जली रस्सी / से.रा. यात्री

Gadya Kosh से
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मैं दरवाजे पर खड़ा था लेकिन उसकी आंखें मेरी ओर नहीं थीं। किसी गहरी चिन्ता में डूबा वह कमर के पीछे हाथ बांधे इधर से उधर घूम रहा था। उसे गुमनामी की हालत में देखकर मैं कुछ टोह-सी लेता कमरे में दाखिल हो गया। मुझे सामने देखकर वह ठहर गया पर उसके मस्तकक पर घनीभूत रेखाओं में कोई अन्त र नहीं पड़ा। आंखें चढ़ी हुई थीं और पुराने फौजी कोट का कालर गर्दन तक खिंचा हुआ था। उसके कुछ कहने से पहले ही मैं पलंग पर जाकर बैठ गया और उसके सिगरेट केस से एक सिगरेट निकालकर इधर-उधर माचिस तलाश करने लगा। उसने अपनी जेब से लाइटर निकालकर मेरी सिगरेट जला दी और एक सिगरेट अपने होंठों में दबाकर बारह बाई बारह फुट के कमरे में बेचैनी से टहलने लगा।

मैंने ऊपर देखा। छत के नाम पर महज एक टीन पड़ी थी और सहन में खड़े नीम की पत्तियां उसपर गिरकर हल्कीे-सी खड़क पैदा कर रही थीं। कुंवरसिंह का पारिवारिक आवास एक किले सरीखा है जिसमें पच्ची‍स से कम कमरे-तिदरी व प्रकोष्ठं तथा दीवानखाने क्याा होंगे? अगर एक दफा उसे पूरे मकान का जायजा लेना पड़ जाय तो घंटा-सवा घंटा मजे में निकल जायेगा पर कुंवरसिंह इस मकान के अहाते में अपना अनगढ़ टीन शेड डलवाकर पड़ा रहता है। अजीब स्वनभाव पाया है इस शख्स ने-गोया परिवार के नाम से तो इसे विरक्कित ही हो गयी है। किसीकी सूरत इसे बरदाश्तै नहीं है। नौकर दोनों समय का खाना इस कमरे में ही दे जाता है। अनोखी दिनचर्या के बीच इसका दिन व्यैतीत होता हैं इसकी जिन्दसगी का महज एक दिन देख लेने से ही आभास मिल जाता है कि 'डल स्टोतरी' क्या होती है। आपने ऐसी कहानी जरूर पढ़ी होगी कि महज एक आदमी कमरे में बैठा या टहलता सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा है और इसके अलावा कुछ घटिोत नहीं हो रहा है। कमरा धुएं से अट जाता है और आदमी के घूमते-घूमते ही कहानी खत्मग हो जाती है। कुंवरसिंह की जीवनचर्या से इस किस्मह की कहानियां अब मुझे कई बार सच्ची और प्रामाणिक लगने लगी हैं।

मैंने कुंवरसिंह जैसा आत्म लिप्ता आदमी दूसरा नहीं देखा। सुबह पलंग से उठकर अपनी चाय हीटर पर खुद बनाता है। अपने सारे काम कुछ तो घरेलू नौकर की सहायता से और कुछ मोहल्लेप-पड़ोस के इधर से गुजरते लड़कों को रोककर पूरे करता है। एक जमाने में जमींदारी का दबदबा था, जिसके दुःखद अवशेष अब केवल इस रूप में वर्तमान हैं कि किले जैसे मकान की बरसों तक पुताई भी नहीं हो पाती। सारे परिवार को बीमार, आलसी और आरामतलब रहने की आदत है। कुंवरसिंह के बड़े भाई कोआपरेटिव बैंक के मैनेजिंग डाइरेक्टमर हैं मगर कमाने के नाम पर वह भी शून्ये के अवतार हैं। हां, दरबार उनका हमेशा चौचक रहता है।

कुंवरसिंह परिवार की सारी जमीन खुदकाश्त न होने के कारण कब की हाथ से निकल चुकी है। केवल दस गुना या चालीस गुना मुआवजा जैसा कुछ मिलता है जो परिवार के खर्चे के लिए चौथाई आमदनी से ज्यालदा नहीं है-बाकी तीन चौथाई काम कर्जे के सहारे चलता है।

