जीवंत दस्तावेज़ है चाँद का ऐतिहासिक "फाँसी अंक" / महावीर उत्तरांचली

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मालिक तेरी रज़ा रहे, और तू ही तू रहे।
बाक़ी न मैं रहूं, न मेरी आरज़ू रहे।।

अब न पिछले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़।
एक मिट जाने की हसरत, बस दिले-बिस्मिल में है।।

जिस राष्ट्र में क्रन्तिकारियों के ह्रदय में मर-मिटने की ऐसी प्रबल भावना हो। उस राष्ट्र को कोई विदेशी कब तक ग़ुलाम बनाए रख सकता है। ये दोनों शेर कहे थे अमर क्रांतिकारी और शायर रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने; भला उन्हें कौन भुला सकता है। और ये पंक्तियां उसी वीर ने फांसी चढ़ने से पूर्व कही थी। ऐसे ही अनेक क्रांतिकारियों के वीरतापूर्ण और साहसिक कार्यों से भरा पड़ा है; चाँद का यह फांसी विशेषांक। यूँ तो संसार के रंगमंच पर सभी अपना-अपना किरदार निभाते हैं। फिर चले जाते हैं। जो किसी उद्देश्य के लिए प्राणों की आहुति देते हैं; वो मृत्यु का वरण करके भी सदैव जीवित रहते हैं। जब भी तारीख़ के पन्नों को पलटा जाता है और उनके निभाए किरदार की चर्चा होती है; वह पुनः जीवित हो उठते हैं। जी हाँ, मैं ज़िक्र कर रहा हूँ। ऐतिहासिक महत्व के चाँद पत्रिका के "फांसी अंक" का। जो नवंबर 1928 ई. को काग़ज़ पर आया था। जिसे कालातीत हुए आज 88 बरस हो गए हैं। इस अंक के लिए मै रामरिख सहगल साहब को विशेष तौर पर धन्यवाद देना चाहूंगा कि इसके संपादन का जिम्मा उन्होंने आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी को सौंपा। जिन्होंने "वैशाली की नगरवधू", "वयं रक्षाम:", "सोमनाथ" और "आलमगीर" जैसी अमर कृतियाँ हिंदी साहित्य को दी हैं। आइए इस लेख के ज़रिये हम उन लम्हों को एक बार पुनः जी लें।

दिवाली के अवसर पर चाँद का "फाँसी अंक" नवम्बर 1928 ई. को प्रकाशित हुआ था। इसके आयोजक व प्रकाशक रामरिख सहगल देशप्रेमी व्यक्तित्व के स्वामी थे। जिन्होंने चाँद का प्रकाशन 1922 ई. में इलाहबाद से आरम्भ किया था। सवा तीन सौ पृष्ठों में सिमटा यह "फाँसी अंक" तत्कालीन ब्रिटिश राज का जीवंत दस्तावेज़ बन चुका है। आचार्य का प्रशंसक मैं उनके उपन्यासों और कहानियों से रहा हूँ; लेकिन 'चाँद' का "फांसी अंक" देखने के बाद, मैं उनके संपादन का भी मुरीद हो गया हूँ। इस अंक पर की गई उनकी मेहनत यत्र-तत्र-सर्वत्र दीख पड़ती है; लेकिन सारा श्रेय वह चाँद से जुडी पूरी टीम को देते हैं। उन्होंने लिखा है, "पूरे डेढ़ महीने तक प्रेस के प्रत्येक कर्मचारी ने सहर्ष और ईमानदारी से चाँद की सफलता के लिए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है और सहगल जी? उन्होंने रात-दिन जागकर तथा स्वास्थ की तिलमात्र भी चिंता न कर, जिस मनोयोग से इस अंक की सफलता में योग दिया है वह उन्हीं का काम था। दस रोज़ तक उन्हें भयांकर ज्वर रहा; उसी हालत में उन्होंने सारा कार्य किया है। इतने बड़े विशेषांक के प्रकाशन में अनेक त्रुटियों का रह जाना संभव है और खासकर ऐसी परिस्थिति में, जबकि चाँद के प्राण-स्वरुप मित्रवर सहगल जी स्वयं बीमार थे। फिर भी जो कुछ हो सका है, पाठकों के सामने है। पाठकों को आशचर्य न होना चाहिए, इस अंक के दस हज़ार प्रतियों के प्रकाशन में इतने परिश्रम और दौड़-धूप के अलावा साढ़े बारह हज़ार रूपये व्यय हुए हैं।" साढ़े बारह हज़ार रूपये का पूरा ब्यौरा भी आचार्य ने लिखा है: (420 काग़ज़ की रीम—3,280 / कम्पोजिंग और छपाई—3,300 / ब्लॉक और डिजाईन बनवाई—1,068 / तिरंगे चित्रों—1,200 / रंगीन चित्रों—200 / चालीस रीम आर्ट पेपर—1,000 / कवर बनवाई-छपाई—155 / लिफ़ाफ़ों का काग़ज़ और छपाई—210 / अतिरिक्त टिकट (पोस्टेज)—850 / सम्पादकीय व्यय, पुरस्कार, तार-चिट्ठी आदि—1,050 / फुटकर—387 / कुल जोड—12,500)। इस ब्योरे में कार्यालय के कर्मचारियों का वेतन, बिजली, किराया-मकान तथा विज्ञापन आदि की छपाई और काग़ज़ आदि व्यय शामिल नहीं था। यह दर्शाने का अभिप्राय इतना है कि, आचार्य न केवल पत्रिका का संपादन कर रहे थे बल्कि एक लेखक के रूप में छोटी से छोटी बातों तक को बारीकी से देख रहे थे।

