ज़ख्म / उपसंहार / जितेंद्र विसारिया

Gadya Kosh से
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आगरा। मई, 1562। एक सुबह। राजमार्ग पर कुछ घुड़सवार अंगरक्षकों की सुरक्षा में एक हाथी महल से निकल कर, शेख सलीम चिश्ती की दरगाह की ओर चला जा रहा है। हाथी की अंबारी में कोई और नहीं माहम अनगा है, जिसके बेटे आधम को कुछ दिन पहले सम्राट अकबर ने मौत के घाट उतारवा दिया है।

आधम की मौत के बाद उसके गम में डूबी माहम ने खाना-पीना छोड़, कई दिनों से अपने को महल की एक अँधेरी कोठरी में बंद कर रखा था। आधम के स्यापे में पहने कपड़ों में ही वह कई दिन से घुटनों में सिर दिए, खामोश रोती रही है। उसकी यह खामोशी कोठरी की एक मात्र खिड़की से छनकर आती-जाती धूप भी नहीं तोड़ पाई थी। ...आज तब कहीं जाकर आलमपनाह मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर ने अपनी दाई अम्मी को रजामंद कर, पीरानपीर शेख सलीम चिश्ती की दरगाह पर जियारत के लिए भेजा है। जिससे अब वह अपने सारे दुनियावी रंज भूलकर, अपनी पाक निगाहें अल्लाह ताअला के कदमों में लगा सकें।

महल से निकलकर हाथी जब रास्ते में दोनों और खड़े आम और खजूर के सायेदार पेड़ों से होकर गुजर रहा था, तभी उस वादी में बह रही आजाद हवा के एक बेमुरुव्वत झोंके ने अंबारी का पर्दा उघाड़कर रख दिया था। ...बाहर से सीरी हवा का झोंका लगते ही अपने जवान-जहाज बेटे की बेवक्त मौत से दुखी माहम की रो-रोकर सूजी और पथराई नजर, अचानक हौदे के पार चली गई थी।

हौदे से बाहर भी माहम की निगाह घनी अमराइयों और फूलते खजूरों पर नहीं, जमीन पर सूखी-कच्ची अमियों और खजूर की मुरझाई कलियों पर ही पड़ी थी, जिन्हें देखकर उसे लगा कि वे बेवक्त मुरझाकर गिरे सूखे फूल-फल नहीं जगह-जगह बिछी पड़ीं उसके बेटे आधम की लाश है, जिन्हें बड़ी बेरहमी से जमाने वाले रौंदते चले जा रहे हैं। ...दिल के अंदर एक बार फिर उठी उस बेअवाज हूँक को दबाती माहम ने, जैसे ही अंबारी का पर्दा गिराना चाहा। तभी उसकी नजर खजूर और आमों के पीछे एक जगह करील और मकोय की झाड़ियों के पास, कुछ सहमी-सकुचाई सी पीठ फेरे अकेली खड़ी एक अधेड़ औरत पर जा टिकी थी। ...गंदा सा सफेद लहँगा, मटमैली कुरती, कुरती पर वैसी ही धौले रंग की लूँगड़ी और पीठ पर आवश्यक सामान की एक पोटली देख, माहम को समझने में जरा भी देर लगी कि यह राजपूताने से आई कोई राहगीर है, जो अपने सामने शाही सवारी को आता देख रास्ते से हटकर खड़ी हो गई है। ...औरतों को ऐसा लिबास पहने उसने तब उन्हें तब देखा था, जब वह अपने मालिक हुमायूँ और मलिका-ए-आलम हमीदाबानूँ के साथ पठान शेरशाह के खौफ से छुपती-छुपाती जंगल-सहराओं की खाक छानती, राजपूताने के रास्ते फारस निकली थी...।

