ज़ख्म / भाग- 2 / जितेंद्र विसारिया

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बहुत ऊँचे पर बसी गढ़ी से नीचे पश्चिम में प्राचीन भारतीय वर्ण और शिल्प के अनुसार सबसे निम्नतम छोर पर बनी मड़ैया के आँगन में खड़े नीम के पेड़ के ठीक ऊपर, सूरज ने अपना डेरा डाल रखा है। बैसाख की उस तपती दोपहरी में हरहराती लू की लपट में दो पंजों के बल सूने आँगन में बैठी बिलैया। नीम की डाल पर अरहर की डंडियों से बने पिंजरे में बंद तीतरों को बार-बार अपनी नार उठाकर निरख लेती है, तो कभी घिनोंची से सटकर बने दरबे में बंद मुरगा-मुरगियों को; पर उसकी तक कहीं नहीं लग पर रही है। उल्टे वे तीतर और मुर्गे-मुर्गियाँ पिजड़े और दरबे के सुराखों से उसे देखकर; अपने धनी-धोरी को बुलाने के लिए एक विशेष ध्वनि में, मारे डर के बड़े जोर-शोर से कुड़-कुड़ा रहे हैं। मड़ैया से पौर को जोड़ती उसी दीवाल के पिछवाड़े, पनारे के गड्ढे में लोट रही सुअरिया के आसपास चिचियाते उसके दस-बारह घिटुले, अगल से कान खाए जा रहे थे। ...फिर भी इन सबसे अनजान या जानकर भी बेखबर कोई स्त्री, खपरैल के भीतर चाकी पर निर्गुन गाने में व्यस्त है -

'चामड़े की पुतरी भजन कर री

चामड़े की पुतरी भजनऽ....।'

चामड़े के हाती-घोड़ा चामड़े के ऊँट

चामड़े सेई बनै नगाड़े बाजैं चारों खूँट

चामड़े की पुतरी भजन कर री

चामड़े की पुतरी भजनऽ....।'

चामड़े की गैयाँ-बछियाँ चामड़े के दूध

चामड़े से बनिया बामन चामड़े से सूद

चामड़े से चामड़ो न भेद कर री

चामड़े की पुतरी भजनऽ....।'

भजन अभी ठीक से पूरा भी नहीं हुआ था। ठीक उसी समय मूँड़ पर एक पुरानी पाग बांधे लँगोटी-बंडी में 24-25 साल का साँवला किंतु छरहरा युवक काँधे पर रखी लाठी से पोटली लटकाए, पौर से निकलकर आँगन के पखेरुओं की देखभाल करता मड़ैया में दाखिल होता है। जहाँ उसकी यह विधवा भौजी रामदेई एक कोने में चाकी पर नाज पीसने में मगन है। लगभग छह-सात साल पहले गाँव से छोटे गढ़ीदार राय बेहंडल के साथ शिकार के लिए डाँग में हाँका देते समय, घायल चीते द्वारा किए उलट हमले में उसके पति का देहांत हो चुका है और अब वह अपने एक मात्र देवर रामबख्स के साथ अकेली रहती है। गृह कारजों से ज्यादा अपनी बंशी से मोह रखने और संगीत रसिकों के पीछे लगे रहने वाले अपने देवर पर उसे कभी-कभी बड़ी खीज उठती है। ऐसे में उसका सबसे बड़ा हथियार होता है रामबख्स के प्रति अपनी दिखावटी बेरुखी, जिसका उपयोग वह इस समय कर रही थी। ...रामबख्स ने देखा कि भौजी आज फिर अनमनी है और जान-बूझकर उस पर कोई ध्यान नहीं दे रही है, तो उसने अपने कंधे की पुटरिया किवरिया से लटकाकर एक लोटा पानी पिया और भीत के सहारे बैड़ी पड़ी खाट पर बैठ गया। फिर न जानने क्या सोचते हुए एक दबी मुस्कान के साथ कमर के बगल काँछनी मे खोंसी बाँसुरी निकाल कर, बड़े ऊँचे स्वर में गुन-गुना उठा था -

