जाति उन्मूलन और सम्पूर्ण क्रांति / एस एस शास्त्री

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इस भूखंड का, जिसमें लगभग पैंसठ करोड़ मानव रहते हैं, नाम पहले हिंदुस्तान और अब इसके दो अंग टूटने पर भारत अथवा इंडिया रखा गया है। भले ही इसे एक देश की संज्ञा दी जाए परंतु इसे एक राष्ट्र कहना या मानना असंगत है। देश का नाम भौगोलिक सीमाओं या परिधियों के कारण एक हो सकता है किंतु राष्ट्र तो उसमें बसने वाले लोगों की भावनात्मक एकता, परस्पर समता तथा बंधुता का प्रतीक होता है। आइए विचार की तुला पर तौलकर परीक्षा करें कि क्या इस देश में रहने वाली जनता में परस्पर एकता, समता और बंधुता का नाता या संबंध है? हमारा मत है कि यह देश चातुर्वर्ण, तद्भूत जातियों, उपजातियों और उन बिरादरियों का एक समूह मात्र है जो इस देश में रह रहे हैं। इस देश का दुर्भाग्य उसी काल से आरंभ हो गया था जिस दिन आर्यवैदिक (हिन्दू) ऋषियों ने ऋग्वेद में समाज को खंड-खंड करने के लिए उनके अधिकारों और कत्र्तव्यों में उच्चता-नीचता, बड़े-छोटे की कुभावना का बीज बो दिया था जिसे आम शब्दों में वर्ण-व्यवस्था का नाम दिया गया है।

ऋग्संहिता (८/४/१९) का यह मंत्र इसका मुख्य दााोत है कि-ब्राह्मणो-अस्यमुखमासीत बाहू राजन्य: कृत:। उरुतद्यद् वैश्य: पद्ममयांशूद्रो अजायत् अर्थात सृष्टि रचयिता ब्रह्मा प्रजापति के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, कटि स्थान या जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। अब इनके अधिकारों और कत्र्तव्यों का बंटवारा सुनिए।

ब्राह्मण सब वर्णों में से उत्तमांग (मुंह) से पैदा होने के कारण चारों वर्णों में शिरोमणि अथवा उत्तमतम ठहराया गया और उसका कर्तव्य ठहरा यज्ञ करना, कराना, पढ़ना, दान-दक्षिणा लेना।

क्षत्रियों का कर्तव्य राज करना, शध धारण करना और सारी प्रजा की, और मुख्य रूप से ब्राह्मणों की रक्षा करना। और उनके धर्मादेशों का पालन करना। उनका सामाजिक पद ब्राह्मणों से एक दर्जा नीचे किंतु वैश्य और शूद्रों से ऊपर रखा गया।

वैश्यों का कर्तव्य पशु-पालन, वाणिज्य-व्यापार, सूद या ब्याज पर लोगों को धन उधार देना, परोक्ष रूप में कालाबाजार तथा अवैध भंडार करके जनता का शोषण करके धन-संपत्ति एकत्र करना तथा ब्राह्मणों की पूजा-अर्चना करना और उन्हें खुली दान-दक्षिणा देना और क्षत्रियों (राजाओं) को थोड़ा बहुत कर देना। समाज में इनका दर्जा शूद्रों से ऊपर किंतु ब्राह्मण तथा क्षत्रियों से क्रमश: निम्न रखा गया।

अब रहा चौथा वर्ण शूद्र, जिसका हिन्दू समाज में कोई भी अधिकार नहीं हैं। न वह विद्या का अधिकारी है, न ही उसे शस्त्र धारण करने का हक था। राज्य विधान में किसी प्रकार के पद धारण करने का और न ही धन संपत्ति एकत्र करने अथवा अर्जित करने का अधिकार है। उसे समाज में किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं दिया गया। उस पर मात्र कर्तव्यों का बोझा लादने के लिए तमाम धर्म शास्त्रों (हिन्दू कानूनों) में उल्लेख कर दिया गया और कह दिया कि ‘एकंतु शूद्रस्य प्रभु कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्मामां शुश्रुषामनसूयया।।’

