जीवन की महाडोर / अंजना वर्मा

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भारतीय चिंतन धारा के अनुसार संपूर्ण सृष्टि का निर्माण पंचतत्वों से हुआ है जो पंच महाभूत भी कहे जाते हैं। इन्हीं से सृष्टि और जीवन की उत्पत्ति मानी गयी है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-ये पाँच तत्व हैं जो ब्रह्माण्ड के हर दृश्य एवं अदृश्य रूप में अवस्थित हैं। मानव तथा अन्य जीवधारियों का शरीर न केवल इन्हीं तत्वों से निर्मित हुआ है, बल्कि उनकी भौतिक काया में इनकी उपस्थिति ही उन्हें सजीव एवं गतिमान बनाए रखती है। किसी भी प्राणी के अस्तित्व की समाप्ति के बाद ये पंचतत्व उस पिंड से निकलकर अपने-अपने महारूपों में विलीन हो जाते हैं। पंचभूतों में से हर तत्व का अपना विशेष महत्त्व है और हर तत्व ही जीवन का कारक है। शरीर पृथ्वी तत्व से निर्मित होता है। हमारा पुराना समाज इसमें विश्वास करता था और इस गहन तथ्य को बड़े ही सहज ढंग से कहता था कि यह तन मिट्टी का बना है। शरीर मिट्टी का है तो शरीर के भीतर बहने वाला लाल द्रव जल का ही एक रूप है जो मानव तन के भीतर रक्त और पेड़-पौधों के भीतर रस बनकर बह रहा है।

जीवन को बनाए रखने और उसे संचालित करने के लिए जिस ऊष्मा की ज़रूरत होती है वह अग्नि तत्व है। अग्नि तत्व अग्नि के रूप में नहीं, बल्कि ऊष्मा और ऊर्जा बनकर शरीर को सजीव एवं गतिमान बनाए रखता है। मनीषियों ने वनस्पतियों में भी इसकी उपस्थिति बताई

है। अग्नि के ही दूसरे रूपों पर विचार करें तो प्रकाश भी अग्नि का एक स्वरूप है जो कई बार बड़े स्पष्ट तौर पर प्राणियों में दिखाई देता है। जैसे जुगनू में प्रकाश होता है। आँखों में रोशनी होती है। आंँखों की रोशनी से अर्थ केवल दिखाई देने की शक्ति का नहीं है, बल्कि उस चमक का भी है जो आँखों में व्याप्त रहती है। चेहरे और शरीर में कांति होती है। ये सब जीवन के चिह्न हैं। प्रत्यक्षत: हर वस्तु को भस्मीभूत करने की क्षमता रखने वाले इस तत्व के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। आँखें खोल कर देखेंगे तो पता चलेगा कि हमारे दैनिक जीवन में यह किस तरह हमारे साथ चल रहा है। चूल्हे कीआग, प्रकाश, विद्युत तथा विभिन्न प्रकार के आधुनिक उपकरणों, आदि के बिना तो जीवन एक‌ इंच भी नहीं खिसक सकता।

शरीर में सांसों का आवागमन और उसके द्वारा प्राणियों का पोषण प्राणियों के अस्तित्व में वायु की उपस्थिति को स्वयं सिद्ध करता है जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं हो सकती। इसीलिए इसका एक पर्याय प्राण भी है।

आकाश तत्व या शून्य शरीर के खोखले भाग में स्थित होता है जो कमोबेश सभी प्राणियों की काया में हैऔर सूक्ष्म रूप में यह हमारे विचारों, संंवेदनाओं और कल्पनाओंं से जुड़ा हुआ है-हृदय एवं मस्तिष्क से। जब जीवन अपना जाल समेटने लगता है तो विचार और स्मरण-शक्ति क्षीण होने लगती है और कल्पना भी उड़ान भी कम हो जाती है जो आकाश तत्व के धीरे-धीरे मानव-तन से बाहर निकलते जाने का ही परिणाम है।

‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ मानव-शरीर की संरचना में पंचतत्वों का सम्बंध केवल मनुष्य की भौतिक काया से ही नहीं है, बल्कि उसकी आत्मा तक से जुड़ा हुआ है। हर पदार्थ के दो पहलू होते हैं-एक स्थूल और एक सूक्ष्म। स्थूल रूप यदि दृश्य पहलू है तो सूक्ष्म रूप अदृश्य पहलू। इसका मतलब यह है कि मनुष्य के मन में निवास करने वाले भाव देखे तो नहीं जा सकते, लेकिन उनकी उपस्थिति और उनके प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता। ये अदृश्य होकर भी जीव को स्थूल पक्ष से कई गुना अधिक प्रबलता से संचालित करते रहते हैं।

सुख-साधनों की बहुलता ने मानव-जीवन को नकारात्मक ढंग से भी प्रभावित किया है। वैज्ञानिक प्रगति से जीवन के दृश्य व स्थूल पक्ष पर मनुष्य का विश्वास बढ़ना उस के पक्ष में बहुत अच्छा नहीं हुआ; क्योंकि सूक्ष्म पक्ष गौण होता चला गया। सूक्ष्म पक्ष गौण भी होने से उसकी भौतिक उपलब्धियों पर कोई कष्टकारक प्रभाव नहीं पड़ा और मनुष्य अपनी रौ में आगे बढ़ता रहा। मानव से मानव के सम्बंध टूटते चले गए, मानव प्रकृति से सम्बंध-विच्छेद कर वनस्पतियों, पर्वतों, नदियों और प्राणियों के प्रति निर्मम होता चला गया। जीवन में घुला अनुराग कब और कहाँ टूटा, कहाँ भहराया-इसकी ख़बर लेने की फुर्सत विजेता मानव को कभी न हुई। लेकिन यदि कुछ भीतर ही भीतर घटित हो रहा है तो उसका असर बाहर भी पड़ेगा ही। इसमें कोई संदेह नहीं। आज की संकटकालीन स्थिति में जब हमारा वैज्ञानिक पराक्रम विश्वव्यापी महामारी के सामने हतप्रभ होकर खड़ा है तब हमें अपनी वास्तविक स्थिति समझ में आ रही है कि इन पंचभूतों के साथ छेड़खानी का ही खामियाजा आज हमें भुगतना पड़ रहा है।

वर्तमान समय में कई कारणों से मानव क्षमता जीवन के स्थूल पक्ष में ही सक्रिय है और सूक्ष्म पक्ष में संकुचित हुई है जिसके कारण मनुष्य पदार्थ के स्थूल रूप में ही उलझा हुआ है और उसने सूक्ष्म रूप पर ग़ौर करना छोड़ दिया है। ‌ उसकी दृष्टि में सदैव बाहरी सुख-सुविधाएँ और किसी वस्तु का दृश्य रूप ही ग्राह्य बन गया है और अदृश्य को तो वह मानता ही नहीं। यदि अदृश्य की सत्ता नहीं है तो क्या वायु की सत्ता भी नहीं है जिसकी अनुपस्थिति से एक पल में सृष्टि का अंत हो जाएगा? अपनी भौतिक विजय को ही वास्तविक विजय मानना वैचारिक खोखलेपन का परिचायक है। मनुष्य ने अपनी अधिकांश शक्ति भोजन, वस्त्र और आवास को सुलभ एवं सुंदर बनाने के प्रयास में इन्हें जटिल बनाकर ख़र्च कर दी जिससे बचकर अपनी शक्ति को बचाया और बढ़ाया जा सकता था। अब यह सोचना और समझना दोनों ही मुश्किल हो चुका है। इसलिए आज दिनों-दिन आत्मिक शक्ति का ह्रास हो रहा है। भौतिक संसार बढ़ रहा है और आध्यात्मिक संसार का क्षरण हो रहा है।