कुंवरसिंह ने पूरे परिवार से इतनी बेरुखी पैदा कर ली है कि अपने हिस्सेर का मुआवजा भी स्वोयं वसूल करता है और लाख कसमें खाने पर भी दिन छिपते ही देशी शराब की एक बोतल लेकर बैठ जाता है। जब बोतल खल्लामस हो जाती है तो उसे पलंग के नीचे लुढ़का देता है। एक वक्तह था जब उसकी सेहत देखकर मुझे ईर्ष्याल हुआ करती थी पर अब उसपर दया आती है। सारा चेहरा काला पड़ गया है। स्वाखस्य्या इतना बिखर गया है कि उसका लम्बार-चौड़ा शरीर मात्र ढांचा दीख पड़ता है।

मेरी कुंवरसिंह से पुराने दिनों को दोस्ती है। अब तक भी किसी तरह निभती चली आ रही है। मैं जानता हूं, सांझ के बाद तो कोई परिचित उधर झांकता भी नहीं हैं। उसके दरवाजे सूरज ढलते ही बन्दा हो जाते हैं और कभी कोई भूले-भटके उधर आ भी जाता है तो वह कड़ककर 'कौन' कहने के साथ पलंग पर पड़ी भरी बन्दूऔक उठाकर खड़ा हो जाता है। एक बार तो टीन शेड के ऊपर वाले नीम पर कुछ शोर सुनकर उसने तैश में बन्दू क चला ही दी थी हालां‍कि हुआ कुछ नहीं था; नीम पर बैठा एक बन्दशर बन्दूशक की 'धांय' से डरकर टीन पर गिर पड़ा था और पेड़ की एक शाख टूटकर नीचे आ पड़ी थी। उसकी इस हरकत पर मैं हंसी से लोट-पोट हो गया था मगर उसके तने हुए चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं आया था।

कभी-कभी यह होता है कि मैं उससे नाराज हो जाता हूं और फिर कई-कई रोज मिलने नहीं जाता। मेरी नाराजगी जब वह झेल नहीं पाता तो नौकर को भेजकर मुझे बुला लेता है। ऐसे मौकों पर मैंने गहरे नशे की झोंक में उसे भावुक होते भी देखा है। मुझे खुश करने की खातिर कानों पर हाथ रखकर 'लाहौल' पढ़ता है और आगे से छूने वाले को भद्दी गाली निकालता है। गुस्से के बावजूद मुझे उसके रंग-ढंग पर हंसी आ जाती है और साथ ही गालिब का यह शेर भी याद आ जाता है, “खाई है 'गालिब' तूने मयकशी की कसम - पर तेरी बात का ऐतबार नहीं है।” मैं उसकी भावुकता और वायदों को अच्छीब तरह पहचानता हूं। दिन निकलते ही सारी भावनाएं हवा हो जायेंगी और वह सागर के तट पर फैली बालू जैसा शुष्कप और किरकिरा हो उठेगा।

पन्द्रीह वर्ष पहले जब कुंवरसिंह ने अपनी पत्नी। को छोड़ा था तों वह महज चार बच्चों का बाप था। तीन लड़के थे और सबसे छोटी बच्चीु महज चार साल की थी। उसके इस कृत्य से सार घर और श्व सुरपक्ष में सनसनी फैल गयी थी। उसकी पत्नी का अपराध केवल इतना था कि वह सुंदर और पढ़ी-लिखी नहीं थी। लोगों ने उसे भरसक समझाया था कि बच्चोंक का जीवन नष्ट हो जायेगा, इतना वक्तल विवाह हुए बीत गया, अब सुंदरता-असुंदरता को छोड़कर बच्चोंह का भविष्य देखो। उसने किसीकी एक नहीं सुनी तो बड़े भाई ने मुलायमियत से समझाया, “देखो कुंवर, एक बात याद रखो, बहू इस घर में आने के बाद अपने मायके तो जाने से रही। मैं बच्चों को यतीमों की तरह दर-दर की ठोकरें तो खाने नहीं दूंगा और तुम्हा री एक भी दलील मुझे दुरुस्तक नहीं लगती। जब तुम्हा री शादी हुई थी, तुम बी.ए. में पढ़ते थे। इसके अलावा हमने बगैर तुम्हाीरी मर्जी के जोर-जबर से शादी नहीं की थी।” कुंवरसिंह के चेहरे पर सख्तं तनाव था; वह बड़े भाई के सामने यों सिगरेट पीने से भी परहेज करता था मगर भाई की दरख्वारस्त उसने यह कहकर ठुकरा दी थी, “शादी के वक्तर आपने मेरी मर्जी कहां पूछी थी; न जाने किस ठसक में एक जाहिल औरत मेरे गले बांध दी! जरूरी नहीं कि मैं उसके तईं हमेशा जिम्मे;दार रहूं।”

