जादू तो होवै है दिमाग मैं / निर्देश निधि

Gadya Kosh से
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जीवन और मोक्ष, दोनों ही देने वाली गंगा के सान्निध्य में बसे उत्तरप्रदेश के जिला बिजनौर का सघन हरियाली में बसा, एक छोटा सा गाँव है- ‘फरीदपुर सधीरन’। यहीं रहती थी वह लौह महिला यानी मेरी दादी, जिसका नाम भगवंती था, क्या उपनाम था पता नहीं, शायद भगवंती देवी कह देते हों। उस वक्त साधारण परिवारों की स्त्रियों के नाम होना ही काफी था उपनाम कौन जानता, बस यों ही पुकार ली जातीं फलाने की माँ, ढिकाने की बऊ, या जिस गाँव की हुई उसके नाम से पुकार ली जातीं। जैसे दादी गाजीपुर की थी तो हुई ‘गाजीपुरनी’। अगर गाँव में गाजीपुर की दो बहुएँ थीं, तो किसी और तरह पुकारा गया, जैसे हमारे घर के दोनों तरफ गली थी, तो दादी को पुकारा गया-‘गलीवाली’।

ब्याह के समय तो खैर बच्ची थी वह मात्र दस बरस की, पर जिस दिन से वह गाँव के सीधे- साधे किसान मेघा सिंह के साथ गौना होकर आई थी, उसी दिन से गाँव में उसके रूप लावण्या की प्रसिद्धि फैल गई थी। ऐसी सुंदर बहू गाँव में अभी तक कोई आई नहीं थी। पाँच बरस के अंतराल में जो उसका रूप निखरा था, किसी ने सोचा न था कि पतले – दुबले, साँवले मेघा सिंह के घर में रूप संपदा की ऐसी चाँदनी बिखरने जा रही थी, चन्दन से तन की ऐसी बयार बहने वाली थी कि वह गुरूर- गुरूर हुआ जाएगा। तीखे नयन- नक्शों वाली गोरी- चिट्टी नवयौवना जाटनी, काली– सघन केशराशि, मिरियाह (थोड़े से बालों को लेकर माथे पर गूँथी गईं पतली- पतली कई चोटियाँ) गूँथे रहती। उन्नत मस्तक पर लाल सिंदूर का टीका लगाती, तो जैसे सुबह का सूरज सारा दिन उसके माथे पर दर्प के साथ खिला रहता। सुंदर देहयष्टि और गोरा, गुलाबी ताब तन। लंबी ऐसी कि गाँव के आधे मर्दों से अंगुल भर निकलती हुई। उन्नाबी रंग के लहँगे पर अपने ही हाथ की सिली आँगी (चोली) और करीने से तन पर लपेटी चटक रंग की ओढ़नी में राजसी शान से आँगन में चलती, तो देखने वाले देखते ही रह जाते। घनी बरौनियों वाली मोटी- मोटी हिरनी- सी, कातर आँखें उठा कर देखती, तो सामने वाले को सम्मोहन सा हो जाता।

उसके हाथों में कला भी गजब की थी। साग– भाजी, खाना– पीना, दूध– घी, साफ– सफाई, सिलाई- बुनाई का काम बेहद कुशलता से करती। हाथ से आँगी तो ऐसी बनाती कि मशीन की सिलाई को मात देती। उससे आँगी के डिजाइन सीखने के लिए गाँव भर की औरतें और लड़कियाँ उसके चारों तरफ मंडराती रहतीं। गारे की ल्हिसाई करते समय, दीवारों और कोठे – कोठियों पर सुंदर बेल- बूटे और कंगूरे बनाती। जिनके लिए वह गाँव भर में तो क्या, आस-पास के गाँवों में भी प्रसिद्ध हो गई थी। गाँव की औरतें जब अपने घर में ल्हिसाई करतीं, तो उसे अपने घर चलकर दीवारों पर बेलबूटे बनाने में मदद का आग्रह करतीं, और वह खुले दिल से उनकी मदद करना स्वीकारती।

