जिस्म का बाज़ार कमाठीपुरा / संतोष श्रीवास्तव

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ग्रांटरोड स्टेशन से मात्र एक किलोमीटर के फासले पर है कमाठीपुरा। मुम्बई में कमाठीपुरा दो तरह से जाना जाता है। मराठी के मशहूर लेखक जिन्होंने दलित पैंथर जैसे क्रन्तिकारी संगठन की स्थापना की कमाठीपुरा में ही पैदा हुए और वे थे नामदेव ढसाल। नामदेव ढसाल महार जाति के थे और उनके माता पिता कमाठीपुरा स्थित छोटे से बीड़ी कारखाने में श्रमिक थे। उनका काव्य संग्रह 'गोलपीठा' जबरदस्त चर्चा का विषय था। 'गोलपीठा' में उन्होंने कमाठीपुरा रेड लाइट एरिया की दिल दहला देने वाली सच्चाइयों का वर्णन किया है। कमाठीपुरा जिसे ब्रिटिशकाल में व्हाइट ज़ोन (यूरोपीय नस्ल की वेश्याओं के कारण) कहा जाता था में एक तरह की अन्तरराष्ट्रीयता विद्यमान थी। अँग्रेज़ तो चले गये पर उनका बसाया कमाठीपुरा आज भी वैसा ही है जहाँ देश के सभी इलाकों की औरतें जिस्म का सौदा करती हैं। यह एशिया का दूसरा सबसे बड़ा जिस्म बाज़ार है जहाँ सभ्यता का यह सबसे पुराना कारोबार दिन रात चलता है। जिस्मके इस बाज़ार में हिजड़े, पुलिस, ड्रग एडिक्ट, सुपारी किलर और सिंगर, मुज़रा डाँसर, महाराष्ट्र के लोक नृत्य तमाशा कलाकार आदि का जमावड़ा रहता है। अस्सी के दशक में यहाँ हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम जैसे अंडरवर्ल्ड के लोग भी आया करते थे।

कमाठीपुरा मराठी का नहीं बल्कि तेलुगु का शब्द है जिसका अर्थ है मज़दूर क्षेत्र। 1795 में मराठा सैनिकों ने हैदराबाद के निज़ाम को पराजित कर दिया था। इस विजय ने उन्हें अपार धन बल के साथी कमाठी के रूप में अपार जन बल भी मुहैया कराया। मराठाकालीन राजसी इमारतों के निर्माण में ये मज़दूर एवं राजमिस्त्री बड़े काम के साबित हुए. मज़दूरों को बसाए जाने की वजह से यह इलाका कमाठीपुरा कहलाने लगा। वक़्त कहाँ रुकता है? अब मज़दूर तो रहे नहीं रह गईं जिस्म का सौदा करने वाली मजबूर औरतें जो इस भयानक ग़रीबइलाके में पाउडर क्रीम से चेहरा पोतकर ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं और विडंबना ये है कि उनके लिए ग्राहक लाने वाले दलालों में उनके बाप, बेटा, भाई, देवर या पति भी शामिल हैं। सन् 1950 में भारत सरकार ने जब यौन व्यापार पर प्रतिबन्ध लगा दिया, उस समय यहाँ के 200 से ज़्यादा घरों में 5000 से अधिक पेशा करने वाली औरतें रहती थीं... उनके घरों के चूल्हे ठंडे थे और पेट की आग भड़की हुई. लेकिन सवाल अधर में लटका था कि इनका क्या होगा? यहाँ दर्जनों स्वैच्छिक संगठन हैं जो इनके इलाज आदि मुफ़्त में करते हैं। सुनील दत्त जब तक जीवित रहे रक्षाबंधन के दिन इनसे राखी बँधवाने आते थे और इनकी समस्याओं को दूर करने की कोशिश करते थे। तमाम प्रयासों और सरकारी प्रतिबन्धों के बावजूद कमाठीपुरा आज भी आबाद है।

नाना चौक से एक रास्ता कम्बाला हिल जाता है। कम्बाला हिल एरिया में अगस्त क्रान्ति मैदान है। अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर करने वाली क्रान्ति का साक्षी अगस्त क्रान्ति मैदान। जहाँ अब कम्बाला हिल पैडर रोड में निर्मित सेन्ट स्टीवन चर्च गुड फ्रायडे मनाता है। यहीं पर कम्बाला हिल हॉस्पिटल एण्ड हार्ट इंस्टिट्यूट है। प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी का इसी अस्पताल में लम्बी बीमारी के बाद निधन हुआ था। मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात नेहरु सेंटर में तब हुई थी जब ग़ालिब के कलाम पर नृत्य नाटिका आयोजित हुई थी। कहाँ तो साठ से भी ज़्यादा दशकों तक वे मंचों पर कत्थक की शानदार प्रस्तुति करती रहीं यहाँ तक कि बॉलीवुड में इस नृत्य शैली को लाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है और कहाँ वे व्हील चेयर पर बैठी नृत्य नाटिका देख रही थीं। ग्यारह साल की उम्र में मुम्बई आकर बस जाने वाली सितारा देवी ने स्वर्णिम काल जिया है अपने नृत्यों के ज़रिए.

कम्बाला हिल स्थित खुले टेरेस पर नटरंग प्रतिष्ठान के इब्राहिम अलकाजी ने धर्मवीर भारती के 'अंधायुग' के अभूतपूर्व बारह प्रस्तुतिकरण किये। अलका जी पूरे देश में नुक्कड़ नाटकों और नाटकों के नये ढंग से प्रस्तुतिकरण के लिए जाने जाते हैं।

नाना चौक, ग्रान्ट रोड से ताड़देव, भाटिया अस्पताल, एसी मार्केट होते हुए यह रास्ता भी महालक्ष्मी में खुलता है और कम्बाला हिल पैडर रोड वाला रास्ता भी महालक्ष्मी तक जाकर वर्ली रोड कहलाने लगता है और नाना चौक से ही ग्रांट रोड पूर्व का पुल पार करते ही दाहिनी ओर ऑपेरा हाउस और बाईं ओर मुम्बई सेंट्रल आता है।