जाति उन्मूलन की आवश्यकता / शीलरत्न

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भारत में जाति-पांति, ऊंच-नीच और छुआछूत की व्यवस्था आज की नहीं बल्कि बहुत अधिक पुरानी है। अनेक सुधारकों ने इसे दूर करने की कोशिश की फिर भी वह अपने स्थान पर कायम है। जाति व्यवस्था का मूल कारण है अज्ञान। दूसरा कारण है प्राचीन रूढ़िवाद पर स्थिर रहना और तीसरा कारण है निम्न वर्ग के लोगों का धनहीन होना। आज के वैज्ञानिक युग में इसे मिटाने की आवश्यकता है। नहीं तो यह देश छिन्न-भिन्न ही रहेगा। सन् १९४७ की आजादी के बाद भी यह व्यवस्था अब तक समाप्त न हो सकी। इसके मुख्य कारण हैं हमारे वर्तमान नेतागण, जो पुरानी रूढ़िवादी परंपराओं को न समाप्त कर सके बल्कि स्वयं उन्हीं परंपराओं को मानते चले आए और उन्हीं पर स्थिर हैं। इस जाति-व्यवस्था को तोड़ने के लिए पूर्ण दृढ़ता, तीव्र बुद्धि, पूर्ण मानसिक शक्ति, सुदृढ़ सामूहिक बल और संपूर्ण क्रांति चाहिए।

भारतीय वर्ण-व्यवस्था रंग-भेद और जन्म-भेद के आधार पर है। इस वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण का श्वेत वर्ण, क्षत्रियों का लोहित वर्ण, वैश्यों का पीतवर्ण माना गया है और शूद्रों का काला या भूरा। यदि सामाजिक या मानवीय एकता लानी है तो सदियों पुरानी भारतीय वर्ण-व्यवस्था या रंग-भेद को समाप्त कर देना पड़ेगा और पूर्ण रूपेण एक नयी व्यवस्था बनानी पड़ेगी। मानव मात्र का एक धर्म मानना पड़ेगा, स्त्री को एक जाति और पुरुष को दूसरी जाति।

इस समय सारे संसार में अनेक प्रकार की जातियां हैं और इन्हें समाप्त होना ही है। संसार के सभी देशों में यह जाति-प्रथा बड़ी तेजी से या तो समाप्त कर दी गई है या धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। सबसे बड़ा उदाहरण रूस, चीन इत्यादि साम्यवादी देशों का है। सन् १९१७ की खूनी क्रांति के बाद रूस में नाना प्रकार के परिवर्तन हुए। जात-पांत आदि की मानवीय विषमता समाप्त कर दी गई। रूस का सामाजिक ढांचा एकदम बदल गया। वहां के लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चलकर रूढ़िवादी पुरानी सामाजिक प्रथाओं का और राजनीतिक क्षेत्र में फ़ैली हुई सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का अंत करके एक नवीनता का वातावरण अपनाया। रूस के अलावा सारे साम्यवादी देशों में ऐसा ही हुआ। कल-कारखाने, कृषिफार्म, पाठशालाएं, अस्पताल, मजदूर संगठन, वैज्ञानिक शोध केंद्र, उत्तमकला केंद्र इत्यादि समस्त मानव कल्याण और माननीय सुख-शांति के लिए स्थापित किए गए।

भारतीय जातियों की रचना भी प्राय: अर्थ के आधार पर हुई प्रतीत होती है। जिस समूह ने जैसा व्यवसाय अपनाया उसे वैसी ही एक जाति मान लिया गया। समय परिवर्तन के अनुरूप तमाम प्रकार की जातियां बनती चली गयीं। ऊंच-नीच इत्यादि का आधार अर्थ देखा जाता है। भारतवर्ष में धनी वर्ग ने इन जातियों के विघटन का लाभ उठाया और समाज को विघटित करने में ही अपना आर्थिक लाभ समझा। अत: धनहीन इकाइयों को अपनी उन्नति के लिए एक होना पड़ेगा। यदि धनहीन इकाइयां एक नहीं होतीं तो जातिवाद और छुआछूत कभी समाप्त नहीं होगा। आज सरकार जाति के नाम पर रिजर्वेशन देती है वह भी आज के अछूतों को और अछूत बनाना है। इन जातियों को केवल अपनी बुद्धि बल और शक्ति से आगे बढ़ना है। यह आज का मूल प्रश्न है कि यह सामाजिक विषमता क्यों हैं?

