जीवन के दो मार्ग तथा चार्वाक की सारहीनता / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'

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हम सबके जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। ये उतार-चढ़ाव ही जीवन और जगत के बारे में हमारी सोच को निर्धारित करते हैं। जिनके जीवन में परेशानियाँ अधिक होती हैं वो प्रायः निराशावादी हो जाते है। इसके विपरीत सुख-सुविधा से संपन्न मनुष्य आशावादी होता है। परन्तु किसी का भी जीवन पूर्ण रूप से सुखी अथवा दुखी नहीं होता, बल्कि दोनों का मिश्रण होता है। इसलिए मनुष्य आशा और निराशा के बीच झूलता रहता है। इस क्रम में प्रत्येक व्यक्ति की एक अपनी समझ विकसित हो जाती है जिसके अनुसार अपने दोरंगे जीवन में संघर्ष करने का सब अपना-अपना तरीका बनाते हैं। जो विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय आज हम देखते हैं, ये जीवन से संघर्ष करने और इसके दुखों से बचने के लिए अविष्कृत तरीकों पर आधारित सिद्धांतों की व्यवस्थित व्याख्या हैं। संसार में सैकड़ो ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने नियति के एकतरफे और विनाशकारी खेल से समझौता न करके दुखों का समाधान खोजने का प्रयत्न किया। उन्होंने जीवन के कुछ रहस्यों का पता लगाया, दिव्य अनुभव प्राप्त किये और विश्व तथा इसके अस्तित्व के बारे में अपने सिद्धान्तों को लोगों के सामने रखा। जिन्हें उनके विचार कल्याणकारी लगे वो उनके अनुयायी हो गए, और इस प्रकार धर्म पर धर्म और संप्रदाय पर संप्रदाय बनते चले गए। किन्तु यदि वास्तव में दुखों से छुटकारा पाने का कोई उपाय है तो प्रत्येक को उसकी उपलब्धि स्वयं करनी होगी, केवल सिद्धांतो के खोजकर्ताओं के सामने माथा टेक देने से क्या होगा ?

वैसे तो संसार में हजारों संप्रदाय हैं, लेकिन व्यापक तौर पर देखें तो वो सब अंततः दो मार्गों का ही अनुसरण करते प्रतीत होते हैं। प्रथम मार्ग कहता है कि, माना संसार बहुत खराब है और इसमें बहुत दुःख है पर उस पर ध्यान न दो। जीवन का जो सुखमय भाग है उसका जितना हो सके उपभोग कर लो। इस मार्ग की मुख्य विचारधारा चार्वाक दर्शन (लोकायत दर्शन) है, जिसके प्रवर्तक संभवतः कोई ‘बृहस्पति’ थे, यद्यपि कुछ विद्वान ‘कौटिल्य’ को भी इसका प्रवर्तक मानते हैं। ये मत कहता है कि परलोक, आत्मा अथवा ईश्वर जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं है। धर्म केवल धूर्त पुरोहितों का अपनी जीविका चलाने के लिए किया गया षड़यंत्र है| जो कुछ है वो संसार ही है। तुम्हारे अच्छे अथवा बुरे कर्मों का किसी स्वर्ग या नरक में कोई फल मिलेगा, ऐसा कुछ भी नहीं है। संसार में जो सुख-दुःख तुम भोगते हो वही सब कुछ है। इसलिए जितना हो सके खुश रहने का प्रयास करो। चार्वाक के शब्दों में-

"यावज्जीवेत्सुखम् जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।"

सतही स्तर पर देखने से तो ये मार्ग बड़ा लाभप्रद प्रतीत होता है क्योंकि इससे कार्य करने की प्रेरणा मिलती है किन्तु समस्या यह है कि अंत में विवश होकर सारी चेष्टाएं छोड़ देनी पड़ती हैं। जाने-अनजाने अधिकांश लोग इसी मार्ग पर चलते हैं।

