जीने की कला / देवी नांगरानी

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पाँव में पायल पहने छम छम करती हिरनी जैसी चाल से थिरकती, वह संगीत की लय और ताल पर हस्त और नयनों के हाव भाव से ताल मेल रखते हुई वह नृत्य करती रही, और जब वह समाप्त हुआ तो देर तक हॉल में तालियों की गूँज सुनाई देती रही और साथ साथ उसके एक और आवाज़ जो सुनाई दे रही थी वह थी "वन्स मोर ,वन्स मोर " और यह आवाज़ यका-यक बंद हो गई, जैसे स्पीड में चलती हुई गाड़ी को अचानक ब्रेक लग गया हो.

स्टेज का परदा जो डॅन्स के बाद बाद नीचे गिरा था फिर उठा और दर्शको की आँखे स्टेज पर जम गईं . उनकी मन पसंद कलाकार नृत्य जगत की मयूरी, जो हज़ारो दिलों की धड़कन थी , उनके सामने खड़ी थी. पर यहा क्या? उसका रंग रूप बदला हुआ था -चेहरे पर पसीने की बूँदें, आँखो में बुझती हुई रोशनी, होंटों लाली की जगह साए थे और गालों की रंगत ऐसे उड़ी थी जैसे किसीने उनपर सफेदी पोत दी हो. दो साथी कलाकारों का सहारा लेकर खड़ी थी, खड़ी भी नहीं, ऐसे जैसे उन दो बैसाखियों के आधार से लड़खड़ाने से बची हुई थी पुर्निमा, जिसकी चाल कुछ पल पहले हिरणी की तरह थिरक रही थी, वो इस वक़्त सहारे की मोहताज खड़ी थी, क्यो ?चेहरे पर सुमन मुरझाये थे क्यो? सवाल पर सवाल हर एक मन में उठा, जिसका उतर वे पाना चाहते थे. पर सब चुप थे जैसे उन्हें सांप सूँघ गया हो. 'वन्स मोर, वन्स मोर' बोलने वाली जुबाँ पर जैसे ताले लग गये थे......... और... शांति के इस सन्नाटे को लर्ज़िश भरी आवाज़ ने तोड़ा. यह आवाज़ किसी और की नहीं पर प्रिय पूर्णिमा की माँ निर्मला देवी की थी, जो बेटी के साथ साथ खड़ी थी हाथ जोड़े, आँखो में नमी लिए....

"प्यारे दोस्तो मैं अपनी और से और आपकी महबूब कलाकार पूर्णिमा की ओर ये माफी मांगती हूँ. आज पहली बार आपकी फरमाइश पूरी न करने का दुख है और दुगना दुख इस बात का है कि आज मेरी बेटी का दुख आप के दुख का कारण बना है पुर्णिमा दिल की मरीज़ है, दिल के दौरे ने दस्तक देकर फिर उसे हमारे सामने खड़ा कर दिया है. इसमें शायद आप सब की दुआएं और शुभकामनायें शामिल है जो वह कुछ कर पाई . अब आप हमें इजाज़त दें, पुर्णिमा की डॉक्टर भी अब आ गई है. " ऐसा कहते हुई निर्मला देवी ने बेटी को सहारा देकर स्ट्रेचर पर लिटाया, जो उसी वक़्त स्टेज पर लाया गया था. डा॰ ममता ने वही पर अपने तापास करने की करवाई शुरू करदी और देखते ही देखते स्ट्रेचर हस्पताल की गाड़ी में था और गाड़ी चली गई आगे और आगे जब तक आखों से ओजल नहीं हुई. और पीछे रह गया चाहने वालों का काफ़िला, जिनके हाथ दुआ के लिए उठ गये थे. बिना होंठ हिलाये की गई प्रार्थना हारे हुए इंसान का एक मात्र आधार होती है. दिल की गहराइयों से निकली यह निशब्द बंदगी हर खाली दामन को भरने का एक सफ़ल प्रयास है . दिल की बात कहने के पहले सुन ली जाती है वो सदा , सवाल के पहले जवाब मिल जाता है , दवा से पहले हुआ की दौलत से मालामाल कर देती है ऐसी बंदगी

थोड़ी देर में हॉल खाली हो गया , न आवाज़ था, न शोर. ऐसा लगा जैसे कोई मंदिर से, तो कोई गिरजा घर से, और कोई मस्जिद से मलिक की रहमत की दुआ मांगकर निकले हों, बिना किसी शर्त के समर्पण उस कलाकार के लिए जो दिलों की धड़कनों का संचार करती रही और आज उसकी दिल अपनी बहकी बहकी चाल के साथ हस्पताल में थी.

निर्मला देवी i.c.u के बाहर लगातार अपनी बेचैनियों को समेटे टहल रही थी . बेटी के दर्द और उसकी पीड़ा का भरपूर ग्यान था उसे. यह कोई पहला अवसर नहीं था. जो ऐसा हुआ , पहले दो बार भी ऐसा हुआ था. पहली बार तब जब पूर्णिमा सात साल की थी और दूसरी बार वह मैट्रिक में पढ़ा करती थी. पहली बार ही डॉक्टर ने जाँच करके जाहिर किया था कि उसके दिल में सुराख़ है जो उसकी बढ़ती हुई उम्र के साथ बढ़ता रहेगा. इसके सिवा निर्मला देवी को आग्रह भी किया था कि नृत्य कला का यह शौक उसके लिए ख़तरे से खाली नहीं होगा. नृत्य के दौरान दिल की धड़कन की रफ़्तार इतने तेज हो जाती है कि आम इंसान को भी आक्सीजन की ज़रूरत पड़ती है. पूर्णिमा तो ...!! निर्मला जितने इस बात से वाकिफ़ थी उसे ज़्यादा बेबस भी थी.