पत्रिका की शुरुआत आचार्य द्वारा पाठकों से की गई "विनयांजलि" से होती है—"चाँद" की बहिनों, भाइयों और बुजुर्गों के हाथ में—दीपावली के शुभ अवसर पर — "फांसी अंक" जैसा हृदय को दहलाने वाला साहित्य सौंपते हमारा हाथ कांपता है। परन्तु हम नंगे हैं, भूखे हैं, रोगी हैं, निराश्रय हैं; हम थके हुए, मरे हुए और तिरस्कृत हैं; हम स्वार्थी; पापी और भीरु हैं; हम पूर्वजों की अतुल सम्पति को नाश करने वाली संतान हैं, बच्चों को भिखारी बनाने वाले माता-पिता हैं! रूढ़ि की वेदी पर स्त्रियों को बलिदान का पशु बनाने वाले पुजारी हैं!! इस खानदानी बाप के कुकर्मी बेटे हैं!!! प्यारी बहिनों, माताओं, भाइयों और बुजुर्गों! "फांसी-अंक" को दिवाली की अमावस्या समझिए! देखिये, इसमें बीसवीं शताब्दी के हुतात्मा के दिए कैसे टिमटिमा रहे हैं, और देखिये, स्थान-स्थान पर कैसी ज्वलंत अग्नि धाएं-धाएं जल रही है; और सब के बीच में जाग्रत-ज्योति—मृत्यु-सुन्दरी—कैसा श्रृंगार किये छमछमा कर नाच रही है? पूजो! भाग्यहीन भारत के राज्य-पाट, अधिकार-सत्ता और शक्तिहीन नर-नारियों, यही तुम्हारी गृहलक्ष्मी है। यही मृत्यु-सुन्दरी, यही अक्षय-यौवना, यही महामामयी!!! महामाया! तुम इसे प्यार करो, इससे परिचय प्राप्त करो, इसे वरो, तब? तुम देखोगे कि ज्योंही यह तुम्हारे गले का फन्दा होने के स्थान पर हृदय का लाल तारा बनेगी, तुम्हारी सहस्त्रों वर्ष की ग़ुलामी दूर हो जाएगी? जैसे प्रबल रासायनिक के हाथ में आकर काल-कूट विष अमृत के समान प्रभावकारी हो जाता है, उसी प्रकार यह गले का फन्दा बहिनों का सौभाग्य-सिन्दूर और भाइयों की कुमकुम की पिचकारी बनेगी। ओह! उस फाग का उल्लास कब भारत की 22 करोड़ गोपियों को नसीब होगा! उस अक्षय-सुंदरी को राधा-पद देकर कब वह कृष्ण-मूर्ति स्फूर्ति की वंशी बजाएगी? कब? कब?? कब???

