जीवन का स्थायी भाव मित्रता / जयप्रकाश चौकसे

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जीवन का स्थायी भाव मित्रता
प्रकाशन तिथि : 19 मार्च 2013


निर्माता वासु भगनानी और निर्देशक प्रियदर्शन ने जैकी भगनानी अभिनीत फिल्म 'रंगरेज' बनाई है, जो एक सफल दक्षिण भारतीय फिल्म पर आधारित है। प्रियदर्शन लंबे समय बाद गंभीर प्रेमकथा पर लौट रहे हैं। उन्होंने कुछ वर्षों तक हास्य फिल्में बनाईं और दर्शक भूल गए थे कि उन्होंने 'विरासत' जैसी सफल, सघन द्वंद्व वाली फिल्म भी बनाई थी। 'रंगरेज' में प्रियदर्शन अपने पुराने रंग में लौट रहे हैं और याद आती है 'तनु वेड्स मनु' के गीत की पंक्ति कि 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है?' गोया कि हास्य की अफीम में लीन सिनेमाई रंगरेज अब अपने सही कारोबार में लौट रहा है।

इस प्रेमकथा का केंद्रीय भाव मित्रता है और भारतीय सिनेमा में प्रेम तथा दोस्ती के भावों के मिश्रण पर अनगिनत फिल्में बनी हैं और यह बॉक्स ऑफिस पर आजमाया हुआ खेल है। इस फिल्म में भावों के इस संगम को एक नया मोड़ यह दिया है कि नायक की अपनी प्रेम-कथा मेें कोई रुकावट नहीं है, क्योंकि उनकी प्रेमिका का पिता आश्वस्त है कि नायक पुलिस अफसर बनने वाला है। उसने आवश्यक इम्तिहान पास कर लिया है। नायक अपने दो युवा मित्रों के साथ चौथे मित्र की प्रेम कहानी में आई रुकावट दूर करने में सफल होता है, परंतु प्रक्रिया में कानून तोडऩे के कारण नायक की पकी-पकाई नौकरी पर साया मंडराता है और यह मालूम पडऩे पर कि उन्होंने जो मित्र का प्रेम विवाह कराया था, वह टूट गया है। गोया कि जिंदगी गुनाहे बेलज्जत हो गई है और मित्र पुन: संघर्ष में जुट जाते हैं। प्रेम कहानियां किस तरह रोमांचक दौर से गुजरकर अंजाम तक पहुंचती हैं - यह घटनाक्रम रोचक हो सकता है।

इस फिल्म के द्वारा प्रियदर्शन की वापसी और जैकी भगनानी की भावप्रवणता स्थापित हो सकती है। वे अब नए नहीं हैं, संभवत: यह उनकी चौथी फिल्म है। इस दौर में अनेक निर्माता युवा प्रतिभा के विकास का काम कर रहे हैं, क्योंकि साधनों की विपुलता के दौर में युवा सितारों का अभाव फिल्म उद्योग के आर्थिक समीकरण को बिगाड़ सकता है। मित्रता का रिश्ता भारतीय अवचेतन में भाइयों के रिश्ते से गहरा पैठा हुआ है। महाभारत का प्रथम पांडव कर्ण अपने जन्म के तथ्य को जानने के बाद भी मित्रता की खातिर दुर्योधन के पक्ष में युद्ध करता है। इसी महाकाव्य में श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता का भी विवरण है। हमारे इतिहास और आख्यानों में इस रिश्ते की गरिमा और गहराई प्रस्तुत की गई है तथा पूरे विश्व साहित्य में भी मित्रता उवाच मौजूद है। कहीं-कहीं मित्रता बचपन के कुटैव की तरह भी स्थापित है। हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा में उनके बचपन के मित्र कर्कल का हृदयस्पर्शी विवरण प्रस्तुत किया गया था। दरअसल यह रिश्ता आपकी आत्मा का आईना है और मित्र के सामने आप अपनी कमियों सहित बेझिझक प्रस्तुत हो सकते हैं। दोस्ती आईने के साथ ही व्यक्ति की अलिखित डायरी भी होती है। इस रिश्ते की गहराई में यह तथ्य है कि यह आपकी शक्ति नहीं वरन कमजोरी का निर्वाह करता है। शायद यही कारण है कि ताराचंद बडज़ात्या की लक्ष्मी-प्यारे के संगीत से सजी सफल 'दोस्ती' में एक अंधा और एक लंगड़ा जीवन यात्रा को मित्रता के सहारे सार्थक बना लेते हैं। गोया कि चारित्रिक अपंगता और कमतरी की भी इसमें पूर्ति हो सकती है। फरहान अख्तर की 'दिल चाहता है' भी तीन दोस्तों की कहानी है और राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'रंग दे बसंती' में तो एक इतिहास आधारित वृत्तचित्र की निर्माण प्रक्रिया में उनके चरित्र का कायाकल्प हो जाता है। मित्रता और प्रेम के रिश्ते में एक जैसी पवित्रता और साफगोई है। कमजोरियों के निर्वाह वाले रिश्ते ही मजबूत होते हैं। आम जीवन में कोई सुपरनायक नहीं होता। मजबूत व्यक्तियों के पैर भी मिट्टी के बने होते हैं और इस मायने में मित्रता मिट्टी का रिश्ता है और मिट्टी की महक तथा उर्वरकता इसमें होती है। बचपन, किशोर या युवावस्था में बनाई गई मित्रता और उसकी स्मृतियां बुढ़ापे में बड़ा संबल बनती हैं। गुलशेर खान 'शानी' ने तीन रंगीन बूढ़े पात्रों को लेकर मनोरंजक 'शौकीन' लिखी थी। सुना है उसका नया संस्करण भी बनाने का प्रयास किया जा रहा है। क्या 'शौकीन' जैसे फिल्म के नए संस्करण में अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और विनोद खन्ना अभिनय के लिए तैयार होंगे?

बहरहाल, इस पावन रिश्ते में यह पक्ष भी निहित है कि कभी-कभी दोस्ती दुश्मनी में भी बदल जाती है और दुश्मनी भी उसी शिद्दत से निभाई जाती है, जिस जोश से मित्रता निभाई थी। इस तरह की श्रेष्ठ कथा 'बैकेट' है, जिससे प्रेरित 'नमक हराम' ऋषिकेश मुखर्जी ने बनाई थी। सलीम-जावेद की अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत 'दोस्ताना' भी है। बहरहाल, प्रियदर्शन के पास 'रंगरेज' की कथा में सफल फिल्म बनाने के सारे तत्व मौजूद हैं। यह शब्द भी हिंदी के रंग और फारसी के रेज से बना होने की संभावना है। हिंदुस्तान की सांस्कृतिक प्रयोगशाला में अजूबे संभव हैं। यह शब्द यकीनन अंग्रेज की तर्ज पर नहीं रचा गया है। फिल्मकार भी रंगरेज की तरह कथा पर मनोरंजन रंग लगाता है।