असली बात यह है कि प्राचीन परंपराओं का बहाना लेकर हिन्दू समाज के धनी वर्ग ने धनहीन वर्ग का सभी प्रकार से शोषण किया और निम्न जाति की निर्बल औरतों को अपनी भोग-विलास की सामग्री बनाया। धार्मिक प्रलोभन देकर स्वर्ग का झूठा रास्ता दिखाया। भारत के राजा रजवाड़े इसके प्रमुख उदाहरण हैं। वेश्यावृत्ति की उत्पत्ति धन के प्रलोभन से धनी वर्ग द्वारा हुई। स्त्रियों को अपढ़ रखा गया ताकि धनी वर्ग उन्हें अपनी सेवा में लगा सकें। जन्मजात ब्राह्मणों को समाज का नेता बनाया गया और उनके द्वारा सारा का सारा नाटक रचा गया। भारत के प्राचीन नगरों, मंदिरों में अनेक अप्सराएं और दास-दासियां रखी जाती थीं। जिनके साथ स्वच्छंद भाव से मनचाहा आनंद मनाया जाता था। यह सब व्यभिचार धनी वर्ग द्वारा किया गया और किया जाता है। मंदिरों को धनी वर्ग से सहायता मिलती है।

हिन्दू धर्म में ही नहीं अन्य धर्मों में भी ऐसा ही देखा जाता है। ईसाई धर्म में पोपों की लीला और उनके द्वारा स्वर्ग के टिकट बेचना प्रसिद्ध था। रोम में अगणित धार्मिक हत्याएं हुई। आयरलैंड जैसे देश में भी धार्मिक दंगे हुए। भारत की अधिकांश जनता नाना देवीदेवताओं पर विश्वास करती है। किन्तु वैज्ञानिक बातों को समझने में अपनी बुद्धि नहीं लगाती। जब तक इस प्रकार के अंधविश्वास चलते रहेंगे तब तक सामाजिक विषमता दूर नहीं हो सकती।

इन सब बातों के पीछे किसका हाथ है, बुद्धि पर जोर देकर इसे समझना चाहिए। इस प्रश्न के उत्तर में ‘धनी वर्ग’ ही निकलेगा। धनी वर्ग और धनी होता चला जाएगा तथा धनहीन व्यक्तियों में अनेक प्रकार से विषमता लाने का प्रयास करेगा जैसा कि भूतकाल में किया गया। भारत में पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछड़ी हुई अछूत जातियों को थोड़ा बहुत धन का लालच देकर जैसे का तैसा रहने को विवश किया जा रहा है।

आज का युग हमें सिखाता है कि हमें एकता से रहना चाहिए और छुआछूत की भावना को सक्रिय रूप से मिटा देना चाहिए। हमारी सामाजिक विषमता उसी समय दूर हो सकती है, जब हम मनुष्यता की भावना को समझने का प्रयास करेंगे। आर्थिक दृष्टि से हम नीचे गिरते जा रहे हैं। जिस समय आर्य लोगों ने भारत को जीता होगा, उस समय हमारे हारे हुए समाज की क्या स्थिति रही होगी। प्रत्येक घर में एक प्रकार का मातम-सा छाया होगा।