बड़े भाई पूर्ववत संयत और शान्त। रहकर बोले थे, “चलो, मैं बहस में नहीं पड़ता। तुम्हा री बात ही मान लेता हूं मगर अब इतने बरसों के बाद तो तुम्हाबरी नाव किनारा छोड़कर मंझधार में जा पहुंची है। तुम चार बच्चोंग के पिता हो; बहू के लिए न सही बच्चों़ के प्रति तो तुम्हा।री कुछ जिम्मेहदारियां हैं ही।” लेकिन कुंवरसिंह ने बड़े भाई की कोई बात नहीं मानी। उसने पारिवारिक मकान का अपना हिस्सा छोड़कर गारे से ईंटें चिनवाकर सहन के अन्तह पर यह काटेज खड़ी करवा ली थी और पन्द्र ह बरसों से इसीमें रहता चला आ रहा है।

उसके गैरत-सम्बान्धीक दृष्ष्टिकोण पर मुझे अक्सकर हैरानी होती है। जिन लोगों को वह पसन्द‍ नहीं करता उनसे अलग रहता है, मगर जब दोनों वक्तट नौकर घर से भीतर से चुपचाप उसके लिए खाना लाता है तो उसे स्वीहकार कर लेता है। घर के किसी दुःख-दर्द में उसे कभी शामिल होते नहीं देखा गया। हां, नशे की हालत में मां के प्या र को लेकर बहुत बातें करता है और भावोच्छ्वास की चरम सीमा पर पहुंचकर नौकर द्वारा मां को बुला भेजता है। ऐसे क्षण मेरे लिए परम कष्टरदायी होते हैं। सत्तर-बहत्तर वर्ष की बूढ़ी बेचारी गिरती-पड़ती जमीन टटोलती उस ऊबड़-खाबड़ टीन-शेड में आती है और देहरी पर बैठ जाती है। मां की आंखों से रात के समय कुछ भी नहीं सूझता। घर की बड़ी लड़कियों के शादी-ब्या ह हो चुके हैं इसलिए घर-द्वार भी देखना ही पड़ता है। कुंवरसिंह के बड़े भाई की पत्नीा बरसों पहले मर चुकी है। छोटे भाई की पत्नी मायके से कभी-कभार ही आती है और रही कुंवर की पत्नीद वह परित्येक्ता बनकर छह माह भी घर में नहीं रही। उसका भाई, जो फौज में ब्रिगेडियर था, उसे अपने साथ ले गया। बच्चोंभ को उसने मिलिट्री स्कू ल में भर्ती करवा दिया और अपनी बहन को आवश्य क शिक्षा तथा ट्रेनिंग दिलवाकर अध्याकपिका की नौकरी दिलवा दी।

मां जब भी कुंवरसिंह की कुटिया में आती हैं तो उनका चेहरा दर्द की मार से ऐंठा-ऐंठा लगता है। चश्मेब के मोटे कांचों के पीछे से उनकी आंखें बहुत करूण-कातर दीख पड़ती हैं। हाथ-पैर तो उनके अर्से से कांपते हैं। एक वह भी समय था जब उनकी देह भरी-पुरी और रौबीली थी पर रोजमर्रा के अभावों और पारिवारिक दुश्चिन्तासओं ने उनकी भारी-भरकम देह सुखा डाली है। मां कुंवरसिंह से हमेशा एक ही बात कहती हैं, “बेटा! शीलकुंअर को ले आओ, अब मेरा कुछ ठिकाना नहीं, जाने कौन-सा आखिरी दिन हो। जिस हवेली में पचासों मानस रहते थे उसमें अकेली कैसे रहूं? बच्चेर भी बड़े हो गये होंगे;ाभ्ज्ञहभ वे दूसरे के द्वारे कब तक पड़े रहेंगे? हमारी इज्जात-आबरू तो धूल में मिल गयी-इस हवेली में सात पीढ़ी से ऐसा नहीं हुआ था।”

