जीवन के रंग हजार / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हूँ अब कैसी है जानकी? किस वार्ड में भर्ती है? डॉक्टर ने क्या बताया? आप दोनों के बीच कोई कहा-सुनी तो नहीं हुई? क्या शहर में टेलीफोन का टोटा हो गया था? गली-गली में बूथ खुल गए हैं, कहीं से भी टेलीफान कर खबर दे सकते थे? क्या आपने हमें पराया समझ लिया है, तभी तो खबर नहीं दी?हूँ

वे क्रुद्ध सिंहनी की तरह दहाड़ रही थीं, दहाड़ सुनकर उनकी घिग्गी बंध गई थी। कुछ प्रश्न तो ऐसे भी थे, जिन्हें सुनकर वे तिलमिला भी गए थे। प्रतिवाद न करते हुए, चुप रहना ही श्रेयस्कर लगा था उन्हें।

वे चाहते तो अपने जवाब में बहुत कुछ कह सकते थे। शब्दों का उनके पास अक्षय भण्डार था। शब्दों की अर्थवत्ता के नए-नए प्रतिमान देने वाले सिद्धहस्त प्राचार्य के लिए यह कोई दुष्कर कार्य नहीं था।

जानते थे वे कि सामने खड़ा शख्श कोई और नहीं बल्कि उनकी भाभीजी थीं। वे सदा से ही उन्हें सम्मान देते आए हैं। मुँह लगकर बात कैसे कर सकते थे। फिर उन्हें यह हक बनता था कि वे उन्हें डॉंटें-फटकारें। वे चाहते थे कि हर हाल में उनका सम्मान बना रहे।

वे ये भी जानते थे कि विपरीत परिस्थितियों में आदमी की बुद्धि कुंद हो जाती है। फिर यह जरूरी नहीं कि वह जो भी बोलें, वह ठीक ही हो। अक्सर ऐसे समय में जबान धोखा दे जाती है, वह बोलना कुछ चाहता है और बोल कुछ जाता है।

बोलते समय उनका चेहरा तमतमाया हुआ था। शब्दों में तल्खी थी। वे कुछ ज्यादा ही तेज सुर में, बोल भी रही थीं।

सारा गुस्सा एक बार में उगल देने के पश्चात् वे एकदम शांत हो गईं थीं। तेज बोलने के कारण अथवा सीढ़ियाँ चढ़ने के कारण, वे हाँफ रही थीं।

जयश्री के साथ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देख, वे सीट से उठ खड़े हुए और पास चले आए थे। वे जानते थे कि भाभीजी इस समय क्रोध में आविष्ठित हैं। आते ही वे सारा गुस्सा उनपर उतार देगी। शेरनी के सामने खरगोश बनकर जाना ही श्रेयस्कर लगा था उन्हें।

उनका चुप हो जाना, उनके लिए एक शुभ-लक्षण था। यदि वे आई.सी.सी.यू वार्ड के समक्ष खड़ी होकर जोर-जोर से बोलतीं, तो संभव है कि ऐसा किया जाना मरीजों के हित में नहीं होता और न ही वहाँ के प्रचलित नियमों के अनुरूप।

अब वे बड़े इतमीनान के साथ अपनी बात कह सुनाना चाहते थे। सूखे हलक को थूक से गीला करते हुए वे कुछ कह पायें, इसके पूर्व ही जयश्री का आक्रोश फूट पड़ा था।

मम्मीजी... आप भी कैसे-कैसे ऊल-जुलूल प्रश्न लेकर बैठ गईं? क्या आप भूल गईं कि इस समय अंकलजी कितनी भीशण मानसिक यंत्रणाओं के दौर से गुजर रहे हैं? क्या आज और अभी प्रश्न पूछना जरूरी है? पत्नि कोमा में पड़ी हैं। बेटा विदेश में है। ऐसे कठिन समय में इन्हें सवालों की नहीं बल्कि कोमल-कोमल शब्दों में पगे सहानुभूति के मरहम की जरूरत है। ऐसे शब्द जो इनका ढाढस बंधा सके। हूँ

उनका मन ही मन खुश होना स्वाभाविक था। वे सोचने लगे थे। जो काम माँ नहीं कर पाई, उसे बेटी ने पूरा कर दिखाया। जयश्री को अपने पक्ष में खड़ा पा, वे अपने दुःखों को कुछ हद तक भूल गये थे।

