जायसी की जानकारी / मलिक मुहम्मद जायसी / रामचन्द्र शुक्ल

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साहित्य की दृष्टि से जायसी की रचना की जो थोड़ी बहुत समीक्षा हुई उससे यह तो प्रकट ही है कि उन्हें भारतीय काव्यपद्धति और भाषासाहित्य का अच्छा परिचय था। भिन्न-भिन्न अलंकारों की योजना, काव्यसिद्ध उक्तियों का विस्तृत समावेश (जैसा कि नखशिखवर्णन में है); प्रबंध काव्य के भीतर निर्दिष्ट वर्ण्य विषयों का सन्निवेश (जैसे जलक्रीड़ा, समुद्रवर्णन) प्रचलित काव्यरीति के परिज्ञान के परिचायक हैं। यह परिज्ञान किस प्रकार का था, यह ठीक नहीं कहा जा सकता। वे बहुश्रुत थे, बहुत प्रकार के लोगों से उनका सत्संग था, यह तो आरंभ में ही कहा जा चुका है। पर उनके पहले चारणों के वीरकाव्यों और कबीर आदि कुछ निर्गुणोपासक भक्तों की वाणियों के अतिरिक्त और नाम लेने लायक काव्यों का पता न होने से यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने काव्यों और रीतिग्रंथों का क्रमपूर्वक अध्‍ययन किया था। ग्रियर्सन साहब ने लिखा है कि जायस में आ कर जायसी ने पंडितों से संस्कृत काव्यरीति का अध्ययन किया। इस अनुमान का उन्होंने कोई आधार नहीं बताया। संस्कृत ज्ञान का अनुमान जायसी की रचना से तो नहीं होता। उनका संस्कृत शब्दभंडार बहुत परिमित है। उदाहरण के लिए 'सूर्य' और 'चंद्र' ये दो शब्द लीजिए जिनका व्यवहार जायसी ने इतना अधिक किया है कि जी ऊब जाता है। इन दोनों शब्दों के कितने अधिक पर्याय संस्कृत में हैं, यह हिंदी जाननेवाले भी जानते हैं। पर जायसी ने सूर्य के लिए रवि, भानु और दिनअर (दिनकर) और चंद्र के लिए ससि, ससहर और मयंक (मृगांक) शब्दों का ही व्यवहार किया है। दूसरी बात यह है कि संस्कृताभ्यासी से चंद्र को स्त्रीरूप में कल्पित करते न बनेगा।

यह आरंभ में ही कह आए हैं कि पदमावत के ढंग के चरितकाव्य जायसी के पहले बन चुके थे। अत: जायसी ने काव्यशैली किसी पंडित से न सीख कर किसी कवि से सीखी। उस समय काव्य व्यवसायियों को प्राकृत और अपभ्रंश से पूर्ण परिचित होना पड़ता था। छंद और रीति आदि के परिज्ञान के लिए भाषाकविजन प्राकृत और अपभ्रंश का सहारा लेते थे। ऐसे ही किसी कवि से जायसी ने काव्यरीति सीखी होगी। पदमावत में 'दिनअर', 'ससहर', 'अहुठ', 'भुवाल', 'बिसहर', 'पुहुमी' आदि शब्दों का प्रयोग तथा प्राकृत अपभ्रंश की पुरानी प्रथा के अनुसार 'हि' विभक्ति का सब कारकों में व्यवहार देख यह दृढ़ अनुमान होता है कि जायसी ने किसी से भाषा-काव्य-परंपरा की जानकारी प्राप्त की थी। 'सैरंधी' (सैरंध्री=द्रौपदी), 'गंगेऊ' (गांगेय=भीष्म), 'पारथ' ऐसे अप्रचलित शब्दों का जो कहीं-कहीं उन्होंने व्यवहार किया है वह इसी जानकारी के बल से न कि संस्कृत के अभ्यास के बल से।

यह ठीक है कि संस्कृत कवियों के भाव कहीं-कहीं ज्यों के त्यों पाए जाते हैं, जैसे इस दोहे में -

भवँर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।

आइ परा कइ हस्ति तहँ, चूर किएउ सो बेलि॥

यह इस श्लोक का अनुवाद जान पड़ता है -

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं

भान्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्री।

इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे

हा हन्त! हन्त! नलिनीं गज उज्जहार॥

इसी प्रकार

'शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे।

साधवो न हि सर्वत्र, चंदनं न वने वने॥'