इस अंक की सामग्री में क्रमशः पन्द्रह कवितायेँ ; पांच कहानियां ; बारह लेख; चार इतिवृत ; एक हास्य-व्यंग्य और दो नाटक के आलावा अंतिम भाग में विप्लव यज्ञ की आहुतियां (पृष्ठ 244–322 तक) लगभग पचास से ऊपर ऐसे क्रांतिकारियों के कार्यों और जीवन पर संक्षिप्त रूप से रौशनी डाली गई है। जिन्हे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने फांसी की सजा दी थी। कुछ क्रांतिकारियों के चित्र भी मौजूद हैं। इस हिस्से की जानकारी और चित्र-लेख आदि उस समय के क्रांतिकारियों में स्वयं आचार्य चतुरसेन जी को उपलब्ध कराये थे। जिन्हें क्रांतिकारियों के छद्म नामों से आचार्य ने फांसी अंक में प्रकाशित किया था ताकि जीवित क्रांतिकारियों पर कोई आंच न आए। इस बारे में आचार्य ने अपने एक संस्मरण 'पहली सलामी' में ज़िक्र करते हुए लिखा है— "एक दिन भोर के तड़के ही पुलिस के दल-बादल ने मेरा घर घेर लिया। ....मैं समझ गया था कि पुलिस के मेधावी जनों ने चाँद के फांसी अंक से इन क्रांतिकारियों (भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त आदि) के सम्बन्ध की सम्भावना से ही यह धावा किया था। यद्यपि मुझे उक्त अंक के लिए, बीसवीं शताब्दी की राजनीतिक हुतात्माओं के सम्पूर्ण चित्र और चरित्र ही उन लोगों से प्राप्त हुए थे, परन्तु यह भी सत्य है कि मैं उन युवकों के सम्बन्ध में बहुत काम जानता था। उन लोगों द्वारा जो सामग्री मुझे मिली थी, उसके मैंने खण्ड-खण्ड कर डाले थे। एक-एक चरित्र को प्रथक करके उसके नीचे लेखक का कोई एक काल्पनिक नाम दे डाला था।" आचार्य के इस संस्मरण का ज़िक्र सुरेश सलिल जी ने स्वर्ण जयन्ती (1997 ई.) में फांसी अंक के पुनः प्रकाशन की 'प्रास्तावना' में किया है। कई क्रन्तिकारी स्वयं कुशल लेखक व कवि भी थे। जैसे क्रांतिकारी रामप्रसाद 'बिस्मिल' एक बेहतरीन शायर भी थे —"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना बाजुए क़ातिल में है।" इस अमर रचना और उसके रचियता को कौन भूल सकता है। 'बिस्मिल' जी, 'अज्ञात' और 'राम' नाम से उस समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे। शहीदे-आज़म भगत सिंह जी, 'बलवंत' नाम से लिखते थे। क्रन्तिकारी शिव वर्मा 'प्रभात' छद्मनाम का उपयोग करते थे।