बहरहाल यही विषय प्रासंगिक है और किसी एक राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के हित में सोचने और समाधान निकालने की ज़रूरत है; क्योंकि पूरा विश्व कमोबेश इन तत्वों से उत्पन्न समस्याओं से जूझ रहा है जिसके कारण मानव-जीवन खतरे में पड़ गया है। आज हम जिस विश्वव्यापी महामारी से जूझ रहे हैं जो प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से मानवेतर प्राणधारियों के प्रति क्रूरता का ही परिणाम है जिससे बचने का कोई रास्ता हमें दिखाई नहीं दे रहा है। वैक्सीन लगवाने के बाद भी कहा जा रहा है कि यह सिर्फ़ एक कवच है और कोवििड की भयंकरता के सामने अपर्याप्त है।

ख़तरा तो मानव जीवन के साथ-साथ पूरी प्रकृति पर भी है जिससे हमारा जीवन अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। जीवधारियों की कितनी सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं, हम होश में नहीं आये; क्योंकि हम कभी सोच ही नहीं सकते थे कि किसी अन्य प्राणी या प्रकृति का कुछ बिगाड़ कर हम अपना ही अहित कर लेंगे। स्मरण रखना चाहिए कि हर इकाई सृष्टि के महावृत्त का एक मनका है। भूूूूतल पर मानव का अस्तित्व बना रहे, इसके लिए

सचेत रहना होगा कि प्रकृति और मानवेतर प्राणियों की भी अस्मिता बनी रहे।

मानवीय सभ्यता के विकास ने सृष्टि के इन पाँचों कारकों को अपरिमित क्षति पहुँचाई है जिसके कारण उसका अपना जीवन और उसकी अपनी दुनिया ही संकटग्रस्त हो गई है। मनुष्य की आयु भले ही बढी हो, परंतु वह आदिकाल की तुलना में तो कम ही है। जब मनुष्य सौ वर्ष से अधिक जीता था तब उसका जीवन प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ था और मनुष्य प्रकृति की गोद का हँसता-खेलता बच्चा था। प्राकृतिक जीवन जीते हुए अपनी ज़रूरतों के लिए वह प्रकृति पर निर्भर करता था जिसके फलस्वरूप वह शारीरिक और मानसिक तौर पर जितना सबल, स्वस्थ और सुखी था आज बहुत तरक्क़ी करके भी वह वैसा नहीं है। दवाइयाँ और चिकित्सा के क्षेत्र में अनुसंधान बढ़े, तो विभिन्न प्रकार की असाध्य बीमारियाँ भी बढ़ीं। एक ओर सुख-सुविधाएँ इकट्ठी हुईं तो दूसरी ओर चिंताएँ और आपाधापी बढ़ गई। प्रकृति से दूर होते जाना उसके लिए बहुत महँगा पड़ा। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अनेक संकटों का सामना मनुष्य को करना पड़ा है जिसे अभी भी मानव संत्रस्त है और इसे समझ पाने में असमर्थ! समाज का एक बहुत छोटा-सा अंश इस बात की गंभीरता को समझता है कि प्रकृति के साथ मनुष्य का न केवल अटूट सम्बंध है, बल्कि प्रकृति के साथ सम्बंध-विच्छेद करके वह दोयम दर्जे की ही खुशियाँ प्राप्त कर रहा है।

मनुष्य ने पृथ्वी को पूरी तरह तबाह कर दिया है। फैक्ट्रियों से उत्सर्जित रासायनिक पदार्थ, वनस्पतियों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशक और स्वयं मानव के द्वारा निकाले जाने वाले कूड़ा-करकट ने भूमि की उर्वरता को या तो कम किया है या पूरी तरह समाप्त कर दिया है, साथ ही कई असाध्य बीमारियों को भी जन्म दिया है। एक समय था जब मनुष्य पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को अपने जीवन और खुशियों का हिस्सा मानता था। उन्हें बंधु-बाँधव समझा जाता था-यत्र मृगापि द्रुमापि बंधवा मे। परंतु आज पेड़ों को दुश्मनों की तरह, गाजर-मूली की तरह काट डाला गया है और यह क्रिया निरंतर जारी है। वन और पर्वत समाप्त हो रहे हैं। नदियाँ विषैली हो रही हैं। प्राणी-पंछी, कीट-पतंग लुप्त हो रहेे हैं। हम इनके प्रति थोड़ा सदय होकर भी अपना काम चला सकते थे और निश्चित रूप से सुखी तो हो ही सकते थे। परंतु आज होड़-सी लगी है प्रकृति से दूर भागने कीऔर इसे नष्ट करने की।


