ज़ख्म / भाग- 7 / जितेंद्र विसारिया

Gadya Kosh से
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द्वादसी की जुनैया आकाश में छिटक गई थी। जगह-जगह पड़ी ल्हासों के बीच से होता रामबख्स सबके संग दौड़ता भागता जब अपनी मड़ैया से होकर गुजरा, तो कुँवरि के डोले को बचाने की भड़भड़ाहट में उसने मड़ैया में झाँककर अपनी भौजी की खैर-खबर लेना भी मुनासिब नहीं समझा। द्वार के सामने सैर में नीम की छाया के अँधेरे में पड़ी किसी ल्हास के ऊपर से होकर जब वह निकला तो उसका पाँव उससे लिपटे किसी झीने कपड़े में उलझा और वह वहीं लड़खड़ाकर गिर पड़ा था। मुँह के बल गिरने से ओंठ फट गया था। लेकिन उसकी भी परवाह न करते हुए वह उजिरिया रात में ओंठ से ठोड़ी तक बह निकले रक्त की धार को अपनी बहोलियों से पौंछता, बिना पीछे देखे फिर उठ भागा था। भागते हुए एका-एक उसे ऐसा लगा, जैसे उसका पीछे कुछ छूट गया है। उसने कुछ ठिठक कर अपने आगे पीछे टंगे हथियारों को देखा, सभी यथावत थे। कमर से बँधी बारूद की पोटली को और कसकर कमर से बाँध, वह फिर धर भागा।

अभी तो उसका सारा मन-चित्त गढ़ी की आन-बान शान कुँवरि बेटी बाई के डोले में बिंधा हुआ था, जिसे आतातायी मुगल छीन कर लिए जा रहे थे। ...गाँव से निकल कर ऊँचे खेरे पर चढ़ने से पूर्व, एक चौमसिया खार (बरसाती नाला।) पार करना होता है। थोड़ा पिछड़ गए रामबख्स ने जैसे ही उस सूखे खार में उतरने के लिए पाँव रखा वैसे ही सूखी बजरी पर पैर पड़ने से रपटता हुआ, सीधा खार में चित्त जा पड़ा था। वहीं एक बमूर के पास खड़े होकर खार के ऊपर वर्षों से टूटी पड़ी एक मड़ैया को गौर से देखने के लिए उद्धत एक सैनिक भेषधारी व्यक्ति ने जैसे ही अपने पीछे किसी को गिरते देखा तो वह वैसे ही पीछे मुड़कर छिचौंक होते हुए, अपने नेजे से उस पर भरपूर बार करने ही वाला था कि उस उजेरी रात के प्रकाश में किसी पूर्व परिचय के चलते, उसका साँवला मुख देखकर वार करते-करते रुक गया था। ...रामबख्स भी जिरह-बख्तर और लोहे के टोप व दाड़ी के अपरिचित संसार में उसकी लंबी नाक व कुछ मोटे ओंठ देखकर पहचान गया था, कि वह और कोई नहीं अभागा 'हरना' ही है।

फिर भी वह जमीन से उठते हुए देवी के मंदिर से उठाए खाड़ें पर अपनी मुटिठ्याँ कसे रहा। हारुन तब तक अपने नेजे को एक ओर कर उसके ठीक सामने एक घुटने के बल बैठते गया था और उसका काँधा पकड़कर फुसफसाया - 'रामबख्स, तू किन के लिए मर रह्यो है? ये ऊँची-ऊँची गढ़ी महल-मंदिर और इनमें रहने वाले द्विज कबहूँ अपने नईं हो सकत?

आज संकट की घड़ी में तोय भले ही कछू ढील मिल गई होय, पर सहज समय में जब भी ये हमें धर्म के झरोखा से निहारेगें, तब-तब ये हममें छोत देखेंगे, छीछा लेंयगें, घर जारेंगे और बेघर करेंगे...।' व्याकुल रामबख्स फटी-फटी आँखों से किंकर्तव्यविमूढ़ उसे सुने जा रहा था। हरना अपनी रौ में आगे बढ़ गया था - 'तूँ मौन काए साधे है - रामबख्स! मैं दोषी हूँ? तू मानत है तो जई सही, पर तेरो भइया तो दोषी नहीं था जो डाँग में राय बेहंडल के हाथों हाँके पर मार दियो गयो तो...?'

- 'नईं..., वे नाहर कौ शिकार भए थे... हमने खुद उनकी छाती पे बघनख (बाघ के नाखूनों से निर्मित खूनी पंजा।) की चिन्हार करी थी..!'

- 'हाँ जे साँची है कि तेरे भैया नाहर कौ शिकार भए थे, पर कैसे...?'

- '....।' लगभग पूरी तरह अविश्वास से भरा अवाक रामबख्स, हरना को फटी-फटी आँखों से देखे जा रहा था।

- '...राय बेहंडल ने तेरे भैया कौं हाँके पे सबसे आगे की पाँत में पठाकर और शिकार आने पर सबको पीछे हटने का हुकुम देकर, धोखे से नाहर के हमला में मरवाया था...।'

- 'कायसो...?'

- 'यासों कि बाकी बुरी नियत तेरी नीकी-नोनी भौजी पेऽऽ...'

