जाने क्या तूने कही / ममता व्यास

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जाने क्या तूने कही? जाने क्या मैंने सुनी? बात बन्ध-सी गई। कभी-कभी ऐसा होता है की आप अपनी बात दूसरे तक पहुंचा तो देते हैं लेकिन वो आपकी बात समझ ही नहीं पाता। इसी तरह कभी-कभी आपको समझ नहीं आती कि अगला क्या कहना चाहता है। अपनी बात को सामने वाले तक उसी रूप में पहुंचा देना जिस रूप में आपने उसे महसूस किया है; ये इक़ हुनर है। एक दूसरे से संपर्क स्थापित करने के लिए। इस समाज में रहने के लिए यह ज़रूरी होता है कि हम एक-दूसरे की बात समझें। अपनी बात को समझाने के लिए हम भाषा को माध्यम बनाते हैं। इस सम्प्रेषण की क्रिया में सिर्फ शब्दों का ही आदान-प्रदान ही नहीं होता अपितु क्रियाओं का भी आदान-प्रदान होता है। जैसे जब हम बाजार में कुछ खरीदने जाते हैं, तो ज़रुरी नहीं कि ग्राहक और विक्रेता के बीच लम्बी बात हो। दोनों आपस में कोई शब्द कहे बिना भी सम्प्रेषण करते हैं।

सम्प्रेषण के लिए आपसी समझ बहुत मायने रखती है। आप सामने वाले को क्या समझते है? भरोसमंद,चतुर और जानकार? या उसके बारे में बुरी राय रखते है कि वो बेवकूफ हैं कम दिमाग है आदि... इसके अलावा सम्प्रेषण के लिए सक्रियता भी अनिवार्य है। मनुष्य द्वारा सृजित कोई भी वस्तु (घर, कविता, कहानी, पुस्तक, गीत या लगाया कोई पेड़ आदि) ये सब मनुष्य की रचना है। मनुष्य द्वारा किसी भी चीज की रचना कर लेना ही काफी नहीं हो जाता। उस चीज़ के जरिये वो अपनी विशेषताओं और अपने व्यक्तित्व को दूसरों तक पहुंचाता है। समाज में अपनी हैसियत भी जताता है। क्योंकि उसकी बनाई हुई वस्तु दूसरे लोगो के लिए बनाई गई है, और यही वस्तु दूसरे लोगों के बीच सम्बन्ध स्थापित करती है। और सम्प्रेषण को सार्थक बनाती है।

लोगों के बीच सम्प्रेषण की तुलना सिर्फ वस्तुओं और तार-संचार मात्र से भी नहीं की जा सकती, जिसमें सिर्फ शाब्दिक संदेशों का विनिमय मात्र होता है। इक़ स्वस्थ सम्प्रेषण में भावनाएँ भी अपना काम बखूबी करती है। बिन भावनाओं के तो शब्द खोखले होते है। कहते भी है ना दिल से कही बात ही दिल तक जाती है।

सामान्यतः एक ही व्यक्ति अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग भूमिकाएं निभाता है। उदाहरण के लिए एक ही व्यक्ति कारखाने में प्रबन्धक, डाक्टर के लिए रोगी (यदि वो बीमार है तो) घर में माँ का आज्ञाकारी बेटा, मेहमानों के लिए अच्छा मेजबान आदि सभी कुछ हो सकता है। एक व्यक्ति जब अलग-अलग रूप धर कर समाज में रहता है तो उसकी भूमिकाओं की अनेकता बहुत बार उनके बीच टकराव पैदा कर देती है। उदहारण के लिए इक़ टीचर के रूप में जब कोई व्यक्ति अपने बेटे में कमियाँ देखता है तो उसका रुख कठोर हो जाता है; लेकिन जब उस बच्चे को वो अपने बेटे के रूप में देखता है तो क्रोध शांत हो जाता है।

व्यक्ति की वास्तविक इच्छाएँ कुछ भी क्यों ना हों उसके परिवेश के लोग उससे एक निश्चित ढंग के व्यवहार की अपेक्षा करते है। समाज भूमिका निर्वाह के ढंग का नियंत्रण और मूल्यांकन करता है... वो भी अपने तरीके से।

बहरहाल हम सभी जानते समझते हैं कि सम्प्रेषण की प्रक्रिया सफल तभी मानी जाती है जब उसमें भाग लेने वाले पक्षों का व्यवहार उनकी पारस्परिक अपेक्षाओं को पूरा करता है। दूसरे की अपेक्षाओं का पूर्वानुमान और उनके अनुरूप व्यवहार करने की व्यक्ति की क्षमता तथा योग्यता ही उसे सफल व्यक्ति बनाती है। यानी व्यक्ति का व्यवहार कुशल होना उसकी सफलता की गारंटी है।

बेशक, इस बात का ये मतलब बिलकुल नहीं है कि व्यवहार कुशल आदमी को हमेशा हर हाल में और हरेक के साथ विन्रम ही दिखना चाहिए। अगर सिद्धांत और विश्वास के ऊपर आंच आने लगे तो व्यक्ति को अपने व्यवहार में कठोरता लानी ही होती है। फिर भी दैनिक जीवन में दूसरे लोगों की अपेक्षाओं का ग़लत अर्थ लगाना उनकी अवहेलना करने को व्यवहार कुशलता की कमी ही माना जाता है।

लेकिन हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि व्यक्तियों के किसी भी समूह में सभी जीवित व्यक्ति होते हैं और उनमे से हर इक़ की भावनाओं का समुचित ध्यान रखा जाना चाहिए। समूह में परस्पर मनोवैज्ञानिक सम्पर्क की ज़रा-सी कमी के भी चाहे वह थोड़े समय के लिए ही क्यों ना हो, गंभीर व अप्रत्याशित परिणाम निकल सकते हैं। इसलिए हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम हमेशा दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखें। ना हमारी बात से कोई आहत हो और ना हमें कोई आहत कर सके। अपनी बात ठीक तरीके से समझा सके और दूसरों की बात को भी हम भली-भांति समझ सके। ताकि कोई ये ना कहे... जाने क्या तूने कही...