जानवर / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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उस पहाड़ी शहर की धर्मशाला में यह उसकी अंतिम रात थी। सर्दियों की उस बरसाती रात में जलते हुए हीटर के चारो ओर हम सब बैठे थे — मैं, दिनेश, करतार, महेश, मैडम मैरी और इरफ़ान।

"तो तुम्हें लगता है कि वहाँ कोई भयानक जानवर था?" मैंने पूछा।" और उसी जानवर ने उस लड़की को मार डाला?"

"हाँ, यह काम किसी जानवर का ही है।" उसने कहा।

"महानगर में जानवर कहाँ से आएगा? जानवर तो जंगल में होते हैं।" करतार बोला।

"कंक्रीट-जंगल में भी वहशी जानवर होते हैं।" उसने एक जलती हुई निगाह हम सब पर डालते हुए कहा।

"अब तुम क्या करोगे, दिनेश? पुलिस को तुम पर शक है। तुम आगे कहाँ जाओगे? आगे तो जंगल है। वहाँ खूँखार जानवर रहते हैं॥" मैडम मैरी ने चिंता जताई।

"वे उन वहशी जानवरों से ख़तरनाक नहीं होंगे जो कंक्रीट-जंगलों में रहते हैं।" उसने कहा।

"कौन से कंक्रीट - जंगल?" मैंने पूछा।

"जिन में इंसान नाम के दरिंदे रहते हैं।" उसकी निगाहें हम सब को चीर रही थीं।

" अगर तुमने कुछ नहीं किया है तो तुम भागे-भागे क्यों फिर रहे हो,

दिनेश?" इरफ़ान ने पूछा।

"मैं दुनिया से नहीं, अपने वजूद के उस हिस्से से भाग रहा हूँ जिस में जानवर के अंश हैं।" उसने ऐसे कहा जैसे वह रोज़मर्रा की कोई सामान्य बात कह रहा हो।

वह दिल्ली में एक पत्रकार था। मीडिया में सक्रिय था। फिर एक दिन अचानक उसके पड़ोस में रहने वाली उसकी एक महिला सहकर्मी की निर्मम हत्या हो गई थी। शक की सुई उस पर भी गई। लेकिन उसका कहना था कि वह बेक़सूर था। उसे फँसाया जा रहा था।

बाहर बारिश होने लगी थी। ठंड बढ़ गई थी। हमने अपने इर्द-गिर्द कम्बल को कस कर लपेट लिया।

"... हाँ, मैं कह रहा था कि मैं मुजरिम हूँ। लेकिन मैंने उस लड़की का क़त्ल नहीं किया।" वह उत्तेजित हो कर बोला।

"क्या मतलब?" करतार ने पूछा।

"यारों, मैं उसी तरह मुजरिम हूँ जिस तरह तुम सब हो। हम सब दुनिया में होने वाले हर अपराध, हर गुनाह के लिए समान रूप से दोषी हैं, मुजरिम हैं, क्योंकि हम सब कुछ देखते हैं फिर भी ख़ामोश रह जाते हैं। हम सच्चाई के पक्ष में खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। हम अन्याय का विरोध करने के लिए साहस नहीं बटोर पाते हैं। इस लिहाज़ से मैं भी तुम सब की तरह ही मुजरिम हूँ।"

"और वह क़त्ल?"

"केवल वही क़त्ल क्यों? ऐसे सैकड़ों क़त्ल हुए हैं, रोज़ हो रहे हैं। जब तक बात हम तक नहीं आती, हम इन्हें आँकड़े भर मान कर पहले जैसा जिए चले जाते हैं। जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। यह अंधा स्वार्थ ही एक दिन इंसान को ले डूबेगा।" वह आवेश में आ कर बोला।

तभी पूरे इलाक़े की बिजली चली गई. कमरे में कुछ देर हीटर के गरम रॉड की नारंगी रोशनी रही। फिर अँधेरा गाढ़ा हो कर सबके चेहरों पर चिपक गया।

हम में से किसी ने टॉर्च जला कर उसकी रोशनी छत की ओर कर दी। लगा जैसे हम सब सदियों से यूँ ही एक साथ उस मद्धिम उजाले में बैठे हुए हैं — उस सुबह की प्रतीक्षा में जो न जाने कब आएगी।

"तो वह क़त्ल तुमने नहीं किया?" मैंने पूछा।

"मैंने क़त्ल किया है। हाँ मैंने क़त्ल किया है। लेकिन अपनी अंतरात्मा का। अपने विवेक का। अपने भीतर की आवाज़ का। कई बार मैंने ऐसे समझौते किए हैं जो मुझे नहीं करने चाहिए थे। लेकिन यारो, उस लड़की का क़त्ल मैंने नहीं किया है।" वह बोला।