कुंवरसिंह अपनी मां की बातें सुनकर एकाएक गंभीर हो उठता है। कुछेक क्षण डूबकर न जाने क्याभ सोचता रहता है। फिर उसके चेहरे की नसें तन जाती हैं और उसके जबड़ों में हरकत होने लगती है। मैं उसके इस तनाव को देखकर बेचैनी महसूस करने लगता हूं। मुझे कुछ भी साफ-साफ नहीं सूझता। ..... क्या वास्त व में कोई व्यमक्ति बिना किसी बड़े कारण के पत्नीा-बच्चोंं से इतना नाखुश और असम्पृकक्तक हो सकता है? कुंवरसिंह की अकर्मण्याता देखकर मुझे प्रायः यह लगता है कि उसने अपनी पत्नीृ और बच्चों को केवल इसलिए छोड़ रखा है कि वह उन्हें कमाकर खिला नहीं सकता। दुनिया में शायद उसके लिए कहीं कोई ऐसा आकर्षण शेष नहीं रहा जिसके लिए वह अपनी जड़ता और आलस्यल को त्याकगकर उत्साऐह से भर उठे। पत्नीि के संबंध में उससे जब भी कुछ कहा जाता है वह कोई उत्तिर नहीं देता, अलबत्ताआ दांत जरूर चबाने लगता है। मां के प्रति उसकी ममता लगभग उस बंदरिया जैसी है जो मरे हुए बच्चेत को अपनी छाती से बिलग नहीं करती। कुंवरसिंह भावनाशून्यम और निर्जीव संस्कामरों के वशीभूत होकर मां के प्यािर का रोना रोता है पर प्रेम की खातिर कोई छोटा या बड़ा त्याकग करना अब उसकी सामर्थ्यक के बाहर है।

कुंवरसिंह को मैं चहलकदमी करते देखता रहा। शायद अधिक नशे के कारण उसके कदमों में भी अधिक तेजी आ गयी थी। अखिर बहुत देर तक चक्कहर काटने के बाद वह बड़बड़ाया, “क्याट बातें हुई?”

“बहुत बातें हुईं। करीब दो घंटे से भी ज्या‍दा, मगर वक्तं का एकदम पता नहीं चला। बहुत मेधावी और सेंसेटिव लड़का है। उसकी बातों में आत्मरविश्वा स और तर्क की भी कमी नहीं है।” मैंने कुंवरसिंह के तने चहरे पर आंखें केन्द्रित करके कहा, “तुम्हाारे जैसा पिनकी तो बिलकुल नहीं है।”

मेरा खयाल था कि अपने बेटे को अपने से बेहतर बताया जाना उसे भला लगेगा और उसका चेहरा ढीला पड़ जायेगा, मगर मेरी बात सुनकर वह दांत किटकिटाने लगा। उसे दांत बजाते देखकर मैं भी उत्तेजित हो उठा। मैं पहले भी उसे गुस्से में यही हरकतें करते देख चुका हुं। मैंने उसके बेटे का प्रसंग वहीं छोड़कर कहा, “तुम अपने दांत उखड़वा डालो। बहुत पुराने हो चुके हैं-अब तुम्हा रा तैश इनसे बरदाश्तव नहीं होता। शायद नया सेट लगावाने से कुछ बात बन जाये।”

“बकवास बन्दड करो। मैं उसकी ता‍रीफ सुनने यहां नहीं बैठा हूं। उसने क्याह फैसला किया है, बस, मैं इतना-भर जानना चाहता हूं।”

उसकी तानाशाही पर मुझे और भी तैश आ गया। अपने गुस्सेफ पर काबू पाने की कोशिश में मैंने कहा, “आखिर मैं भी तो सुनूं कि जनाब अपने बेटे का फैसला जानने के लिए इतने अधीर क्यों हैं?”