पत्रिका के इस अंक की महत्वपूर्ण विषय सूची इसलिए दी जा रही है ताकि पाठक रचनाओं के शीर्षक और रचनाकारों के नामों से परिचित हो सकें। क्रम को सात भागों में इस प्रकार बांटा गया है : — (१.) पन्द्रह कवितायेँ :— प्राणदण्ड (रामचरित उपाध्याय); फांसी (कुमार बी ए); मृत्यु में जीवन (विद्याभास्कर शुक्ल); अंतिम भाव (आनंदी प्रसाद श्रीवास्तव); सन्देश (सूर्यनाथ तकरु); रज्जुके (एक एम एस सी); प्रणय वध (अनाम); शहीद (प्रभात); फांसी की डोर (प्रो रामनारायण मिश्र); डायर (रसिकेश); मैना की क्षमापत्र-प्रतीक्षा (दुर्गादत्त त्रिपाठी); प्रश्नोत्तर (नवीन); भयंकर पाप (कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'); फांसी (एक राष्ट्रीय आत्मा); फांसी के तख्ते से (शोभाराम 'धेनुसेवक ') (२.) पांच कहानियाँ :— फांसी (विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक); प्राण बध (मूल विक्टर ह्यूगो; अनुवाद चतुरसेन शास्त्री); विद्रोही के चरणों में (जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज'); जल्लाद (उग्र); फन्दा (आचार्य चतुरसेन शास्त्री)। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रेमचंद युग के तीनों महान लेखकों (कौशिक; उग्र और आचार्य) की ये कालजयी कहानियाँ प्रथम बार फाँसी अंक में ही प्रकाशित और चर्चित हुईं। (३.) बारह लेख :— प्राण दण्ड : प्राचीन भारतीय विचारकों का मत (आचार्य रामदेव एम ए); फाँसी की सज़ा (रायसाहब हरविलास जी शारदा); तांतिया भील और उसकी फाँसी (एक नीमाड़ी); फ्राँस की राज्यक्रान्ति के कुछ रक्तरंजित पृष्ठ (रघुवीर सिंह बी ए); ईसा के पवित्र नाम पर (संकलित); भारतीय दंडविधान और फाँसी (मनोहर सिंह); सन 57 में दिल्ली के लाल दिन (ख्वाज़ा हसन निज़ामी देहलवी); फाँसी के भिन्न तरीक़े (रमेश प्रसाद बी एस सी) सन 57 के कुछ संस्मरण (संकलित); फ़्रांस में स्त्रियों का प्राणदण्ड (त्रिलोचन पंत बी ए); बन्दा बहादुर का बलिदान (श्री मुक्त २२०); संस्कृत साहित्य में प्राण वध (जयदेव शर्मा विद्यालंकार)। (४.) चार इतिवृत :— स्कॉटलैंड की रानी मेरी का क़त्ल (प्रीतम सिंह); चार्ल्स का क़त्ल (राजेंद्रनाथ); महाराज नन्दकुमार को फाँसी (कल्याण सिंह); मृत्युंजय सुकरात (श्रीकृष्ण)। (५.) दो नाटक :— कानूनीमल की बहस (जे पी श्रीवास्तव); पिता अब्राहिम लिंकन का वध (संपादक)। (६.) हास्य व्यंग्य :— दूबेजी की चिट्ठी (विजयानंद दूबे)। दूबे जी के हास्य-व्यंग्य में फांसी पर ही बड़ी गहरी और मार्मिक चोट की गई है। (७.) विप्लव यज्ञ की आहुतियाँ :— पृष्ठ 244 से लेकर 322 तक में 50 से ऊपर ऐसे क्रांतिकारियों का ब्यौरा उनकी संक्षिप्त जीवनी सहित दिया गया है; जिन्हें ब्रिटिशराज में फाँसी दी गयी थी। कुछ के परिचय चित्र सहित मौज़ूद हैं। आचार्य लिखते हैं कि 325 पृष्ठ छापकर भी आधे से अधिक लेख तथा कवितायेँ प्रकाशित नहीं हो सकीं, जिनमे अनेकों विद्वानों के लेख भी देरी से आने के कारण शामिल हैं, इसका हमें वास्तव में बड़ा खेद है। पर निश्चय यह किया गया है कि यदि इस विशेषांक का हिन्दी संसार ने उचित सत्कार किया तो आगामी मई का चाँद भी फांसी अंक के नाम से ही एक दूसरा विशेषांक प्रकाशित किया जाये।

आचार्य द्वारा चाँद का "फांसी अंक" का सम्पादकीय भी पांच शीर्षकों के अंतर्गत बांटा गया है। १. दण्ड का निर्णय; २. अपराध का विकास; ३. कानून और उसका विकास; ४. क्रान्तिवाद; ५. फांसी। इन शीर्षकों के अंतर्गत देश-विदेश के अनेकों उद्धाहरण आचार्य चतुरसेन जी ने हमारे सम्मुख रखे हैं और हम सब की अंतर आत्मा को झकझोरा है। खुद ईसाइयत का हवाला देते हुए आचार्य ने सम्पादकीय की शुरुआत में लिखा है —"ईसाइयत का एक परम धर्म सिद्धांत है 'Judge not' --अर्थात निर्णय मत कर!! कोई मनुष्य चाहे जितना भी योग्य विद्वान हो, वह निर्भ्रांत नहीं हो सकता। यदि मनुष्य के निर्णय में कहीं परमाणु बराबर भी भूल हो गई, तो वह उसके हाथ से अन्याय हुआ और यदि यह अन्याय ऐसे व्यक्ति से और ऐसे स्थान से हुआ कि जिसे समाज और राज्य सत्ता ने न्यायाधिकार की स्वच्छंदता दी है, तो यह अक्षम्य अपराध हुआ समझना चाहिए।"