चाणक्य के इस श्लोक का हिंदी रूप भी पदमावत में मौजूद है -

थल थल नग न होहिं जेहि जोती। जल जल सीप न उपनहिं मोती॥

बन बन बिरिछ न चंदन होई। तन तन बिरह न उपनै सोई॥

इस प्रकार के भाव भी उन्हें भाषा काव्य द्वारा ही मिले।

छंद शास्‍त्र के ज्ञान का प्रमाण जायसी की रचनाओं से नहीं मिलता। चौपाई बहुत ही सीधा छंद है, पर उसमें भी कहीं 16 मात्राएँ हैं, कहीं 15 ही। दोहों के चरण तो प्राय: गड़बड़ हैं। तुलसीदास जी के दोहों में भी कहीं-कहीं मात्राएँ घटती हैं, पर जायसी में तो बहुत कम दोहे ऐसे मिलेंगे जो ठीक उतरते हों। विषम चरण कोई 11 मात्राओं का है, कोई 16 - जैसे,

(क) जो चाहा सो चीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह।

(ख) काया मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत॥

'नखशिख' में आए हुए उपमान प्राय: सब काव्यप्रसिद्ध ही हैं। बहुत-सी चमत्कारपूर्ण उक्तियाँ भी पुरानी हैं जिनका प्रयोग सूर आदि और समसामयिक कवियों ने भी किया है। उदाहरण के लिए यह मनोहर उक्ति लीजिए -

गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि वाहन तहँ रहै ओनाई॥

सूरदास जी ने भी इस उक्ति की योजना की है -

दूर करहु बीना कर धरिबो।

मोहे मृग नाहीं रथ हाँक्यौ, नाहिं न होत चंद को ढरिबो॥

पर जायसी ने इस उक्ति को बढ़ा कर कुछ और भी सुसज्जित किया है।

यह तो हुई साहित्य की अभिज्ञता। अब थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि और विषयों का ज्ञान उनका कैसा था। पदमावत में ज्योतिष, हठयोग, कामशास्‍त्र और रसायन की बातें भी आई हैं। हमारी समझ में ज्योतिष को छोड़ कर और बातों की जानकारी उन्हें सत्संग द्वारा प्राप्त हुई थी, न कि ग्रंथों के अध्‍ययन द्वारा। किसी कवि की रचना में किसी शास्‍त्र की साधारण बातों का कुछ उल्लेख देख चट यह कह बैठना कि वह उस शास्‍त्र का बड़ा भारी पंडित था, अपनी भी हँसी करना है और उस कवि की भी। 'कहत सबै बेंदी दिए ऑंक दसगुनो होत' और 'यह जग काँचो काँच सो मैं समुझ्यौ निरधार' को आगे कर के जो लोग कह बैठते हैं कि 'वाह! वाह! कवि गणित और वेदांत शास्‍त्र का कैसा भारी पंडित था', उन्हें विचार से काम लेने और वाणी का संयम रखने का अभ्यास करना चाहिए। 'अहा हा!' और 'वाह वाह' वाली इस चाल की समालोचना जितनी ही जल्द बंद हो उतना ही अच्छा। सिद्धांतों पर विचार करते समय वेदांत की कई बातों की झलक हम पदमावत और अखरावट में दिखा आए हैं। पर उसका यह अभिप्राय नहीं है कि जायसी 'शारीरक भाष्य' और 'पंचदशी' घोखे बैठे थे। 'पंचभूत' शब्द का प्रयोग उन्होंने पाँच ज्ञानेंद्रियाँ के अर्थ में किया है। यह बात दर्शनशास्‍त्र का अभ्यास नहीं सूचित करती।

हिंदुओं के पौराणिक वृत्तों की जानकारी जायसी को थी, पर बहुत पक्की न थी। कुबेर का स्थान अलकापुरी है, इसका पता उन्हें था क्योंकि वह बादशाह की भेजी योगिनी से कहलाते हैं - 'गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू'। 'नारद' को जो उन्होंने शैतान के स्थान पर रखा है, उसका कारण सूफियों की प्रवृत्तिविशेष है। सूफी शैतान को ईश्वर का विरोधी नहीं मानते बल्कि उसकी आज्ञा के अनुसार अनधिकारियों को ईश्वर तक पहुँचने से रोकनेवाला मानते हैं। 'सरग' शब्द जायसी आसमान के अर्थ में ही लाए हैं। हिंदू कथाओं का यदि उन्हें अच्छा परिचय होता तो वे चंद्रमा को स्‍त्री कभी न बनाते। उनके चंद्रमा वही हैं जिन्हें अवध की स्त्रियाँ 'चंदा माई! धाय आव' कह कर बुलाती हैं। सप्तद्वीपों के तो उन्होंने कहीं नाम नहीं लिए हैं, पर सात समुद्रों के नाम उन्हें समुद्रवर्णन में गिनाने पड़े हैं। इन नामों में दो (किलकिला और मानसर) पुराणों के अनुसार नहीं हैं। पुराणों में एक ही मानसरोवर उत्तर में माना गया है पर जायसी ने उसे सिंहल के पास कहा और सात समुद्रों में गिन लिया है। पर रामायण, महाभारत आदि के प्रसिद्ध पात्रों के स्वरूप से वे अच्छी तरह परिचित थे। इंद्र द्वारा कर्ण से अक्षय कवच ले लिए जाने तथा इसी प्रकार के और प्रसंगों का उन्होंने उल्लेख किया है।