“मैं हर आदमी की खसलत से वाकिफ हूं। तुम भी तो उन्हींन चोट्टों के साथ हो। सब कमीने हैं। मैंने उस छड़ीनुमा लड़की को नुमाइश में देखा था। बिल्कुंल ऐसी लगती है गोया सारंगी पर गिलाफ चिढ़ा दिया गया हो।”

उसकी बात सुनकर मैं अपना संयम छोड़ बैठा, “आप अपनी जबान को लगाम लगाइये कुंवर साहब। वह एक शरीफ आदमी की बेटी है। चाहे तो आपको आपका ही यह खानदानी खंडहर खरीदकर खैरात में दे सकती है। इसके अतिरिक्तत जिस लड़के ने उससे विवाह करने का निर्णय किया है वह एक जिम्मे दार अफसर, यानी पुलिस कप्तानन है। यह शादी आपकी नहीं बल्कि आपके बेटे की होने वाली है। तुम्हें उन नौ-जवानों के फैसले में टांग अड़ाने की क्याश जरूरत आ पड़ी?”

कुंवरसिंह कुछ ढीला पड़कर बोला, “सवाल टांग अड़ाने का नहीं है। वह लड़की फैशनपरस्त है। ऐसी लड़की की गुजर इस घर में नहीं हो सकती।”

मैं ठहाका मारकर हंस पड़ा और उसे मुंह चिढ़ाते हुए बोला, “वाह रे! गुजर नहीं हो सकती? मैं नहीं समझा था कि जनाब का दिमाग इस हद तक जवाब दे चुका होगा। आप अपनी हालत पर गौर फरमायें-यानी आपका बेटा आपके घर की शोभा बढ़ाने के लिए ब्याहह रचा रहा है? जहां तक मुझे हिसाब-किताब का थोड़ा-सा ज्ञान है, उसके सहारे मैं कह सकता हूं कि जनाब पचास ही पूरे कर पाये होंगे लेकिन मुझे हैरत है कि इस उम्र में भी आज के जमाने में कोई शख्सा इतना खूसट हो सकता है कि बेटे का विवाह होते समय केवल अपनी पसन्दज को ही प्रमुखता दे।”

कुंवरसिंह ने मेरी लानत-मलामत पर कतई ध्याजन नहीं दिया। वह उसी तरह आंखें चढ़ाये हुए बोला, “नरेन्द्र सिंह (उसके बड़े भाई) हमेशा से बेपेंदी के हैं। मेरी समझ में नहीं आता, उनकी बुद्धि कहां चरने चली गई है कि वह इस मामूली रिश्तेउ के लिए तैयार हो गये हैं। लड़के का झुकाव अपनी बेटी की तरफ देखकर लड़की का बाप हो सकता है कोर्ट मैरेज करना चाहे।”

उसकी चिन्ताड सुनकर मैं हंस पड़ा। मैं ही नहीं, मेरी जगह कोई और भी होता तो जरूर हंसता। आखिर यह किस मिजाज का आदमी है? इसने अपनी घरवाली को चार बच्चोंर की मां बनाकर महज इस आधार पर मंझधार में छोड़ दिया था कि वह इसकी पसन्द से नहीं चुनी गयी थी। इसने न केवल पत्नीप से बल्कि अपने बच्चों तक से बदला दिया-उन्हें अपने मकान तक में नहीं रहने दिया और आज अपने बेटे की शादी की बात कानों में पड़ते ही इससे बाप बनने को गौरव नहीं संभाला जा रहा है। बच्चोंक की सारी पढ़ाई-लिखाई और परवबरिश अपने मामा के घर पर हुई। उस भले आदमी ने इसपर कभी खुलकर दोषारोपण भी नहीं किया। और अब भी उसकी महानता देखिये कि भांजे की शादी का सवाल आया तो उसने कुंवरसिंह के बड़े भाई को बुलाकर सारी बातचीत तय की और इस घर के सम्मालन को ठेस नहीं लगने दी।