'राधे चल री, हरि बोलत, कोकिला अलापत, सुर देत पंछी, राग बन्यो। जहाँ मोर काँछ बांधे निर्त करत, मेघ पखाबज बजावत, बंधान, गन्यौ।।

                                                         राधे चल री हरि बोलत...।

लेकिन यह क्या उसकी वंशी की पहली ही कुऊ पर ही एक सरसरी चितवन डालकर उसकी भावज वापस चकिया पर झुक गई थी। उसने देखा मामला गड़बड़ है तो उसे एक चुहल और सूझी, उसने मड़ैया की कच्ची दिवाल से एक कंकड़ी निकाल कर उसकी पीठ पर हौले से मारी - 'एइ सेंताइ ले, थक जेहो?'

- 'काम बहुत डरो ऐ...।' चाकी पर झुके-झुके ही रामदेई ने कह दिया।

- 'काम तो जनम भर रहने?' उसने अपना दर्शन झाड़ा।

- 'दो घड़ी की कह के दो दिन में आने वाले दिवरजू; अब कहाँ काबुल जाय चाहत हो? जो हम अपनो काम छोड़ तुमसे बतियाँ करें...।'

- 'चले गए तो, सब भूल जेहो ये तकिया रटन!!!'

- 'हओ हमाऽऽ...। एक तिरछी चितौंन के साथ मुस्कराते हुए रामदेई ने चाकी बंद कर भिर से छन्ने के द्वारा सिकौली में चून भरते हुए, रामबख्स को बातों में ही पटकनी देनी चाही। बात शायद बन भी गई होती, किंतु रामबख्स द्वारा वाक्य-मध्य प्रयोग में लाये 'तकिया' शब्द को सुनकर, वह पूरी तरह गड़बड़ा गई थी। पीढ़े से उठकर कोई गूढ़-भेद प्रकट कर देने वाला भाव मन में लिए रामदेई, अपनी सफेद ओढ़नी से माथे का पसीना पोंछती रामबख्स के पैंताने आकर खाट पर बैठ गई थी :

- 'तुम अखतीज (बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया, जिस अवसर पर ब्रज और बुंदेलखंड में कुँवारी लड़के-लड़किया घर से बाहर हार में जाकर अपने गुड्डे-गुड़ियों का विवाह संपन्न करते हैं।) कोई तो गए ते बेहट (गुहीसर से तीन कि.मी. दक्षिण में ग्वालियर जिले का एक ऐतिहासिक गाँव, संगीत सम्राट तानसेन की जन्म स्थली।) ...?'

- 'हाँ..., पर बात का भयी? रामबख्स ने आश्चर्य चकित होकर पूछा।

- 'वई दिना इते एक बखुआ फैल गओ है...।'

- 'काऽ...?'

- 'सब लरिकिनी वा दिना कुँवरि बेटीबाई के संग पुतरा-पुतरिइन कौ ब्याह रचायवे हार में गई थीं। ...पर उनके पीछे वहाँ अपने रामदीन नाऊ कक्का की मौड़ी हरखिया छिरियाँ चराउत रह गई थी।

...वई ने यह बात पूरे गाँव पूर दई है कि बाकौं नदी के खार में - हरे अँगरखा पे सफेत पयजामा, लंबी दाड़ी, लंबे केश, गरे में दुनिया भर के झोरी-झंडा और मटर-माला डारें सिर पे सफेत टुपिया पहने, एक 'तकिया' मिलो तो...।'

- 'ये तो कोऊ नई बात नईं भई? ...साँई-तकिया आज से पहले गाँव में आवत-जात काऊ ने देखे नहीं हैं - का?'

- 'देखे तो एन हैं, पर बात बिल्कुल नईअई है। ...तकिया के भेष में मौंड़ी ने 'हरना' चीन्हों हैऽ!!!'

