ज़हर की जड़ें / बलराम अग्रवाल

Gadya Kosh से
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दफ़्तर से लौटकर मैं अभी खाना खाने के लिए बैठा ही था कि डॉली ने रोना शुरू कर दिया।

“अरे-अरे-अरे, किसने मारा हमारी बेटी को?” उसे दुलारते हुए मैंने पूछा।

“डैडी, हमें स्कूटर चाहिए।” सुबकते हुए ही वह बोली।

“लेकिन तुम्हारे पास तो पहले ही बहुत खिलौने है!”

इस पर उसकी हिचकियाँ बँध गईं। बोली,“मेरी गुड़िया को बचा लो डैडी!”

“बात क्या है?” मैंने दुलारपूर्वक पूछा।

“पिंकी ने पहले तो अपने गुड्डे के साथ हमारी गुड़िया की शादी करके हमसे हमारी गुड़िया छीन ली…” डॉली ने जोरों से सुबकते हुए बताया,“अब कहती है—दहेज में स्कूटर दो, वरना आग लगा दूँगी गुड़िया को।…गुड़िया को बचा लो डैडी…हमें स्कूटर दिला दो।”

डॉली की सुबकियाँ धीरे-धीरे तेज होती गईं और शब्द उसकी हिचकियों में डूबते चले गए।