जलतरंग / हरीश पाठक

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‘‘मैं निधि बोल रही हूँ, हरदेव से बात कराइए।’’

‘‘कौन निधि?’’

‘‘निधि राजदान।’’

‘‘हरदेव से आप बात नहीं कर सकतीं। हरदेव घर में नहीं है।’’

‘‘बात नहीं कर सकती या वह घर में नहीं हैं।’’

‘‘घर में नहीं है।’’

‘‘देखिए वह घर में है और मुझे उससे इसी वक्त बात करनी हैं-एकदम जरूरी।’’

‘‘वह घर में नहीं है और आप उससे बात नहीं कर सकतीं।’’

‘‘मैं आकाशवाणी से बोल रही हूँ। आज जो कुछ शहर में घटा है उसकी रिपोर्ट जानी है और वह रिपोर्ट हरदेव ही भेज सकता है। प्लीज, आप उसे फोन दीजिए न।’’

‘‘वह घर में हो तब न। मै किसे फोन दूँ।’’

‘‘क्या पागल औरत है, जानती ही नहीं है कि मुझे इस वक्त उससे बात करना जरूरी है। निधि बड़बड़ाई।

‘‘ऐ राँड़ फोन रख। तेरा उससे बात करना कितना जरूरी है यह मुझे बहुत अच्छी तरह मालूम है। आज के बाद इस घर में फोन करने की कोशिश भी मत करना।’’

‘‘आप मूर्ख ही नहीं, बदतमीज भी हैं।’’

‘‘तू तमीजदार बनी रह-चोप्प।’’

निधि की समझ में ही नहीं आया यह अचानक क्या हो गया? आखिर इस वक्त वह क्या करे? हरदेव का कुछ अता-पता नहीं है। उसका मोबाइल बंद है और पेजर पर उसने तीन बार संदेश छोड़ा है- ‘‘कॉल भी अर्जेटली एट ऑफिस, ऐनी हाऊ-निधि।’’ पर कोई जवाब नहीं।

बदहवास-सी निधि कॉरीडोर में आ गई और चीखते हुए बोली, ‘‘सर बताइए मैं क्या करूँ? हरदेव का कहीं पता नहीं है और उसकी पागल पत्नी फोन पर कुछ भी बक रही है।’’

‘‘उसे मोबाइल कर दीजिए- उसके पास पेजर भी है। ही इज वैरी सेंसेटिव पर्सनल-तुरंत जवाब आएगा। कहीं फंसा होगा। हो सकता है कि विरार फास्ट में कहीं दबा-मुचा खड़ा हो वहाँ न आपका मोबाइल ओर न ही पेजर सुन पा रहा हो। कूल रहिए-जरूर कुछ होगा।’’

‘‘कुछ नहीं हो रहा सर। आठ, दस हो चुके हैं।’’ फूलती साँस में निधि ने कहा।

‘‘नो टेंसन-उसका फोन आएगा। हो सकता है वह रिपोर्ट में ही लगा हो। आप देख लीजिए, मै जगजीत सिंह के प्रोग्राम से होता हुआ साढ़े दस तक घर पहुँचूँगा। जैसा हो मुझे बता दीजिए-ओ.के.।’’

निधि कॉरीडोर के अँधेरे को निहारती रही।

 घंटी बजी।

‘‘जी-रेडियो।’’

‘‘ठाकुर हरदेव बोल रहा हूँ-निधि है?’’

‘‘इस नंबर पर नहीं है साब। यह तो डायरेक्ट आ गया।’’

‘‘चल इसे इनडायरेक्ट कर, उससे बात करा।’’

‘‘जी, एक मिनट।’’

घंटी बजती रही।

‘‘सर-।’’

‘‘बोल ठाकुर।’’

‘‘सर उनके कमरे में तो घंटी बज रही है। आप कहाँ से बोल रहे हैं?’’

‘‘मुँह से और कहाँ से बोल सकता हूँ।’’

‘‘मतलब घर से?’’