इस मत में सभी बातें बड़े अच्छे ढंग से कही गयी हैं, लेकिन जरा सोचिये कि वास्तव में ये मत क्या कहता है ?... धर्म और दर्शन के विषय में सोचकर अपना दिमाग मत खराब करो। केवल संसार के आशाप्रद स्वरुप को ग्रहण करो। आघात लगने पर भी कहो कि फूल बरस रहे हैं और दास के समान तिरष्कृत होने पर भी स्वयं को स्वाधीन समझो। जीवन को किसी प्रकार धकेलते रहो, लोगों के साथ प्रतियोगिता करने में स्वयं को व्यस्त रखो, यदि दूसरों को हानि पहुचाने से स्वयं का लाभ होता है तो वो भी करो और एक के बाद एक जोड़-गाँठ करते जाओ, जब तक कि तुम स्वयं ही एक जोड़ गाँठ का समूह बनकर न रह जाओ क्योंकि जीवित रहने का यही एकमात्र उपाय है। इसी को सांसारिक ज्ञान कहते हैं। आज के समय में इसी शिक्षा का प्रभाव है क्योंकि आज जितनी प्रतियोगिता लोगों के बीच है उतनी पहले कभी नहीं थी। इतनी चोटें मनुष्य ने पहले कभी नहीं खाईं थीं जितनी आज खा रहा है और मनुष्य अपने भाईयों के प्रति जितना निष्ठुर आज है, पहले कभी नहीं था। कुल मिलकर ये मार्ग कहता है कि दिन रात अपने और दूसरों की आत्मा के समक्ष पाखंडपूर्ण आचरण करो तथा वस्तुओं को उनके मिथ्या नामों से पुकारो। यदि सभी लोगों की सोच ऐसी ही हो जाये तो समाज का बीभत्स स्वरुप हमारे सम्मुख होगा क्योंकि सभी केवल अपना ही लाभ देखेंगे। और समाज में जो भी अराजकता है वह इसी सोच के कारण है कि- "संसार ही सब कुछ है इसलिए जितना लूट सको लूट लो|" जब तक लोगों में ऐसी सोच है, नीति की स्थापना नही हो सकती, भले ही हम बहुत से नीति निदेशक तत्वों को पुस्तकों में लिख दें| इस मत की एकमात्र अच्छाई ये है कि अपने तर्कों से इसने बहुत से अंधविश्वासों का खंडन कर दिया क्योंकि संभवतः इसकी उत्पत्ति ब्राम्हणों के कर्मकांडों के प्रतिक्रियास्वरूप हुई थी। किन्तु ये मार्ग न तो संसार की समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं करता है और न ही विश्व के अस्तित्व की कोई ग्राह्य व्याख्या करता है| इस प्रकार इस मार्ग के मूल में सारहीनता ही है।

सच तो ये है कि हम सब अतीव दुर्दशा में पड़े हैं और यह संसार कारागार के समतुल्य है। जीवन बीतने के साथ हम इस बात को अधिक तीव्रता से अनुभव करते हैं, विशेषतः वृद्ध लोग। उन्होंने जीवन के इतने उतार-चढ़ाव देखे हैं कि प्रकृति की मिथ्या भाषा उन्हें अब और नहीं ठग सकती। तब आखिर उपाय क्या है ? आखिर करें क्या ? इसका समाधान दूसरे मार्ग पर मिलता है। दूसरा मार्ग कहता है कि, एक महावाणी शाश्वत रूप से हमारे चारों ओर तथा स्वयं हममें भी गूँज रही है-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्या। मामेव ये प्रप्रद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

अर्थात् "मेरी यह दैवीय त्रिगुणमयी माया बड़ी कठिनाई से पार होती है, जो मेरी शरण में आते हैं वो तर जाते हैं।" अतः "हे सांसारिक बोझ से लदे और थके मांदे मनुष्यों! मेरे पास आओ, मैं तुम्हे शरण दूँगा।", इसे सुनने और उसका अनुसरण करने की आवश्यकता है।