पाँच साल की उमर से ही पूर्णिमा ने इस कला की शिक्षा पानी शुरू की. गाना और नाचना दोनों साथ साथ चलते रहे , पर जल्दी ही गाने की इच्छा को तज देना पड़ा क्योंकि गाते समय साँस रोककर सुर लगाने में दुश्वारी पैदा हो रही थी. पूर्णिमा नृत्य को कभी भी खुद से अलग न कर पाई . माँ के हर तर्क का जवाब था उसके पास "अगर मैं शरीर हूँ तो यह कला मेरी आत्मा है. अगर आत्मा उससे जुदा कर दी जाय तो शरीर मुर्दा हो जायगा. इसी तरह अगर न्रत्य मुझसे छुड़ाया जाएगा तो मैं मर जाऊँगी" बस यहीं आकर के माँ नहीं, माँ की ममता ज़रूर हार जाती थी इसी तर्क के सामने.

जब पूर्णिमा मैट्रिक में थी तो अलविदा पार्टी में नृत्य संगीत की कॉंपिटीशन भी थी , ज़िसमें उसने भाग लिय. रियाज़ करते करते वह थक कर हताश हो जाती थी, पर जैसे प्यार और जंग में सब वाजिब है , उसी प्रकार पूर्णिमा को भी लगा की जीवन के साथ जुड़ी यह मौत की छाया भी उसके साथ साथ रहेगी जब तक उसके जीवन की साँसें सलामत है, उनके साथ जूझना भी जंग के बराबर है. कोशिश करना अगर करम है तो फिर करम कैसे नावाजिब हो सकता है . उसी तर्क से वह खुद को , माँ को तसल्ली दिया करती थी. इस संघर्ष की राह पर काली पैदल चलकर, कभी दौड़ते, कभी हसते नाचते, कभी स्ट्रेचर पर लेटे, वह इस दौर को संघर्ष का एक हिस्सा मानकर बड़े साहस के साथ इस राह पर आगे बड़ती थी जहाँ उसका इलाज करने वाले डॉक्टर हैरान हुए करते थे. उन्हे लगता था की शायद अभी , हाँ बस अभी दिल धड़कते धड़कते थम जाएगी, रुक जाएगी, पर ऐसा होता नहीं था. उसका शरीर रूपी मन, मयूर रूपी आत्मा एक लय एक ताल पर जिंदगी के सुर ताल पर नृत्य करते रहते थे . आत्मा भी कभी मरती है? अगर नहीं तो उसका शरीर कैसे कु्हला सकता है जिसमें ऐसी अमर आत्मा वास करती है ; नृत्य करती है, हर पल हर क्षण, दिन रात, आद जुगाद से......!!

डॉक्टर भी हैरान हो जाते थे उसकी बेटी की सुनकर और वो बाहर आकर निर्मला देवी को आसवाशन देकर , पूर्णिमा के होश में आने का इंतज़ार करने को कहते. माँ थी वह और कुछ नहीं सिर्फ़ इंतज़ार ही कर सकती थी. वह जानती थी बेटी जब जब ज़्यादा वक़्त नाचेगे उसे फिर फिर इस दौर से गुज़रना है.

"मैडम आप मरीज से मिल सकती है" यह नर्स की आवाज़ थी . अँदर आकर बेटी के चेहरे पर तक नूर देखा निर्मला ने , ऐसे जैसे किसी ने अजंता एलोरा की मूर्ति में जान फूंक दी हो. उसका माथा दमक रहा था आँखे विनम्रता, पर जीवन के विश्वास के साथ भरपूर, जैसे किसी ताल की धारा को साथ विलीनता के ख़यालो में डूबी हुई, जहा शरीर शरीर नहीं रहता, आत्मा बन जाती है. निर्मला ने थोड़ा आगे झुककर उसका माथा चूमते हुए कहा " दूसरे महीने 'पूर्णमासी की रात' के लिए इन्स्टिट्यूट वाले तारीख़ माँग रहे है, क्या कहूँ उनसे?

"यहीं जो हमेशा कहती हो. तुम्हारी आशीष से ही मैं तुम्हारे दिये हुआ हर वादे को झूठ साबित करने से बच जाती हूँ. इसलिए तुम खुशी खुशी हाँ कर दो. दो तीन दिन यहाँ आराम,दो तीन दिन घर में आराम फिर वहीं थकान. चलने दो इस सिलसिले को मेरे प्यारी प्यारी माँ. तू ही मेरे कश्ती है और तू ही खिवैया ! तुम ही इसे पार लगाना" कहते हुए पूर्णिमा ने आँखे बंद कर ली जैसे वह सच में आरामी होना चाह रही हो.

"चल पगली, चल अब बस कर. जानती हूँ तू गुणी और गयानी है और मैं भी खिवैया हूँ ,इस में कोई शक नहीं, चल अब थोड़ा आराम कर ले." कहते हुए निर्मला को यह यकीन होता जा रहा था कि पूर्णिमा ने जीने की कला पर भी महारत पा ली थी!