‘‘ नहीं, मेरा पार्थिव शरीर इस वक्त दफ्तर और घर के बीच दोलन कर रहा है वह आए तो बोलना मेरा फोन था। बाद में मौका लगा लो दोबारा करूँगा।’’

ठाकुर ने फोन रख दिया।

‘‘किसका फोन था?’’ निधि ने चहककर पूछा।

‘‘आपके लिए, हरदेव सिंह का फोन था।’’

‘‘कहाँ से?’’

‘‘बताया नहीं पर घर से नहीं बोल रहे थे।’’

‘‘मुझे बोलना था ठाकुर। मैं कितनी देर से उसे खोज रही हूँ। मोबाइल किया, पेजर किया और तुम-।’’

‘‘किससे बोलता मैडम-दीवार से। आपके कमरे में तो घंटी बज रही थी।’’

‘‘मैं कॉरीडोर में थी- जरा देख लेते, क्या बिगड़ जाता।’’

‘‘सब बिगड़ ही रहा है मैडम, सँभल क्या रहा है? मुझे कोई सपना तो नहीं आ रहा था कि आप कॉरीडोर में खड़ी है।’’

निधि ने देखा ठाकुर हत्थे से उखड़ गया। उसकी टेबल पर सारे रिकॉर्ड और कवर बिखड़े पड़े हैं। वह उठा और चिढ़ता हुआ दरवाजे से बाहर हो गया। दरवाजा तेजी से बंद हो गया।

 धीरे-धीरे खुल रही थी वह गाँठ जो नीरू उर्फ निरूपमा सीढ़ी के भीतर कई दिनों से पनप रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वह क्या करे? क्या कुछ दिन के लिए लुधियाना चली जाए या फिर बीजी को यहाँ बुला ले। मन डूब-डूब रहा है। किसी काम में मन नहीं लगता। इतना अकेलापन उसने पहले कभी नहीं महसूसा। आँखो के सामने काले-काले गोले तैरने लगे हैं। कभी लगता है कोई उसे बुरी तरह झकझोर रहा है- ‘’उठ नीरू उठ, अब मत सो-बहुत हो गया। जाग निरूपमा जाग।’ वह हड़बड़ा कर उठ जाती है। फिर लगता है कि यदि वह कुछ देर रो ले तो मन हलका हो जाएगा। फिर वह आईने तक आती है ओर अपने ही चेहरे को देखकर डर जाती है। क्या हो गया है उसे। फोन की घंटी फिर बजी। अबकी नीरू ने फूलदान को अपने हाथों में थाम लिया जैसे फोन की आवाज को वह पीतल के फूलदान से पटक-पटककर अधमरा कर देगी।

‘‘हैलो, निरूपमा?’’

‘‘जी बोलिए।’’

‘‘निरूपमाजी, कॉन्ग्रेचुलेशन।’’

‘‘कौन?’’

‘‘मैं मिसेज डीकोस्टा बोल रही हूँ। सुना है आपकी सोसाइटी में आज टैंकर आ गया। हमारे यहाँ तो पाँच दिन से एक बूँद पानी नहीं है। सोसाइटी में कुछ लोग तो नहाने का पानी उबाल कर पी रहे हैं। मेरे घर तो किसी तरह ‘बिसलेरी’ से काम चल रहा है। सुना है वह बड़ी पाइप लाइन बीच से टूट गई है, उसकी मरम्मत का काम चल रहा है। पता नहीं कितने दिन लगेंगे।’’

‘‘जी-’’ निरूपमा किसी तरह बोल पाई।

‘‘ आपकी आवाज को क्या हुआ? बीमार हैं क्या?’’

‘‘नहीं, सिर में दर्द है। दवा खा कर लेटी हूँ।’’ निरूपमा ने खीजते हुए कहा।

‘‘सुनिए, पंजाबी बड़ियाँ जो आप लाती है, उसके दो पैकेट मुझे भी ले आइए न। कल मेरे हसबैंड उसकी माँग कर रहे थे-प्लीज।’’

नीरू ने फोन पटक दिया। मूर्ख औरत कुछ भी बोलती है। मेरे हसबैंड को यह अच्छा लगता है, मेरे हसबैंड को वह अच्छा लगता है। वे चार दिन के लिए लंदन जा रहे है। अगले महीने उनका प्रमोशन होनेवला है- न जाने क्या-क्या? तो क्या करूँ? मेरा इन बातों से क्या लेना-देना?