"तो पुलिस तुम्हें हत्यारा क्यों समझती है, दिनेश? इस क़त्ल के लिए वह तुम पर शक क्यों कर रही है?" करतार ने पूछा।

"कितनी अजीब बात है, दिनेश," अब वह खुद से मुख़ातिब था, " कितनी अजीब बात है कि जो क़त्ल वाकई तुमने किए उनके लिए तुम्हें कभी किसी ने मुजरिम नहीं ठहराया। जब तुमने अपने ज़मीर का क़त्ल किया, तब सब चुप रहे। जब तुमने अपनी अंतरात्मा को मारा, तब भी तुम अपराधी नहीं ठहराए गए। जब तुमने अपने विवेक की हत्या की, तब भी तुम गिरफ़्तार नहीं किए गए। कितनी अजीब बात है, दिनेश कि उन्होंने तुम पर उन क़त्लों के इल्ज़ाम लगाए जो तुमने कभी किए ही नहीं... यारो, मैं मानता हूँ कि मैं क़ातिल हूँ। लेकिन उस तरह, जिस तरह तुम सब भी क़ातिल हो। " वह बोलता चला जा रहा था। हम सब ध्यान से उसकी बात सुन रहे थे।

"... मैं भी तुम सब की तरह आँखें बंद किए जिए जा रहा था। लेकिन एक रात अचानक मेरी लम्बी नींद खुल गई. मैंने अपने आस-पास देखा। पूरी इंसानियत के हाथ ख़ून से रंगे हुए थे। सब के चेहरों पर ख़ून के छींटे थे। सब के कपडे ख़ून से लाल हो गए थे। चारो ओर केवल लाल रंग नज़र आ रहा था। लहू का लाल रंग। बाक़ी सभी रंग न जाने कहाँ खो गए थे। मैंने अपने कपड़ों को छुआ। मेरे हाथों में ख़ून लगा हुआ था। बचपन से उस दिन तक मेरे भीतर के हैवान ने आगे बढ़ने के लिए, समझौते करने के लिए जिन-जिन सच्चाइयों को मारा, उन सब का चिपचिपा लहू मेरे हाथों में लगा हुआ था। मेरे चारो ओर बर्बर हैवान थे, जिनके मुँह पर ख़ून लगा हुआ था। उस रात के बाद से मैं लगातार भाग रहा हूँ। शायद अपने -आप से। लेकिन खुद से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल है, यारो।"

उसकी आवाज़ बहुत दूर से आ रही थी। जैसे सैकड़ों-हज़ारों बरस की दूरी से। असंख्य पीढ़ियाँ लाँघकर। या जैसे वह आवाज़ ब्रह्मांड के अंतिम छोर पर स्थित किसी सुदूर ग्रह-नक्षत्र और आकाशगंगा से आता हुआ कोई विरल संकेत हो। हम सब अवाक् हो कर उसकी ओर देख रहे थे।

"... मेरा जिस्म वह क़ब्र है जिसमें मेरी सच्चाइयों की लाशें दफ़्न हैं। मेरी अंतरात्मा की लाश, मेरे ज़मीर की लाश और मेरे विवेक की लाश भी यहीं दफ़्न हैं। हाँ, मैं मानता हूँ कि मैं क़ातिल हूँ। लेकिन उस लड़की का क़त्ल मैंने नहीं किया है, यारो।" इतना कह कर वह चुप हो गया।

उसकी बातें सुनते-सुनते हम सब थक गए थे। उसकी बातों का बोझ हमारे ज़हन पर था। नींद हम पर फिर से हावी होने लगी थी। बाहर बारिश शायद रुक गई थी। सन्नाटे में कभी-कभी कोई झींगुर बोलता और फिर चुप हो जाता।

"अपने चारो ओर यह ख़ून-ख़राबा देख रहे हो? अब जानवर जंगल में नहीं, कंक्रीट-जंगल में रहते हैं, यारो। अब जानवर बाहर नहीं, हमारे भीतर मौजूद हैं, यारो। अब हम आगे नहीं जा रहे, वापस पाषाण-युग में लौट रहे हैं, यारो।"

वह धीमे स्वर में कह रहा था।

फिर हम सो गए. जब अगली सुबह हम उठे तो वह वहाँ नहीं था। धूप दबे पाँव कमरे में घुस आई थी और सामने की दीवार को रोशन कर रही थी, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में चौक से लिखा था:

" लाखों साल लग गए

हमें जानवर से इंसान बनने में,

चंद सदियाँ ही लगीं हमें

इंसान से फिर जानवर बनने में। "