जीवन के किचन के पकवान / जयप्रकाश चौकसे

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जीवन के किचन के पकवान
प्रकाशन तिथि : 18 अप्रैल 2013


नासिर हुसैन एक अत्यंत सफल फिल्मकार थे। उनकी शिक्षा शशधर मुखर्जी के फिल्म स्कूल में हुई थी, जहां हमेशा फॉर्मूले के तहत सौ प्रतिशत मसाला मनोरंजन गढ़ा जाता था। उन्होंने एक ही प्रेम-कथा को थोड़े-से परिवर्तन के साथ दर्जन से अधिक बार बनाया। एक बार उनके घर दावत के बाद रणधीर कपूर ने उनसे पूछा कि वे अपनी फिल्मों का मसाला क्यों नहीं बदलते, क्यों आपकी हर फिल्म में नायक-नायिका मिलते-बिछुड़ते और फिर मिल जाते हैं? नासिर हुसैन ने कहा कि अभी आपने मेरे घर की पकी बिरयानी पसंद की और आइंदा भी ऐसी ही खाना चाहेंगे - यह ख्वाहिश जाहिर की। जैसे वे बिरयानी के मसाले नहीं बदलते, वैसे ही फिल्में भी बनाते हैं। नासिर हुसैन ने अपनी नायिका आशा पारेख को भी लंबे समय तक नहीं बदला और जब बदला भी, तो अन्य तारिका को आशा पारेख वाली छवि में ही प्रस्तुत किया, अर्थात उनके प्रेम के किचन में मसाला एक ही रहा। ज्ञातव्य है कि आशा पारेख को उन्होंने अपनी फिल्म 'दिल देके देखो' में प्रस्तुत किया था। यही आशा पारेख की पहली फिल्म थी।

आज के पाठकों की सहूलियत के लिए उनकी कुछ फिल्मों के नाम हैं - 'यादों की बारात', 'जमाने को दिखाना है', 'दिल देके देखो', विजय आनंद की 'तीसरी मंजिल' आदि। उन्होंने ढेरों धन कमाया और जमीन-जायदाद खरीदी। उनके एकमात्र सुपुत्र मंसूर खान भी सफल फिल्मकार रहे हैं। उनकी फिल्में हैं -'कयामत से कयामत तक', 'जो जीता वही सिकंदर' और जोश। मंसूर और आमिर खान चचेरे भाई हैं और गहरे दोस्त भी। कुछ वर्ष पूर्व मंसूर ने दक्षिण भारत के शांत स्थान पर मकान बनाया। वहां वे आर्गेनिक खेती करते हैं तथा प्राकृतिक जीवन व्यतीत करते हैं।

आमिर खान के लाख इसरार के बाद भी मंसूर मुंबई लौटना नहीं चाहते। विगत पखवाड़े वे मुंबई आए थे और उन्होंने अपने एक मित्र को इमरान के घर आने को कहा। हकीकत यह है कि पाली हिल्स पर यह विशाल बंगला उनकी ही संपत्ति है, जिसे वे अपनी बहन को भेंट कर चुके हैं। कुछ समय पूर्व आमिर खान ने अपने भाई और मित्र मंसूर से निवेदन किया कि वे यह बंगला उनको बेच दें। मंसूर खान ने कहा कि यह बंगला मैं अपनी बहन को देना चाहता हूं, तुम चाहो तो उससे खरीद लो। आमिर खान अपनी चचेरी बहन का इतना आदर करते हैं कि उन्होंने उनसे कभी बंगला बेचने की बात नहीं की और आमिर ने ही अपनी बहन के पुत्र इमरान खान को पहली बार परदे पर प्रस्तुत भी किया। ज्ञातव्य है कि आमिर खान नासिर हुसैन के छोटे भाई ताहिर हुसैन के बेटे हैं और अभिनेता इमरान उनकी बहन का बेटा है। लगभग पांच सौ करोड़ रुपए मूल्य का बंगला उन्होंने बिना मांगे ही अपनी बहन को दे दिया। उनकी इस मुंबई यात्रा का प्रयोजन था नर्मदा बांध विस्थापितों के जीवन पर लिखी उनकी किताब के प्रकाशन की व्यवस्था करना।

गौरतलब यह है कि नासिर हुसैन साहब जैसे मसाला फिल्मों के निर्माता का इकलौता पुत्र इस तरह के स्वभाव का है कि धन-दौलत, जमीन-जायदाद उसके लिए कोई अर्र्थ नहीं रखता। आज छोटी-सी जायदाद के लिए भाई-भाई का खून करने में नहीं हिचकता, ऐसे कालखंड में एक निष्णात फिल्मकार का दृष्टिकोण इस कदर अलग हो सकता है। वह केवल अपनी बहन के प्रति ही सहिष्णु नहीं है, वरन अनजान गरीब विस्थापितों के लिए भी संवेदनशील है। सारांश यह कि हर तरह का फॉर्मूला सोच गलत साबित होता है। मंसूर ने अपने पिता से भिन्न फिल्में बनाईं और एक बैरागी का जीवन अपनी इच्छा से जी रहे हैं।

आज अगर मंसूर तय करें कि उन्हें आमिर और सलमान या आमिर और शाहरुख के साथ एक भव्य फिल्म बनानी है तो कोई भी सितारा उन्हें इनकार नहीं करेगा। इतनी ख्याति वाला व्यक्ति सब तरह के माया-मोह से मुक्त है और यह व्यक्ति भी वही बिरयानी खाकर जवान हुआ है, जो आमिर, इमरान और फिल्म उद्योग के अन्य लोगों ने भी खाई है।

दरअसल जीवन के किचन में मसाले एक जैसे नहीं हैं और विविधता ही उसका महत्वपूर्ण हिस्सा है। कोई पुत्र अपने पिता की कार्बन कॉपी नहीं होता। न केवल मंसूर खान वरन उनके चचेरे भाई आमिर खान ने भी नासिर के सिनेमाई स्कूल में प्रशिक्षण लेकर भी अलग प्रकार की फिल्में बनाईं। प्रकृति भी कभी स्वयं को नहीं दोहराती। एक ही जगह लगाए दो दरख्तों के पत्ते भी विभिन्न होते हैं। तानाशाही ताकतें चाहती हैं कि हर आदमी उनकी आज्ञा का पालन करे, उनके द्वारा तय की गई शैली में जीवन जिए और उनके द्वारा तय जमीन में दफन हो।