आवाज इतनी जोर से निकली कि नीरू खुद सहम गई। दरवाजे को पार कर यह आवाज पहले मालेे पर भी जा सकती है और मैदान तक भी पहुँच सकती है। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे, क्या मिसेज सोढ़ी पागल हो गई है?

‘‘हाँ मै पागल हो गई हूँ।’’ बहुत जोर से चिल्लाई थी निरूपमा।

‘‘तो उसका इलाज भी मेरे पास है। मिसेज मल्होत्रा देश की सबसे बड़ी मनोचिकित्सक हैं- उनके अस्पताल मं भरती करवा दूँगा। वहांँ तो अच्छे लोग भी पागल हो जाते हैं। नाटक-नौटंकी करोगी तो उनके पास ले जाऊँगा। सबकुछ फ्री। उधर तुम फ्री, इधर मैं।’’ हरदेव ने हवा में हाथ झुलाते हुए कहा था।

 नीरू खुद नहीं समझ पा रही है कि उसे क्या हो गया है? उस दोपहर वह आराम से लेटी थी कि फोन बजा। नीरू की आवाज सुनते ही फोन तेजी से कट गया था। फिर जैसे यह घर की कोई जरूरत बन गया। रात देर तक फोन बजता, कभी सुबह। जैसे ही नीरू की आवाज फोन में उतरती, फोन काट दिया जाता। कई बार रात को उसने चुप-चुप हरदेव को लंबी-लंबी बाते करते सुना। कभी वह फोन पर हँसता, कभी किसी को झिड़कता, तो कभी इतनी बारीक आवाज में बात करता कि उसका कोई भी हिस्सा नीरू के कान सुन नहीं पाते।

एक रात ऐसा ही हुआ। पता नहीं क्यों अचानक नीरू की नींद टूट गई। वह बाहर के कमरे की ओर बढ़ी तब उसने देखा लाइट बंद किए हरदेव आराम से फोन पर उलझा पड़ा था। उसने अचानक लाइट जला दी। फोन का तार हरदेव के शरीर से लिपटा था। जलती लाइट के बीच अचकचा गया हरदेव। उसने एक झटके से फोन पटक दिया।

नीरू ने फोन उठा लिया और ‘री डायल’ का बटन दबा दिया। घंटी के पूरी बजने के पहले ही आवाज आ गई, ‘‘हाँ फोन क्यों काट दिया?’’

-और इस आवाज ने निरूपमा को कई-कई हजार टुकड़ों में बाँटकर रख दिया था। उसके सारे सपने लूले साबित हो रहे थे और फोन के दूसरे छोर पर काली-काली होती रात के साथ-साथ एक आवाज बेतहाशा चिल्ला रही थी, ‘‘हरदेव बोलो, बोलो प्लीज क्या हुआ? हरदेव तुम्हारी आवाज ैयों नहीं आ रही?’’

हरदेव की आवाज नहीं, अबकी उसका हाथ घुमा था और उसने सिरहाने रखा तकिया नीरू के मुँह पर फेंका था। फिर वह खड़ा हो गया और दहाड़ा, ‘‘मेरी जासूसी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘तुम इतनी रात गए इश्क लड़ाओ और मै तुम्हें टोक भी नहीं सकती। गद्दारी की? फोन पर बात करना कब से गद्दारी हो गई?’’

‘‘रात के डेढ़ बजे कौन-सी जरूरी बात आ गई जो तुम पढ़ने का बहाना बना, इस कमरे में आ कर फोन पर घंटो बातें करते हो। क्या मैं अंधी हूँ और तुम अंधी बनाना चाहते हो तो याद रखो मेैं कभी भी न अंधी बन सकती, न बहरी। तुम ज्यादा-से-ज्यादा मुझे अपंग बना सकते हो और वह बनने के लिए मैं तैयार हूँ। मारो-मार डालो मुझेे। टुकड़ा-टुकड़ा मौत से तो अच्छा है एक साथ मर जाऊँ। यह बेईमान आदमी मुझे जीने ही नहीं दे रहा।’’ नीरू की कराहें पूरे घर में फैल गई।