उस समय आर्य विजेता हुए और सब ओर उनका बोलबाला हुआ। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विजेता व्यक्तियों में उत्तम होने की भावना उत्पन्न हो जाती है। इसलिए आर्यों ने अपने को उत्तम ठहराया और सर्वोपरि ब्राह्मण वर्ग प्रसिद्ध किया। जिन जातियों ने ब्राह्मण का पक्ष लिया और शध्Eा आदि से उनकी सहायता की, उन्हें ‘क्षत्रिय’ की उपाधि दी। जिन लोगों ने ब्राह्मणों को धन दिया उनको वैश्य की उपाधि दी। इसके अतिरिक्त जो लोग धन आदि से किसी प्रकार की सहायता न कर सके उन्हें शूद्र कहकर बलपूर्वक सेवा का कार्य सौंपा गया और विभिन्न प्रकार की यातनाएं दी गयीं। उस समय विजित और विजेता की भावना लोगों के दिलों मेें घर कर गयी थी। एक सामाजिक हलचल सी फ़ैली हुई थी। ब्राह्मणों के विरूद्ध अनेक प्रकार की भावनाएं उत्पन्न की जाती थीं जिसका एक उदाहरण राम-रावण युद्ध है। रावण ब्राह्मणों को त्रास देता और उनके यज्ञों को भंग करता था। परंतु क्षत्रिय ‘रामचंद्र’ ने रावण के संहार और ब्राह्मणी धर्म की रक्षा का कार्य किया। उस समय सारी राजनैतिक क्रियाएं एक-दूसरे के विरूद्ध कार्य कर रही थीं। जैसे कि आज कोरिया, वियतनाम, पाकिस्तान और भारत में है। उस समय का भारत दो क्षेत्रों में बंट गया था। उत्तर में विंध्याचल पर्वत तक आर्य लोग अपनी धाक जमाए थे, दक्षिण में द्रविड़ लोग अपनी धाक जमाए थे। आर्यों ने दक्षिण के रहने वालों को राक्षस सा शूद्र संज्ञा दी, जिसे द्रविड़ लोग स्वीकार करना नहीं चाहते थे। छल-कपट इत्यादि सारी राजनीतिक क्रियाओं से आर्य लोग द्रविड़ों के विरुद्ध कार्य कर रहे थे। जैसे भारत की स्वतंत्रता के समय देश दो भागों में विभाजित हुआ एक पाकिस्तान दूसरा भारत। उसी समय डॉ. बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर, जो दलितों के मसीहा कहलाते हैं, ने अपना भी एक अलग अछूतस्तान बनाने की मांग उठायी तब गांधी जी जैसी मीठी छुरी ने इक्कीस दिन का आमरण उपवास रखकर बाबा साहब की मांग का विरोध किया। कारण जब अछूत अलग हो जाएंगे तो हिन्दू धर्म की चौकड़ी टूट जाएगी। और वर्ण भेद पर आघात होगा। इसके सिवाए दूसरा कोई कारण नहीं था। आप कहेंगे कि उन्होंने तो हरिजनों की सेवा की। परंतु मैं कहूंगा कि यह सब नाटक था। अपने जीवन में गांधी ने कभी हरिजनों का खाना तक नहीं खाया। इसके लिए बाबा साहब की पुस्तक ‘अछूतों के लिए गांधी ने क्या किया’ पढ़ो। उससे सभी बातों का खुलासा होगा।

इसी कारण बाबा साहब आम्बेडकर और गांधी में विरोध था। आज भी आए दिन अछूतों पर अत्याचार होते रहते हैं परंतु हुमारी सरकार उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाती। खाली कानून में जातीयता मिटाने से कुछ नहीं होगा। कोई भी कार्य दो प्रकार के होते हैं—एक थ्यौरी वाले और दूसरे पै्रक्टीकल। तो आज हमें पै्रक्टीकल की जरूरत है थ्यौरी की नहीं। खाली जाति तोड़ो कहने से काम नहीं चलेगा। उसके लिए एक ऐसा आंदोलन चलाना होगा कि जहां कहीं अछूतों पर अत्याचार या छुआछूत का व्यवहार हो वहां जाकर इसकी खिलाफत करना, देश के देहातों में जाकर जातिवाद के समर्थकों से संघर्ष करना। यह कार्य होना चाहिए।