जो होना था, हो चुका लेकिन जयश्री के इस तरह दलील देने से कहीं माँ का दिल आहत न हो गया हो। कहीं वे अपने आपको अपमानित महसूस न करने लगी हों। संभव है, बाद में दोनों के बीच तकरार न हो। उनकी दिली इच्छा थी कि माँ का सम्मान भी बना रहे और बेटी को उसके हक की शाबासी मिल जाए।

बातों का सम्मानजनक संतुलन बनाते हुए उन्होंने कहा जयश्री... तुम भूल रही हो कि इस समय तुम्हारी माँ के मन में कितनी पीड़ा है? उन्होंने सदा से ही हमें अपनापन दिया है। वे हमें अपनों से अलग नहीं मानती और तो और वे जानकी को अपनी छोटी बहन मानती है। तुम्हीं बताओ... एक बहन... अपनी दूसरी बहन को मौत के कगार पर खड़ा कैसे देख सकती है? अतः इनका क्रोधित होना स्वाभाविक है। मैं कसूरवार हूँ कि इन्हें सूचना नहीं दे पाया।

बड़े गर्व के साथ मैं एक बात और कहना चाहता हूँ। अगर तुम वक्त पर साथ नहीं होती तो जानकी शायद ही बच पाती। इस बुढ़ाते शरीर में अब पहले जैसा न जोर है, न ही जोश। मैं भला कितनी दौड़-भाग कर सकता था। जयश्री... तुमने अपना फर्ज निभाया और मुझ पर कर्ज चढ़ा दिया है। मैं तुम्हारा कर्जदार हूँ। हूँ

शब्दों की जादूगरी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। दोनों की नम आँखें देखकर, वे भी अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाए थे। उनकी भी आँखें भींग गई थी।

बोझिल वातावरण को सरस बनाने की पहल करते हुए जयश्री ने कहा हूँअंकलजी... हम आपके लिए टिफिन लेती आईं हैं। कृपया समय पर खाना जरूर खा लीजिएगा। हम घर जाकर ईश्वर से प्रार्थना करेंगी कि अण्टीजी को होश आ जाए और वे पहले की तरह भली-चंगी हो जाएं। हूँ

आश्वस्ती और सद्भावना से भींगी फुवारों से उनके दग्ध-हृदय को शीतलता मिलने लगी थी। कृतघ्नतावश उनके हाथ जुड़ आए थे और वे उन्हें जाता हुआ देखते रहे।

बरामदे में लटके बल्ब से झरती पीली-बीमार रोशनी को चीरते हुए उनकी नजर बेंचों पर बैठे मरीजों के अभिभावकों के चेहरों पर जा टिकीं। सभी के म्लान, पीले-पके आम की तरह लटकी सूरतें और चेहरों पर चिंता की मकड़ियों के बुने घने जालों को देखकर वे सिहर गए थे। पीली मिट्टी से पुती दीवारें उनके भय को और बढ़ाने लगी थी।

वे मन ही मन अपने इष्ट-देव के नाम का जाप करते और मनौती मांगते रहे कि जानकी जल्दी ही ठीक हो जाए।

तभी वार्ड के दरवाजे में हल्की सी हलचल हुईं। दरवाजा खुला। एक नर्स अपनी सैंडिल खटखटाते हुए बाहर निकली। यंत्रवत वे उठ खड़े हुए और उसके पीछे हो लिए।

उन्होंने बड़े अनुनय-विनय के साथ अपनी जानकी के हाल जानना चाहा। तमकते हुए उसने कहा बाबा... तुम लोग भी चैन से नई बैइठता ... न हम लोगों को चैन से काम करने देता। कित्ती बार हम तुमको बोला ... हमको नई मालुम। हूँ कहते हुए वह दूसरे वार्ड में जा घुसी थी।

चेहरा लटकाए वे अपनी जगह पर आकर बैठ गए। पूरे आठ घंटे बीत जाने के बाद भी वे कोई समाचार प्राप्त नहीं कर पाए थे। मन अब बैचेनी में घिरने लगा था। उटपटांग ख्याल उन्हें और व्यथित करने लगे थे।

बेंच पर बैठे-बैठे उन्हें कोफ्त होने लगी थी। वे अपनी सीट से उठ खड़े हुए और बरामदे में चहल-कदमी करने लगे। लोगों की नजरें बचाकर वे आहिस्ता से खिड़की के पास जाकर सटकर खड़े हो जाते और जगह-जगह से खुरचे कांच में से भीतर झांक कर देखने का प्रयास करते। अंदर कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ा। वे वहाँ से हट जाते। फिर अपनी सीट पर आकर बैठ जाते।