यादों का झरोखा जब एक बार खुलता है, तो न जाने उसमें से कितनी ही यादें सिमटकर अंदर चली आती हैं। राजपूताने की स्मृति कौंधते ही माहम की आँखों के सामने, अमरकोट के राणा वीरसाल और उनका महल याद आ गया था। जहाँ उसकी मलिका हमीदा ने एक खूबसूरत शहजादे (अकबर) को जन्म दिया था और उसने आधम को...। तकलीफ में संग न छोड़ने वाले गुलाम अक्सर ही मालिक के कुछ ज्यादा अजीज हो जाते हैं। वह भी अपने मालिक की प्रिय हुई थी। आधम खान माहम और हुमायूँ की उसी निकटता का परिणाम था।

पर धाय और दाइयाँ तो दूसरों के बच्चे जनने और उन्हें पालने के लिए ही बनी होती हैं, उनके आँचल का दूध और देह का पसीना अपने मालिक के बच्चों की परवरिश में ही बहता है। माहम को भी इसीलिए रखा गया था क्योंकि हिंदुस्तानी औरतें बच्चों की अच्छी देखभाल करती हैं। अपनी माँ के दाई होने के कारण आधम के हिस्से का भी दूध और पसीना, उसके स्वामी-पुत्र अकबर ने सोख लिया था। माँ का जो भरपूर लाड़-दुलार होता है, वह आधम के हिस्से में कभी नहीं आया। परिणामतः वह बचपन से ही बगावती और चिड़चिड़ा हो गया था।

अमरकोट वीरसाल के महल में एक दिन माहम जब भूख से बिलबिलाते आधम को जमीन पर पड़ा छोड़ अकबर को गोदी में लेकर दूध पिलाने में व्यस्त थी। तब एक ऐसी ही ओढ़नी ओढ़ने वाली दासी ने आधम को उठाकर अपने सीने से लगाकर दुलराया था। परवश और हुकुम की बाँदी माहम तब चुपचाप अपनी आँख की कोरें गीली करती, बड़े श्रद्धा भाव से उसे देखती रह गई थी!

- 'हाथी रोको...?' माहम ने आगे बैठे महावत से रुकने संकेत दिया। सुरक्षा के लिए आसपास चल रहे अंगरक्षक सिमटकर पास आ गए थे। उन्होंने माहम से दृष्टि मिलाते हुए मौन ही मौन उत्तर चाहा कि क्या हुआ? पर माहम ने खामोशी के साथ दो बार इधर-उधर गर्दन हिलाकर 'कुछ नहीं' में उत्तर दिया, तो महावत ने रास्ते के एक ओर ले-जाकर अंकुश के इशारे पर हाथी को रोका और अंबारी से नीचे नसैनी लगा दी थी।

माहम चुपचाप अंबारी से नीचे उतरी और फिर किसी से बिना कुछ कहे, रास्ते के उस पार आम और खजूरों के बीच पीठ फेरे कारवाँ गुजर जाने के इंतजार में खड़ी उस पथिक नारी की ओर कुछ इस तरह बढ़ गई थी, जैसे उसे किसी अदृश्य डोर ने अपनी ओर खींचा हो। ...माहम के इस अप्रत्याशित कृत्य से घबड़ाए महावत और अंगरक्षक जब उसके पीछे आए, तो उसने हाथ के झाले से उन्हें वहीं रोक दिया था। वह एक-एक कदम तौलती हुई उस अज्ञात स्त्री के समीप जा पहुँची थीं। पहले से न कोई रिश्ता न कोई ताल्लुक, माहम ने आगे बढ़कर धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया था। एकाएक पीछे से किसी अपरिचित का स्पर्श महसूस कर, उस स्त्री का हृदय बहुत गहरे तक भयाक्रांत हो गया था। पीछे पलट कर देखा तो अपने सामने बुर्के में शाही घराने की किसी जनानी को देख, मारे भय के उसके हाथ जुड़ गए थे :

- 'हुकुम! म्हारे से कोई कसूर भयो...?'