१९३६ में जाति तोड़क मंडल ने भी एक सम्मेलन करने का इरादा किया जिसके अध्यक्ष थे संतराम बी.ए.। उन्होंने बाबा साहब को भाषण के लिए लिखा। बाबा साहब ने भाषण लिख्कर प्रिंट कराया परंतु वह भाषण इस मंडल ने पढ़ा तो उनके होश गुम हो गए। तब उन्होंने न सम्मेलन किया न भाषण पढ़वाया। वह नाटक आज तक वैसा ही अधूरा पड़ा है। हमें बाबा साहब का वह प्रश्न जो स्वतंत्रता के समय उन्होंने उठाया था, उसे पुन: दोहराना होगा कि जब जाति-प्रथा आप नहीं मिटा सकते तो हमें इस जातीयता में रहकर नर्वâ यातना नहीं भुगतनी है। हमें अपना विकास करना है और इसलिए हमें हमारा राष्ट्र ही अलग करना है। जिसमें सभी अछूत अपना राज्य, अपना विकास कर सकें और समाज का उद्धार हो।

प्राचीन सारी स्थितियां धन और प्रभुसत्ता के अनुकूल चली थीं, जो आज भारत में घोर अंधकार की व्यवस्था में बदल गयीं। भारतीय समाज विघटित होता चला गया। इन सब बातों से निर्धन समाज को या यों कहिए निम्न स्तर के ‘सर्वहारा’ समाज को बहुत बड़ी आर्थिक, सामाजिक हानि हुई। जब तक भारत से यह जाति-भेद नष्ट नहीं किया जाता तब तक मनुष्यों में समता की भावना उत्पन्न नहीं होगी। समाज में इसी प्रकार छुआछूत कायम रहेगी, शोषित वर्ग सदा की भांति सताया जाएगा। जैसे आज भी बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश में अछूतों को जिंदा जलाया जा रहा है। इस पर सरकार क्या कर रही है? इस छुआछूत एवं जाति-व्यवस्था ने श्रम की कार्यकुशलता में अड़चनें पैदा कर दी हैं। आर्थिक प्रगति रोक दी है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता नष्ट कर दी है। समाज छोटे-छोटे समूहों में बंट गया है। अज्ञानता उत्पन्न कर दी है। विचारों का आदान-प्रदान बंद कर दिया है। मानवीय एकता खो दी है। थोड़े शब्दों में यूं कहिए कि आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक विषमता उत्पन्न कर दी है। जाति-प्रथा की संकीर्ण विचारधारा ने समाज में ऐसे तत्त्व पैदा कर दिए हैं जिससे मानवीय शक्ति का विकास रुक गया है। अत: जाति-व्यवस्था का उन्मूलन अति आवश्यक है। यदि मनुष्यों को मनुष्य की समता दी जानी है, तो इस व्यवस्था को जड़ से मिटा देना चाहिए। इस व्यवस्था ने लोगों की मनोवृत्तियों की स्वतंत्रता नष्ट करके दासता की प्रवृत्ति को जन्म दिया और भारत में हीनता की भावना उत्पन्न की। मानवीय भ्रातृभाव को दूर कर दिया। स्त्री-पुरुष की प्रेम और श्रद्धा की भावना को नष्ट कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मनुष्य मनुष्य से लड़ने लगा। इस प्रकार के भेदभाव शताब्दियों से चले आ रहे हैं और मानसिक व्यवहार में विषमता उत्पन्न हो रही है।