अब उनका भौगोलिक ज्ञान लीजिए। इतिहास और भूगोल दोनों में हमारे देश के पुराने लोग कच्चे होते थे। अपने देश के ही भिन्न-भिन्न प्रदेशों और स्थानों की यदि ठीक ठीक जानकारी उस समय किसी को हो तो उसे बहुत समझना चाहिए। अपने देश के बाहर की बात जानना तो कई सौ वर्षों से भारतवासी छोड़े हुए थे। सिंहलद्वीप, लंका आदि के नाम ही जायसी के समय में याद रह गए थे। अत: जायसी को यदि सिंहल की ठीक-ठीक स्थिति का पता न हो तो कोई आश्चर्य नहीं। जायसी सिंहलद्वीप को चित्तौर से पूरब समझते थे, जैसा कि इस चौपाई से प्रकट होता है -

पच्छिउँ कर बर, पुरुब क बारी।

जोरी लिखी न होइ निनारी॥

लंका को वे सिंहल के दक्षिण मानते थे यह बात उस प्रसंग को ध्यान दे कर पढ़ने से विदित हो जाती है जिसमें सिंहल से लौटते समय तूफान में बहकर रत्नसेन के जहाज नष्ट हुए थे। जायसी लिखते हैं कि जहाज आधे समुद्र में भी नहीं आए थे कि उत्तर की हवा बड़े जोर से उठी -

आधे समुद ते आए नाहीं।

उठी बाउ ऑंधी उतराहीं॥

इस तूफान के कारण जहाज भटक कर लंका की ओर चल पड़े -

बोहित चले जो चितउर ताके। भए कुपंथ लंक दिसि हाँके॥

उत्तर की ओर से ऑंधी आने से जहाज दक्षिण की ओर ही जायँगे। इससे लंका सिंहल से दक्षिण की ओर हुई।

इस अज्ञान के होते हुए भी जनता के बीच प्राचीन काल की विलक्षण स्मृति का आभास पदमावत में मिलता है। भारत के प्राचीन इतिहास का विस्तृत परिचय रखनेवाले मात्र यह जानते होंगे कि प्राचीन हिंदुओं के अर्णवपोत पूर्वीय समुद्रों में बराबर दौड़ा करते थे। पच्छिम के समुद्रों में जाने का प्रमाण तो वैसा नहीं मिलता पर पूर्वीय समुद्रों में जाने के चिह्न अब तक वर्तमान हैं। सुमात्रा, जावा आदि द्वीपों में हिंदू मंदिरों के चिह्न तथा सुदूर बाली, लंबक आदि द्वीपों में हिंदुओं की बस्ती अब तक पाई जाती है। बंगाल की खाड़ी से ले कर प्रशांत महासागर के बीच होते हुए चीन तक हिंदुओं के जहाज जाते थे। ताम्रलिप्ति (आधुनिक तमलूक जो मेदिनीपुर जिले में है) और कलिंग में पूर्व समुद्र में जाने के लिए प्रसिद्ध बंदरगाह थे। फाहियान नामक चीनी यात्री, जो द्वितीय चंद्रगुप्त के समय भारतवर्ष में आया था, ताम्रलिप्ति ही से जहाज पर बैठ कर सिंहल और जावा होता हुआ अपने देश को लौटा था। उड़ीसा के दक्षिण कलिंग देश में कोरिंगापटम (कलिंगपट्टन) नाम का एक पुराना नगर अब भी समुद्रतट पर है। बाली और लंबक टापुओं के हिंदू अपने को कलिंग ही से आए हुए बताते हैं। जायसी के समय में यद्यपि हिंदुओं का भारतवर्ष के बाहर जाना बंद हो गया था पर समुद्र के उस पुराने घाट (कलिंग) की स्मृति बनी हुई थी -