अर्थात शूद्र वर्ण का एक ही धर्म, कर्म एवं कर्तव्य है कि वह ऊपर वाले तीनों वर्णों की सेवा बिना किसी भी प्रकार के विरोध अथवा चूं-चां के करता रहे।

आज भारत के साढे पांच लाख ग्रामों के बाहर की तरफ बनाए पूंâस के झोंपड़ों तथा कच्चे मकानों में, जहां सारे गांव की गंदगी फेंकी जाती है, यह लोग बसते आ रहे हैं।

शहरों के स्लम एरिया (गंदी बस्तियां) में इनके डेरे लगे हुए हैं। यह किसी भी महामारी का प्रथम शिकार बनते हैं। यह गरीबी की साक्षात् मूर्तियाँ बाढ़ों की चपेट में आने वाली, दुर्भिक्ष का ग्रास बनने वाली सबसे प्रथम बस्तियां इन्हीं की होती हैं। शूद्र वर्ण के भी दो मुख्य भेद किए गए हैं। पहला अछूत (अस्पृश्य शूद्र) तथा दूसरा सछूत (स्पृश्य शूद्र) क्योंकि स्पृश्य शूद्रों को छुए बगैर सवर्णों का काम नहीं चलता था इसलिए उनके साथ यह रियायत बरती गई कि उनका स्पर्श करने पर सवर्ण को स्नान करने की आवश्यकता नहीं। उनमें नाई, तेली, तम्बोली, छीपा, कुम्हार, कहार, सुनार, धीवर, लुहार, बढ़ई, ठठियर, धुनिया, गड़रिया, माली, गूजर, अहीर, काछी, ग्वाले आदि मुख्य रूप में आते हैं। इनके अलावा भी अनेक जातियां स्पृश्य शूद्रों की गिनती में आती हैं।

दूसरी संख्या है उन अति शूद्रों की जिनको अनुसूचित जातियां या महात्मा गांधी द्वारा दी गयी उपाधि के अनुसार हरिजन कहा गया है। यही अस्पृश्य, नीच, पापयोनि, चांडाल, पुक्कस आदि हैं। उनकी दुर्दशा, दयनीय स्थिति का अनुमान लगाना असंभव है। यह भूमिहीन खेत मजदूर, श्रमिक, हस्तकार, कम्मी समाज में निंदित और घृणित व्यवसाय (पेशे) करते हैं, जैसे मरे पशुओं को उठाना, उनकी खाल निकालना, उसे रंगना और जूते बनाना, गांठना, सिरों पर टोकरे रखकर सवर्णों के घरों से पाखाना उठाना, गलियों और सड़कों पर झाडू लगाकर सफाई करना, बेगार करना और इनकी औरतों द्वारा सवर्णों की पत्नियों के यहां बच्चे पैदा होने पर उनका मलमूत्र धोना आदि निषिद्ध और निखद्ध काम करना ही इनका कर्तव्य है। इन कामों या सेवाओं के बदले में खाने के लिए जूठे और बासी टुकड़े और पहनने के लिए चिथड़े अपने स्वामियों से कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करना।