धन- धान्य से भरा घर, राजकुमारी- सी सुंदर वह, जल्दी ही एक बेटी चन्द्रकुँवर और एक बेटे रोहिताश की माँ बन गई। कई पीढ़ियों बाद परिवार में दो बच्चे हुए थे। इस तरह ससुराल के घर को उसने खुशियों से भर दिया। अभी खुशियाँ कुछ पुरानी भी न पड़ी थीं कि नजराने लग गईं। अंग्रेजों की मिलीभगत से जमींदार ने मेघा सिंह पर अथाह लगान थोपने का षड्यंत्र किया और खुब्बा प्रधान को नियुक्त कर पल भर में नब्बे बीघा में से पिछहत्तर बीघा ज़मीन हड़प ली और सीधे- साधे मेघा सिंह बस हाथ मलते रह गए। अभी तो ग्यारह बरस की बेटी चन्द्रकुंवर का ब्याह ही किया था बस। बाकी तो ज़मीनें हाथ से निकल जाने का मलाल ही करते रहे। रोज़ दसियों बार कहते, ‘‘जमीदार की ताकत और औहदे के आग्गै मैं बेबस हो गया भगवंती, कुछ न कर सका और अपने रोहतास की सारी ज़मीनें मैंने देखते- देखते हाथ से निकलवा दीं, कल क्या मुँह दिखाऊँगा उसै ?’‘

‘तुम हिम्मत मत हारो जी, अपने बेट्टे- बेट्टी कू पढाँगे – लिखाँगे, अंग्रेज अफसरों जैसा अफसर बनाँगे। बस अब तो योई चारा है इज्जत सै दिन काटने का ।’ वो मेघा सिंह को हिम्मत बंधाती हुई कहती।

‘‘जो कल मैं न भी रया न, तो.........” -पति के अस्तित्व में तरल पदार्थ -सी घुली, घर की चारदीवारी में भविष्य के प्रति निश्चिंत थी वह। पति की बात सुनकर बहुत घबरा गई थी और बात बीच ही में काटकर पूछा था उसने, ‘‘क्यों तुम कहाँ कू जा रए हो ?’’

‘‘अरी भागवान जिंदगी और मौत उप्पर वाले ने अपने हाथ रक्खी हैं भाई, कल किन्ने देक्खा।”

वाकई, कल किसी ने नहीं देखा था। ज़मीन छिन जाने की अपनी गहरी उदासी में डूबे मेघा सिंह एक रात बेटे से बोले,‘‘मेरे मात्थे में बड़ा तेज दरद हो रया रोहतास, ज़रा मेरा मात्था मल दे बेट्टे।”

नौ बरस का छोटा सा बेटा अभी माथा मल ही रहा था कि पिता उसकी नन्ही - सी गोद में ढलकते चले गए और फिर कभी नहीं उठे। और भगवंती, अब उसका क्या होगा ? उसने तो कभी घर की दहलीज़ भी पार न की थी अकेले। अकेले सारा जीवन समाज के अंजान गलियारों में कैसे भटकेगी। उमर मात्र तीस- बत्तीस बरस, एड़ी से लेकर चोटी तक सौंदर्य से लबालब। सास– ससुर भी नहीं रहे थे, न जेठ- देवर न कोई खानदानी क्योंकि परिवार में कई पीढ़ियों से बस एक ही बेटा होता आया था। उसके समय में भी कौन सा सतयुग ही था जो बिना कुटुम- खानदान वाली ऐसी बला की खूबसूरत युवा अकेली स्त्री को लोग सात्विक दृष्टि से देखते। पर उस हिम्मती शेरनी पर गलत दृष्टि डालने की हिम्मत तो किसी की पड़ी नहीं कभी। सबके बीच अकेले रहकर खुद को सबसे बचाए रखने का कठिन कार्य कैसे किया होगा उसने, यह तो बस वही जान सकी होगी। खुद ने तो कड़ा अनुशासन साधा ही, छोटे से जिद्दी बेटे और बेटी को भी उसी कड़े अनुशासन के दायरे में ला खड़ा किया था उसने। मात्र पंद्रह बीघा ज़मीन, उस पर कोई कमाने वाला नहीं, किराए का हाली रखने की क्षमता भी नहीं। कैसे किया होगा सब ? वह इकलौती संतान थी अपने माता- पिता की, चाहती, तो अपना हिस्सा ले लेती पर, उसने सब जमीने अपने चचेरे भाइयों को दे दी थी। तंगी के दिनों में भी उस मानिनी ने कुछ माँगा नहीं था उनसे। अपनी बड़ी- सी सोने की नथ, जिसे वह सोते समय अपनी गर्दन में पहन लेती थी, उसने बच्चों की पढ़ाई के लिए, शुरुआती दिनों में ही बेच दी।