आगे पाव उडैसा, बाएँ दिए सो बाट। दहिनाबरत देइकै उतरु समुद के घाट॥

यहीं तक नहीं, पूर्वीय समुद्र की कुछ विशेष बातें भी उस समय तक लोकस्मृति में बनी हुई थीं। प्रशांत महासागर के दक्षिण भाग में मूँगों से बने हुए टापू बहुत से हैं। कहीं- कहीं मूँगों की तह जमते-जमते टीले बन जाते हैं। कपूर निकालनेवाले पेड़ भी प्रशांत महासागर के टापुओं में बहुत हैं। इन दोनों बातों पर प्राचीन समुद्रयात्रियों का ध्यान विशेष रूप से गया होगा। इनका स्मरण जनता के बीच बना हुआ था, इसका पता जायसी इस प्रकार देते हैं -

राजा जाइ तहाँ बहि लागा। जहाँ न कोई संदेसी कागा॥

तहाँ एक परबत अह डूँगा। जहवाँ सब कपूर और मूँगा॥

जायसी ने चित्तौर से सिंहल जाने का जो मार्ग वर्णन किया है वह यद्यपि बहुत संक्षिप्त है पर उससे कवि की दक्षिण अर्थात् मध्‍य प्रदेश के स्थानों की जानकारी प्रकट होती है। चित्तौर से रत्नसेन पूर्व की ओर चले हैं। कुछ दूर चलने पर जायसी कहते हैं -

'दहिने बिदर, चँदेरी बाएँ॥

'चँदेरी' आजकल ग्वालियर राज्य के अंतर्गत है और ललितपुर से पश्चिम पड़ता है। विदर गोलकुंडे के पासवाला सुदूर दक्षिण का विदर नहीं बल्कि बरार (प्राचीन विदर्भ) के अंतर्गत एक स्थान था1। जायसी का विदर से अभिप्राय बिदर्भ या बरार से है। रत्नसेन चित्तौर से कुछ दक्षिण लिए पूर्व की ओर चला और रतलाम के पास आ निकला जहाँ से चंदेरी बाईं ओर या उत्तर और बरार दक्षिण पड़ेगा। यहाँ से शुक राजा को विजयगढ़ (जो सूबा मालवा के भीतर था और जिसका प्रधान नगर विजयगढ़ था) होते हुए और अँधियार खटोला (होशंगाबाद और सागर के बीच के प्रदेश) बाईं या उत्तर की ओर छोड़ते हुए गोंड़ों के देश गोंडवाने में पहुँचने को कहता है -

सुनु मत, काज चहसि जौ साजा। बीजानगर विजयगढ़ राजा॥

पहुँचहु जहाँ गोड़ औ कोला। तजि बाएँ अँधियार खटोला॥

विजयगढ़ इंदौर के दक्षिण नर्मदा के दोनों और फैला हुआ राज्य था। तात्पर्य यह कि रत्नसेन रतलाम के पास से चल कर इंदौर के दक्षिण नर्मदा के किनारे होता हुआ हँड़िया या हरदा के पास निकला जहाँ से पूरब जानेवाले को होशंगाबाद (अँधियार खटोला) उत्तर या बाईं ओर पड़ेगा। हँड़िया बरार की उत्तरी सीमा पर था और बरार के दक्षिण तिलंगाना देश माना जाता था जो आजकल के बरार का ही दक्षिणी भाग है। हँड़िया के उत्तर जबलपुर पड़ेगा जिसके पास गढ़कंटक था। अत: इस स्थान पर (हँड़िया के पास) शुक का कहना बहुत ही ठीक है कि -

दक्खिन दहिने रहहिं तिलंगा। उत्तर बाएँ गढ़ काटंगा॥

1. आईने अकबरी में सूबा बरार का उत्तर दक्षिण विस्तार हँड़िया (मध्‍य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर नर्मदा के किनारे एक छोटा कस्बा) से बिदर तक 180 कोस लिखा है और बरार के दक्षिण तिलंगाना बताया गया है।

हँड़िया के पास से फिर आगे बढ़ने के लिए तोता इस प्रकार कहता है -

माँझ रतनपुर सिंहदुवारा। झारखंड देइ बाँव पहारा॥

यहाँ पर कवि ने केवल छंद के बंधन के कारण 'सिंहदुवारा' (छिंदवाड़ा) के पहले रतनपुर रख दिया है। हँड़िया के पास पूरब चलनेवाले को पहले छिंदवाड़ा पड़ेगा तब रतनपुर जो बिलासपुर जिले में है। रतनपुर से फिर शुक झारखंड (सरगुजा का जंगल) उत्तर छोड़ते हुए आगे बढ़ने को कहता है। यदि बराबर आगे बढ़ा जायगा तो चलनेवाला उड़ीसा में पहुँचेगा, अत: कुछ दूर बढ़ने पर उड़ीसा जानेवाला मार्ग छोड़ कर शुक रत्नसेन को दक्षिण की ओर घूम पड़ने को कहता है। दक्षिण घूमने पर कलिंग देश में समुद्र का घाट मिलेगा -