- 'हर-नाऽ..., अब कहाँ-भौजी? बाकों तो गढ़ी लील गई!' एकाएक हरना का नाम आते ही रामबख्स के चेहरे पर अविश्वास के साथ-साथ दर्द की आड़ी-टेढ़ी रेखाएँ खिंच गईं थीं। उसे आज भी पूर्ण विश्वास है कि उसके बालापन का भोला-भाला अनाथ संगी-'हरनाम' कभी किसी के साथ दगाबाजी नहीं कर सकता, वह तो गढ़ी की किसी चाल में बिंध कर मारा जा चुका है...। पर अपनी भौजी की बात पर अविश्वास करने का भी उसके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था। ...बकौल 'हरखा' रामदेई ने उसे ये बताया कि आनसार के आदमी को फाड़ खाने के लिए उताइल रहने वाले झबरा और मुतिया कुत्ते भी उसे देखकर बिल्कुल नहीं भूँकें! बल्कि उसके जरा से पुचकारते ही सूँघ-साँघ कर धम्म से पाँव तले गिर कर कुँइ-कुँइ करने लगे थे!! वह भी उन्हें अपनी जेट में भरकर पुचकारता हुआ यह बिसार गया था कि उसके ढिंगा और भी कोई खड़ा है!!!

...इसके अलावा उसने मौड़ी को कुछ टके देकर गढ़ी का सारा हाल चाल जानने की भी कोशिश की है, जैसे - कुँवरि गनेश कैसे मरीं? गढ़ीदार राजा हरी सिंह पवैया जू बने हैं या उनकी जगह कोई और गढ़ीदार बन गया है? ...कुँवर जोरावर का ब्याह और कुँवरि बेटी बाई की कहीं सागई पक्की हुई अथवा नहीं? ...राय बेहंडल की पातुर 'तानतरंग' की पैंजनियों की आवाज गढ़ी में आज भी गूँजती है या नहीं? ...इसके बाद वह बहुत देर तक वहाँ से गढ़ी की गुर्जों को टक-टकी लगाकर निहारता रहा था, फिर अचानक अपनी गर्दन झटककर गुवालियर की ओर जाता हुआ डाँग में अलोप हो गया है...।

इतना सुनकर-समझकर रामबख्स को अचरज तो हुआ, पर अब भी वह 'हरनाम' को दोषी मानने से रहा। बल्कि उस घटना के संबंध में उसके विचार और भी अटल होते जा रहे थे, जो कुँवरि गनेश की हार वाली बावड़ी पर तलवारों के वार से क्षत-विक्षत मिली लाश और रमचन्ना हलवाहे द्वारा हार से 'हरनाम' का खाली-हल बैल लेकर लौटता देख डगमगाए थे।

उसके मस्तिष्क में अचानक उसी दिन का भिंनसारा कौंध गया; जब बड़े भोर घर के बाड़े से डाँग भाग गई अपनी मादा सुअर की खोज से निराश, गाँव लौट रहा था। ...वहीं बीच डगर लाल-ताल आँखें और हाथ में नगिन तलवार गहे, हार से लौटते, गढ़ीदार के छोटे भाई राय बेहंड से उसकी भेंट हो गई थी। तब उसने उसकी ओस भरी पनहियाँ और रक्त में सनी तलवार देख कुछ भयभीत सा होकर, मेड़ से उतरकर 'जुहार' करते हुए ये पूछा था - 'काका जू ऐसो बैरी कौ हतो, जाइ बड़े ई भोर भए मार आए...?' तब उसका मारे गुस्से के पहले तो अनसुना करके आगे बढ़ जाना, फिर अचानक रुककर चेहरे पर कुछ बनावटी मुस्कान लाते हुए उसका यह कहना - 'एक हिरना लपक गओ तो हमारे खेत में... पर मरौ नाय भाज गयो स्सारो!!!' का निहितार्थ आज उसकी समझ आ रहा रहा था। ...उस दिन रायबेहंडल की 'शिकार' कोई चार पैर का हिरन न होकर उसका संगी 'हरनाम' ही था, जो जाने कैसे उसकी तलवार के वार से तो बच गया पर उसे पीछे सचेत करने आई कुँवरि गनेश; अवश्य उसकी रक्त-पिपासु तलवार की शिकार हो गई थी।