अगर यह लोग अपने स्वामियों की किसी प्रकार की सेवा करने से इंकार करें अथवा जायज मजदूरी मांगें तो उन्हें सवर्णों के क्रोध का भाजन बनना पड़ता है। कुत्ते, बिल्ली की तरह इनको मारना-पीटना, गांव से बाहर निकाल देना, इनका सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर देना। यदि ये निरीह लोग न्याय हासिल करने के लिए आवाज उठाएं अथवा थोड़ा बहुत आत्म-सम्मान का प्रदर्शन करें तो इनकी हत्या तक भी कर देना, इनकी औरतों का शील भंग करना आदि अत्याचारों के प्रयोग भारत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक हर रोज की साधारण घटनाएं बन गई हैं। इन अस्पृश्यों के अलावा शूद्रों की कोटि में भारत की लगभग तीन-साढ़े तीन करोड़ की एक अन्य जनंसख्या भी है, जिन्हें आदिवासी या जंगली जातियां या कबीले कहा जाता है। यह भी शुद्र ही हैं। इनका शोषण, निरादर भी ऊंची जातियों द्वारा किया जा रहा है। यह भुखमरी, जहालत और अत्यंत पिछड़ेपन का शिकार बने आ रहे हैं। इनके अलावा अतिशूद्रों की एक ऐसी संख्या भी लाखों की गिनती में सारे भारत देश में खानाबदोश, टपरीवासी बनकर गरीबी, जहालत और निरादर की जिंदगी गुजारती चली आ रही हैं इनमें हैं नट, कंजर, भेडुकुट, पुतली नचाने वाले, बंदर और रीछ पालकर उनका गांवों में तमाशा दिखाकर पेट पालने वाले, भिक्षावृत्ति करने वाले चूहड़े, मदारी, सपोलिए, सांसी, बाजीगर आदि। इन पर अभी तक न तो सरकार की ही और न कथित समाज सुधारकों की दृष्टि पड़ी है। यह भिखमंगे, असभ्य और जीवन के हर एक क्षेत्र में अत्यंत पिछड़े लोग भी इसी भारत-भूमि, ऋषि-मुनियों, योगियों, दार्शनिककों, ब्रह्मा के मुख से जन्म लेने वाले धरती के देवता ब्राह्मणों द्वारा पवित्र की गई धरती, जिसे कहा जाता है कि इस भारत भूमि में जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते हैं, के नागरिक या निवासी हैं।

अगर अस्पृश्य और स्पृश्य शूद्रों, जंगली जातियों तथा घुमंतुजातियों की सारी संख्या की ठीक तौर पर गिनती की जाए तो यह सब लगभग पैंतीस-चालीस करोड़ बनेंगे। सवाल उठता है कि इन चालीस करोड़ जनता के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक अध:पतन का मूल कारण क्या है, तो मैं बिना किसी संकोच के उत्तर दे सकता हूँ कि इन चालीस करोड़ जन-समूह की वर्तमान दुर्दशा का मूल कारण है—ब्राह्मण तथा ब्राह्मणों के द्वारा रची हिन्दू समाज रचना जिसके विधि-विधान, आज्ञाएं, आदेश तथा धर्म-कर्म, वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, स्मृतियों, गुह्य-सूत्रों, पुराणों, महाकाव्यों, महाभारत, रामायण आदि ऐतिहासिक ग्रंथों, नाटकों, काव्यों, अर्थात समस्त संस्कृत ग्रंथों और उन्हीं से अनुप्राणित हिंदी काव्यों तथा ग्रंथों में ओतप्रोत हैं। ब्राह्मणों ने इस देश की पचास साठ प्रतिशत जनता को वर्ण-व्यवस्था में शूद्र तथा अतिशूद्र बनाकर इनके साथ इतना घोर अन्याय, बेमिसाल अत्याचार और अनाचार किया है और अब तक भी करते आ रहे हैं और करते रहेंगे जब तक कि यह दबी पिछड़ी, दलित, अर्धमृत, मानव अधिकारों से वंचित, चालीस करोड़ जनता इन वर्ण धर्म पोषक ग्रंथों का सत्यानाश नहीं कर देती। ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए क्षत्रिय और वैश्यों के दिल में भी शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए घातक विष का (धर्म की आड़ में) ऐसा इंजेक्शन या टीका लगाया कि यह दोनों वर्ण भी शूद्रों तथा अति शूद्रों के जन्मजात शत्रु बने बैठे हैं। इस वर्ण-व्यवस्था, जो जातियों उपजातियों की जननी है, की बदौलत ही भारत के अंदर भावनात्मक एकता, समता तथा बंधुता का नितांत अभाव है। अत: भारत भले ही एक भौगोलिक सीमाओं से घिरे देश का नाम हो, किन्तु भारत एक राष्ट्र कदापि नहीं है।