‘‘माँ बता न, सारे काम जादू सै ना हो सकते क्या ?” उसका जिद्दी और शैतान बेटा पूछता। वह उत्तर हाँ में देती, ‘‘हो क्यों न सकते रौतास, पर बेट्टे सैरा जादू तो होवै है दिमाग मेंई, जो तू इस कायदे (किताब) की सैरी बात अपने दिमाग मैं याद कल्लेगा, तो जादू तेरे दिमाग मैं पहुँच जागा।” अबोध बेटा अपना कायदा उठाता और लग जाता दिमाग में जादू भरने। जल्दी ही उसे भी ऐहसास हो गया कि जादू कहीं और नहीं, दिमाग में ही होता है। यही उसने बेटी चंद्रकुँवर को भी सिखाया और उसकी पढ़ाई भी जारी रखी ।

पति के साथ छोड़ जाने पर, घर के आँगन से, दालान और दालान से खेतों का रुख करने में, समाज का कितना विरोध सहना पड़ा होगा उसे, यह अनुमान लगाना मुश्किल तो नहीं। क्योंकि आज भी आधुनिक और शिक्षित समाज, किसी स्त्री के बाहर निकलने पर इस कदर तिलमिला उठता है कि उसकी अस्मिता को तार- तार कर देने पर आमादा हो जाता है। फिर उस समय तो स्त्री की स्वतन्त्रता न जाने कौन से तहखाने में बंद पड़ी सिसकती होगी। स्त्री स्वतन्त्रता, वह भी पति विहीना की ? यह तो कोई न्याय की बात न थी। पर राह बनाने वाला तो हर युग में, सकल वर्जनाओं को कूटकर अपनी राह की निर्मिति करता ही है, वैसे भी उसका समय लोपामुद्रा या घोषा और अपाला से प्राचीन तो नहीं ही था।

जिन उँगलियों और हाथों में तमाम कलाएँ भरी थीं, जब उन्हीं कलाभरी उँगलियों से उसने खेतों से खरपतवार उखाड़ी होंगी और उन्हीं कलाकार हाथों से फावड़ा चलाया होगा, बैलों की रस्सी थामी होगी और खेती में पुरुषों द्वारा किए जाने वाले तमाम काम किए होंगे, तो उन कलाकार नरम हाथों में न जाने कितने फफोले पड़े होंगे और फूटकर गहरे ज़ख्म बने होंगे। भरे यौवन में पति के चिरप्रस्थान का दर्द सीने में स्थायी खंजर बनकर न जाने कितना गहरा घुप गया होगा। पर मजाल थी जो किसी ने कोई एक सिसकी भी सुन ली हो उसकी।

बेटी चंद्रकुँवर जब तीसरी कक्षा में थी उसके ससुरालिए गौना करने पर अड़ गए, तो बोली थी, ‘‘गौना तो बेसक कल्लो समधी, पर मेरी चंदर पढ़ेगी ज़रूर। खर्चे की चिंता करियो मत, बो दूँगी मैं। जहाँ सै रोहतास की काप्पी – किताब आंगी होईं सै चंदर की बी।” इस शर्त पर चन्दर को विदा किया। खुद अनपढ़ होकर भी उस ज़माने में इतनी जागरूकता थी उसमें।

