जाति तोड़ो सम्मेलन के प्रस्ताव

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प्रस्ताव संख्या-१ धार्मिक पाखंड पर नियंत्रण

जैसे यह निर्विवाद है कि धर्मों की नैतिक मान्यताओं को आदर एवं प्रोत्साहन मिलना चाहिए, उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि उनके द्वारा फ़ैलाए गए अनाचार एवं पांखड पर रोक लगे। आशा की जाती थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ उत्तरोत्तर धार्मिक अंधविश्वास और रूढ़ियां समाप्त होने लगेंगी। ंिकंतु इसके विपरीत लोकतंत्र के पिछले दशकों में तंत्र-मंत्र, ज्योतिष आदि के प्रति विश्वासों में और नये-नये भगवान, योगी, साधु एवं संप्रदायों की ऐसी बाढ़ आ गई जिसमें समाज का शिक्षित समुदाय भी बहता गया है। धर्म के ऐसे व्यवसायी लोगों ने लोकतंत्र द्वारा प्राप्त स्वतंत्रता का अर्थ यह मान लिया है कि धर्म से संबंधित सभी प्रकार के अन्धविश्वासों और रूढ़ियों को पुष्ट करने और फ़ैलाने में वे पूर्ण स्वतंत्र हैं तथा उनकी दृष्टि में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य को उनके इन कामों को रोकने का कोई अधिकार नहीं है। इन नये-नये भगवानों साधुओं और संप्रदायों के केंद्रों में एक ओर भ्रष्टाचार फ़ैलने का अवसर मिलता है तो दूसरी ओर जातिवाद को नये ढंग से प्रश्रय मिल रहा है यहां तक कि जिस जाति का भगवान, साधु या योगी होता है, उसी जाति के बहुसंख्य भक्तगणों का वहां जमाव होने लगता है। इस प्रकार धर्म की आड़ में एक नयी प्रक्रिया से जातियां संगठित होने लगी हैं। धार्मिकता के आवरण में जातिवाद के साथ वहां सारी सामंतवादी प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं। और पीड़क वर्ग के सम्मान एवं अहंकार को बढ़ावा मिल रहा है। सम्मेलन यह मानता है कि धर्म-निरपेक्षता का यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि धर्म के नाम पर राष्ट्र के नैतिक स्वास्थ्य और बुनियादी मानव-मूल्यों के प्रतिकूल पाखंड, अंधविश्वास और कुप्रथाओं के प्रचार की और लूट खसोट की खुली आजादी हो और एक जनतांत्रिक सरकार उसकी मूक दर्शक बनी रहे। इस दृष्टि से सम्मेलन यह संकल्प करता है कि वह स्वयं समाज में विकास की इस धारा के प्रतिकार का प्रयास करेगा और सरकार से मांग करता है कि धर्म-निरपेक्षता की स्पष्ट व्याख्या करे और इस संबंध में सार्वजनिक नीति की घोषणा करे।

प्रस्ताव संख्या -२

जाति विरोधी प्रयासों को प्रोत्साहन

समाज के जातिवादी घेरे को तोड़ने के लिए यह आवश्यक है कि देश में व्यक्ति, समूह या संस्था के रूप में जाति विरोधी जो प्रयास किए जा रहे हैं, उन्हें समाज एवं शासन की ओर से आवयक सुविधाएं एवं प्रोत्साहन प्राप्त हो।

१. ऐसी संस्थाएं (सामाजिक) गांवों में जाकर जातिवाद के विरोध में जनमत तैयार करें और ऐसे कार्यक्रमों को अपने हाथ में लें, जिनसे लोकजीवन में ऊंच-नीच के भाव तथा अस्पृश्यता के विविध रूप समाप्त हों। २. अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करने के लिए यह आवश्यक है कि ऐसे विवाह को राष्ट्र्रीय चरित्र का परिचायक और विशेष योग्यता माना जाए। और उसका लाभ संबंधित स्त्री-पुरूष और उनकी संतान को प्राप्त हो। ३. इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि शासन और समाज के सहयोग से प्रत्येक जिले तथा उसके विशेष स्थानों में अंतरजातीय विवाह मंडप की योजना चालू की जाए जिसके अंतर्गत सुविधापूर्ण एक भवन का निर्माण हो, जहां विवाहोत्सव संपन्न करने के लिए आवश्यकतानुसार शादी को पंजीकृत कराने तथा वर-वधू और उनके निमंत्रितों के आवास की सुविधा हो। इस मंडप योजना की व्यवस्था की जिम्मेदारी एक अर्ध-शासकीय समिति के द्वारा हो जिसका मंत्री जिलाधीश या उनका प्रतिनिधि हो और सभापति समाज-सेवी सुयोग्य अद्विज नागरिक हो। प्रस्ताव संख्या-३