इस देश में कोई ब्राह्मण, कोई ठाकुर, कोई बनिया, कोई कायस्थ, कोई चमार अथवा सोनार भले ही हो कोई भी भारतीय या हिन्दू नहीं है। इनके खान-पान में समता सहयोग नहीं, इनके ब्याह-शादी परस्पर वज्र्य हैं। इनके धर्म-स्थान, इनके श्मशान, कुएं, घाट, देवी, देवता, आचार-विचार, व्यवहार एक समान नहीं हैं। मुसलमान और ईसाइयों में सामाजिक और धर्मिक एकता क्यों है? बौद्ध देशों में भी सांस्कृतिक एकता देख सकते हैं, किंतु हिन्दुओं में ऐसा नहीं है, क्यों? इसका कारण केवल ब्राह्मण पुरोहितवाद, ब्राह्मणों द्वारा रचित धार्मिक ग्रंथों में प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था है।

हिन्दू धर्म की जड़ में परस्पर समता, एकता, बंधुता के स्थान पर पारस्परिक विषमता, अनेकता और एक-दूसरे से घोर घृणा का जहर भरा पड़ा है। जब तक इन चालीस करोड़ व्यक्तियों का एक प्लेटफार्म बनकर इस जाति-पात और इसकी जननी वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन नहीं किया जाएगा, इनका किसी प्रकार का भी कल्याण-उत्थान असंभव है।

हमारे समाज सुधारकों तथा नीच समझे जाने वाले लोगों के हमदर्द साधु-संतों ने वर्ण-व्यवस्था रूपी इस राक्षसी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठायी, भजन वाणियां गायीं परंतु ब्राह्मणी शिकंजे में जकड़े सवर्ण हिन्दू समाज के कानों पर जूं तक न रेंगी। ऐसे संत सुधारकों की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई। महात्मा गांधी के हरिजन सेवक संघ, संत बिनोबा भावे तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी के सर्वोदय की अपीलें कारगर सिद्ध नहीं हुई। इस बीमारी का इलाज सुधारवाद से नहीं हो सकता वरन समग्र सामाजिक क्रांति, विप्लव, उथल-पुथल और इंकलाब से ही हो सकेगा। वर्ण-व्यवस्था के जेलखाने से छूटना ही शूद्रों की निजात या मुक्ति के लिए अपर्याप्त रहेगा जब तक कि ये चालीस करोड़ लोग इकट्ठे मिलकर वर्ग संघर्ष का भी बीड़ा नहीं उठाएंगे। धरती उसकी है जो उसे बोता-जोतता है, जो उस खेत की मिट्टी में मलिन होकर काम करता है।, निकम्मे, आलसी जमींदार की नहीं। गांवों में, शहरों में, जीवन के हर एक साधन में इन करोड़ों असहाय, शताब्दियों से धर्म के नाम पर तथा पिछले जन्मों के कथित बुरे कर्मों के