आगे पाव उड़ैसा, बाएं दिए सो बाट।

दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद के घाट॥

ऊपर के विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी ने चित्तौर से कलिंग तक जाने का मार्ग लिखा है वह यों ही ऊटपटाँग नहीं है। उत्तरोत्तर पड़नेवाले प्रदेशों का क्रम ठीक है।

जायसी को बहुत दूर दूर के स्थानों के नाम मालूम थे। बादशाह की दूती जब योगिनी बन कर चित्तौर गई है तब उसने अपने तीर्थाटन के वर्णन में बहुत से तीर्थों के नाम बताए हैं जिनमें से अधिकतर तो बहुत प्रसिद्ध हैं पर कुछ ऐसे अप्रसिद्ध स्थान भी आए हैं जिन्हें इधर के लोग कम जानते हैं, जैसे नागरकोट और बालनाथ का टीला -

गउमुख हरिद्वार फिरि कीन्हिउँ। नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ॥

ढूँढ़िउँ बालनाथ कर टीला। मथुरा मथिउँ न सो पिउ मीला॥

'नागरकोट' काँगड़े में है जहाँ लोग ज्वालादेवी के दर्शन को जाते हैं। 'बालनाथ का टीला' भी पंजाब में है। सिंध और झेलम के बीच सिंध सागर दोआब में जो नमक के पहाड़ पड़ते हैं उसी के अंतर्गत यह एक बहुत ऊँची पहाड़ी है जिसमें बालनाथ नामक एक योगी की गुफा है। 1 साधु यहाँ बहुत जाते हैं।

इतिहास का ज्ञान भी जायसी को जनसाधारण से बहुत अधिक था। इसका एक प्रमाण तो 'पदमावत' का प्रबंध ही है। जैसा कि आरंभ में कहा जा चुका है, पद्मिनी और हीरामन सूए की कहानी उत्तरीय भारत में, विशेषत: अवध में, बहुत दिनों से प्रसिद्ध चली आ रही है। कहानी बिल्कुल ज्यों की त्यों यही है। पर कहानी कहनेवाले राजा का नाम, बादशाह का नाम आदि कुछ भी नहीं बताते। वे यों ही कहते हैं कि 'एक राजा था', 'एक बादशाह था'। समय के फेर से जैसे कहानी इतिहास हो जाती है वैसे ही इतिहास कहानी। अत: जायसी ने जो चित्तौर, रत्नसेन, अलाउद्दीन,

1. बालनाथ नाथसंप्रदाय या गोरखपंथ के एक योगी हो गए हैं।

गोरा, बादल आदि नाम दे कर इस कहानी का वर्णन किया है उससे यह स्पष्ट है कि वे जानते थे कि घटना किस स्थान की और किस बादशाह के समय की है, पद्मिनी किसकी रानी थी, और किस राजपूत ने युद्ध में सबसे अधिक वीरता दिखाई थी। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन की और चढ़ाइयों का भी उन्हें पूरा पता था, जैसे देवगिरि और रणथंभौर गढ़ पर की चढ़ाई का। देवगिरि पर चढ़ाई अलाउद्दीन ने अपने चाचा सुलतान जलालुद्दीन के समय में ही सन् 1296 ई. में की थी। रणथंभौर पर चढ़ाई उसने बादशाह होने के चार वर्ष पीछे अर्थात् सन् 1300 में की थी पर उसे ले न सका था। दूसरे वर्ष सन् 1301 में रणथंभौर गढ़ टूटा है और प्रसिद्ध वीर हम्मीर मारे गए हैं। ये दोनों घटनाएँ चित्तौर टूटने (सन् 1301 ई.) के पहले की हैं, अत: इनका उल्लेख ग्रंथ में इतिहास की दृष्टि से अत्यंत उचित हुआ है।

अलाउद्दीन के समय की और घटनाओं का भी जायसी को पूरा पता था। मंगोलों के देश का नाम उन्होंने 'हरेव' लिखा है। अलाउद्दीन के समय में मंगोलों के कई आक्रमण हुए थे जिनमें सबसे जबरदस्त हमला सन् 1303 ई. में हुआ था। सन् 1303 ई. में ही चित्तौर पर अलाउद्दीन ने चढ़ाई की। अब देखिए मंगोलों की इस चढ़ाई का उल्लेख जायसी ने किस प्रकार किया है। अलाउद्दीन चित्तौर गढ़ को घेरे हुए है, इसी बीच में दिल्ली से चिट्ठी आती है -