शिक्षा की दिशा में प्रयास

संस्कार शोधन का प्रमुख माध्यम शिक्षा है। शिक्षा के अंतर्गत सिर्फ़ स्कूली शिक्षा ही नहीं, प्रत्युत जन-शिक्षण भी महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण संस्थाएं, पाठ्यक्रम, समाचार-पत्र, रेडियो, सिनेमा, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्र के सिद्धांत,प्रवचन और कार्यक्रम शिक्षा के प्रभावशाली माध्यम हैं। इन सबका उपयोग मानव-मूल्यों की श्रेष्ठता को सिद्ध करने में और मनुष्य की सृजनशीलता को उभारने में होना चाहिए। इसके विपरीत हमारी शिक्षा का प्रमुख स्वर ऐसा है, जिससे सामंतवाद, आभिजात्य, जाति-श्रेष्ठता और अपने-अपनें क्षेत्रों एवं भाषाओं का आग्रह पुष्ट होता जा रहा है। वर्तमान शिक्षा का भारतीय मन पर एक दूसरा प्रभाव यह होता है कि मनुष्य स्वयं में असहाय एवं दुर्बल है। उसे अन्य शक्तियों का या समाज के प्रभावशाली वर्ग का आलंब, कृपा एवं शरण चाहिए। शिक्षा की मानव विरोधी धाराओं को आज रोकना नितांत आवश्यक है।

शिक्षा के द्वारा उन ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों को सामने नहीं लाया जाता जिनसे यह स्पष्ट हो सके कि मानव-जाति के आज तक के विकास का एकमात्र श्रेय मनुष्य को है। धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, कला के क्षेत्र में जो महान विकास हुआ है वह मानव की प्रतिभा और श्रम का फल है। भारतीय संदर्भ में शिक्षा का यह भी एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है कि वह उस छिपाए गए ऐतिहासिक तथ्य को उभारे कि आंरभ में जातियां नहीं थीं। बाद में सैकड़ों समूहों के मिश्रण से वर्तमान भारतीय समाज बना है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के विराट रूप के बनने में भी भीतरी और बाहरी संस्कृतियों का उत्कृष्ट योगदान रहा हैं। बाद की स्थितियों में यह जातिवाद वर्ग स्वार्थों से प्रेरित अमानवीय, कृत्रिम और अनैतिक रूप से सारे समाज पर आरोपित हुआ है। इस स्थिति में शिक्षा द्वारा देश में एक ऐसे वातावरण का सृजन होना चाहिए जिसमें यह तथ्य उजागर हो कि ऐतिहासिक कालों में अनेकानेक जातियों और संस्कृतियों से बना भारतीय जीवन वस्तुत: एक परिवर्तनशील जीवन प्रवाह रहा है, जिसमें विश्व-संस्कृति के निर्माण की क्षमता थी, जिसे जातिवाद ने कुंठित कर दिया। वर्तमान शिक्षा के द्वारा इन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकट नहीं किया जाता कि हमारे देश में जातिवाद के विरोध में प्राचीन काल में कैसे-कैसे प्रबल आंदोलन हुए थे, आज भी उसके अवशेष देखे जा सकते हैं। शिक्षा के द्वारा उन अंतरधाराओं को उजागर करके नये संदर्भ में उसे नयी दिशा देकर समाज से जातिवादी मान्यता को दूर किया जाना आवश्यक है।