फल के नाम पर आज तक सवर्ण लोगों द्वारा उत्पीड़ित, शोषित बनाए गए शूद्रों, अति-शूद्रों, जनजातियों तथा घुमंतु पटरी वासियों का भारतीय राष्ट्र में, भारतीय समाज में ऊंचे समझे जाने वाले सवर्णों के बराबर इज्जत और गौरव का स्थान पाना, भारत की आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संपत्ति में अपनी संख्या के अनुसार बराबर का लाभ प्राप्त करना, इन चालीस करोड़ लोगों का भी ऐसा ही जन्मसिद्ध अधिकार है’ जैसा लोकमान्य तिलक का नारा था कि ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ भारत की स्वाधीनता के गत तीस वर्षों में हरिजनों और जन-जातियों तथा टपरीवासियों के साथ घोर अत्याचार और अन्याय होते चले आ रहे हैं। हिन्दू धर्म में इनकी गिनती अस्पृश्य और नीचों में करना और इनके साथ अमानवीय व्यवहार करना- कराना तथा देश की संपत्ति और समृद्धि में इन्हें इनके जायज लाभ अंश से वंचित रखना है। जब तक जाति-पांति (वर्ण) और वर्ग, दोनों का विध्वंस, सत्यानाश और उन्मूलन नहीं किया जाएगा, इनका किसी प्रकार का उद्धार नहीं हो सकता। परंतु उन्मूलन तो संघर्ष के बिना नहीं हो सकता। अत: इनके परस्पर संगठन के लिए प्रचार-प्रसार चाहिए। उसके लिए सरकार की हर प्रकार की सहायता की आवश्यकता है। किंतु आज और पिछले काल की सरकारों पर ध्यान देने पर वहां भी ब्राह्मणी धर्म के उपासकों तथा शोषक वर्ग के प्रतिनिधियों की बहुसंख्या दिखायी पड़ती है। वह हमारी इस समग्र क्रांति की सबसे बड़ी बाधा है, क्योंकि अपना जन्मजात प्रभुत्व, छल-बल से समेटी धन-संपत्ति और भू-संपदा को आसानी से कोई नहीं छोड़ता।

ऐसी स्थिति में इन दबे, पिसे तथा कुचले करोड़ों नवयुवकों को अपने पर ही भरोसा रखकर वर्ण-व्यवस्था तथा जाति-पांति के पोषकों और वर्ग विशेष के शोषकों से अपने ही संगठन, अपने ही मनोबल और अपनी ही कुर्बानियों से इस क्रांति की ज्वाला को प्रज्वलित करना पड़ेगा। अगर महात्मा गांधी तथा उनके अनुयायी व्यक्तियों के द्वारा ऐसी राजनीतिक शक्ति से जूझकर, जिनके साम्राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था, स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है तो क्या हमारी चालीस कोटि जनता संघर्ष करके पच्चीस कोटि सवर्णों से अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं कर सकती? लोकनायक जयप्रकाश ने अपनी दूर दृष्टि से देखकर ही तो कहा है कि इन पिछड़े, कुचले वर्गों को संगठित होकर ही अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। किन्तु स्मरण रहे कि हमारे इस मोर्चे का नेतृत्व आम्बेडकर, लोहिया, राजनारायण तथा जयप्रकाश सरीखे उदार नेताओं के हाथ में भले ही हो, किन्तु हमारे इस संगठन में कोई भी जन्मजात ब्राह्मण न घुसने पाए।

ब्राह्मण का हृदय शूद्रों के प्रति आदि काल से ही संकीर्ण और दुर्भावना से पूर्ण रहा है। शूद्रों तथा दलितों, जिनमें नारी जाति भी सम्मिलित हैं, के कल्याण के लिए सबसे पहली आवाज बुलंद करने वाले भगवान् बुद्ध, भगवान महावीर अब्राह्मण (क्षत्रिय) थे। उपनिषद्कारों में भी बाहुल्य ब्राह्मणों का ही था। संत मत के प्रचारक, नानक, दादू, चेता, नामदेव, कबीर, रविदास, तुकाराम आदि सब अब्राह्मण ही थे जिन्होंने ब्राह्मणी धर्म कर्म, ऊंच-नीचता के व्यवहार के विरुद्ध तथा दलितों के पक्ष में वकालत की। संभवत: यह आक्षेप किया जाए कि मैं भी जाति-पांति उन्मूलन सिद्धांत का पोषक होकर ब्राह्मणों का विरोध क्यों कर रहा हूूं? मैं मानता हूं कि ब्राह्मण विद्वान् हैं किंतु मनीषी नहीं हैं। शूद्रों के प्रति उनका जन्म से ही रवैया सांप की तरह विष भरा रहा है और अब तक है।