यहाँ चाँद ‘फाँसी’ अंक, में प्रकाशित दो कविताओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रयोजन मात्र इतना भर है कि, फांसी का दर्द कवियों ने भी कितनी गहराई से महसूस किया था। "फांसी" नामक पहली कविता के कवि का नाम "एक राष्ट्रीय आत्मा" है तो दूसरी कविता शोभाराम जी ‘धेनुसेवक’ ने "फाँसी के तख्ते से" शीर्षक से लिखी है :—

फाँसी

(एक राष्ट्रीय आत्मा)

फाँसी के फंदे में डाकू कह, जो फाँसे जाते हैं;
उनसे बढ़कर उन लोगों को, हम अपराधी पाते हैं।
निरपराध जनता का रण में, जो नित रुधिर बहाते हैं;
नर-घातक नृशंस हैं फिर भी, जो नरपाल कहाते हैं।
दमन निरत दुश्मन के मन पर, क्या अधिकार जमाया है?
अगणित अबलाओं का तूने विधवा-वेश बनाया है!!
तूने क्रूर दृष्टि से अपनी, कितने ही घर घाले हैं;
अमित अशक्त अबोध सरल शिशु हा अनाथ कर डाले हैं!
बंधुहीन हा बंधु अनेकों, पड़कर तेरे पाले हैं,
पुत्रहीन कर वृद्ध पिता को, किए स्वकर मुख काले हैं।
अरी निश्चरी सर्वनाश का, यह क्या भाव समाया है?
अगणित अबलाओं का तूने विधवा-वेश बनाया है!!

फाँसी के तख्ते से

(शोभाराम जी ‘धेनुसेवक’)

देश-दृष्टि में, माता के चरणों का मैं अनुरागी था।
देश-द्रोहियों के विचार से, मैं केवल दुर्भागी था।।
माता पर मरने वालों की, नज़रों में मैं त्यागी था।
निरंकुशों के लिए अगर मैं, कुछ था तो बस बागी था।।
देश-प्रेम के मतवाले कब, झुके फाँसियों के भय से।
कौन शक्तियाँ हटा सकी हैं, उन वीरों को निश्चय से।।
हो जाता है शक्तिहीन जब, शासन अतिशय अविनय से।
लखता है जग बलिदानों की, पूर्ण विजय तब विस्मय से।।
वीर शहीदों के शोणित से, राष्ट्र-महल निर्माण हुए।
उत्पीड़क बन राजकुलों के, भाग्य-दीप निर्वाण हुए।।
माता के चरणों पर अर्पित, जिन देशों के प्राण हुए।।
रहे न पल भर पराधीन फिर, प्राप्त उन्हें कल्याण हुए।।

1857 ई. की त्रासदी को व्यक्त करते दो लेख इस अंक में हैं। एक लेख—ख्वाजा हसन निज़ामी साहब की उर्दू किताब "कलमे-तड़प" से; जिसका शीर्षक 'सन 57 में दिल्ली के लाल दिन' लिखा हुआ है। दूसरा लेख—'भारत में अंग्रेजी राज्य' नामक अप्रकाशित पुस्तक से, जिसे संपादक द्वारा संकलित किया हुआ है। आज की तारीख में 1857 के विप्लव पर अनेकानेक लेख, कवितायेँ, कथा-कहानियां मौजूद हैं। लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान ऐसे लेख प्रकाशित करना अपने आप में ही किसी क्रांति से कम नहीं था। 1857 के वक्त देशभर में ब्रिटिशराज के विरुद्ध जनआक्रोश का जो क्रान्ति स्वर उभरा था। उसे बड़ी निर्ममता के साथ अंग्रेज़ों ने कुचला था।