इस कार्य में आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियाँ भी महत्तवपूर्ण हैं। विज्ञान की विविध शाखाओं ने विश्व, मानव-जीवन और मानव-समाज की संरचना का महत्वपूर्ण अध्ययन किया है। उससे जीवन और जगत से सबंधित अज्ञान और उसकी रहस्यमयता को बहुत कुछ दूर किया जा सकता है। शिक्षा का यह कर्तव्य है कि वह उन वैज्ञानिक उपलब्धियों के आधार पर जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करे, जिससे प्रांरभ से लेकर सभी स्तर के विद्यार्थियों में तथा जन-शिक्षण द्वारा जन-सामान्य में पौराणिक आख्यानों तथा परंपरागत विश्वासों के आधार पर जातिवादी अंधविश्वास जन्म न लें सकें। उनके स्थान पर सब तरह से मानव की समता और मानव जाति की श्रेष्ठता की दृष्टि उजागर हो। उसके लिए यह आवश्यक है कि एक ओर नये पाठयक्रम और पाठय-ग्रंथों का निर्माण हो तथा दूसरी ओर प्रारंभिक कक्षा से विश्वविद्यालय स्तर तक के शिक्षालयों को जाति-विरोधी, वर्ण-विरोधी, वर्ग विरोधी संस्कृति के प्रचार एवं कार्यान्वयन का केन्द्र बनाया जाय।

विषमता की संभावना और श्रेष्ठता के भाव को जड़ से ही खत्म करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए एक जैसे पड़ोसी स्कूल स्थापित किए जाएं। इन स्कूलों में मुहल्ले, गांव, कालोनी या नगर के सभी परिवारों के बच्चे एक साथ पढ़ें। प्राथमिक स्तर से उच्चतम स्तर तक पढ़ाई का माध्यम भारतीय भाषाएं हों और अंग्रेंजी माध्यम वाले आभिजात्य संस्कृति पर आधारित फेंसी स्कूल तत्काल खत्म किए जाएं। शिक्षा को जीवन के यथार्थ के निकट लाने और समाज के लिए उसे उपयोगी बनाने की दृष्टि से विद्यार्थियों को अपने इलाके की समस्याओं और गतिविधियों से सक्रिय रूप से संबद्ध करने की योजना बनायी जाए और उसे लागू किया जाए।

प्रस्ताव संख्या -४ बौद्धों को सुविधाएँ

जाति तोड़ो सम्मेलन यह मानता है कि भारतीय समाज के दबे-पिछडे और दलित लोग जाति-प्रथा के कारण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अब तक सामाजिक और आर्थिक विकास के अवसरों से वंचित हैं। इससे संबंधित लोगों के प्रति अन्याय और शोषण तो हुआ ही है समूचे देश की अधिकांश प्रतिभा बांझ हो गयी है। राष्ट्र के व्यक्तित्व में अधूरापन और हीनता आ गयी है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान इन दलितों और औरतों के पिछड़ेपन को पग-पग पर महसूस किया गया था। फलस्वरूप तथाकथित सवर्ण लोगों के मुकाबले में उन्हें कुछ विशेष अवसर और सुविधा देने की नीति अपनायी गयी। सम्मेलन इस वर्तमान नीति को अपर्याप्त मानता है और उसमें सुधार की मांग करता है।

सम्मेलन की राय है कि बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने मात्र से समाज के इन दलित और वंचित लोगों की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आ जाता। बौद्ध धर्म भारतीय लोकजीवन और प्रतिभा का एक महान पुष्प है और उसमें दीक्षित होने के बाद भी संबंधित व्यक्ति समग्र भारतीय समाज के ही घटक और अंग रहते हैं। इसी वातावरण में उन्हें जीना और मरना होता है। अत: इस आधार पर कि किसी व्यक्ति ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया है उसे अनुसूचित और परिगणित जातियों के लोगों को दी गई सुविधाओं और संविधान तथा कानून में दिए गए अधिकारों से वंचित करना भेदपरक और अविवेकपूर्ण है। यह स्थिति स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले महान् स्त्री-पुरुषों की परिकल्पना के विपरीत है और भारतीय संविधान की आत्मा तथा संविधान निर्माताओंं के मंतव्य के प्रतिकूल है। सम्मेलन भारत सरकार से यह मांग करता है कि अनुसूचित और परिगणित जाति के ऐसे लोगों को जो कि बौद्ध धर्म-ग्रहण कर चुके हैं या कर लेते हैं, वह सभी सुविधाएं दे जो उन्हें पूर्ववर्ती दशा में मिलती रही हैं।