वह अपने खेत- खलिहान में निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती, अपने अधिकारों के लिए पंचों का रुख करती और अपने रोहतास को रखती हर वक्त, अपने ही साए में । जानती थी, बिना बाप का बालक है, राह भटका, तो अफसर नहीं, मजदूर बनेगा। पास के कस्बे हल्दौर के स्कूल में बेटा रोज़ गाँव से तीन– चार कोस दूर पैदल स्कूल जाता। पंद्रह बीघा ज़मीन में पेट पालना, बेटे की पढ़ाई– लिखाई, कुछ रकम चंद्रकुँवर की ससुराल को भी भेजती, उसका लेना- देना, तीज-त्योहार सबी तो किया होगा। जिद्दी बेटे को न जाने कौन से मनोविज्ञान से समझाया कि उसने फालतू बातों की ज़िद छोड़कर, उस ज़िद को पढ़ाई में लगा लिया। जितनी मेहनत खुद वह खेतों में कर रही थी, उतनी ही बेटे से पढ़ाई में करवा रही थी। बेटे ने भी मेहनत से कोई परहेज कभी नहीं किया। छुट्टी में माँ के साथ खेतों पर दिनभर काम कराता। रात को जागकर पढ़ाई करता। जब माँ को लगा कि ज़मीन तो बेटे की पढ़ाई में बाधा बन रही है, तो उसे जल्दी ही गाँव के शेखों को बटाई पर दे दिया।

उसका रोहतास पाँचवी तक सब कक्षाएँ अव्वल रहकर पास करता गया। राजा साहनपुरिया, जिले भर के मेधावी छात्रों को वजीफा देते थे, जिसकी रकम पाँच रुपये महीना थी। रोहतास को इतना मेधावी तो उसकी माँ ने बना ही दिया था कि उसका नाम भी रियासत साहनपुर तक पहुँच गया और वह वजीफा उसके हिस्से में भी आया ज़रूर। उस ज़माने में पाँच रुपये की रकम काफी थी पढ़ाई के लिए। क्या पढ़ना है, यह भी कोई बताने वाला नहीं था, सो रोहतास ने मिडिल क्लास ही तीन विषयों में कर लिया, तीनों बरस वह अव्वल रहा। दसवीं पास की, वह भी अव्वल दर्जे में। जिद्दी और कुशाग्र रोहतास को कठोर अनुशासन में रख कर भगवंती ने पढ़ाई में सफल बना लिया था।

अब नौकरी की बारी थी। उस जमाने में आम आदमी जिस पुलिस को देखकर खौफ़ खाता था, उसी पुलिस में भर्ती हो गया था बेसहारा भगवंती का बेटा। अपने गाँव का ही नहीं, वह तो आस – पड़ोस के भी दसियों गाँवों का पहला लड़का था जो पढ़- लिखकर पुलिस में भर्ती हुआ था। माँ भगवंती आत्मगौरव से भर उठी थी और बेटा रोहतास, जो अब चौधरी रोहिताश सिंह कहलाता, भर उठा था आत्मविश्वास से।

अब तो भगवंती की शान कुछ अलग ही हो गई थी। वह गाँव की महिला मुखिया - सी अपने दालान पर पड़े मूढ़े पर शान से बैठती, कली (छोटा हुक्का ) पीती, आकर दस लोग सलाम ठोकते, दस लोग राय माँगते। रुतबा इतना बढ़ा लिया था कि ज़मीन छीन लेने वाले ग्रामप्रधान तक को यह कहकर फटकार देती, ‘‘खुब्बा परधान मैं तुझसे बहुत नाखुस हूँ, तेरे फैसले मुझे न रास आते, या तेरी फलाँ बात मुझै कतई पसंद न आई, उसै ऐसे न वैसे करना चइए था।” अब वह ‘भगवंती देवी’ बनकर, अकस्मात् ही किसी की चाची, किसी की ताई, किसी की दादी बन गई थी, यानी सबकी सम्मानित हो गई थी, जैसे भय से प्रीत उपज गई थी।