‘‘ले तो आज तू पूरी मर- हरदेव ने तिपाही पर रखा गिलास नीरू के चेहरे पर दे मारा। फिर वह तेजी से उसके नजदीक आया और देर तक नीरू पर मुक्के बरसाता रहा।

‘‘मुझे बताओ वह कौन है जिसे तुम पर फोन पर हिदायत देते हो- मोबाइल मत करना, उसके स्क्रीन पर तुम्हारा नंबर आ जाएगा। तुम्हारे पेजर पर एक दिन में सात-सात बार एक ही नाम से मैसेज है ‘कॉल मी अर्जेटली-राजकुमार।’ कौन है वह राजकुमार जो अपना नंबर तक नहीं छोड़ता। तुम्हारी डायरियों में तो कोई राजकुमार नहीं है। मैं पागल नहीं हूँ, मै तुम्हारी ब्याहता हूँ और तुम्हारी-एक-एक हरकत को पकड़ रही हूँ। और आज पकड़े जाने पर तुमने मुझे मारा है। याद रखो, बहुत घाटा सहोगे’’ सिसकियों के बीच नीरू चीख रही थी।

इक्त्तीस जनवरी की रात कब घट गई-नीरू को याद नहीं। एक फरवरी उग आई थी। कमरे के बीचोबीच खून के चकत्ते और ड्रेसिंग टेबल पर रखा ‘हैपी बर्थ डे नीरू’ का कार्ड उसे चिढ़ा रहा था। लुटी-पिटी नीरू ने खून के उन चकत्तों के ऊपर ‘हैपी बर्थ डे’ को चिंदी-चिंदी कर दिया। छल ओर छद्म के बीच अब उसे नहीं रहना है।

‘‘मुझे यही रहना है-इसी संसार में। यही है मेरा अपना संसार। यह काला, नीला, कत्थई, चॉकलेटी, हरा-जैसा भी है मेरा अपना है। इसमें पीला दुःख भी है और गुलाबी-गुलाबी सुख भी इसमें मातम भी है और शहनाई भी। यहाँ फरेब भी है, ईमानदारी भी। यहांँ प्रेम भी है, वासना भी, घृणा भी। शोर भी है, सन्नाटा भी। सब है मेरे भाई, पर मेरे इस संसार में शक की कोई जगह नहीं है। संदेह से मेरा पुराना झगड़ा है। उसे मैं खोद-खोदकर नष्ट कर दूँगा। एक रात हरदेव बड़बडाया था।’’

‘‘तुम मेरे लिए तो पूरी तरह संदिग्ध हो गए हो।’’ नीरू ने कहा।

‘‘नीला आसमान और सफेद दीवार पर भी तुम संदेह कर सकती हो पर तुम्हारे संदेह से क्या उनका रंग बदल जाएगा।’’

फिर बताओं वह कौन है जो देर रात तक तुम्हें फोन पर प्यार उडे़लती है। वह मेरी दुनिया क्यों उजाड़ रही है?’’

‘‘अपनी दुनिया में तो पलीता तुम खुद लगा रही हो श्रीमती निरूपमा सोढ़ी। दफ्तर के फोन को तुम मेरी प्रेमिका के फोन समझती हो और राजकुमार को लड़की। हिंदुस्तान के किसी भी कोने में राजकुमार नाम की नहीं, राजकुमारी नाम की लड़की हो सकती है। राजकुमार सिन्हा मेरे साथ लखनऊ आकाशवाणी में फील्ड रिपोर्टर था। मुबई आया था और मुझसे मिलने के लिए तड़प रहा था, ड्यूटी रूम से उसे मेरा पेजर नंबर मिला। मुझे पता था कि वह मेरे दफ्तर के सामने आमदार निवास में रुका है पर तुम्हें कौन, कैसे और क्यों समझाए? अपने दुःखों को पालो, खूब पालो और उसमें तेरने लगो।’’ हरदेव ने एक रात रुक-रुककर कहा था।