'सन 57 के संस्मरण' में 12 शीर्षकों के अंतर्गत संकलित अंश (कोट्स) हैं; जो अंग्रेज़ इतिहासकारों द्वारा ही लिखे गए पुस्तकों का इंग्लिश सहित हिंदी रूपांतरण है। कुछ चित्र भी दिए गए हैं :— १.) अंग्रेज़ी सेना द्वारा ग्रामों का जलाया जाना; २.) निर्दोष भारतीय जनता का संहार; ३.) ग्राम-निवासियों सहित ग्रामों का जलाया जाना; ४.) असहाय स्त्रियों और बच्चों का संहार; ५.) कत्लेआम; ६.) तोप के मुंह से उड़ाया जाना; ७.) मनुष्यों का शिकार; ८.) सती चौरा घाट का हत्या काण्ड; ९.) अंग्रेज़ स्त्रियों और बच्चों की हत्या; १०.) कानपुर में फांसियां; ११.) पंजाब का ब्लैकहोल और अजनाले का कुआं; १२.) दिल्ली में कत्लेआम और लूट। यहाँ संकलित लेख 'सन 57 के संस्मरण' के 'दो चित्र' नमूना हेतु पाठकों के लिए प्रस्तुत किये जा रहे हैं।

अंग्रेज़ी सेना द्वारा ग्रामों का जलाया जाना एक अंग्रेज़ अपने पत्र में लिखता है:— "We set fire to a large village which was full of them. We surrounded them, and when they came rushing out of the flames, we shot them!" —Charles Ball's Indian Mutiny, Vol. I, pp. 243–44" अर्थात—"हमने एक बड़े गांव में आग लगा दी, जो कि लोगों से भरा हुआ था। हमने उन्हें घेर लिया और जब वे आग की लपटों में से निकलकर भागने लगे तो हमने उन्हें गोलियों से उड़ा दिया।"

असहाय स्त्रियों और बच्चों का संहार इतिहास लेखक होम्स लिखता है:— "Old men had done us no harm, helpless women, with sucking infants at their chests, felt the weight of our vengeance no less than the vilest male factors." —Holmes, Scpoy War, pp. 229–30. अर्थात "बूढ़े आदमियों ने हमें कोई नुक्सान न पहुंचाया था; असहाय स्त्रियों से, जिनकी गोद में दूध पीते बच्चे थे, हमने उसी तरह बदला लिया जिस तरह बुरे से बुरे आदमियों से।"


इसके अलावा ख्वाज़ा हसन निज़ामी ने 'सन 57 में दिल्ली के लाल दिन' नामक लेख में मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र की गिरफ़्तारी और उनके बेटों के क़त्ल का मार्मिक विवरण प्रस्तुत किया है। इस लेख के अनुसार मेजर हडसन ने 100 सवारों और अपने मुखबिरों मुन्शी रज़्ज़ब अली और मिर्ज़ा इलाहीबख़्श की मदद से शहजादों मिर्ज़ा मुग़ल; मिर्ज़ा खिज़र सुलतान; मिर्ज़ा अबूबकर और मिर्ज़ा अब्दुल्ला को पकड़ने में कामयाबी पाई। जब कैदी मौज़ूदा जेलखाने के करीब पहुँचे तो हडसन साहब ने बादशाह ज़फ़र और उनकी बेगम जीनत महल और जमाबख्त की पालकियों को एक तरफ़ ठहरा दिया। फिर चारों शहजादों को रथों से उतारा और अपने हाथ से हडसन ने उनका क़त्ल करके चुल्लू भर खून पिया और बुलन्द आवाज़ में कहा, "अगर मैं इन शहजादों का खून न पीता तो मेरा दिमाग़ ख़राब हो जाता, क्योंकि इन लोगों ने मेरी कौम की बेकस औरतों और बच्चों के क़त्ल में हिस्सा लिया था।" इस लेख में बादशाह और उनकी बेगम आदि के चित्र भी दिए गए हैं।