बेंच पर पड़े टिफिन-कैरियर को देख उन्हें जयश्री के कहे वाक्यों की अनुगूंज सुनाई देने लगी ष्समय पर खाना खा जीजिएगा। हूँ वे भाव विव्हल होने लगे थे। मन पर छाए निराषा के बादलों में आद्रता बढ़ने लगी थी। वह कहीं बरस न जाए, इससे पहिले ही वे टिफिन लेकर सीढ़ियाँ उतरने लगे थे।

सीढ़ियाँ उतरते हुए वे मन नही मन कह उठे। कितना ध्यान रखती है जयश्री उनका। हूँ बिटिया जानती है कि मैं समय का कितना ध्यान रखता हूँ। तभी तो वह जाते समय, भोजन कर लेने की बात कहती गई थी।

भूख तो उन्हें जोरों की लगी थी। लेकिन मन साथ नहीं दे रहा था फिर अस्पताल का रूग्ण-वातावरण उन्हें ऐसा नहीं करने दे रहा था।

एक भिखारी को खाना देकर वे वापिस लौट आए थे। रात के ग्यारह बज चुके थे। नींद अब भी आँखों से कोसों दूर थी।

खाली बेंच पर पैर फैलाकर, अपने दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में फंसाते हुए सिर के नीचे रख लिया और आँखें बंद कर ली थी। पलकों के बंद होते ही बीती बातें एक-एक करके याद आने लगी थीं।

दोपहर का एक बजा था। वे अपने डाइनिंग-टेबल पर बैठकर खाना खा रहे थे। यह उनके रोज का खाना खाने का समय था। खाना खाते हुए समाचार-पत्रों के पन्ने पलटना उनकी दिनचर्या का आवयक अंग बन गया था। हालॉंकि वे सारे अखबार सुबह ही बांच चुके होते हैं।

जानकी इस समय रसोई-घर में व्यस्त थी। उसका बेटा अजय बाहर से घर लौट रहा था। वह भी कितने सालों बाद। अजय उनका भी बेटा है लेकिन माँ का हक कुछ ज्यादा ही था।

बेटे के आने की खबर पाकर वह बेहद ही ख़ुश थी और व्यंजन तैयार करने में लगी थी। वह चाहती थी कि उसके आने के पूर्व, वे सारी चीजें बनकर तैयार हो जाने चाहिए जो उसे सर्वाधिक प्रिय है। याद कर-करके वे चीजें बनाती जाती, फिर उसे कांच के मर्तबान में करीने से जमाकर रखती जातीं थीं।

इस समय वह खोवा की करंजियाँ सेंक रही थी। कढ़ाई से उठ रही मीठी-मीठी गंध से समूचा वातावरण धमधमा रहा था। हाथ चलाते हुए वह गुनगुनाती भी जा रही थी। उसका कण्ठ अब कुछ ज्यादा खुल गया था और गीतों के बोल हवा की पीठ पर सवार होकर उन तक आ रहे थे। मीठे बोल सुनकर वे झूमने लगे थे। उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि वे किसी दिव्य लोक में जा पहुचे हैं। तभी जयश्री की हास्य-मिश्रित खनकदार आवाज सुनकर वे उस लोक से लौटने लगे थे।

उसने बड़े ही मनोहारी ढंग से थाली में करंजी परोसते हुए कहा हूँअंकलजी... इसे भी तो चखकर देखिए... कैसी बनी है? कहीं कोई कोर-कसर तो बाकी नहीं रह गई?

मुँह में करंजी रखते ही वे वाह-वाह कह उठे थे। अपनी शान में काढ़े गए कसीदों को सुनकर, जानकी के गाल लाल हो उठे थे।

सुस्वाद भोजन का रसास्वादन करते हुए वे जानकी के तरफ देखना नहीं भूलते थे। अनायास ही नजरें आपस में मिलतीं और वह शरमा कर दूसरी तरफ देखने लग जाती थी।

विगत तीन-चार दिनों से विभिन्न-विभिन्न प्रकार के पकवान बनाए जा रहे थे।

खाना खाते हुए वे सोचने लगे थे। बेटे के आगमन की खुशी ने जानकी को पागल बना दिया है। सच भी है, बेटे के आगमन की खबर पाकर कौन माँ खुश नहीं होती। खबर पाते ही माँओं के हृदय-कमल खिल-खिल जाते हैं।