इसके पहले कि नीरू कुछ कहती वह गाने लगा, ‘‘मैं प्रेम दा प्याला पी आया, सारी मधुशाला ले आया। मैं पी आया, मैं पी आया-’’

वह स्याह रात नीरू ने आँखों में ही काटी। रात के सन्नाटे में उसने कई बार खिड़की से बाहर झाँका-सिर्फ सायँ-सायँ करता सन्नाटा था। एक अकेली कुरसी पर वाचमैन बैठा-बैठा ऊँघ रहा था और ठंडी होती आग का कुछ हिस्सा उसकी कुरसी के आसपास बिखरा था।

\ऐसा ही जानलेवा सन्नाटा नीरू के भीतर उतरा हुआ है। हरदेव की बातों को उसने उल्टा-पुल्टा करके देखा, सोचा और पाया इन बातों में सिर्फ और सिर्फ झूठ के कुछ नहीं है। वह झूठ का ऐसा जाल बुन रहा है, जिसके किसी फंदे में निरूपमा उलझ जाए और उस सबको स्वीकार कर ले जो उसने देखा, सुना और सोचा है।

तब निरूपमा क्या करे?

भारी मन से निरूपमा घर से निकल आई। सख्त धूप उसका पीछा कर रही थी। दुपट्टे को उसने सलीके से ओढ़ा और धीरे-धीरे गुरूद्वारा साहिब की ओर उसके कदम बढ़ने लगे।

उसने मत्था टेका। कड़ाह परसाद लिया और चुपचाप एक कोने में जा बैठी। शबद हजारे का पाठ चल रहा था।


मनु बेघिया दइआल सेती मेरी माई

कउणुजाणै पीर परायी

हम नाहीं चितं परायी

अगम अगोचर अलख अपारा

चिंता करहु हमारी जति थति महीअलि भरिपुरि लीणा

घटिघटि जोति तुमहारी।।


निरूपमा ने सुना।

हे मेरी माता, मेरा मन दयालु ईश्वर के प्यार से छेदा हुआ है। पराये हृदय की पीड़ा कौन जानता है? हमें भी परायी चिंता कोई नहीं। हे खयालों से दूर न जाने जा सकने वाले बेअंत ईश्वर हमारी चिंता करो। आप जल, थल, धरती और आकाश में हो, हर शरीर में तुम्हारी ज्योति है।

बाहर आ गई निरूपमा। गुरूद्वारा साहिब के शांत सरोवर को वह बड़ी देर तक निहारती रही। उठती-बैठती नीली जलधाराएँ। बनती-विगड़ती और फिर-फिर बनती जलतरंगें। बेसुध सी निरूपमा सरोवर के पास न जाने कितनी देर तक खड़ी रही। डुबता मन सरोवर की शांत लहरों के आसपास रह-रहकर भटक रहा था।

वह फिर अंदर की तरफ आ गई। गुरूग्रंथ साहित पर चँवर ढुल रहे थे। सेवादार अपने-अपने कामों में उलझे थे और पाठी सुखमनी साहब का पाठ कर रहे थे। वह फिर बैठ गई। उसने सुना-


जिह पैडें महाअंध गुबारा

हरि ना नामु संगि उजियारा

जहाँ पंथ तेरा को न जिआनू

हरि का नामु तह नालि पछानू


पाठी ने आगे कहा-

जिस रास्ते में अँधेरे का गुबार है, वहाँ हरि के नाम का उजाला तेरे साथ रहेगा। जिस राह में तेरा कोई परिचित नहीं है वहाँ हरि का नाम तेरा सहारा बनेगा।

कुछ देर तक गुमसुम बैठी रही निरूपमा। उसका मन हुआ कि वह खुद भी रागियों के साथ गाने लगे। फिर वह धीरे से उठी और बाहर आ गई।

सड़क के किनारे चलते-चलते देर तक गुरूद्वारे के शबद-कीर्तन उसके कानों में गूँजते रहे। उसे कुछ हलकापन तो लगा पर सीने पर जो अदृश्य और अनाम बोझ वह कई दिनों से मसूस कर रही है उससे मुक्ति कहाँ?

