीक से रखने के लिए कहा।

बसदेइया अघोर शादी के अगले दिन अपनी पूरी मंडली के साथ पहुँचा और खूब पूरी तरकारी खाई. शादी ब्याह की खबरें अघोर ज़रूर रखते हैं।

चारो तरफ कि जमीन बिक जाने से गाँव की गली-गली अब बदली-बदली-सी लगती। गाँव का नक्शा पूरी तरह बदल गया। खेत बँट-बँटकर छोटे होते जा रहे थे। ऐसा लगता मानो खेत भी अपने बँटवारे से दुखी हैं। आखिर बार-बार बिकना कौन चाहता है?

बड़े-बुजुर्गों को गाँव की यह दशा बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती। वह व्यथित और असहाय महसूस करते थे, भीष्म की तरह!

बिदाई का दिन रोने-धोने में ही चला गया। आज वह भी रोए, जिनके आँखों में कभी आँसू नहीं आते थे। कोई भी आँसू की बूँद नकली नहीं थी।

दोपहर के बाद माहौल कुछ हल्का हो गया।

लाउडस्पीकर अभी भी बज रहा था। लोग लाउडस्पीकर का गाना अपने घर से सुन रहे थे। लाउडस्पीकर उत्सव के ही समय बजाया जाता है। इसमें बजने वाले गाने ज़रूर उत्सव और समय के अनुसार नहीं रहते। देवी पूजा में भी फिल्मी गीत ही बजाए जाते हैं। भूरे ने कुछ साल इस व्यवसाय में भी हाथ आजमाया था। वह हारमोनियम अपने हाथों से बजा लेते थे, वह भी पूरे धुन से।

परिवार वालों का रात्रि का भोजन ददन के ही घर में था।

ददन की अम्माँ ने रात का खाना नहीं खाया। घर वाले सबको खिला-पिलाकर सो गए. सबने सोचा कि मिठाई वगैरह खा लेने से अम्माँ का पेट खराब हो गया होगा। उत्सव के समय वह मीठा कुछ ज़्यादा ही खा लेती थीं, खासकर रसगुल्ला, जलेबी और बूँदी।

सुबह सब लोग कुछ देर से उठे। दो दिन की मेहनत ने सबको थका दिया था। शादी के दिन घरवालों को पूरी रात जागना पड़ा था।

अम्माँ भी सोकर नहीं उठीं। जब काफी देर हो गई तो बड़ी पुतोऊ उन्हें जगाने के लिए उनके कमरे में गई. उसने पाया कि अम्माँ हमेशा के लिए सो गईं हैं और अब वह कभी नहीं उठेंगी। उनकी साँस नहीं चल रही थी और हृदय भी धक-धक नहीं कर रहा था।

ददन, छोटे और भूरे को जब यह खबर लगी तो वह दौड़कर अपनी अम्माँ के पास पहुँचे और वहीं बैठकर दहाड़ मारकर रोने लगे।