जल समाधि से पूर्व / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जल-समाधि के पूर्व बालकृष्ण मिश्र का भाव-प्रवण खण्ड काव्य है। इस खण्डकाव्य की विषयवस्तु का विस्तार इन सात सर्गों में किया गया है-स्मृति, अनुताप, अन्तर्दाह, संघात, ग्लानि, मंथन और विराम। इनमें संघात, ग्लानि और विराम बहुत छोटे (4-4-2) पृष्ठों के सर्ग हैं। जलसमाधि लेने से पूर्व राम का ग्लानि-भरा मन कहीं दूर खो जाता है। सम्पूर्ण दु: खमय जीवन उनके मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित हो उठता है।

इस काव्य के माध्यम से मिश्र जी ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है, जो मर्यादावादी राम के द्वारा अनुत्तरित ही रहे हैं। इस कृति की उपादेयता इसलिए भी बढ़ जाती है कि ये उत्तर सामयिक सन्दर्भों को और अर्थवान् बना देते हैं। संशय की एक रात और प्रवाद-पर्व काव्यों में श्रीनरेश मेहता ने युद्ध के औचित्य और सीता वनवास को तर्क की मर्यादावादी महामानव की कसौटी पर कसा है। कुछ प्रश्न मेहता जी ने सम्भवः विषयान्तर के कारण नहीं समेटे। जल-समाधि के पूर्व में ज्वलन्त प्रश्नों के उत्तर बहुत मार्मिक हैं।

मृत्यु के समीप स्वयं पहुँचने या मृत्यु के पास चले आने पर मनुष्य अपने सहजरूप में पहुँच जाता है। इस सहज अवस्था में आत्मस्वीकृति एवं आत्मबोध की अधिक सम्भावना रहती है। सीता को वनवास, लक्ष्मण को निर्वासन कम से कम; कम से कम ये दो व्यक्ति तो ऐसे थे, जो चौदह वर्ष तक अपने मन से वनावस भोग चुके थे। राम के अवचेतन मन में कहीं सत्ता का मोह और शंका का सर्प सिर उठा रहे थे। शम्बूक-वध का अनुताप भी उन्हें कम न था। शबरी और वानर क्या थे? राम अपने आचरण के दोहरे मानदण्डों में स्वयं को उलझा हुआ महसूस करते हैं।

अश्वमेध यज्ञ करने पर यश, कीर्ति, वैभव और निश्चल राज्य के आशीष तो मिले; परन्तु किसी ने मन को सुख-शान्ति मिलने का आशीष नहीं दिया। संघर्षों से भरे हुए राम को सुख-शान्ति का अभाव खटकता रहा। सम्भवतः यही अभाव उनसे कुछ ग़लत कराता रहा हो। यज्ञ करने से 'मैं' विस्थापित होने के स्थान पर और अधिक स्थापित हो गया। राम की स्मृति में बचपन-यौवन सब तैर जाते हैं, दुखों से भरे हुए।

राम के कहने पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान काटे थे। राम अनुताप के कारण यहाँ तक सोच जाते हैं-'भूख प्रकृति की रही / मिटा देने में दोष नहीं था' कवि का यह तर्क उचित प्रतीत नहीं होता। सीता-हरण के लिए फिर इतना तूल क्यों दिया गया? सीता पर सन्देह क्यों किया गया? रावण की प्रकृति को सहज रूप में क्यों स्वीकार नहीं किया गया? इसकी पुष्टि के लिए राम से कहलवाया गया है-'वशीभूत हो इसी प्रेरणा से / जानकी नयन ने / बींध दिया था हृदय प्रथम / जब देखा था उपवन में।'

दोनों परिस्थितियों में मूलभूत अन्तर है। जानकी ने जब प्रथम दृष्टि में राम को देखा था, उस समय राम किसी और के नहीं थे। शूर्पणखा ने जब देखा, तब राम सीता के पति थे। प्रेम-दृष्टि और वासना-दृष्टि दोनों एक कैसे? यदि प्रकृति को ही सही मानें, तब तो सत्पुरुष भी कुलटा नारियों को सन्तुष्ट करने वाला यन्त्तमात्र बनकर रह जाएगा। राम इतने दुर्बलमना हो गए कि पहली दृष्टि में शूर्पणखा से मन बहलाने की बात सोच बैठे। शूर्पणखा के स्तर पर-पर सोचने पर और भी मार्मिकता आती।

आसन्नप्रसवा सीता को लोकप्रवाद के भय से निष्कासित करके राम पश्चाताप की अग्नि में जलते रहे। न चाहकर भी रूढ़ियों के समक्ष नतमस्तक रहे। सीता कि प्रतिमा ने राम के अन्त: करण को सोचने पर बाध्य कर दिया-] मुझे नहीं, वनवास मिला था तुम्हें / संग क्यों जाती! ' सीता का प्रणय पावन रहा, इसी से उसने पत्नी का कर्त्तव्य निभाया; किन्तु राम पति का कितना कर्त्तव्य निभा सके? सीता का यह ज्वलन्त प्रश्न अनुत्तरित ही रहा-

तुम्हें प्यार था, तो तुम भी / मेरे संग वन में जाते।

जिस तरह भरत ने चौदह वर्ष तक जनतन्त्र चलाया वह आगे भी चल सकता था; किन्तु राम, राज्य छोड़कर पत्नी के साथ नहीं जा सके। ; क्योंकि सत्ता कि मादकता उनके मन-प्राणों में बसी हुई थी।