मैं अपने समस्त अध्ययन, संस्कृत वाङ्मय के अनुशलीन के आधार पर कह सकता हूं कि हमारे संगठन के खेमे में ब्राह्मण नेताओं का प्रवेश करना सरल भेड़-बकरियों के समूह में हिंदाा पशु शेर, बाघ, चीते या भेड़िये की तरह घुस जाना साबित होगा। ब्राह्मण बहुत अच्छे हैं किंतु शूद्रों और अछूतों आदि दलितों के लिए कभी अच्छे सिद्ध नहीं हो सकते। यह उनकी प्रकृति में ही दोष है। वह शूद्रों के कभी भी मित्र नहीं थे और भविष्य में भी मित्र नहीं बन सकते। स्वर्गीय लोहियाजी की जाति उन्मूलन आंदोलन को चलाने में भी ऐसी ही राय थी। साम्यवादी ब्राह्मण नेताओं को भारत की संपत्ति बांटने का हमेशा ख़याल रहा है किंतु उन्होंने कभी भी वर्ण-व्यवस्था तथा उसकी वैध-अवैध अनगिनत संतानों, जाति-उपजातियों पर कभी प्रहार नहीं किया। इस महाव्याधि का अन्वेषण और निदान करने वाले बीसवीं शताब्दी में दो ही महापुरूष हुए हैं। वह थे सवनाम धन्य बाबा साहिब आम्बेडकर और भारतीय दीर्घकालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रोग के खोजी दूसरे धन्वतरि स्वार्गीय डॉ. राममनोहर लोहिया।

अतिशय रगड़ करे जो कोई। अनल प्रगट चंदन से होई।।

शूद्रों के संगठन में एक बड़ी भारी खामी है सछूत शूद्रों का अछूत शूद्रों के साथ न मिल पाना। दुर्भाग्यवश सछूत शूद्रों में ब्राह्मणों ने अब यह प्रचार करना प्रारंभ कर दिया है कि वह क्षत्रिय और ब्राह्मण हैं। हालांकि धर्मशास्त्रों में जो खुराफातें, अत्याचार और सामाजिक दुव्र्यवहार लिखे गए हैं, वह अधिकतर इन्हीं सछूत शूद्रों के लिए हैं किंतु ब्राह्मण बहुत धूर्त व चालाक है। वह सछूत शूद्रों को भी नाममात्र के ब्राह्मण, क्षत्रिय बनाकर स्पृश्य शूद्रों से वैसे ही पृथक उच्च वर्ण बता रहा है जैसे उन्होंने ताकतवर मराठों को सिसोदिया वंशीय क्षत्रिय बना डाला और बौद्धों का प्रभाव समाप्त करने के लिए शकों को, आबू पर्वत पर हवन कराके, राजपूत या क्षत्रिय बना दिया। अगर सारे शूद्र वर्ण का संगठन हो जाए तो भारत की राज्य सत्ता भी वैसे ही शूद्रों के हाथ में होगी।