जब जीवन की वर्तमान अवस्था से घृणा उत्पन्न हो जाती है, जब समय हाथ से निकलता हुआ प्रतीत होता है, जब सुख उपभोग करने के सारे उपक्रम व्यर्थ चले जाते हैं, जब जीवन में केवल अतीत की धुंधली स्मृतियाँ और भविष्य का भयावह अन्धकार बचता है, तब जिसमें संसार को त्याग देने का जितना अधिक साहस होता है उसे यह वाणी उतनी ही स्पष्ट सुनाई देती है। वास्तविकता तो यह है कि सभी जाति और वर्ग के प्राणियों ने अपनी समझ के अनुसार किसी न किसी रूप में इस वाणी को सुना है और वहां तक पहुँचने का प्रयत्न भी कर रहे हैं।

इस मार्ग का वर्णन बहुत प्रकार से हुआ है इसलिए इसमें कई उपमार्ग बन गए हैं, जैसे बहुत से देवताओं की सत्ता मानना, एक ईश्वर को मानना, मन की सत्ता मानना और आत्मा की सत्ता मानना आदि। इन सब को तीन वर्गों में रखा जा सकता है- ज्ञान, भक्ति और कर्म। इन सभी उपमार्गों की सामान्य विशेषता यह है कि ये सब नीति की स्थापना करते हैं। ईश्वर में विश्वास करने वाले उनके डर से नीतियुक्त आचरण को महत्व देते हैं वहीँ आत्मा और मन में विश्वास रखने वाले स्वयं के स्थायी कल्याण हेतु ऐसा करते हैं। समाज में हर तरह के पारस्परिक सद्भाव का आधार ये द्वितीय मार्ग ही है। इसके अतिरिक्त ये मार्ग स्थायी कल्याण की घोषणा भी करता है और विश्व के अस्तित्व की विज्ञानसम्मत व्याख्या करने का भी प्रयास करता है।

चार्वाकों के कथनानुसार उनका दर्शन प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित है। चार्वाकों का प्रत्यक्ष अनुभव स्पष्ट रूप से एक संकीर्ण सोच है क्योंकि अपने अनुभव को वो केवल इन्द्रियों तक सीमित रखना चाहते हैं। एक अँधा व्यक्ति विश्व को दृश्य आयाम को नहीं देख सकता, तो क्या दृश्य जैसी कोई चीज नही है ? यदि हमारे एक और इन्द्रिय विकसित हो जाए तब तो हमारे लिए विश्व बदल जाएगा, और ये दिखाता है कि पांच इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होने वाले अनुभव ही सब कुछ नहीं हैं। दूसरा मार्ग कहता है कि , प्रत्यक्ष अनुभव ही सबका आधार होना चाहिए किन्तु वह केवल इन्द्रियों में न आबद्ध हो| शब्दों से परे जाओ, अनुभव से भी परे जाओ और तब वहां स्थायी समाधान मिलेगा। वही वास्तविक प्रत्यक्ष है जहाँ पर तुम जान लो कि विश्व का हर कण तुम्हारी ही अभिव्यक्ति है और तभी दुखों पर भी विजय पायी जा सकती है। तभी विश्व से तुम वास्तविक प्रेम कर सकोगे और यही सबके लिए कल्याणकारी है। और मेरा मानना है कि सत्य वही है जिससे सबका स्थायी कल्याण हो|

अतः एक ओर तो सुख-दुःख की आंखमिचौली से परिपूर्ण और हर क्षण के साथ परिवर्तनशील जगत है तथा दूसरी ओर समस्त दुखों पर विजय का प्रलोभन। एक ओर स्वार्थलोलुपता है जबकि दूसरी ओर आपसी प्रेम। एक ओर निहित है अराजकता का बीज जबकि दूसरी ओर नीति और आपसी सौहार्द का वटवृक्ष है| इसलिए दूसरा मार्ग ही उत्तम है।