एहि विधि ढील दीन्ह तब ताईं! दिल्ली तें अरदासैं आईं॥

पछिउँ हरेव दीन्हि जो पीठी। जो अब चढ़ा सौंह कै दीठी॥

जिन्ह भुइँ माथ गगन तेहि लागा। थाने उठे आव सब भागा॥

उहाँ साह चितउर गढ़ छावा। इहाँ देस अब होइ परावा॥

ज्योतिष का परिज्ञान जायसी का अच्छा प्रतीत होता है। रत्नसेन के सिंहलद्वीप से प्रस्थान करने के पहले उन्होंने जो यात्राविचार लिखा है वह बहुत विस्तृत भी है और ग्रंथों के अनुकूल भी। इस प्रसंग की उनकी बहुत सी चौपाइयाँ तो सर्वसाधारण की जबान पर हैं, जैसे -

सोम सनीचर पुरुब न चालू। मंगर बुद्ध उतर दिसि कालू।

पिंड और ब्रह्मांड की एकता का प्रतिपादन करते हुए अखरावट में जायसी ने शरीर में ही जो ग्रहों की नीचे ऊपर स्थिति लिखी है वह सूर्यसिद्धांत आदि ज्योतिष ग्रंथों के ठीक अनकूल है। अरबी, फारसी नामों के साथ भारतीय नामों के तारतम्य का भी ज्ञान कवि को पूरा - पूरा था, जो एक कठिन बात है। 'सुहैल' तारे का 'सोहिल' के नाम से पद्मावत में उन्होंने कई जगह उल्लेख किया है। यह 'सुहैल' अरबी शब्द है। फारसी और उर्दू की शायरी में इस तारे का नाम बराबर आता है, पर शोभावर्णन की दृष्टि से प्राय: हिलाल के साथ। यह तारा भारतीयों का अगस्त्य तारा है, इस बात का पता जायसी को था। अत: उन्होंने इसका वर्णन उस रूप में भी किया है जिस रूप में भारतीय कवि किया करते हैं। भारतीय कवि इसका वर्णन वर्षा का अंत और शरत का आगमन सूचित करने के लिए किया करते हैं, जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -

उदित अगस्त पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोखै संतोषा॥

जायसी ने ठीक इसी प्रकार का वर्णन 'सुहैल' का किया है -

बिछरंता जब भेंटै, सो जानै जेहि नेह।

सुक्ख सुहेला उग्गवै, दु:ख झरै जिमि मेह॥

ऐसा ही एक स्थल पर और है। राजा रत्नसेन को दिल्ली से छुड़ा कर जब गोरा बादल ले कर चले हैं तब बादशाही सेना ने उनका पीछा किया है। उस समय गोरा के कहने से बादल तो रत्नसेन को ले कर चित्तौर की ओर जाता है और वृद्ध गोरा मुसलमान सेना की ओर लौट कर इस प्रकार ललकारता है -

सोहिल जैस गगन उपराहीं। मेघ घटा मोहिं देखि बिलाहीं॥

इसी प्रकार 'अगस्त' शब्द का उल्लेख भी वे गोरा बादल की प्रतिज्ञा में करते है। -

उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटे पर आवहिं राजा॥

यह तो हुआ शास्‍त्रीय ज्ञान। व्यवहारज्ञान भी जायसी का बहुत चढ़ा चढ़ा था। घोड़ों और भोजनों के अनेक भेद तो इन्होंने कहे ही हैं, पुराने समय के वस्त्रों के नाम भी 'पद्मावती रत्नसेन भेंट' के प्रसंग में बहुत से गिनाए हैं।

जायसी मुसलमान थे, इससे कुरान के वचनों का पूरा अभ्यास उन्हें होना ही चाहिए। पद्मावत के आरंभ में ही चौपाई के ये दो चरण -

कीन्हेंसि प्रथम जोति परगासू। कीन्हेंसि तेहि पिरीत कैलासू॥

कुरान की एक आयत के अनुसार है जिसका मतलब है - 'अगर न पैदा करता मैं तुझको, न पैदा करता मैं स्वर्ग को।' इसके अतिरिक्त ये पंक्तियाँ भी कुरान के भाव को लिए हुए है। -

(1) सबै नास्ति वह अहथिर ऐस साज जेहि केर।

(2) ना ओहि पूत, न पिता न माता।

(3) 'अति अपार करता कर करना' से ले कर कई चौपाइयों तक।

(4) 'दूसर ठाँव दई ओहि लिखे।'