प्रस्ताव संख्या-५ जाति-विरोधी आंदोलन का मंच

सम्मेलन यह जानता है कि देश भर में छोटी-बड़ी, नयी और पुरानी अनेक संस्थाएं और संगठन हैं जिनका सामाजिक दृष्टिकोण उदार है और जिनका रुझान जाति-विरोधी है। किंतु जातिवाद की प्रबलता के सामने इनके काम प्रभावकारी नहीं हो पा रहे हैं। इनके एकत्र और संगठित न होने के कारण तथा समुचित दिशा-निर्देश, सशक्त संघर्षशील नेतृत्व के अभाव में ये संगठन जाति विनाश के अपने प्रयत्न में अब तक अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर पाए हैं।

जाति-व्यवस्था की जड़ें बहुत गहरी और मजबूत हैं। आर्थिक शोषण और सामाजिक श्रेष्ठता के मिथ्या भाव ने इसके चारों ओर निहित स्वार्थों की एक लोहे की दीवार बना दी है। इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए जाति विरोधी ताकतों को इकट्ठा करना होगा, उन्हें एक साथ सक्रिय और आंदोलित करना होगा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जाति विरोधी शक्तियों की एक साथ सम्मिलित मंच के रूप मंन जाति तोड़ो सम्मेलन की परिकल्पना की जा रही है। यह मंच जाति तोड़ो सम्मेलन के इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सम्मेलन के निर्णयों को कार्यान्वित करने और तमाम जाति-विरोधी ताकतों को इकट्ठा करने, उनमें तालमेल बैठाने और राज्य, जिला, प्रखंड, नगर, गांव और उससे भी नीचे छोटी से छोटी संभव इकाई तक सम्मेलन का विस्तार करने के लिए व्यक्तियों की समिति बनाने का निर्णय करता है।

प्रस्ताव संख्या -६ जाति-पांति और कानून

१. प्राइमरी शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक विज्ञान की पुस्तकों को छोड़कर सभी पुस्तकों में कम-से-कम एक अध्याय जाति-प्रथा की बुराइयों और उसे तोड़ने पर होना अनिवार्य हो। इसके लिए राज्य सरकारें व केन्द्र सरकार विशेषज्ञों के परामर्श से पाठ्यक्रमों का निर्देशन करें। २. स्नातक कक्षाओं में जाति-प्रथा एक वैकल्पिक विषय हो और उसके लिए विश्वविद्यालयों की विद्वत परिषदों से केंद्र एवं राज्य के शिक्षा विभागों द्वारा आग्रह किया जाए। ३. जाति-प्रथा पर शोध हेतु विशेष सुविधाएं दी जाएं और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ऐसे शोध को प्राथमिकता तथा विशेष प्रोत्साहन दे। ४. अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, १९५५ (संशोधित रूप में प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट, १९७६ हो जाने के बाद भी) असंगतियों से भरा है। इसके लिए यह आवश्यक है कि इसको जाति-प्रथा-उन्मूलन अधिनिमय बनाया जाए और उसके अंतर्गत अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम के महत्त्वपूर्ण उपबंधों को एक अध्याय के अंतर्गत रखा जाए। ५. अस्पूश्यता (अपराध) अधिनियम का रूप वस्तुत: दंडात्मक है। उसे सुधारवादी स्वरूप दिया जाए और अधिनियम का इस उद्देश्य से पुनरालोकन करके इसमें आमूल परिवर्तन किया जाए। ६. इस प्रस्तावित अधिनियम के अंतर्गत जाति-प्रथा को प्रोत्साहित करना, प्रचार  जाति तोड़ो सम्मेलन में पारित प्रस्ताव :: १९७ १९८ :: जाति तोड़ो सम्मेलन में पारित प्रस्ताव