विप्लव-यज्ञ की आहुतियाँ (पृष्ठ 244–322) का आरम्भ 'कुका-विद्रोह के बलिदान' से शुरू होता है। जिसे 'निर्भय' जी ने लिखा है। 'चापेकर (विषय सूची में 'चाफेकर' भी अंकित है।) बन्धु' नामक लेख में (तीन भाइयों को उनके साथी के साथ फांसी दे दी गई); इसके लेखक का नाम 'सैनिक' रखा गया है। 'श्री कन्हाईलाल दत्त' पर लिखे लेख में 'वंशी' नाम दिया गया है। 'श्री सत्येंद्रकुमार बसू' का जीवनी लेखक 'किसान' नाम से दर्ज़ है। 'श्री मदनलाल ढींगरा' पर लिखे लेख के लेखक का नाम 'वसन्त' दिया हुआ है। 'श्री अमीरचंद' पर 'गौतम' नाम लिखा है। 'श्री अवधबिहारी' की जीवनी 'विद्रोही' ने लिखी है। 'श्री भाई बालमुकुन्द' पर लेखक का 'रमेश' नाम लिखा है। 'श्री वसन्तोकुमार विस्वास' पर लेख 'विद्रोही' द्वारा लिखा गया है। 'श्री भाई भागसिंह' की जीवनी लेखक 'नटवर' नाम से लिखी गई है। 'श्री भाई वतनसिंह' को 'चकेश' ने कलमबद्ध किया है। 'श्री मेवा सिंह' को लिपिबद्ध करने वाले का नाम 'कोविद' दिया गया है। 'श्री कांशीराम' जी के साथ 'श्री रहमत अली शाह' को भी फांसी हुई थी। शाह की जीवनी उपलब्ध नहीं हो पाई थी। इनका लेखक 'बन्दी' नाम से किताब में दर्ज है। 'श्री गंधा सिंह' की जीवनी 'लक्ष्मण' द्वारा लिपिबद्ध है। 'श्री करतार सिंह' जी की जीवनी शहीदे-आज़म भगत सिंह द्वारा उपलब्ध कराई गई थी; लेकिन किताब में संपादक ने उनका छद्म नाम 'बलवंत' प्रयुक्त किया है। 'श्री विष्णुगणेश पिंगले' की जीवनी 'वीरेन्द्र' ने लिखी है। 'श्री जगत सिंह' के लेखक 'सुरेन्द्र' हैं। 'श्री बलवन्त सिंह' जी की जानकारी 'मुकुन्द' नामक लेखक से प्राप्त हुई। 'डॉ. मथुरासिंह' को 'ब्रिजेश' ले लिपिबद्ध किया है। 'श्री बंता सिंह' पर 'गिरीश' नाम दर्ज है। 'श्री रंगा सिंह' की जीवनी को 'घनश्याम' द्वारा उपलब्ध कराया। 'श्री वीर सिंह' के लिपिबद्ध कर्ता 'यादव' जी हैं। 'श्री उत्तम सिंह'; 'डॉ. अरुंड़ सिंह'; 'श्री केदार सिंह'; और 'श्री जीवन सिंह' इन चारों क्रांतिकारियों के लेखक 'पथिक' नाम से किताब में दर्ज हैं। 'बाबू हरिनाम सिंह' की जीवनी 'अज्ञात' (ये रामप्रसाद 'बिस्मिल' जी का छद्म नाम था); 'श्री सोहनलाल पाठक' को 'सुबोध' ने लिपिबद्ध किया है। 'देशभक्त सूफ़ी अम्बाप्रसाद' की जीवनी के लेखक भी 'अज्ञात' नाम से दर्ज हैं। 'भाई राम सिंह' के लेखक 'भानु' हैं। 'श्रीभान सिंह' को 'धनेष' ने लिखा है। 'श्री यतीन्द्रनाथ मुकर्जी' पर जानकारी में 'एक युवक' का नाम दिया गया है। 'श्री नलिनी वाक्च्य' की जीवनी को 'सूर्यनाथ' प्रकाश में लाये। 'श्री ऊधम सिंह' का जीवनवृत 'पञ्चम' ने उपलब्ध कराया। 'पण्डित गेंदालाल दीक्षित' की जीवनी पर (काकोरी के शहीद) रामप्रसाद 'बिस्मिल' जी का नाम दर्ज है। 'श्री खुशीराम' के जीवनी लेखक पर 'एक दर्शक' नाम खुदा हुआ है। 'श्री गोपीमोहन साहा' की जीवनी को 'भवभूति' नाम के लेखक द्वारा पत्रिका में जगह दी गई है। 'बोमेली-युद्ध के चार शहीद' को मधुसेन जी ने लिखा है। 'श्री घना सिंह' पर 'चतुरानन' नाम दर्ज है। 'श्री बंतासिंह धामियां' के लेखक 'सेनापति' हैं। 'श्री वरयाम सिंह घुग्गा' की जीवनी 'भूषण' ने लिखी है। 'श्री किशन सिंह गर्गज्ज' को मोहन नामक लेखक ने लिखा है। 'श्री संता सिंह' को 'वीरसिंह' ने काग़ज़ पर दर्ज कराया। 'श्री दलीप सिंह' की जीवनी को 'कपिल' जी ने प्रकाशमान किया। 'श्री नन्द सिंह' के लेखक 'नटनाथ' हैं। 'श्री कर्मसिंह' को 'प्रभात' ने लिखा। 'श्री रामप्रसाद बिस्मिल' जी की जीवनी को 'प्रभात' (शिव वर्मा का ही छद्म नाम है) ने लिखा। 'श्री राजेंद्रनाथ लहरी' की जानकारी 'संतोष' ने दी। 'श्री रोशन सिंह' की जीवनी के लेखक रूपचंद हैं। और अंत में 'श्री अशफ़ाक़ुल्ला खां' की जीवनी लेखक पर 'श्री कृष्ण' नाम दर्ज है।

