जल चिकित्सा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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यहीं पर प्रसंगवश जलचिकित्सा का कुछ वर्णन कर देना जरूरीहै। असल में उसने मुझे न सिर्फ लाभ ही किया, प्रत्युत अपना भक्त सदा के लिए बना लिया। मैंने उसकी पूरी पद्धति का अच्छी तरह अभ्यास किया। उस पर नोट भी तैयार किए। उसके आचार्य लूईकुने (Louis kuhne) की दोनों किताबें'आरोग्यता की नई विद्या' (New science of Healing) और 'मुखाकृति विज्ञान' (Science of Facial Expression) मैं अच्छी तरह पढ़ के समझ चुका था। इतना ही नहीं। मैंने उसकीएकाधबातों और सिद्धांतों के आधार पर पीछेएकाधउपसिद्धांत ढूँढ़ निकाले और उनसे लाभ उठाया, उठवाया। दृष्टांत के लिए उसने जो कहा हैकि शुद्धरेत यदि भोजन के बाद ज्यादे-से-ज्यादाएक तोला चुभला कर खायाजाएतो कठिन-से-कठिनकोष्ठबद्धता(Constipation) को हटा देताहै,उसकी मैंने अनेक लोगों पर परीक्षा की। उसमें सफल होने पर पेट के दर्द और मसूढ़े फूलने पर भी मैंने उस बालू का प्रयोग कर के सफलता पाई। असल में विकृत वायु या अधिक वायु को सोख लेना बालू का कामहैऐसा समझते ही मैंने दर्द आदि में उसका प्रयोग किया। हाँ, बालू में मिट्टी का अंश जरा भी न हो। वह खूब धो के साफ किया गया हो। न बहुत मोटा हो और न अत्यंत महीन। गंगा की रेत सबसे अच्छी होतीहै। दाँत के दर्द, मसूढ़ों की सूजन और पेट की पीड़ा में भी वही विकृत वायु कारणहै। इसलिए उसका प्रयोग लाभदायकहै। हाँ, कुने ने जोदूध को मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं माना है मैं उसे नहीं मानता। मेराख्याल हैकि लाखों वर्ष तक बराबर दूधपीने के कारण मनुष्य का एक तरह का स्वाभाविक भोजन दूध भी बन गयाहै।

मैंने कुने की इस चिकित्सा का निरंतर प्रयोग कर के यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि हम भोजन में संयम रखें, ऊलजलूल न खाएँ और अच्छी तरह भूख लगने पर खूब चबा कर खाएँ तो रुपए में बारह आने बीमारी तो इसी से ही दूर रहेगी। शेष में पौने चार आने नियमित रूप से व्यायाम करने या टहलने से। सिर्फ एक ही पैसा मौका रह जाता है औषधि के लिए। व्यायाम में भी टहलना सबसे उत्तम है ऐसा मेरा अनुभव हुआ है। मैंने दंड-बैठक, दौड़, आसन आदि सभी का अभ्यास कर के इस टहलने से मिलाया और इसे सर्वोत्तम पाया है। यह स्वाभाविक भी है। अगर ये बातें हम करें और जलचिकित्सा न करें तो भी सदा नीरोग रहेंगे ऐसा मेरा विश्वास है। मैंने अपने बारे में ऐसा कर के देखा है भी। केवल दिमागी ही बात नहीं करता हूँ। मेरा जो शरीर रोगों का घर हो गया था वही आज इतना स्वस्थ है कि 10-12 वर्षों से कभी बुखार आया ही नहीं। फोड़े, फुंसी या जख्म वगैरह का तो कहना ही क्या? इसके लिए मैं जलचिकित्सा का सदा ऋणी रहूँगा, हालाँकि बहुत दिनों से वह छूट गई है। मैं घड़ों में ठंडा पानी रख के उसी में हिप्वाथ लेता था। गर्मियों में सिट्ज बाथ तो होता ही नहीं। इसके लिए तो बहुत ठंडा जल चाहिए जो जाड़े में ही संभव है। इसीलिए जब जाड़ा आया तो सिट्जबाथ शुरू किया। हिप्बाथ में कमर को पानी में डुबो कर पेड़ई पर भीगे कपड़े से धीरे-धीरे रगड़ते हैं और सिट्जबाथ में मूत्रोंद्रिय पर। मगर सिट्जबाथ में पानी से ऊपर बैठना होता है। जब दाँतों में दर्द होता था तब या यों भी स्टीमबाथ (भाप से) लेता था। स्टीमबाथ के बाद तो हिप्बाथ जरूरी है। मैंने वहीं