करना तथा प्रश्रय देना और जाति प्रथा को न मानने वालों को उत्पीड़ित करना जघन्य अपराध घोषित किया जाए।

७. अस्पृश्यता संबंधी अपराधों के वर्तमान दंड को बढ़ाया जाए। ८. विशेष ध्यान इससे संबंधित लक्ष्य एवं प्रक्रिया को तीव्र बनाने की ओर दिया जाए। ९. समाज में जाति-प्रथा के विरुद्ध तथा जाति तोड़ो सम्मेलन अभियान के प्रति जागरूकता लायी जाए। इसके लिए नॉन फारमल एजेंसीज का गठन हो तथा जनमत बनाने के लिए गैर-सरकारी सामाजिक संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाए। १० जाति सूचक उपनाम का प्रयोग सरकारी, अद्र्ध-सरकारी एवं सरकारी सहायता प्राप्त विभागों एवं संस्थाओं में रोका जाए।

प्रस्ताव संख्या -७ भंगी मुक्ति

सर्वसम्मति से यह सम्मेलन सरकार से अनुरोध करता है कि सफाई मजदूरों के उत्थान के लिए पाखानों का सुधार किया जाए तथा फ्लस सिस्टम के लिए सुविधाएं दी जाएं ताकि हम भंगी विहीन समाज कायम कर सकें।

इसके साथ-साथ ऐसे प्रयत्न किए जाएं ताकि उन जातियों में से अधिक से अधिक लोग दूसरे काम अपना सकें

प्रस्ताव संख्या -८ कुछ कार्यक्रम

१. शासन, प्रशासन तथा सभी सरकारी संस्थाओं में कम से कम साठ प्रतिशत जगहें औरतों, आदिवासियों, अस्पृश्यों और पिछड़े मुसलमानों के लिए सुरक्षित रखना। २. औरत, आदिवासी, अस्पृश्य आदि दलितों के अलग संगठन बनाकर उन्हें व्यापक क्षेत्र में काम करने के अवसर देना। ३. सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में लेंगिक भेदभाव समाप्त करना। ४. शासकीय तथा सार्वजनिक स्तर पर जाहिर रूप में पुरोहित, मौलवी या पादरी द्वारा होने वाले संस्कारों की खिलाफत, शासन की तरफ से मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा तथा अन्ध धार्मिक संस्थानों को दिए जाने वाले अनुदान खत्म करना और धार्मिक सम्मेलनों में सरकारी प्रतिनिधि भेजने पर रोक लगाना। किसी तरह के भेदभाव प्रकट न हों इस तरह की पोशाक लोकप्रिय बनाना। चोटी, जनेऊ, दाढ़ी, गोषा, बुरका जैसे व्यक्ति व्यक्ति में भेद पैदा करने वाले रूढ़ चिन्हों और प्रतीकों के मानसिक बोझ से जनता को मुक्त करने की कोशिश करना।

५. सहभोज, हिन्दू-मुस्लिम घालमेल, छुआछूत विहीन पानी भरने की जगहें, जातिधर्म-निरपेक्ष बस्तियाँ, खेलकूद, कला, साहित्य, नाटक, कला-पथक आदि रचनात्मक कार्यक्रम करना। ६. विलास, ठाठ-बाट, दहेज-प्रथा से ब्याह न कराया जाए, इसके लिए विभाग बनाना तथा ब्राह्मण, मुल्ला या पादरी की मध्यस्थता वाली शादी और उपनयन संस्कारों का बहिष्कार। ७. पाठ्य पुस्तकों, शिक्षा संस्थाओं और सार्वजनिक संस्थानों में किए जाने वाले जाति-धर्म वाचक उल्लेखों का विरोध। ८. वर्णगत रूढ़ और गुलामी के संस्कार खत्म करने की कोशिश ९. शासन द्वारा अंतरजातीय और अंतरधर्मीय विवाह करने वालों को नौकरियों में प्राथमिकता। १०. जाति तोड़ो सम्मेलन संगठित ढंग से चलाना।