वैदिक काल में जंगल भय के नहीं, अपितु विद्या, साधना और तप के स्थल थे। ऋषि-मुनियों का रिश्ता मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति और वनचरों से भी हुआ करता था। जंगलों और पशु-पक्षियों से प्रेम करने के कारण ही धरती वनस्पतियों से हरी-भरी और जीवधारियों से संपन्न बनी हुई थी जिसका फायदा मनुष्य ही उठा रहा था। प्रकृति को आहत करके मनुष्य ने अनजाने में अपने को ही आहत कर लिया है और प्रकृति के रूठने से मानव के आध्यात्मिक पहलू का भी क्षरण हुआ है जो सचमुच में एक बहुत बड़ी क्षति है। सुख पाकर भी शांति की विलुप्ति मानव जीवन में स्थायी अतृप्ति घोल गयी है।

पेड़ पौधों की कटाई, कीटनाशकों और प्लास्टिक के बेलगाम उपयोग, नदियों को प्रदूषित करने, पर्वतों के काटे जाने से धरती संत्रस्त हो उठी है। इनके कारण पर्यावरण में कितने विनाशकारी तत्व अपना दुष्प्रभाव दिखा रहे हैं।

इसका एक और सूक्ष्म पहलू है। हमारी आत्मा और हमारी संवेदनाओं का विस्तार जो कभी पृथ्वी के कण-कण से जुड़ा हुआ था वह इतना दुर्बल हो गया है कि हम अपनी अस्मिता की अनुगूँज अपनी देह से बाहर नहीं सुन पा रहे हैं, जबकि हमारे अस्तित्व को रचने वाले तत्व हमारे शरीर में कम और प्रकृति में अधिक फैले हुए हैं। संदर्भ के अनुसार कहें तो पंचतत्वों में फैले हुए हैं। हजारों वर्ष पूर्व हमारा विश्वास इन पंच महाभूतों में था जिसके कारण ऋषि-मुनियों ने इन्हें देवी-देवताओं का दर्जा दिया। धरती माँ है। नदियाँ माताएँ हैं। अग्नि और वायु प्रबल देवता हैं। आकाश तो व्योमकेश शिव का ही प्रतिरूप है जिसकी जटाओं में चाँद उलझा हुआ है। इस तरह की अवधारणाओं ने हमें अपरिमित आत्मिक शक्ति दी। आज पृथ्वी मिट्टी का एक वृहत् गोला है। धरती धूल है-माँ नहीं। नदियाँ पानी का प्राकृतिक स्रोत हैं, दूध पिलाकर पोसने वाली ममतामयी माताएँ नहीं। आग-आग है-सर्वभक्षी और भयंकर। आसमान सारे ग्रह-नक्षत्रों को धारण किए हुए एक अनंत शून्य ही है। वायु भी एक प्रबल प्राकृतिक शक्ति है और कुछ नहीं। इस तरह की सोच में कहीं अपनापन और अनुराग का एक सूत भी नहीं है। प्रेम का बंधन केवल मानव-मानव के बीच ही नहीं, मानव और प्रकृति के बीच भी बँधना चाहिए। ममता की ज़रूरत यहाँ भी है। चंदा मामा, गंगा मैया, जमुना जी, सूरज बाबा जैैसे रिश्तों को खोकर हमने अपनी आत्मा का सर्वस्व खो दिया है। अपनी संस्कृति के इस अनमोल पक्ष को खोकर हमने अपना कितना-कुछ लुटा दिया जिसका आकलन करना कठिन है।