निरूपमा रूक गई। उसने सोचा, ‘‘क्यों न लुधियाना बीजी से बात कर ली जाए। कुछ दिन के लिए लुधियाना चली जाए-मन बहल जाएगा। वह एस.टी.डी. बूथ में घुस गई।’’

‘‘बीजी-’’ उसने तड़प कर बोला।

‘‘जी पुत्तर।’’

‘‘बीजी मैं नीरू’’

‘‘बोल पुत्तर, बोल।’’

‘‘बीजी- मेरा जी उचाट हो रया है।’’

‘‘कि होया पुत्तर? हरदेव राजी है न। तू ठीक है न पुत्तर।’’

‘‘बीजी, मैं तिन्न दिना वास्ते लुधियाना आ रही हाँ।’’

‘‘जी सदके- आ जा पुत्तर, आ जा।’’

निरूपमा ने फोन रख दिया। लौटते वक्त उसे लगा कहीं बीजी हरदेव को फोन करके कुछ पूछ न लें। नहीं तो वह रात को आ कर फिर झगड़ा करेगा। चीखेगा, चिल्लाएगा और कहेगा, ‘‘ जा सब तरफ ऐलान कर दे कि सरदार हरदेव सिंह सोढ़ी अपनी बीबी पर अत्याचार कर रहा है। जा अपनी सोसाइटी में चिल्ला-चिल्लाकर बोल दे कि सरदार हरदेव सिंह ने मेरा जीना दूभर कर दिया है। खुद भी पागल हो रही है और मुझे भी पागल कर रही है मूर्ख औरत।’’ निरूपमा सोचने लगी।

 ‘‘औरत के मामले में कुछ मत बोलो।’’ यह हरदेव था।

‘‘क्यों दारजी, क्या बात है? आज तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘सबकुछ ठीक है-एकदम दुरूस्त। आप अपनी बताइए।’’

‘‘आपकी ग्रह दशा तो शानदार चल रही है।’’ पंडितजी ने सपाट स्वर में कहा।

‘‘मेरी और ग्रह दशा-वही तो गंभीर है पंडित जी। वैसे आपके ज्योतिष में मेरा कोई यकीन नहीं है। सच तो यह है कि मेरी ग्रह दशा लगातार बिगड़ रही है और आप कह रहे हैं- ग्रह योग प्रबल हैं।’’ हरदेव ने पंडितजी आँखों में झाँकते हुए कहा।

‘‘लग्न का शुक्र आपको तेजस्वी बना रहा है। दांपत्य सुख आनंदकारी है। आँख में आंशिक तकलीफ हो सकती है। वाणी में कूटनीति बढ़ती चली जा रही है। मंगल अति शुभकारी है। इधर शनि व गुरू ने संतान विषयक चिंता उत्पन्न कर दी है।’’ पंडितजी एक साँस में सब बोल गए और हरदेव साँस रोके उन्हें सुनता रहा।

ड्यूटी रूम से बाहर निकलकर हरदेव अब कॉरीडोर में आ गया। पंडितजी उसके साथ-साथ थे। कॉरीडोर के किनारे पड़ी लंबी बेंच पर दोनों बैठ गए।

पंडितजी ने आगे कहा, ‘‘सप्तम भाव में स्थित शनि जातक को अपने प्रभाव में ले लेता है। वह जीवनसाथी को पीड़ा देता है। सप्तम भाव में स्थित शनि को ताउम्र एक स्थायी और अदृश्य पीड़ा सहने को मजबूर करता है। शनि दुविधा का भी कारक है। शनि जब छठें भाव से विचरता है तो जातक को कर्ज, शत्रु या रोमांस में फँसाता है। इसके ठीक ढाई साल बाद जब वह सप्तम भाव में प्रवेश करता है तो जीवनसाथी दुर्दांत पीड़ा का भागी बनता है।’’

पंडितजी आगे भी कुछ बालते पर हरदेव झटके से उठ गया।

‘‘आपकी वार्ता रिकॉर्ड हो गई?’’ उसने पूछा।

‘‘हाँ, काफी देर हो गई। परसों प्रातः सात बजकर, दस मिनट पर मुंबई-ए पर आएगी। मेरी वार्त्ता का विषय है-‘दांपत्य में शनि का प्रभाव’ आप जरूर सुनें।’’ पंडितजी उठ गए।