प्राचीन काल में कथित शूद्र मौर्य वंशों के साम्राज्य स्थापित हो गए थे, किंतु ब्राह्मणों ने जब देखा कि मौर्य वंशीय महाराजा तो ब्राह्मणीजाल से निकलकर भगवान् बुद्ध की शरण में चले गए हैं और उन्होंने द्विज ब्राह्मणों के झूठे बड़प्पन को भस्मसात् कर दिया है तो दोबारा ब्राह्मणों ने घृणित षड्यंत्रों के बलबूते पर पुन: ब्राह्मणी प्रभुत्व प्राप्त करके पुन: ऐसे धर्मग्रंथों के दूसरे विष भरे संस्करण तैयार किए जिनमें ब्राह्मण वस्तुत: भूमि के देवता बन बैठे और सारे समाज को मानसिक गुलाम बना दिया। कहना पड़ेगा कि हिंदुस्तान के गुलशन को वर्ण-व्यवस्था के चक्कर में डालकर ब्राह्मणों ने तहस-नहस कर दिया है। इस गुलशन में सबसे बर्बाद हुए हैं अस्पृश्य शूद्र, जनजातियां तथा घुमंतु जातियां। सवर्ण हिन्दू तो वर्ण-व्यवस्था या जाति-पांति को जीवित रखने में अपना लाभ समझते हैं किन्तु चालीस करोड़ शूद्रों का तो जाति-पांति और उसकी जननी वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन करने में ही भला है। हमें इस लड़ाई को लड़ने के लिए शुद्रों के पारस्परिक जातिभेद को, पारस्परिक खान-पान तथा पारस्परिक ब्याह-शादियां करके तोड़ना होगा। हिन्दू शास्त्रों में शूद्रों के निरादर में उल्लिखित श्लोकों, धर्माज्ञाओं, धर्मविधानों के खिलाफ खुलकर प्रचार करना होगा। मेरा तो पक्का विश्वास है कि जब तक समस्त दलित बनाकर रखी गई शूद्र जातियां हिन्दू धर्म, जिसने उन्हें आज इस नारकीय स्थिति में पहुँचाया है, नहीं त्यागेगी, तब तक उनका भला नहीं होगा। हिन्दू धर्म का बहिष्कार करके, एक मानवतावादी धर्म को, जो न वर्ण-व्यवस्था मानता हो और न ही किसी को ऊंचा अथवा नीचा, वरन् मानवमात्र को समान रूप में देखता है और जो इसी भारत भूमि की प्रथम देन है, भगवान बुद्ध के वैज्ञानिक धर्म को अपनाना चाहिए। तमाम शूद्र जातियों में पायी जाने वाली जातियों, उपजातियों का उन्मूलन करके एक शक्तिशाली बौद्धधर्मावलंबी प्लेटफार्म बनाना होगा जो आगे चलकर वर्ण-विध्वंसक और साथ ही शोषक वर्ग विध्वंसक बन सके।

इस जाति बंधन की गुलामी से इन शूद्रों को छुटकारा पाने की आवश्यकता है जो वर्णों और धनी वर्ग के जुल्म की चक्की में पिछले तीन हजार वर्षों से बराबर पिसते आ रहे हैं। इनके प्रति आज अपमान, निरादर, जहालत, गरीबी का जो अभिशाप सारे देश में दिखायी पड़ता है, उसका एक-एक आदेश और उपदेश हिन्दू धर्मशास्त्रों में विद्यमान है। उस पर आचरण करना हिन्दू धर्म बतलाया गया है। उसे सनातन धर्म समझकर धर्मभीरु उच्चजातियों के हिन्दुओं ने समूचे भारत में क्रियात्मक रूप दे रखा है। अत: चोर को मारने की बजाए चोर की मां को मारो जिसने ऐसे चोर को जन्म दिया था और जो अभी तक अनेक जाति उपजातियों के रूप में उनका पालन कर रही है।

मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि इस देश और राष्ट्र का जितना अहित ब्राह्मणवाद ने किया है, और अब भी कर रहा है, उसकी मिसाल संसार में नहीं मिलती। अत: इसका उन्मूलन करना भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाना है। ब्राह्मण कभी भी जन्मजात उच्चता को नहीं छोड़ेगा और उसकी रक्षा के लिए क्षत्रिय, वैश्यों आदि जातियों को फुसलाता रहेगा ताकि वह शूद्र दलित वर्ण को दबाने में उनके काम आएं। जैसा कि अब तक आते रहे हैं।

जाति-पांति उन्मूलन के लिए शूद्र तैयार हो जाएं। तमाम जातियां, उपजातियां आपस में खान-पान, ब्याह-शादी करें। शूद्रों का पढ़ा-लिखा नौजवान तबका ब्राह्मणवाद के पोषक ग्रंथों की, जिनमें शूद्रों के खिलाफ फतवे दिए गए हैं, खुले तौर पर होली जलाए। सत्याग्रहों से भारत सरकार को मजबूर कर दें कि वह ऐसे प्रचार के मूलभूत शास्त्रों को जब्त कर लें और ऐसे घृणित प्रचारकों को आजीवन जेल में डाल दें।

यह सब कुछ तभी होगा जब दलित वर्ग के दिलो-दिमाग में विप्लव, क्रांति या इंकलाब की आग प्रज्वलित होगी।