- '...क्या नाम है तुम्हारा?' माहम ने उस स्त्री के प्रश्न को नजरअंदाज कर ओंठों पर एक फीकी मुस्कान लाते हुए 'न' मे सिर हिलाकर पहले उसे अभयदान दिया और फिर आगे बढ़कर उसका परिचय पूछ लिया था।

- 'पन्ना... पन्ना धाय खीची...!' उसने कुछ सहज कुछ उत्साहित होकर प्रश्न का उत्तर दिया था।

- 'धाय... यानि दाई...?' माहम ने मस्तिष्क पर कुछ जोर देते हुए कहा।

- 'हाँऽ हुकुम... मैंऽ...।'

- 'हाँ, बताओ तुम कहाँ से आई हो...? तुम्हें देखकर लगता है कि जरूर तुम्हारा वास्ता किसी राजपूत खानदान से रहा है...।' माहम ने कहते-कहते कुछ छुपा लेने का भाव जब पन्ना के चेहरे पर देखा, तो न चाहते हुए भी वह अपने पुराने अधिकार भाव में आ गई थी। पन्ना ने सहमति में गर्दन झुका ली थी :

- 'हाँ हुकुम, मैं मेवाड़ के राणा सांगा के बेटे कुँवर उदय सिंह की धाय थी...। अब वहाँ से म्हारा कोई संबंध नाँय...?' प्रौढ़ पन्ना के गोल मुखमंडल पर निरंतर दुख से गहरी हुई आँखों में, तलैयाँ भर आईं थीं।

- 'क्यों...?' माहम ने आश्चर्य से पूछा।

- 'हुकुम! कहाणी बहुत लंबी है। ...सुणाते बखत म्हारे कलेजे मैं हूँक उठे है, म्हारे से ना कही जावे है...!' पन्ना अपनी लूगड़ी के छोर से आँसू पोंछते हुए लगभग बिलख पड़ी थी। जिसे देख द्रवित हुई माहम ने अपने हाथ से पन्ना के कंधे को सहारा दे वहीं आम के तने के नीचे बिठा लिया था।

- '...पन्ना, एक लुगाई दूसरी लुगाई का दरद ना जाणेगी, तो कौण जाणेगा? ...मैं कोई मलिका नहीं, तुम्हारी ही तरह आगरे के शाही हरम की दाई...; मेरा नाम माहम अनगा है...।' अपने सिंध प्रवास के समय राणा वीरसाल के महल में रानियों के संपर्क में सीखी राजपूताने की बोली के अनुभव का प्रयोग माहम ने जब पन्ना को अपने साथ खुलने में किया, तो पन्ना का सारा भय जाता रहा। दाई माहम का नाम तो उसने चित्तौड़ राजमहल में ही एक दंभी राजपूत के मुख से कुछ माह पूर्व सुना था, जो लगभग उसे सुनाते हुए ही अपने साथी से कह रहा था - 'राजा मरैं गुलामण टीका... सुणा है आगरे और देहली का शासण भी वहाँ का शाह नहीं एक धाय महामणगा और उसका छोरा चलावै सै, और यहाँ भी या पन्ना ने अपणे राणा कूँ काँख में कर राख्यौ है। ...चारौ ओर घघरिया शासण चलै सै..।' पन्ना आश्वस्त हुई थी।

कुछ देर सोचने के बाद उसने, मेवाड़ में राणा साँगा की मृत्य, चित्तौड़ पर गुजरात के शासक बहादुरशाह का आक्रमण, अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए रानी कर्मवती का जौहर कर लेना, पन्ना का कुँवर उदयसिंह का संरक्षक बनना, विलासी और अयोग्य उत्तराधिकारी विक्रमादित्य का शासन, दासी पुत्र बनवीर द्वारा एक रात विक्रमादित्य की हत्या। एकछत्र शासक बनने की लालसा में बनवीर का, कुँवर उदय सिंह की हत्या के लिए चित्तौड़ राजमहल में आना। पन्ना द्वारा कुँवर उदयसिंह के स्थान पर अपने बेटे चंदन को उसकी शैया पर सुलाने और बनवीर द्वारा चंदन की हत्या कर देने का दुखद प्रसंग, माहम को कह सुनाया था - '...हुकुम! मैं ऐसी बेदरद सर्पिणी, जाणें अपणे बालक कूँ ही भख लियो!! अब म्हारा चंदण म्हारे सूँ सुपणे में बैन करे है - 'माँसा थाने म्हारै को काहे मरवायौ सै? ...राणा तो उदय सिंह ही बणा, तूँ तो धाय की धाय ही रही; जे राजपूत थारा सम्माण कदै ना करे हैं...।' पन्ना ने माहम के सामने जैसे अपने को खोल कर रख दिया था। उसने आगे बताया कि किस तरह वह मेवाड़ के एकमात्र उत्तराधिकारी राणा उदयसिंह को लिए, बनवीर के भय से छुपती-छुपाती सारे राजपूताने में भटकी और अंततः उसने उदयसिंह को चित्तौड़ की राजगद्दी का शासक बनाकर ही दम लिया था।