कॉरीडोर की दीवार से चिपका हरदेव ज्योतिषाचार्य पंडित नवलकिशोर उन्नाववाले को जाते हुए देखता रहा। पंडितजी की बातों के कुछ टुकड़े उसके भीतर हलचल मचा रहे थे। उन बातों में उसका यकीन नहीं था पर उसके घर की जो हालत चल रही थी, निरूपमा का मन संताप के जिस अंधे कुएँ में भटक रहा था, खुद हरदेव चाह कर भी घर में रूक नहीं पा रहा था- उस मौसम में क्या पंडितजी कुछ-कुछ सच बोल रहे थे? उसने खुद से पूछा।

‘‘शनि की महादशा उन्नसी साल की होती है। शनि लोहा, कोयला और सेना का कारक हैं। शनि लंबी यात्राएँ करवाता है। यात्रा के दौरान विशेष परिवर्तन आते हैं। छठां घर शत्रु और रोमांस का और सातवाँ घर पत्नी का होता है।’’

पंडितजी की बाते रह-रहकर हरदेव के दिमाग में कसकर चक्कर काट रही थी।

सातवाँ घर पत्नी का होता है- उसने सोचा और घंटी बजा दी।

 निरूपमा बुरी तरह चौंक गई। कैलेंडर पर घुमती उसकी उँगलियाँ अचानक रुक गई। यानी पूरा एक सप्ताह हो गया। दुःख, पश्चात्ताप, हताशा, घृणा, छल, अँधेरा, गद्दारी, तिरस्कार, झूठ, पाप, हिकारत और अपमान के सात दिन।

एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जिस दिन हरदेव उसके पास आया और उसे अपनी बाँहो में समेटते हुए उसने कहा हो- ‘‘नीरू मुझे समझो, मैं तुम्हारा पति हूँ। तुम जिस मनोस्थिति में जी रही हो वह तुम्हे नष्ट कर देगी और उसकी छाया मेरी देह को भी जख्मी करेगी। कि सच वह नहीं है जो तुम सोच रही हो।’’

वह कुछ तो कहे। यह भी हो सकता है कि खुद ही संदेह के किसी धुंध भरे मोड़ पर जा पहुँची हूँ जहाँ सारे चेहरे अपनी पहचान खो बैठे हों। वह बोले तो-कुछ भी तो नहीं बोलता हरदेव। वह तो उस चक्रवर्ती सम्राट की तरह हो गया है जो कहता है मेरी बात मानों, नहीं तो सिर धड़ से उड़ा दूँगा। इन सात दिनों में कुछ भी नहीं बदला है। बदला है तो सिर्फ नीरू का चेहरा जिस पर ढेर-सी बेचारगी आ चिपकी है। पहले पति का छल, फिर उसका दंभ, फिर उसका दमन, फिर उसकी यातना, फिर उसकी उपेक्षा, फिर उसका-नीरू ने आगे सोचना ही बंद कर दिया।

वह उठी और अटैची लगाने बैठ गई। अलमारी खोली और उसमें से कपड़े चुनने लगी। फिर बड़ा बक्सा उठाया और उसमें से गरम कपड़े निकालने लगी। लुधियाना में तो इस वक्त कड़ाके की सरदियाँ होंगी। बीजी कहेंगी- ‘तू गरम कपड़े लेकर आई है न, जल्दी में स्वेटर तो नहीं भूल आई?’ फिर कहेंगी- ‘सुन पुत्तर शादी के बाद लड़की का असली घर तो पति का ही घर है, माँ-बाप का घर तो फिर धर्मशाला हो जाता है- आए, रुके, चल दिए।’ फिर वे धीरे-धीरे सुखमनी साहब का पाठ करने लगेंगी और उनकी आवाज पूरे घर में बिखरने लगेगी। उस वक्त घर का माहौल गुरुद्वारा साहिब की तरह पवित्र, शांत और धीरगंभीर हो जाएगा।