दो वीरों के फांसी के उपरांत के दो चित्र देखिये :— अमर बाल क्रान्तिकारी 'खुदीराम बोस' (उम्र 18 वर्ष) पर अलग से लेख श्री शारदाप्रसाद भण्डारी द्वारा लिखा गया है। लेखक ने अंत में बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है, "खुदीराम बोस की सुन्दर चिता बनाई गई। धू-धू करके चिता जल उठी। काली बाबू ने ही सुगन्धित पदार्थ, काष्ठ और घृत की आहुति दी। अस्थि चूर्ण और भस्म के लिए परस्पर छीना-झपटी होने लगी। कोई सोने की डिब्बी में, कोई चाँदी के और कोई हाथी दाँत के छोटे-छोटे डिब्बों में वह पुनीत भस्म भर ले गए। एक मुट्ठी भस्म के लिए हज़ारों स्त्री-पुरुष प्रमत्त हो उठे थे."

फांसी के बाद जब अशफ़ाक़ का शव फैज़ाबाद से शाहजहांपुर लाया जा रहा था तो लखनऊ स्टेशन पर सैकड़ों की भीड़ जमा थी। एक अंग्रेज़ी अख़बार के संवाददाता ने लिखा था — "The Public of Lucknow thronged at the station to sea the last remains of their beloved Ashfaqa and the old men were weeping as if they have lost their own Son." अर्थात—लखनऊ की जनता अपने प्यारे अशफ़ाक़ के अंतिम पुण्य दर्शनों के लिए बैचैन होकर उमड़ आई थी और बृद्ध लोग इस प्रकार रो रहे थे; मानो उनका अपना ही पुत्र खो गया हो।

देशभक्ति की अमित ज्योत जलाते इस अंक को सभी पाठकगण; शोधार्थी और भारतीय इतिहास की सच्ची और स्टीक जानकारी रखने वाले पाठक ज़रूर पढ़ें। यह अपने निजी किताबघर में रखने लायक पुस्तक है। इसमें सीखने, जानने के लिए बहुत कुछ है। जिसे जीवन भर पढ़ा जा सकता है। बारबार पढ़ा जाना चाहिए। और अंत में अपने एक दोहे से सभी क्रांतिकारियों को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहूंगा:—

फ़िदा वतन पर जो हुआ, दिल उस पर क़ुर्बान।
जीवन उसका धन्य है, और मृत्यु वरदान।।