भारतीय चिंतन में हर वस्तु में परमात्मा का निवास माना गया है। यह परमात्मा और कुछ नहीं; बल्कि चिंतन और संवेदना का ही जाना-पहचाना धागा है जो संपूर्ण ब्रह्मांड को हमारे मन और हमारी भावनाओं से जोड़ता है। इसीलए अंत: करण के आयतन को बड़ा करना ही मानव के हित में है। आत्मा का विस्तार करना, जो अदृश्य होते हुए भी संपूर्ण अनुभव का कारण है। यही मनुष्य को उदारचेता बना सकता है जिसके बल पर वह पूरी पृथ्वी और पूरे आकाश को नाप सकता है। पूरे विश्व को अपने प्रेम के बंधन में बाँध सकता है तथा परकाया प्रवेश कर किसीके दु: ख को माप सकता है। यही आध्यात्मिकता भी है। अन्त: करण का विस्तार हमारी संवेदना का विस्तार है जो हर तत्व में पैठकर रम सकती है और यह हमारी इच्छा-शक्ति और हमारे प्रयास से संभव भी है। कबीर के शब्द 'ज्यों तिल माही तेल है ज्यों चकमक में आगि' परमात्मा के लिए भले हों, पर परमात्मा भी अपनी आत्मा का विस्तार है और अपनी ही आत्मा का जागरण!

हमारी संस्कृति इन पंचतत्वों के विषय में पूरी तरह सचेत और इनके प्रति कृृतज्ञ रही है। धरती की पूजा का विधान ख़ास ऋतुओं में तो है ही, विवाह तथा किसी भी अन्य पूजन के पहले भी धरती की पूजा अनिवार्यत: की जाती है। प्रकृति के अवयवों के लिए भी शांति पाठ किया जाता है कि उनके अशांत और उग्र होने से‌ हमारे जीवन में भी उथल-पुथल मचेगी। कई राज्यों में विवाह के पहले खुली जगह में या बगीचे में जाकर मिट्टी की पूजा की जाती है। यह मिट्टी से आशीर्वाद लेने का तरीक़ा है; क्योंकि मिट्टी हमारी जननी है-केवल धूल और कीचड़ नहीं। यह पैरों से रौंदी जाती हुई मिट्टी भी इतनी पवित्र है कि उसीसे देवताओं की मूर्तियाँ बनती हैं। दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए कई स्थानों की मिट्टियों के साथ उन औरतों के घर के सामने की मिट्टी लेना भी अनिवार्य होता है जिन्हें हमारे ही षड्यंत्र ने बाज़ार में बैठा दिया है। इस विधान को जानकर और इस पर अमल करने के बाद भी समाज न तो स्त्री को सम्मान दे पाया और न यही समझ पाया कि सभी जीवधारियों में एक ही पृथ्वी तत्व की उपस्थिति है और एक ही संवेदना का तार है। स्त्री अपमान करने केेे लिए नहीं बनी है।