लुधियाना की याद में खोई नीरू कब बिस्तर पर लुढ़क गई उसे पता ही नहीं चला। रात देर कब हरदेव आया, उसने दरवाजा खोला या हरदेव ने अपनी चाबी से दरवाजा खोला, नीरू को कुछ भी याद नहीं है। वह तो यादों के संग-संग नींद में खो गई थी।  फोन की घंटी ने सुबह उसकी नींद को तोड़ा। घंटी बजी, फिर बंद हो गई। फिर बजी, फिर बंद हो गई। फिर बजी और बजती रही। नीरू फोन तक आई। उसने देखा हरदेव बेसुध-सा दीवान पर सोया है। पहले घंटी बजते ही फोन उठा लेता था- चाहे कितनी भी गहरी नींद मेें क्यों न हो। अब फोन बजता रहता है, वह जागता भी हे तो फोन नहीं उठाता। नीरू ने फोन उठा लिया।

‘‘निरूपमाजी गुडमॉर्निंग। मैं मिसेज डीकोस्टा बोल रही हूँ।’’

‘‘जी बोलिए।’’

‘‘क्या आजकल आपके हसबैंड नहीं है? बड़ी देर से घंटी बज रही थी। सुबह तो वे घर पर रहते हैं न? अकसर वे ही फोन उठाते थे।’’

‘‘जी आप बताइए-सुबह-सुबह कैसे याद किया?’’ नीरू ने संयत होकर कहा।

‘‘क्या है रात को मेरे हसबैंड ने आलू-बड़ी वाली सब्जी की माँग की। बड़ियाँ तो घर में थी नहीं। मैने उनको वायदा किया है कि आज शाम को मैं वह सब्जी जरूर बना दूँगी। उनके गुस्से से मुझे बहुत डर लगता है। क्या आप बड़िया का पैकेट ले आई?’’

‘‘नहीं- न ला पाई हूँ और न आगे ला सकती।’’ नीरू ने झल्लाकर कहा।

‘‘क्या हुआ? आपकी तबीयत अब तक खराब है क्या?’’ मिसेज डीकोस्टा सहमी-सहमी बोलीं।

‘‘मेरी तबीयत न पहले खराब थी, न अब है। मैंने अब उस रास्ते से जाना बंद कर दिया है। जहाँ वे बड़ियाँ मिलती है।’’ और नीरू ने झटके से फोन काट दिया।

वह उठी तो उसकी नजर अचानक हरदेव पर पड़ी। वह अब भी गहरी नींद में था। उसके केश बिखरे थे और उसका चौड़ा सीना धड़कनों की लय पर ऊपर नीचे हो रहा था। नीरू कुछ देर ठिठक गई। उसका मन हुआ हरदेव के चीने को चूम ले। उसकी घड़कनों को कान लगाकर सुने। उसके सीने के कुछ बालों को चुरा ले। उसके होंठों पर अपने होंठ रख दे। उसकी पलकों को अपनी उँगलियों से सहला दे।

उसने कुछ नहीं किया। वह अपने कमरे में आ गई और लुधियाना जाने की तैयार करने लगी।  धूप ए विंग की टॉवर से उतरकर मैदान में पसरने लगी थी। वह उठी और तैयार होने लगी। कुछ देर में उसे निकलना ही होगा।

चिट्ठी लिखकर उसने तिपाही पर रख दी और फूलदान से दबा दिया। घड़ी पर नजर फेंकी और अंदर के कमरे से अटैची उठाकर बाहर के कमरे में आ गई।

घंटी बजी। उसने अटैची दीवान के पास रख दी।

‘‘भाभीजी प्रणाम। मैं राजकुमार सिन्हा-हरदेव ने मेरे बारे में आपको बताया होगा।’’

‘‘जी आइए-’’ शब्द बहुत ताकत से उसे अंदर से निकालने पड़े।

अटैची थामें राजकुमार अंदर आ गया।

‘‘ आप कहीं जा रही थीं क्या?’’

नीरू ने कोई जवाब नहीं दिया।

वह फोन के नजदीक आई। हरदेव को पेजर करने के बाद वह हारी-थकी अंदर कमरे में चली गई।

 अब उसे हरदेव का इंतजार करना ही होगा।