प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति के लिए यह अत्यंत विचारणीय प्रश्न है कि मानव-मानव में प्रेम, सद्भावना, सहानुभूति और श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए मनुष्य ही उत्तरदायी है। इतिहास इसका साक्षी है कि मानव समाज के सारे काम मनुष्य ही करता है न कि दूसरा कोई। मानव कल्याण एवं विश्व बंधुत्व और विश्व-प्रेम के लिए जो करना उचित है उसे भी मनुष्य ही करेगा। इसके लिए भगवान् बुद्ध ने कहा है “ अत्त दीपोभव ते। तेरा दीपक तू ही है।” प्रत्येक व्यक्ति सुख और शांति चाहता है और समाज में बराबरी का स्थान ग्रहण करना चाहता है। प्रत्येक प्राणी अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार भोजन करता है, परंतु सभ्य समाज में ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें भर पेट भोजन नहीं मिलता। मानव समाज में उत्पन्न छुआछूत, ऊंच-नीच को मिटाकर विघटित समाज को एक सूत्र में बांधने के लिए आवश्यक है कि हर स्थिति में पूंजीवाद समाप्त किया जाये और रूढ़िवादी परंपराओं के विरूद्ध आंदोलन किया जाये। वस्तुत: जाति-प्रथा हमारे सामाजिक ढांचे में ही नहीं अपितु समस्त मानव की मानसिक प्रवृत्तियों में भी विषमता पैदा करती है। आज भारत को एक ऐसी नवीन संस्कृति का निर्माण करना है जो सारे वर्गों की मनोवृत्तियों को समता के सूत्र में बांध दे।

मेरे विचार से मानव-जाति में समता, स्वतंत्रता और निष्पक्ष न्याय की स्थापना के लिए प्रत्येक मनुष्य को निम्न कार्य करने पड़ेंगे। यही समाज में वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को नष्ट करने में संपूर्ण क्रांति की भूमिका है।

१. वर्ग-विहीन, वर्ण-विहीन, जाति-विहीन और सांप्रदायिकता-विहीन समाज की स्थापना करना। २. स्त्री-पुरुषों में समता के अधिकार और परस्पर आदर-सम्मान का भाव होना चाहिए। स्त्रियों को पतिता और पुरुषों की दासी समझना तथा विवाह के समय लड़कियों के माता-पिता से दहेज तथा धन इत्यादि मांगने वालों को कठोरतम दंड देने की व्यवस्था होनी चाहिए। ३. पूंजीवादी व्यवस्थाओं को जड़मूल से मिटा देने के लिए समाज से अंधविश्वास, मिथ्या दर्शन आदि सब का बहिष्कार कर देना चाहिए। ४. अछूतों, पिछड़ी जातियों, शोषितों और सर्वहारा वर्ग से छुआछूत, भेदभाव मिट जाना चाहिए और इन वर्गों के लोगों को अपने बुद्धि बल से ऊपर उठना चाहिए। ५. शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्येक को समान शिक्षा मिलनी चाहिए। अमीरों और गरीबों के बच्चों के लिए अलग-अलग शैक्षिक केंद्र नहीं होना चाहिए। ६. मानव समाज में असमानता या विषमता की बात करने या उसका प्रचार करने वालों का समाज से बहिष्कार होना चाहिए। ७. रूढ़ि-उपासना, वर्ण-भेद, अधिकार-भेद और सांप्रदायिक-भेद का मूलोच्छेद करने के लिए क्रांतिकारी आंदोलन तेजी से चलाना चाहिए। ८. मानवीय समता लाने और सामाजिक एवं सांप्रदायिक भेदभाव दूर करने के लिए स्त्रियों का नि:संकोच परस्पर आदान-प्रदान आवश्यक है और यह मान लेना चाहिए कि मनुष्यों में केवल दो ही जातियां हैं एक स्त्री जाति और दूसरी पुरुष जाति। ९. मनुष्यों में आर्थिक समता लाने के लिए सच्ची समाजवादी व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए। १०. भारत में एक राष्ट्रीयता उत्पन्न करने और उसे शक्तिशाली बनाने के लिए साम्य सूत्र में बंधी हुई ‘मानव संस्कृति’ का निर्माण करने की अनिवार्य आवश्यकता है। भारतीय समाज में संपूर्ण क्रांति के लिए वर्ग एवं वर्ण उन्मूलन की यही एक भूमिका है। इससे अछूतों की विमुक्ति हो सकेगी और भारत एकता, समता तथा भाईचारे के सूत्र में बंध जाएगा।