पूजा के प्रारंभ में जल से भरा कलश रखा जाता है और जल के कलश में सात तरह की मिट्टी, जिसे सप्तमृत्तिका कहते हैं, डाली जाती है। यह है मिट्टी की महिमा जिसे आज हम भूल गए हैं! मूर्तियाँ पत्थरों से भी बनती हैं। उनमें भी तो पृथ्वी तत्व है। हम इस तथ्य पर विचार करेें कि आख़िर क्यों मातृभूमि को स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ कहा गया है? क्यों मातृभूमि का आकर्षण हर प्रवासी को आजीवन अपनी ओर खींचता रह जाता है? यदि यह सप्राण ना होती तो ऐसा होता क्या? निर्जीव दिखने वाली धरती का यही चुंंबकत्व उसका सजीव व्यवहार है। अपने गर्भ के जल से वह निष्क्रिय दिखने वाले बीजों को सक्रिय बनाकर जीवन दे देती है। वह उन्हें सजीव पेड़-पौधों में परिणत कर देेेती है। इस तरह सोचने से हमारी सोच का आयतन जब बढ़ जाता है तो हमें सुख के साथ-साथ अपरिमित शांति भी मिलती है। कंक्रीट के जंगलों से निकलकर कभी हम धूल-मिट्टी और पेड़-पौधों में भी विहार करके देखें कि कैसा आनंद मिलता है वहाँ! यदि आनंद नहीं मिलता होता तो लोग हिल स्टेशनों में भीड़ क्यों बढ़ाते? किसान मिट्टी-पानी के बीच भी जीवन बिता कर सुखी-संतुष्ट क्यों रहते? जब-जब मनुष्य को बेचैनी होती है तब-तब वह प्रकृति की गोद में जाकर सुख पाता है। पर यह पहेली उसे समझ में नहीं आती। जिस प्रकृति के साहचर्य को पाने के लिए मानव हजारों मील दूर, यात्रा के कष्टों को उठाकर उसकी गोद में पहुँचता है, उसे अपने चारों विनष्ट क्यों करता है? अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास क्यों नहीं करता?

जल जीवन का केंद्रीय तत्व है इसीसे सृष्टि का जन्म हुआ है और यही जीवन को बनाए भी रखता है। शरीर का अधिकांश भाग पानी है तथा पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग पानी है जिसमें 95 प्रतिशत से अधिक जल समुद्र धारण करते हैं। नदियों, ग्लेशियर तथा वायु में नमी के रूप में भी जल ही है। मनुष्य और अन्य प्राणियों के शरीर में भी अधिकांशतः जल है जिसकी उपस्थिति ऊर्जा और जीवन बनाए रखती है।

स्थूल से ऊपर उठते हुए कोई भी तत्व जितना ही सूक्ष्म होता जाता है उतना ही अधिक प्रभावी भी। पृथ्वी से सूक्ष्म है जल, ‌ जल से सूक्ष्म अग्नि, अग्नि से सूक्ष्म वायु और वायु से सूक्ष्म है आकाश। अग्नि तत्व का अस्तित्व ऊष्मा या ज्वाला के रूप में हर कहीं फैला हुआ है। प्राणियों के शरीर में भी यह ताप के रूप मेें अवस्थित होकर जीवन की ऊर्जा प्रदान करता है और शरीर से इसके निकल जाने का अर्थ मृत्यु ही है। यही तत्व एक ऐसा है जिसे प्रदूषित नहीं किया जा सकता, लेकिन दूषित वस्तुओं से उठती लपटों और धुएँ से पर्यावरण भयंकर तौर से प्रदूषित हो जाता है और वर्तमान समय में ऐसा हुआ है। अग्नि जीवन देती है, पर सर्वनाश करने की भी क्षमता रखती है। चूल्हे में, लैंप या लालटेन में सिमटी हुई आग पोषण करती है तो‌ कभी-कभी पल-भर में घर और शहर तक जला देती है। इसका अस्तित्व पूरे ब्रह्मांड में देखा जा सकता है-घर के टिमटिमाते हुए बल्ब या दीये से लेकर आकाश में सूर्य तक। मनुष्य प्रकाश के बिना, अग्नि के बिना और ताप के बिना जीवित नहीं रह सकता। आज कूड़े-कचरे को जलाने, वाहनों के धुएँ, एसी, रेफ्रिजरेटर इत्यादि से निकलने वाली गैस और गर्मी से तथा मोबाइलों और कई अन्य प्रकार के उपकरणों के इस्तेमाल से भयंकर क्षति हो रही है।

वायु के सम्बंध में कहना ही क्या है? इसका संचरण एक पल के लिए भी रुक जाए तो जीवन ही ख़त्म हो जाए। वैज्ञानिक सभ्यता के विकास से अब वातावरण इस तरह प्रदूषित हो गया है कि शहरों की हवा तक ज़हरीली हो गई है। सड़कों पर दौड़ते हुए वाहन, फैक्ट्रियों से निकलते हुए धुँए, जलते हुए कूड़े-कचरे से निकलती हवा अब फेफड़ों को नुक़सान ही पहुँचाने लगी है। हमारे पुरखे स्वाभाविक रूप से सौ साल के जीवन का आनंद उठाते थे और सौ शरद ऋतु जीने का आशीष भी दिया करते थे।