ममता की कुम्हलाई लतिकाएं हरियल होने लगती है। उनका पोर-पोर आनन्द की लहरियों में हिलोरें लेने लगता है। मन-मयूर थिरकने लगता है। पैर तो जैसे उनके जमीन पर ही नहीं पड़ते हैं। वे फिरकी की तरह घूम-घूमकर अपने समूचे परिवेश को सजाने-संवारने में लग जाती है।

जयश्री भी बड़ी सुबह से जानकी के कामों में अपना हाथ बॅंटा रही थी। वह उनके जिगरी दोस्त गोविंद की इकलौती बेटी है। दोनों ही परिवारों के बीच गहरी अंतरंगता है। दूध में घुले बताशे की तरह। अजय के आगमन की सूचना पाकर वह भी बेहद उत्तेजित है, दोनों ही बचपन से साथ-साथ खेले-कूदे, पले-बढ़े हैं। अजय से वह मात्र पाँच साल छोटी है। एक-दूसरे के यहाँ आने-जाने में कभी भी समय का बंधन नहीं रहा।

आने को तो वह रोज ही आती है, लेकिन जब से उसने स्थानीय कॉलेज में सहायक-प्राध्यापक का पदभार ग्रहण किया है, तब से समय में थोड़ा फेरबदल अवश्य हुआ है।

अपने बेटे के आगमन की खुशी को यादगार बनाने के लिए उन्होंने कुछ योजनाएं भी बना डाली थीं। वे इस खुशी में एक शानदार पार्टी देना चाहते थे। कहाँ शामियाना लगेगा। झूमरें कहाँ-कहाँ लगेगी। आवासीय भवन में किस तरह की विद्युत साज-सज्जा की जाएगी आदि चीजों पर बारीकी से मनन कर लिया था और ठेकेदार को उसका आर्डर भी दे दिया था।

वे चाहते थे कि अति विशिष्ट स्वजनों, अतिथियों और रिश्तेदारों की उपस्थिति में अजय और जयश्री की मंगनी की भी घोशणा कर दी जानी चाहिए। गोविंद उनका दोस्त ही नहीं बल्कि एक सच्चा हमदम भी है। उन्हें पक्का यकीन है कि वह इस रिश्ते से इनकार नहीं करेगा। उनकी दिली इच्छा थी कि दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल जाना चाहिए।

अतिगोपनीयता बरतते हुए उन्होंने पूजा-ज्वेलर्स के यहाँ से वेडिंग-रिंग भी बनवाकर रख ली थी।

वे सोचने लगे थे हूँअजय को आने में अभी कल का पूरा दिन बाकी है। वह कल सुबह पुणे से पहली फ्लाईट पकड़कर, एक घंटे की छोटी उड़ान के बाद नागपुर पहुचेगा फिर कार द्वारा यहाँ के लिए प्रस्थान करेगा। उसे यहाँ आते-आते, शाम ही क्या, रात ही हो जाएगी। झिलमिल-झिलमिल झिलमिलाती रोशनी में उसका स्वागत करने में मजा आ जाएगा। हूँ

कल्पनाओं के रंग-बिरंगे बादल झमझमाकर बरस रहे थे और वे उसमें भींग भी रहे थे। तभी टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। शायद ओवरसीज काल थी। जानकी ने अति-उत्साहित होते हुए रिसीवर उठाया। दूसरी तरफ अजय ही था।

बातचीत का क्रम जारी था। वह हॅंस-हॅंसकर बतिया रही थी। प्रसन्नता से लकदक चेहरा और फुलझड़ी से झरते हास्य को देख-सुनकर वे भी प्रसन्न हो रहे थे।

पता नहीं, अचानक क्या हुआ, उसका दिपदिपाता चेहरा बुझने लगा था। वह कांतिहीन होने लगी थी। मुक्त हास्य व मुस्कान की जगह तनाव घिरने लगा था। उसकी मुट्ठियाँ कसने लगी थीं। वे कुछ समझें, वह ही कुछ बोल पाए, रिसीवर क्रेडल पर रख पाए, इसके पूर्व ही वह गीली मिट्टी की दीवार की तरह भरभरा कर गिर पड़ी थी।