वह लड़की, जिसका रिश्ता कुंवरसिंह के बेटे से पक्कात हुआ था, एक ब्रिगेडियर की बेटी थी। लड़की के पिता और कुंवरसिंह का साला एक ही स्तकर के अफसर थे। दोनों के परिवारों में लम्बेर वक्तब का सम्प र्क था। हरेन्द्रह (कुंवरसिंह का बेटा) ने मीरा को बचपन से ही देखा था-दोनों एक-दूसरे को समझने लगे और पसन्दप करने लगे तो दोनों की शादी के बीच कोई अड़चन न रहीं। कुंवरसिंह के साले ने कुंवरसिंह के बड़े भाई को बुलाकर बता पक्कीी कर दी और लड़की को पोशीदा ढंग से नुमायश में कुंवरसिंह को भी दिखला दिया गया। जहां तक कुंवरसिंह के बड़े भाई का सवाल है उन्होंनने खुशी से अपनी स्वी कृति दे दी। उनके सामने यह प्रस्तांव भी रखा गया कि बच्चा् आपका ही है और आपका रहेगा, चाहें तो विवाह आप अपने दरवाजे से ही करो। यही बात जबग कुंवरसिंह के सामने रखी गयी तो वह भड़क उठा “शादी का फैसला करने वाले वे लोग कौन हैं?”

कुंवरसिंह के बड़े भाई नरेन्द्रससिंह तो कुंवरसिंह के तेवर देखकर चुप लगाकर बैठ गये मगर बाकी किसी ने उसकी रत्ती-भर परवाह नहीं की। हरेन्द्रंसिंह की पोस्टिंकग बरेली में हुई थी। वह कभी-कभी अपने ताऊ और दादी से मिलने आता रहता था हालांकि कभी तीन-चार घंटों से ज्यािदा नहीं ठहरता था। कुंवरसिंह से बातें होने के बाद जब मेरी उससे एक बार संयोग से भेंट हो गयी तो मैंने हंसते हुए उसे छेड़ा, “कप्ताेन साहब! तुम्हाेरे पिता इस घर में किसी कुंवरानी को ही बहू बनाना चाहते हैं।”

लड़का मेरे छेड़ने से गम्भी्र हो गया और धीरे-धीरे बोलने लगा, “चाचा जी! मीरा एक बहुत 'सिम्पसल' लड़की है; डैडी बेकार घबराते हैं।” मैं अचम्भें में पड़ गया। कुंवरसिंह के बेटे ने एक बार भी यही नहीं कहा कि मेरे पियक्कसड़ बाप ने मेरे लिए किया क्या है जो मेरी शादी में अडंगा लगाना चाहते हैं। वह मुझे आश्वरस्त‍ करते हुए कहने लगा, “देखिये चाचा जी, हम दोनों के बीच एक लम्बेभ वक्त की 'म्यूवचुअल अंडरस्टैं डिंग' है। आप डैडी को यही बात समझाइए। मैं नहीं चाहता कि मेरे किसी फैसले से उनका दिल दुखे।” अपनी बात का अंतिम वाक्यय बोलते समय हरेन्द्र के चेहरे पर एक दृढ़ता मैंने लक्ष्यि की, “अगर वह मुझे समझने को तैयार नहीं हैं तो बात दूसरी है।”

मैं हरेन्द्र की दृढ़ता से बहुत प्रभावित हुआ और मैंने उसके निर्णय का स्वाीगत करते हुए उसे राय दी कि जो भविष्य‍ के लिए उसे उपयुक्तर दिखाई पड़े वही करे। उतने सही और समझदार लड़के को कोई भी ऊंच-नीच समझाने का आखिर मतलब क्या‍ होता?