अभिप्राय यह है कि खुदा ने अपने नाम के बाद पैगंबर का ही नाम रखा, जैसा कि मुसलमानों के कलमा में है।

इस्लाम धर्म की और अनेक बातों का समावेश पद्मावत और अखरावट में हम पाते हैं। सिद्धांतों के प्रसंग में हम कह आए हैं कि सामी पैगंबरी मतों के अनुसार कयामत या प्रलय के दिन ही सब मनुष्यों के कर्मों का विचार होगा। मुसलमानों का विश्वास है कि भले और बुरे कर्मों के लेख की बही खुदा के सामने एक तराजू में तोली जायगी और वह तराजू जिब्राईल फरिश्ते के हाथ में होगा। सबूत के लिए सब अंग और इंद्रियां अपने द्वारा किए हुए कर्मों की साख देंगी। उस समय मुहम्मद साहब उन लोगों की ओर से प्रार्थना करेंगे जो उनपर ईमान लाए होंगे। इन बातों का उल्लेख पदमावत में स्पष्ट शब्दों में है -

गुन अवगुन विधि पूछब, होइहि लेख औ जोख।

वै बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख॥

हाथ पाँव, सरवन औ ऑंखी । ए सब उहाँ भरहिं मिलि साखी॥

स्वर्ग के रास्ते में एक पुल पड़ता है जिसे 'पुले सरात' कहते हैं। पुल के नीचे घोर अंधकारपूर्ण नरक है। पुण्यात्माओं के लिए वह पुल खूब लंबी-चौड़ी सड़क हो जाता है पर पापियों के लिए तलवार की धार की तरह पतला हो जाता है। पुल का उल्लेख पद्मावत में तो बिना नाम दिए और अखरावट में नाम दे कर स्पष्ट रूप में हुआ है -

खाड़ै चाहि पैनि बहुताई। बार चाहि ताकर पतराई॥

पुराने पैगंबर मूसा की किताब में आदम के स्वर्ग से निकाले जाने का कारण हौवा के कहने से एक वृक्षविशेष का फल खाना लिखा है। मुसलमानों में यह वृक्ष गेहूँ प्रसिद्ध है। अखरावट में तो इस कहानी का उल्लेख है ही, पद्मावत में भी पद्मावती की सखियाँ उसकी विदाई के समय कहती है। -

आदि अंत जो पिता हमारा। ओहु न यह दिन हिए बिचारा॥

छोह न कीन्ह निछोही ओहू। का हम्ह दोष लाग एक गोहूँ॥

एक पढ़ा लिखा मुसलमान फारसी से अपरिचित हो, यह हो ही नहीं सकता। फारसी शायरों की कई उक्तियाँ पद्मावत में ज्यों की त्यों आई हैं। अलाउद्दीन की चढ़ाई करने का वर्णन करते हुए घोड़ों की टापों से उठी धूल के आकाश में छा जाने पर जायसी कहते हैं -

सत षँड धरती भइ षट खंडा। ऊपर अस्ट भए बरम्हंडा॥

यह फिरदौसी के शहनामे के इस शेर का ज्यों का त्यों अनुवाद है -

जे सुम्मे सितौराँ दरा पन्हे दश्त। जमीं शश शुदो, आस्माँ गश्त हश्त॥

अर्थात् - उस लम्बे-चौड़े मैदान में घोड़ों की टाप से जमीन सात खंड के स्थान पर छह ही खंड की रह गई और आसमान सात खंड (तबक) के स्थान पर आठ खंड का हो गया। मुसलमानों की कल्पना के अनुसार भी सात लोक नीचे हैं (तल, वितल, रसातल के समान) और सात लोक ऊपर।

राजा रत्नसेन का संदेश सुआ इस प्रकार कहता है -

दहुँ जिउ रहै कि निसरै, काह रजायसु होइ?