अपने अभूतपूर्व प्रयत्न और बेटे चंदन का बलिदान देकर पन्ना धाय चित्तौड़ की प्रजा और राणा उदयसिंह की दृष्टि में तो राजमाता बन गई, लेकिन अपनी झूठी आन-बान-शान और ऊँचा होने के दंभ में जीते, दरबारी राजपूतों की आँख की किरकिरी बन गई थी। ...कल तक खंबाघणी कह कर ढोक देने वाली नीच पन्ना, भला उनकी राजमाता कैसे बन सकती थी...? उपकार के बदले पाया सम्मान और उस सम्मान से उपजे अपमान की चोटें, जब स्वाभिमानी पन्ना से बहुत दिन तक सहन नहीं हुईं। तब उसने एक रात चुपके से, मेवाड़ सदा-सदा के लिए छोड़ दिया था!!!

पन्ना की आपबीती सुनकर समदुखिनी माहम के स्याह अतीत ने भी उसकी पथराई आँखों में दस्तक दे दी थी। जमीन पर अपने एक सिमटे और दूसरे मुड़े घुटने पर बँधी बाँहें रख, उन पर ठोड़ी टिकाए बहुत देर से दत्तचित्त होकर पन्ना को सुन रही माहम ने, एक गहरी उसाँस भरकर उसकी बात का समर्थन किया था :

- 'तुम्हारा चंदन सच कहता है - पन्ना बहन! हम गुलाम शाह और सल्तनतों के लिए अपना और अपनी कौम का लहू बहाकर, कुछ टुकड़े तो पा जाते हैं; हक और बराबरी कभी नहीं? ...मैंने भी खुद अपने आलमपनाह हुमायूँ, मलिका हमीदा और उनके लख्तेजिगर अकबर के लिए, कभी कोई पीठ नहीं दी। जहाँ उनके पसीने गिरे, वहाँ मैंने अपना लहू बहाया। ...हमेशा उनकी जान को सदके किए। अल्लाह ताअला से सलामती की दुआएँ माँगतीं रही। ...आज उसी अकबर ने मेरे बेटे आधम को किले की दीवार से; एक बार नहीं, दो-दो बार पटकवाकर मारा है...!