मैंने हरेन्द्रक से हुई बातचीत जब कुंवरसिंह‍ को बतलायी तो वह हस्बेा-मामूल अपने दांत चबाने लगा। शुरू में मैंने उसे तर्क से समझाना चाहा लेकिन उसकी बेतुकी बातो से मैं भी गरमा उठा और न जाने क्या कुछ कहता चला गया। मेरी उत्तेजना उसकी मूर्खता से बहुत बढ़ गयी थी। मैंने पिछले सत्तरह-अठारह वर्षों से जिस बात को दिल में दफन करके रखा हुआ था वह अनायास मेरी जबान पर आ गयी, “कुंवरसिंह! तुम्हें वह दिन याद है जब इसी सहन में तुम नाई से हजामत बनवाकर उठे थे और तुम्‍हारे बाद हरेन्द्रल ने उसी चारपाई पर बैठकर हजामत बनवायी थी, लेकिन नाई को तुमने सिर्फ अपने बाल कतराने के पैसे दिये थे; उसकी हजामत के पैसे ताऊ जी ने अदा किये थे? और आज तुम बेटे के दावे-दार बने हो। यह शायद ज्याददती की हद कहीं जायेगी कि तुम्हा रा बेटा अपनी शादी का निर्णय तुम्हाररी समझ से करे।”

कुंवरसिंह बेताबी से केमरे में टहलने लगा और आंखें चढ़ाकर गुर्राया, “तुम्हाररे दिल में कोई बात और रह गयी हो तो कह डालो। औरों से तुम भी क्यों पीछे रहते हो?” उसकी यह एकांगी दृष्टि मुझसे सहन नहीं हुई मैंने भी कड़वे लहजे में कहा, “अपनी समझ के अनुसार तुमने सिर्फ इसलिए दाम्पमत्यन सुख नहीं भोगा कि तुम्हाडरी पत्नीभ तुम्हा रे योग्यम नहीं थी और तुम्हाइरे विवाह का फैसला तुम्हासरे बड़े भाई ने किया था और आज दकियानूसी की सारी सीमाएं लपेटे घूम रहे हो। यही चाहते हो न कि तुम्हा रा बेटा भी तुम्हायरे निर्णय का अभिशाप ढोता रहे? कुंवरसिंह, इतना हठ, संकीर्णता ओर जड़ता कहीं क्षम्यभ नहीं है। अगर तुम अपनी इस सड़ी अंधेरी गुफा से बाहर निकले होते, तुमने जीवन-जगत का परिवर्तन देखा होता तो आज तुम सूखे बांस की तरह बेलचक न होते।”

कुंवरसिंह ने जैसे मेरी कोई बात नहीं सुनी। वह सिगरेट पर सिगरेट फूंकता इधर से उधर चक्कगर काट रहा था। मैं भी उसके पलंग से उठकर खड़ा हो गया और तल्खीर से बोला, “तुम अपने बाल नोचना और शुरू कर दो तभी तुम्हाेरी तस्वीयर पूरी बन पायेगी। अभी हमारी फिल्मोंच में ही नहीं, जीवन में भी ऐसे कठमुल्ले बापों की कोई कमीं नहीं है।”

कुंवरसिंह मेरी टिप्प्णी सुनकर एकदम ठहर गया और गरजकर बोला, “यू मैन! गेट आउट अदरवाइज...” मैंने ठहाका लगाकर उसका वाक्यज पूरा कर दिया, “आइ'ल शूट यू देन एण्डी देयर।”

कुंवरसिंह आग्नेटय नेत्रों से मेरी तरफ घूरता रहा। उसकी काटेज में पूरा सन्नामटा फैला हुआ था महज दीवार पर लगी एक बहुत पुरानी क्लासक टिक‍-टिक करके एक विशेष अन्ताराल से मनहूस चुप्पी भंग कर रही थी।

मैं कमरे से बाहर निकलने लगा तो वह मेरी तरफ फौजी तर्ज पर टर्न लेकर घूम गया लेकिन उसने आगे बढ़ने को कोई लक्षण प्रकट नहीं किया। मुझे वह जली रस्सीर की तरह लगा जिसके बल अपनी जगह ज्यों के त्यों कायम थे। मैंने दहलीज से निकलते हुए एक लम्बीर सांस ली और न जाने क्योंी मेरे मुंह से अनायास आह निकल गयी। पता नहीं यह कुवंरसिंह के टूट जाने के दर्द था या अपने तर्को की मूर्खता पर अफसोसा।

सहन से निकलते हुए मैंने देखा, कुंवरसिंह अपने बारह फुट लम्बे -चौड़े कमरे में लगातार चक्कयर काट रहा था; एकदम 'सर्कस' के कटहरे में बन्दम शेर की तरह।