युग कोई भी क्यों न हो, मनुष्य की मानसिकता बहुत अधिक बदलती नहीं हैं। ईर्ष्या हर युग में विभीषण - सी चिरजीवी रही है। अभी तक जो लोग चुपचाप देख रहे थे यह सोचकर कि अकेली औरत क्या तीर मार लेगी बेटे के भविष्य को सुधारने के लिए, अब बेटे को पुलिस में भेजने के दुष्परिणाम गिनाकर उसे परेशान करने लगे थे। औरतें कहतीं, ‘‘भेन्ना (बहन) भगवंती, हमनै तो अपने बालको कू भेज्जा कोय न पुलिस मैं, पुलिसवालों कू तो तमाम खून – खराब्बा करना पड़े है, आखिर ऊप्पर बी तो इंसाफ होगाई एक दिन, और कदी पुलिसवाले डकैत्तों के हाथ पड़ जाँ तो डकैत उन्हें मार दें हैं। इसलियो भेन्ना बाल्लक पुलिस सै तो दूर ही भले। तैन्ने क्या ज़ुलम करा भगवंती, अपना इकलौत्ता बेट्टा भेज दिया मरने कू। तू क्या सोच्चो बैट्ठी, अब्जा बो ज़िंदा लौटियावगा।” जिसका उत्तर वह एक तिर्यक् मुस्कान के साथ निर्भीकता और दृढ़ता से देती, ‘‘देख भेन्ना जो ऊप्पर वाले नै मेरी किस्मत मैं औलाद का सुख लिक्खा होगा, तो कोई माई का लाल, बाल बी बाँक्का न कर सकने का मेरे पूत का। और हाँ एक बात और बता दूँ, कान ला इंघे कू, पुलिस महकमा बिना पढ़े – लिक्खो की भर्ती ना करता।”

उस जुझारू, लौह महिला को नियति के साथ– साथ गाँव भर ने शह देनी चाही; पर उसने दी एक – एक को मात और अपनी ज़िंदगी चलाई अपनी तरह, अपनी शर्तों पर। वह तो गहरे गाड़े रही अपने पाँव, अपनी धरती में।

हालाँकि मेरे बचपन के ही रहते- रहते उसकी आयु का घट चुक गया, अतः मुझे बड़ी होकर उसके साक्षात्कारों का सौभाग्य नहीं मिल सका और उसके संघर्ष तो सदा मेरे अनदेखे ही रहे। पर अनदेखे रहकर भी वे अनजाने तो नहीं थे मेरे लिए। जब मैंने उसे देखा तब वह अपने सबसे आराम और सुख के दिनों में थी। उसने अपने बेटे को दिमाग़ में जादू भरना जो सिखा दिया था, सुख- समृद्धि, मान- सम्मान पाने का अचूक जादू। बेटे ने अपनी जादूगरी से उसके संघर्ष तो क्या उन संघर्षों की स्मृतियाँ तक उसके जेहन से उखाड़ फेंकी थीं। दादी के जेहन में न सही; पर उसके संघर्ष जीवित थे मेरे पिता की यादों में, मेरी इकलौती और प्यारी बुआ चंद्रकुँवर की आँखों में। और उन दोनों की आँखों और यादों से उसके उन रोंगटे खड़े कर देने वाले संघर्षों ने अपना घर बसा लिया था, मेरी आँखों में। बसाया भी कुछ ऐसे कि फिर कभी बेघर हुए ही नहीं।

उस शेरनी ने अपना मनोबल कभी टूटने नहीं दिया था। गाँव वालों को उस अकेली के इस कदर हिम्मती होने पर ईर्ष्या के साथ– साथ खीझ हो आई थी। अब उसकी हिम्मत को तोड़ना उन सबके पौरुष की रक्षा के लिए ज़रूरी हो गया था। इसका तरीका खोज निकाला गया। जमीदार ने ग्राम प्रधान खुब्बा को ट्रैक्टर लेकर उसकी ढउआ वाली ज़मीन जोतने के लिए भेज दिया। गाँव के पटवारी ने उसे चुपके से बता दिया- ‘‘गलीवाली खुब्बा थारी ज़मीन जोतनै गया।” वह तुरंत अपना डंडा लेकर भागी थी खेतों की तरफ, चलते ट्रैक्टर के सामने दोनों हाथ फैलाकर जा खड़ी हुई थी। खुब्बा प्रधान ने बहुत बहकाया-‘‘गलीवाली थारे बेट्टे कू हमने बयान्ना दे दिया है इस ज़मीन का।”