ऐसा करते देखा और पीछे तो स्वयं अनुभव भी किया कि सख्त-से-सख्त ज्वर भी तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर या यों कहिए कि दिन भर में स्टीमबाथ के साथ हिप्बाथ लेने पर ज्वर खामख्वाह भाग जाता है। जल में भी ऐसा किया गया था। बाहर तो मैंने कई बार ऐसा किया, कराया है। इससे शीघ्र ही मेरी आमवाली शिकायत दूर हो गई और भूख तेज हो गई। बाथ दिन में तीन बार, सुबह, शाम, दोपहर को लेता था और खूब टहलता था। मैंने देखा कि बच्चों की तरह बाथ के बाद दौड़ने का जी चाहता था। बाथ के बाद शरीर में गर्मी लाना जरूरी है। फिर चाहे दौड़ के हो, टहल के हो या कसरत कर के। बीमार लोगों को तो कंबल वगैरह से देह ढँकने से ही ऐसा हो सकता है। मैंने यह देखा कि अगर दाँतों में दर्द हो या मसूढ़ों में सूजन हो तो किसी बर्तन में पानी खूब गर्म कर के उसका मुँह बंद रक्खा जाए और उसे खोल कर वह भाप मुँह के भीतर ली जाए तो फौरन दर्द भागता है। मगर ठंडा होने पर फिर हो जाता है। इसलिए रह-रह के बार-बार ऐसा करने पर सूजन भी चली जाती है और दर्द भी हट जाता है।

मुझे तो पहले-पहल बाथ के अभ्यास के बाद ही दाँतों में दर्द हुआ। उससे पूर्व कभी न हुआ था। फिर तो वह दर्द बराबर होता रहा है। सिर्फ कुछी दिनों से उसने पिंड छोड़ा है। सो भी जब मैं उसके बारे में काफी सजग हो गया हूँ। अब भी लापरवाही करने पर फौरन हो जाएगा। असल में पायरिया की बीमारी की यही हालत है। वह भीतर-ही-भीतर थी। बाथ लेने पर प्रकट हो गई। दबी बीमारियाँ उसमें अवश्य प्रकट होतीं और काफी तेज हो जाती है। इसे हीलिंग-क्राइसिस कहा जाता है। इसका अर्थ है कि वह बीमारी उभर गई और कुछी दिनों में सदा के लिए खत्म हो जाएगी, यदि हम घबड़ा कर जलचिकित्सा छोड़ न दें। जितनी ही जल्द और तेज यह हीलिंग-क्राइसिस होगी उतना ही शीघ्र वह रोग हटेगा यही माना जाता है। इसीलिए कम उम्र में इस चिकित्सा का ज्यादा असर होता है। शरीर में जीवन शक्ति जितना अधिक होगी उतना ही शीघ्र यह क्राइसिस हो कर बीमारी चली जाएगी। कुने की यह भी मान्यता है कि फॉरेन मैटर या मल ही बीमारी है। और वह एक है। ज्वर, दर्द, प्लेग, हैंजा आदि उसी के विभिन्न रूप है। इसलिए वह इसी बात की कोशिश करता है कि शरीर में नया मल जमा होने न पाए और पूर्व संचित मल निकाल दिया जाए। यही जलचिकित्सा का मूल सिद्धांत है। भोजनादि के संयम और दूसरी बातें इसी के लिए उसने बताई है। भोजन में गर्म मसाले का वह सख्त दुश्मन है। उससे भी ज्यादा नमक का। आयुर्वेद ने भी यही माना है कि सभी रोगों की जड़ मल ही है 'सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मला:'। इसीलिए संयम पर उसने भी जोर दिया है। पुराने वैद्य लोग तो ज्वरादि की दशा में अनशन को ही प्रधान उपाय मानते हैं। इसलिए कुने का मत बहुत कुछ आयुर्वेद से मिलता-जुलता है। कुने ने यह भी कहा कि बाथ का नागा भी सप्ताह में एक दिन या महीने में दो-चार दिन होना चाहिए। हमने यह देखा है कि हिंदी में बहुत सी किताबें इस बारे में लिख कर उनमें खाने-पीने के बारे में ऊलजलूल लिख मारा गया है। नमक आदि खाने की राय दी गई है। यह बात गलत है। यह ठीक हैं कि शीघ्र-से-शीघ्र ले कर देर-से-देर समय में बीमारियों से छुटकारा इस चिकित्सा से हो सकता है। शरीर की जीवन शक्ति और बीमारी के पुरानेपन ही पर यह निर्भर है। बहुतेरे तो 12 तथा 16 वर्ष निरंतर यह प्रयोग करने के बाद नीरोग हुए हैं।