यह हाफिज के इस शे'र का भाव है -

अज्म दीदारे तू दारद जान बर लब आमद:।

बाज गरदद या बर आयद चीस्त फरमाने शुमा॥

कवियों के भावों के अतिरिक्त फारसी की चलती कहावतों की भी छाया कहीं-कहीं दिखाई पड़ती है; जैसे -

(क) नियरहिं दूर फूल जस काँटा। दूरहिं नियर सो जस गुर चाँटा॥

फारसी - दूराँ बाबसर नजदीक वा नजदीका बेबसर दूर। (अर्थात् दूर दृष्टिवालों को दूर भी नजदीक और बिना दृष्टि वाले को नजदीक भी दूर है।)

(ख) परिमल प्रेम न आछे छपा।

फारसी - इश्क व मुश्क रा नतवाँ नहुफ्तन।

(प्रीति और कस्तूरी छिपाए नहीं छिपती)

हिंदुओं की ऐसी प्राचीन रीतियों का उल्लेख भी पद्मावत में मिलता है जो जायसी के समय तक न रह गई होंगी। जायसी ने उनका उल्लेख साहित्य की परंपरा के अनुसार किया है। पत्रवलि या पत्रभंगरचना प्राचीन समय में ही श्रृंगार करने में होती थी। वह किस प्रकार होती थी, इसका ठीक पता आजकल नहीं है। कुछ लोग चंदन या रंग से गंडस्थल पर चित्र बनाने को पत्रभंग कहते हैं। प्राचीन रीति, नीति और वेशविन्यास जानने की अपनी बड़ी पुरानी उत्कंठा के कारण उनके संबंध में जो कुछ विचार हम अपने मन में जमा सके हैं उसके अनुसार पत्रभंग सोने या चाँदी के महीन वरक या पत्रों के कटे हुए टुकड़े होते थे जिन्हें कानों के पास से ले कर कपोलों तक एक पंक्ति में चिपकाते थे। आजकल हम रामलीला आदि में उसी रीति पर चमकी या सितारे चिपकाते हैं। स्त्रियाँ अब तक माथे पर इस प्रकार के बुंदे चिपकाती हैं। पत्रभंग शब्द से भी इसी बात का संकेत मिलता है। खैर जो हो, जायसी ने इस पत्रवलिरचना का उल्लेख पद्मावती के श्रृंगार के प्रसंग में (विवाह के उपरांत प्रथम समागम के अवसर पर) किया है -

रचि पत्रवलि, माँग सेंदुरू। भरे मोति औ मानिक चूरू॥

प्राचीन काल में प्रधान राजमहिषी या पटरानी को 'पट्टमहादेवी' कहते थे। यह उस समय की बात है जब क्षत्रिय लोग एक दूसरे को 'सलाम' नहीं करते थे और 'रानी' शब्द के आगे 'साहबा' नहीं लगता था - तब हमारा अपना निज का शिष्टाचार था, फारसी तहजीब की नकल मात्र नहीं। राजा रत्नसेन को चित्तौर से गए बहुत दिन हो जाने पर जब नागमती विरह से व्याकुल होती है तब दासियाँ समझाती हैं -

पाट महादेइ! हिए न हारू। समुझि जीउ चित चेत सँभारू॥

यह 'पाट महादेइ' शब्द 'पट्टमहादेवी' का अपभ्रंश है।

भारतीय 'वीरपूजा' का प्रसंग बड़ी मार्मिकता से बड़े सुंदर अवसर पर जायसी लाए हैं। जिस समय बादल के साथ राजा रत्नसेन छूट कर आता है उस समय पद्मावती बादल की आरती उतारती है -

परसि पायँ राजा के रानी। पुनि आरति बादल कहँ आनी॥

पूजे बादल के भुजदंडा। तुरी के पाँव दाब करखंडा॥

प्राचीन काल में वर्षाऋतु में सब प्रकार की यात्रा बंद रहती थी। शरद् ऋतु आते ही वणिकों की विदेशयात्रा और राजाओं की युद्धयात्रा होती थी। शरत् के वर्णन में पुराने कवि राजाओं की युद्धयात्रा का भी उल्लेख करते हैं। इसी पुरानी रीति के अनुकूल गोरा बादल प्रतिज्ञा करते समय पद्मिनी से कहते है। -

उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटै, घर आइहि राजा॥

बरसा गए, अगस्त के दीठी। परै पलानि तुरंगन्ह पीठी॥

राजपूतों की भिन्न-भिन्न जातियों के बहुत से नाम तो जायसी को मालूम थे पर इस बात का ठीक-ठीक पता उन्हें न था कि किस जाति का राज्य कहाँ था। यदि इसका पता होता तो वे रत्नसेन को चौहान न लिखते। रत्नसेन को जब सूली देने के लिए ले जाते थे तब भाँट ने राजा गंधर्वसेन से उनका परिचय इस प्रकार दिया था -

जंबूदीप चित्तउर देसा। चित्रसेन बड़ तहाँ नरेसा॥

रतनसेन यह ताकर बेटा। कुल चौहान जाइ नहिं मेटा॥

यह इतिहासप्रसिद्ध बात है कि चित्तौर में बाप्पा रावल के समय से अंत तक सिसोदियों का राज्य चला आ रहा है।