मिश्र जी ने राजनीति की कुरूपता पर प्रहार किया है। यह पल-पल परिधान बदलती है। छलना इसकी सगी बहन है, तो झूठ सगा भाई। यह सदा किसीएक की होकर नहीं रह सकती। –

सहधर्मिणी बन, नहीं किसी का / अब तक साथ निभाया।

आज एक के साथ / दूसरे से कल मन बहलाया।

जनपथ में जनता भी इसी की चर्चा में खोई मिलेगी। यह राजनीति, चित्रकला, संगीत, साहित्य सभी की जड़ों में खौलता पानी डालने का काम करती है। सत्ता के मोह में मनुज, दानव बनकर रह जाता है।

राम के मन में शंकाएँ कुण्डली मारकर बैठी थीं, तभी तो सीता पर विश्वास न करके निर्जन वन में भेज दिया और जिस बेचारे लक्ष्मण ने चौदह वर्ष न वनिता का / मुख देखा, रहे नियम से' उनको भी निर्वासित कर दिया। राम का मन ग्लानि से भर उठा- लक्ष्मण को त्यागने से पूर्व ही / मैंने न जल समाधि ली क्यों?

छाया कि तरह साथ रहने वाले लक्ष्मण को निर्वासित करके जैसे राम ने अपने मन की शान्ति को ही निर्वासित कर दिया। संघात सर्ग में राम की व्यथा गहरा जाती है।

जल-समाधि लेने को उद्यत राम को सीता कि आत्मा पुकार उठती है-

धार छोड़ दो तट पर आओ / प्रिय तट पर आओ!

राम को दु: खी देखकर सीता कि आत्मा भी व्याकुल हो उठती है।

ग्लानि सर्ग में शम्बूक वध को राम ने अपने जीवन के धवल पृष्ठों पर काला धब्बा माना है। राम का हृदय उन्हें धिक्कारता है-

'क्या तपस्या / ब्राह्मणों की ही बपौती?' तपस्या करने वाले नि: शस्त्र शम्बूक का वध उन्हें भीतर तक साल जाता है। राम स्वीकार करते हैं कि यह पाप सत्ता के लिए किया, जिसका प्रायश्चित करना ही पड़ेगा। गिद्ध, निषाद, हनुमान् सभी तो उपेक्षित वर्ग के थे। जब इनको गले लगाया, तो शम्बूक के साथ इतना अन्याय क्यों?

मन्थन सर्ग में सीता का प्रश्नाकुल रूप फिर उभर आता है। शंका ने नारी का सुख सदा ही झुलसाया है-

नारी पर सन्देह पुरुष की / प्रकृतिजन्य लाचारी

हो जाएगी असहाय सदा ही / इस प्रसंग पर नारी।

राम का अन्तर्द्वन्द्व तीव्र हो उठता है। धोबी के व्यंग्य-बाणों के कारण वे सीता का त्याग करने को बाध्य हो जाते हैं; क्योंकि-

सिंहासन का लोभ त्यागना / मेरे लिए सरल है

किन्तु प्रजा के व्यंग्य पचाना / मेरे लिए गरल है।

राम जागकर द्वन्द्व झेल रहे हैं। सीता सपने में चौंक उठती है। इस प्रसंग में कवि ने मार्मिकता कूट-कूटकर भर दी है। स्वप्न के माध्यम से राम के मंथन को और भी तीव्र कर दिया है-

आह भयानक स्वप्न विजन में / मैं रह गई अकेली

लक्ष्मण, भरत न कोई भी। दासी है संग सहेली।

अन्तिम दो पृष्ठों का सर्ग है-विराम। सरयू का जल अस्तमित होते सूर्य से लाल हो उठा। उसी समय धरा का सूर्य राम भी अस्त हो गया-

विश्व के इतिहास में / सूर्यास्त ऐसा / फिर न आया है / न होगा।

राम ने जल-समाधि ले ली। यह था एक युग पुरुष का अवसान। डॉ भगीरथ मिश्र की भूमिका ने पुस्तक की अर्थगहनता को इंगित कर दिया है। कवि की भाव-विभोरता ने काव्य को संवेदनशील तो बनाया; लेकिन भाषा के प्रवाह पर ध्यान नहीं दिया गया। मुद्रण और कवि दोनों ने त्रुटियाँ करने में कमी नहीं बरती है। बालि वध का प्रसंग भी इसमें समाहित हो जाता, तो अच्छा रहता। कवि के अनुसार-'राम की मनोदशा का चिन्तन सहज मानव के धरातल पर हुआ है' ; अतः राम की तमाम मानवीय दुर्बलताएँ मन को झकझोर देती हैं। सर्गों का विभाजन घटनाओं और प्रसंगों के अनुकूल हुआ है। सर्गान्त में आगामी सर्ग की कथा का संकेत भी दे दिया गया है। कुल मिलाकर यह कृति मन को बाँधने में समर्थ है।

जल-समाधि के पूर्व (खण्ड काव्य) : बालकृष्ण मिश्र, मानस संगम कानपुर208001, पृष्ठ: 78, मूल्य: 20 रुपये, वर्ष: 1985, (चार सौ प्रतियाँ वितरण हेतु)


26-02-1986