‘‘बेच्चेगा क्यों ? मेरा रोहतास तो ज़मीन खरीद्दगा अब।” कहकर वह खड़ी से ट्रैक्टर के सामने बैठ गई, और बोली, ‘‘जोत लियो जो मेरे बेट्टे नै बेच दई है तो, पर आ जान दो उसै, बाईस दिन बचे हैं बस, जब तक वो आ ना जाने का, मैं ना जोत्तन देने की एक खूड़ बी।” और उसने अपना खेत नहीं जोतने दिया था। बाईस दिन बाद खुब्बा प्रधान का झूठ पता चल ही गया था, जब पुलिस अफसर बेटा घर आया।

धीरे – धीरे बेटा अपनी छीनी हुई जमीने वापस खरीद रहा था। माँ ने कहा तो नहीं था कभी, पर यही चाहती थी वह भी। बचपन में बेटे के दिमाग में भरा हुआ, हर काम को चुटकियों में कर लेने वाला जादू काम आया। वरना इस तरह एक बेसहारा औरत का बच्चा भी कभी कुछ बन सकता था भला, ऐसा दस्तूर है ही कहाँ। जितने दुःख – तकलीफ माँ ने झेले थे बेटे के लिए, बेटे ने बदले में एक के बाद एक सफलता पाकर सूद समेत उसके आँचल में सुख और खुशियाँ उड़ेल दी थीं ।

बेटे के बहुत ज़िद करने पर भी वह स्थायी रूप से शहर बसने उसके साथ कभी नहीं गई। हाँ, जब फसल में देखने– करने को कुछ न होता, तो शान से जाती उसके पास और महीनों रहती। बेटे रोहताश ने अपनी बड़ी बेटी को दसवीं के बाद घर बैठाने का निर्णय कर लिया था, तब वो उनके पास ही थी। उसने हुक्म दिया, ‘‘खबरदार रोहतास जो ऐसा सोच्चा बी, मेरी पोत्तियों कू भी उतनाई पढ़इये, जितना मेरे पोत्तों कू पढ़ागा। उसके इस हुक्म की तामील न होने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

अगर बेटे रोहतास को खाने के लिए देर हो जाती, तो वो दबंग माँ सीधे थाने में उसके ऑफिस पहुँचती और डाँट लगाकर कहती, ‘‘रोहतास चल खाना खा, बाल्लक भूक्के बैट्ठे हैं तेरे इंतजार मैं, बस हो गया काम, चल बाक्की बाद मैं करिए।” बेटे के मातहत लोग हँसते, तो वो कहते, ‘‘हँस लो भाई, मैं तुम्हारा अफसर हूँ; पर ये तो मेरी भी अफसर है, आखिर माँ है मेरी।” और वे उठकर चुपचाप उसकी तेज़ चाल के पीछे- पीछे चल पड़ते।

जब वह बेसहारा भगवंती संसार से गई, तो उसके पास पहले से ज़्यादा जमीने थीं, पहले से ज़्यादा मान– सम्मान था, उसके बेटे के साथ– साथ, आस– पास के गाँवों तक उसका खुद का भी रुतबा था। पहले से बड़ा परिवार था। फरीदपुर सधीरन में उसके प्रिय खेत पर ट्यूबवैल के पास उसकी समाधि बनवाई गई; ताकि वह आसपास रहे हमेशा और देती रहे प्रेरणा बेटे- बेटियों की बराबरी की और देती रहे संदेश दृढ़ता का, लगन और अनुशासन का, बताती रहे दूसरों से मिली शह को मात में बदलने के गुर, और याद दिला सके कि बच्चों के दिमाग में जादू कैसे भरा जाता है...

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