आकाश शून्य होकर भी आदिकाल से मनुष्य की अनंत कल्पनाओं और लालसाओं का विहार-स्थल रहा है। स्वर्ग-नरक, देवता-पितर के अनगिनत मिथक इसी के वितान में ग्रह-नक्षत्रों को लेकर गढ़े गए। पृथ्वी को अपने आगोश में समेटे हुए नीला आकाश वर्तमान समय में धरती पर हो रहे कार्यकलापों से बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पौराणिक कथाएंँ भी इस ओर संकेत करती है कि मानवीय कर्मों की धमक वहाँ तक पहुँची और आकाश में उथल-पुथल मची-चाहे वह युद्ध हो या प्रेम हो, पाप हो अथवा पुण्य हो। आज भी यथार्थ रूप में इसे देखा जा सकता है कि सारी दुनिया से नाता तोड़कर आत्मकेंद्रित मनुष्य के कारनामों से आसमान क्षुब्ध हो उठा है। ओजोन की परत पतली होने और फटने के कारण सूर्य की किरणें अब हानिकारक भी हो उठी हैं और मनुष्य, जीव-जंतु तथा वनस्पतियों के लिए रोगों का ख़तरा बढ़ गया है। पहले हम आसमान को सम्मान के साथ अपने जीवन में जगह देते थे। वन-उपवन, चारागाह और हरी धरती के ऊपर छाये हुए प्राण वायु से भरे नभ तत्व का आनंद तो हम उठाते ही थे, अपने निवास में भी आँगन के रूप में इसे जगह देकर न केवल अपने जीवन के लिए इसे अनिवार्य समझते थे, बल्कि इसके साथ एक अटूट और आत्मिक रिश्ता भी क़ायम करते थे। भरपूर ऑक्सीजन और खुली हवा पाते थे।

बाहर के पंचतत्वों से विरोध करके मनुष्य ने जीते-जी अपनी काया के पंचतत्वों के संतुलन को बिगाड़ लिया है। प्राकृतिक असंतुलन ने हमें बाहर एवं भीतर से असंतुलित कर शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्षीण कर दिया है।

जहाँ-जहांँ जीवन है वहाँ-वहाँ पंचतत्व हैं। इन पंचमहासूतों से जीवधारियों के जीवन की चादर तो बुनी ही गई है, इन तत्वों के गहन प्रभाव जीवन पर लगातार पड़ते रहते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भौतिक प्रभाव के साथ-साथ हमारेे सोच-विचार पर भी सूक्ष्म प्रभाव पड़ता रहता है। इन तत्वों के साथ जब सुंदर तालमेल बन जाता है तो अनिर्वचनीय आनंद की प्राप्ति होती है। इसीलिए हमारी संस्कृति में पंचतत्वों को जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर अनिवार्य रूप से जुटाने की परंपरा रही है। मृतिका के रूप में धरती, सजल कलश के रूप में जल तथा दीपक के रूप में अग्नि का समायोजन क्षिति, जल, पावक की उपस्थिति है। गगन और समीर को अलग से क्या जुटा पाएगा मनुष्य? ये दोनों तत्व तो एक-एक अवयव और पूरी पृथ्वी को आवृत्त किए हुए हैं।

इन पंचतत्वों की धड़कनें सुनने की ज़रूरत है। अनुराग-भरी दृष्टि से संपूर्ण वसुंधरा को देखने की ज़रूरत है। मनुष्य कभी अपने को विजेता समझ कर सृष्टि को आहत न करे! अनंत आकाश उसके ऊपर फैला हुआ है जो उसकी पकड़ से बाहर है, जो उस पर नज़र रखता है और जो सर्वव्यापी अनंत शक्ति है।