पठान शेरशाह के सताए हम दिल्ली से बेदखल मदद के लिए जब फारस जा रहे थे, तब कंधार के जंगलों में मैं और यह अकबर शहंशाह हुमायूँ के जानीदुश्मन भाई अस्करी के हाथों पड़ गए थे। तब मैंने डेढ़ साल किन-किन तरकीबों से इस अकबर को सुल्तान अस्करी के खूनी साए से महफूज रखा... और तब भी, जब हमें एक बतौर मोहरा कंधार से जीतकर शहंशाह हुमायूँ का दूसरा भाई सुल्तान कामरान काबुल ले गया था...। फारस के शाह से मदद लेकर आलमपनाह हुमायूँ जब काबुल की ओर बढ़े चले आ रहे थे, तब सुल्तान कामरान ने मुझे, आधम और अकबर को काबुल किले की सामने वाली दीवाल पर तोप के मोहरों से बाँध दिया था। मकसद। जिल्लेइलाही ने यदि किले पर हमला किया तो उसका पहला शिकार उनका अपना बेटा और...। मैं अपने दीनो-ईमान की कसम खाकर कहती हूँ पन्ना! आधम और अकबर के बीच तोप के मोहरे से बँधी मैं, तब भी केवल अपने मालिक की औलाद की सलामती के लिए मरी जा रही थी। ...मेरे दिल से तब भी यही दुआ निकल रही थी - ऐ मेरे मौला!! तू भले ही मेरी और मेरे आधम की जान ले-लेना, पर किसी तरह दिल्ली तख्त के वारिस और मुगलिया सल्तनत के इस चश्मो-चिराग की जान बख्श देना!!! पर आज मेरे कलेजा मुँह को आता है पन्ना, उसी शख्स ने मेरी जिंदगी की रातों को स्याह बना डाला है। ...माना मेरे आधम ने बहुत सारी नाफरमानियाँ की थीं। - वह शेख उलेमाओं की बात नहीं मानता था, रमजान के महीने में भी मयकशी कर लेता था। ...अपने को नाजायज और दोगला कहने वालों की गर्दनों को भी नापा था उसने, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि उसे बेरहमी से मार दिया जाए...। कैदखाना और जलावतन की सजा भी तो थी? मैं कहीं भी उसकी जान की सलामती की दुआ माँगती, जीती रहती; लेकिन बेरहम ने तो मेरे जीने का सहारा ही छीन लिया!!!' माहम के दिल से निकली भभक उसकी आँखों पर आकर फूट पड़ी थी। द्रवित पन्ना ने आगे बढ़कर एक हाथ माहम के सिर पर रखा और दूसरे में लूँगड़ी का छोर लेकर, माहम के आँसू पौंछ दिए थे - 'ना बहिण! ऐसे ना रौवे हैं। ...हम गोली-गुलामण की जिंदगाणियाँ तो दूसराँ के आँसू पौंछड़े में ही जावें हैं, अपने आँसू तो हिबड़े के घाव की तरह मण में छिपाकर ही जीणा पड़े है; नईं तो ये बड़ा दुख देवे हैं - बाई सा...!'

- 'हाँ बहन, शायद अल्लाहताअला को यही मंजूर है...।'

- 'दाई अम्मी, दरगाह पर जियारत का वक्त निकला जा रहा है; हमें चलना होगा...?' पन्ना से ज्यादा अपने निराश मन को ढाँढ़स बँधाती माहम के मुँह से जब तक यह वाक्य एक ठंडी आह के रूप में निकलते, उससे पहले कुछ फर्लांग दूरी पर हाथी लिए खड़े महावत ने माहम को आवाज लगा दी थी। माहम वैसे ही हाथ से जमीन का सहारा लेती उठ खड़ी हुईं और उसे देख पन्ना ने भी अपनी पोटली उठा ली थी। चलते समय दोनों स्त्रियाँ किन्हीं दो सगी बहनों की तरह आपस में गले लगकर भेंटीं और फिर धीरे-धीरे दो विपरीत दिशाओं में आगे बढ़ गईं थीं। ...आश्चर्य उनकी मंजिल एक ही थी?

इतिहास और कुछ जनश्रुतियाँ कहती हैं कि वहाँ से चलकर माहम ने अपने को फिर महल की उसी अँधेरी कोठरी में बंद कर लिया था, जिसमें कुछ ही हफ्ते बाद उसकी मौत हो गई थी...! पन्ना भी विद्रोही मीराँबाई की तरह मेवाड़ से एक बार निकलीं, तो दुबारा चित्तौड़ (मेवाड़ राज्य की राजधानी) नहीं गई!! उसने भी काशी पहुँकर एक रात गंगा के अतल जल की गहराइयों में, 'काशी करवट' (काशी में मरने पर मोक्ष मिलता है इस विश्वास के तहत रात में गंगा किनारे सोते हुए लोग गंगा के गहरे जल की करवट खा जाते थे : जलसमाधि।) ले ली थी!!!

समाप्त