- 'नहींऽऽऽ....! अब तक निश्च्छल भाव से मौन हरना की एक-एक बात सुनते रामबख्स को जब ऐसा लगा कि अब 'हरि राजनीति पढ़ि आए; तब वह अपने को सँभाल न सका, उसकी मुट्ठियाँ हाथ में अब तक पकड़े रहे खाड़े पर और भी भिचंती चली गईं थीं। ...हरना द्वारा अपने भाई के संबंध में गढ़ी गई मृत्यु-कथा और उसी के माध्यम से अपनी प्राण प्यारी भौजी के सिर पर लगाए गए झूठें लांछन के बीच; रामबख्स का ध्यान अपनी मड़ैया के सामने से गुजरते हुए वहाँ पड़ी लाश के द्वारा फरिया जैसे किसी वस्त्र में से उलझना/गिरना और गिरकर सँभलते हुए आगे बढ़ना, फिर उस लाश की ओर से पाँव में पहने जाने वाले लच्छे जैसे गहने की सूक्ष्म झनक, अचानक उसके कानों में घड़ियाल की तरह बज उठी थी। रामबख्स ने आव न देखा ताव और पूरी ताकत के साथ देवी मंदिर से लिया खाँड़ा, पूरी ताकत के साथ दाँत पीसते हुए सामने बैठे हरना के सीने में उतार दिया था। जरा सी देर में हरना उर्फ हारुन खार की उस कंकड़ीली धरती पर लुढ़ककर छटपटा उठा था। एक झटके में भोंककर खींच लिए खाड़ें को लिए खड़े रामबख्स ने जब खार की धरती पर तड़फते हारुन को देखा, तो उसे अपने इस कृत्य पर विश्वास नहीं हो रहा था।

हारुन को भी आँखो पर यकीन नहीं आ रहा था कि यह वही रामबख्स है? ...उसके लिए जीने-मरने की सौगंधें खाना वाला उसका बालपन का साथी!!! रामबख्स किंकर्तव्यविमूढ़ वहीं खड़ा था। लगातार मृत्यु की ओर खींचती हारुन की मर्मान्तक पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी। वहीं आक्रोश में आकर मित्रघात करने वाले रामबख्स के भीतर भी कहीं न कहीं कुछ अपराधबोध उग आया था; लेकिन कुँवर की सोहबत में पड़कर बड़ौआ जाति के बराबर चलने का वो जो एक दिवास्वप्न देख चुका था, वह उसे झुकने नहीं दे रहा था।

वह बिना कुछ कहे अपना मुख मोड़कर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता खार के ऊपर चढ़ने लगा था। तभी बजरी पर पड़े-पड़े अपनी आखरी साँसें गिन रहे हरना की मर्म-भेदी पुकार में, उसके लिए एक अरज उभरी - 'ओ-निरमोही! नेक रुक तोऽऽ... तोसे मेरी एक विनती है... मोहि तो मरने ही थो... सब मर रहे हैं एक-एक करकैं... इनके द्वारा और इनके लिए भी-मेरी तेरी नाईं। ...तैंऽ हू कहाँ बचगो; अगर बच जाए तोऽ हमेंहू वा बाउरी में फेंक दीजो..., जामें हमारी कुँवरि गनेश राय बेहंडल ने मारकैं डाल दईं थीं!!

...रामबख्स दाड़ियन के नीचे कहूँ धरम नहीं दब जात... कुँवरि ग-नेश ने मोहि बहौत चाहो तोऽऽ...!' डबडबाई आँखों से बिना पीछे मुड़े रामबख्स का आगे बढ़ा पाँव हारुन की करुणार्द पुकार सुनकर वहीं का वहीं ठिठक गया था, लेकिन भयंकर अंतर्द्वंद्व में फँसे होने के कारण उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था।

जब वह खार से ऊपर खेरे पर चढ़ना चाहता तो उसे हरना की मर्मभेदी पुकार और उसके द्वारा कहे वे अपूर्व वचन खा जाते - 'रामबख्स, तू कुन के लए मर रह्यो है? ये ऊँची-ऊँची गढ़ी महल-मंदिर और इनमें रहने वाले द्विज, कबहूँ अपने नईं हो सकत...?' तभी उसकी दृष्टि कुँवर जोरावर की उदारता पर टिक जाती और वह खेरे पर चल रही भयंकर मारकाट के बीच कुँवर-कुँवरि की रक्षा के लिए उद्धत हो उठता...। लेकिन इससे भी आगे वह हारुन के क्षणिक प्रभाववश राय बेहंडल को भी देखने लगा था, जिनके आगे परीक्षा की घड़ी में कभी-कभी बहुत से जोरावर अपने हथियार डालकर उसी खेमे में शामिल हो जाते हैं!!! वह अपनी सारी संवेदनाएँ झटककर हारुन की ओर मुड़ना ही चाहता था कि तभी उसने, खैरे के ऊपर मची भयंकर मारकाट और छीना झपटी के बीच पाषाणों को भी पसीजा देने वाली कुँवरि बेटीबाई की आर्त पुकार सुनी - 'ओ! मेरे भैयाऽऽऽ ओऽऽ मेरे वीऽर!! मेरी पत रा-खियौ!!!' सुनकर वह अपने को सँभाल न सका और किसी बावरे शलभ की भाँति रामबख्स; सदियों से उपेक्षित रहने पर भी उसी दीपशिखा की ओर बढ़ गया था, जहाँ उसे अपना अस्तित्व समाप्त करना ही होता है। ...तभी बहुत गहरे में पीछे छूट गए हारुन की डूबती साँसें एकाएक रामबख्स के अंतस में पैठ गई थीं, लेकिन तब तक वह खार से निकल कर खेरे पर जा चढ़ा था; जहाँ युद्ध दुगने उत्साह पर था...।