...इतनी देर की माथापच्ची के बाद रामबख्स आगे कुछ कहता, रामदेई ने ही उसे टोक कर मड़ैया का मौन भंग कर दिया - 'गढ़ी में जे-बात अबै काउकों पतो नांयने; हमें हू आज ईं गढ़ी की 'टहल' सें लौटत 'हरखा' की मैया ने बताई है? ...तुम जाहि छोटे कुँवर के कान में डारि आओ... गाँव में और तो सब अपनी फजीअत कौं डरप रहे हैं...।'

- 'हम हूँ कहूँ नहीं जाएँगे, लगन दे गढ़ी में आऽग!!!' बिना आगे पीछे की सोचे रामदेई का आग्रह टालता रामबख्स, एकाएक ताव में आ गया था। पर रामदेई इतनी भावुक न थी। उसने कंधे पर पड़ी ओढ़नी से माथे का पसीना पोंछकर एक गहरी उसाँस ली और बड़े संयत स्वर में बोली -

- 'जो कहूँ गढ़ी पे चढ़ाई भई, तो सबसे पहले मड़ैयाँ तो अपनी ही धुँधकेंगी? ...हमें बसायो भी तो यासो ही नग्गर-खेड़न के बाहिर है, कि मरे हू तो पहलेऽ सारे भंगी-बसोहर ई!' रामदेई की इस अगूढ़ बात को सुनकर रामबख्स एकदम विस्मित रह गया। उसे कुछ देर की और सोच विचार के बाद अपनी तरह से समझ में आया कि 'गढ़ी में निर्दयी रायबेहंडल और पाखंडी बोधन पुजारी ही नहीं, रैयत को अपने कुँवर समान पुत्रवत मानने वाले राजा हरीसिंह पवैया और समदर्शी कुँवर जोरावर सिंह भी वास करते हैं; वे सबके बड़े हितुआ हैं। ...और अभी तो उसका और उसकी भौजी जैसों का जीवन मरण भी तो इसी गढ़ी से संबद्ध है। भला उसका वह अनिष्ट कैसे सोच गया? ...व्यक्ति का दोष व्यवस्था भोगे यह अनुचित है और जड़ व्यवस्था के कारण व्यक्ति रसातल में जाएँ यह भी...। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, क्योंकि वह अभी अकेला किसी को दंड देने की अवस्था में नहीं था।

...फिर बड़ी कसमसाहट के बाद रामबख्स ने होली की दौज को अथाई पर लगे दंगल में, लोगों के हट पड़ने पर वहाँ उपस्थित राजा हरीसिंह जू के सामने छेड़ी वंशी की सुरीली तान पर, उनसे भेंट में पाई बैंजनी पाग। आज बड़े ही अनमने ढंग से अपने मूँड़ से बाँधकर जैसे ही कुँवर जोरावर के पास जाने के लिए खाट से उठा, रामदेई ने वैसे ही उसका पोंहचा पकड़ लिया :

- 'अभिहाल तो घाम में से चले ई आए हो, सीरे में चले जाइयो...? गढ़ी में कहीं कुँवर न मिले और काऊ ने बेगार में पकड़ लए, तो साँझ भये ही लौटोगे...?'

- 'हम गढ़ी जा ई नईं रहे... रात कुँवर और रायबेहंडल में खट्ट-पट्ट हे गई है सो वे भोर भए ईं अपने संघातियन के संग डाँग-गढ़रौली निकल गए हैं; हम भईं जाई रहे हैं...।' यह सुनकर रामबख्स के हाथ से रामदेई की पकड़ ढीली हो गई। खाट से उठकर उसने काँपते हाथों से चाकी वाले कोने में रखी बर्छी उठाई और रामबख्स से सदोसे लौटने का वचन लेती, उसके पीछे-पीछे पौर तक चली आई थी। ...व्याकुल आँखें जाने क्यों ओझल होते रामबख्स की बैंजनी पाग और कंधे पर रखी बर्छी-मय बलिष्ठ पिछारी, इस आशय से निहार उठी थीं कि पता नहीं फिर...।'