हे भगवान ! ये क्या हो गयाहूँ कहते हुए वे उठ खड़े हुए। पास आकर देखा, नब्ज टटोली, समझ में कुछ नहीं आया। वे बुरी तरह से घबरा गए थे। सोचने समझने की बुद्धि को जैसे काठ मार गया था। धड़कनें बढ़ गई थी, लेकिन जयश्री ने अपनी हिम्मत और बुद्धि की डोर कसकर साध रखी थी। बिना समय गंवाए वह तीर की तरह बाहर निकल गई और पास-पड़ोस के लोगों को मदद के लिए गुहार लगाने लगी थी।

उस घटना की कल्पना मात्र से, वे सिहर उठे थे। दिल जोरों से धड़कने लगा था। वे अपनी सीट से उठ खड़े हुए और चहल-कदमी करते हुए अपने को सामान्य बनाने का उपक्रम करने लगे थे।

काफी देर तक यहाँ-वहाँ का चक्कर काटने के बाद वे अपनी सीट पर आ बैठे। दहशत का असर अब भी उन पर जारी था।

जमीन पर और अलग-अलग बेंचों पर पड़े मरीजों के अभिभावकों-शुभ-चिन्तकों को गहरी नींद में खुर्राटे भरते देख वे सोच में पड़ गए कि इन्हें सुख की नींद कैसे आ गई होगी।

उन्होंने घड़ी की ओर देखा। सुबह के पाँच बज रहे थे। उनकी पूरी रात आँखों ही आँखों में कट गई थी।

वे अपनी इस सोच को लेकर खुश हो रहे थे कि जानकी अब पहले से बेहतर होगी, अन्यथा इसकी सूचना उन्हें अब तक मिल जाती।

वे सोच रहे थे ष्जानकी अब जो जीवन जिएगी निःसंदेह वह जयश्री का दिया हुआ जीवन ही जिएगी। सचमुच में वे उसके अहसानमंद हैं। इस अहसान के बदले में वे, अपने जीवन का जो भी सर्वश्रेष्ठ होगा, वे उसे उपहार में दे देंगे। हूँ

वे नहीं जानते, अजय की उसकी अपनी क्या सेाच है। क्या वह जयश्री को पसंद करता है और जयश्री भी अजय को? इसका पता तो उसके आने के बाद ही चल पाएगा।

अजय तीन सालों से परदेश में है। संभव है, वह किसी गौरांग-बाला के जुल्फों के व्योमपाश में न उलझ गया हो। वहाँ की युवतियाँ जानती हैं कि यहाँ का दूल्हा सबसे टिकाऊ होता है।

अजय सुंदर है, स्मार्ट है, उसके तीखे नाक-नक्ष, शरीर शौष्ठव को देखकर कोई भी युवती उसकी ओर सहज ही आकर्षित हो सकती है, जवानी होती भी तो अंधी है, पैर फिसलने में देर ही कितनी लगती है ! ज्ञानी-ध्यानी परम तपस्वी विश्वामित्र भी तो मेनका की मादक अदाओं के सामने कहाँ टिक पाए थे। ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं।

संभव है, शायद उसने, अपने इसी आशय की सूचना अपनी माँ को टेलीफोन पर दी होगी। अपने रंग-बिरंगे सपनों के रंगमहल को धूल-धूसरित होता देख उसका हृदय कांप उठा होगा और सुनते ही वह गश्त खाकर गिर पड़ी। हर माँ अपने बच्चों को लेकर ख्बाब बनातीं हैं। अगर वे उन्हें पूरा होता हुआ नहीं देखतीं तो सदमें को गले से लगा बैठती हैं।

उन्हें अब भी विश्वास है कि अजय ने ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं किया होगा। संस्कृति-लोकमर्यादा और संस्कारों की घुट्टी जिसे बचपन में ही घोंटकर पिला दी गई हो, उसके बहकने के कम ही चांस होते हैं। आज हवा का रूख ही बदल गया है। अतः वे यकीनन तौर पर कुछ भी नहीं कह सकते।

आधारहीन बातों को सोच-सोचकर वे अपना दिमाक खराब करना नहीं चाहते थे। फिर उन्हें मालूम था कि अजय को आने में अभी बीसो घंटे बाकी है। जब सामने होगा तो सारी बातों का खुलासा हो जाएगा।

वे उठकर छत पर चले आए थे। भोर होने में अभी थोड़ा समय बाकी था।

छत पर पहुचते ही उन्हें शीतल हवा के झोंकों ने अपनी लपेट में ले लिया था। शीतल हवा का स्पर्श पाकर वे चैतन्य होने लगे थे।

हल्का सा उजाला फैल गया था। चिड़ियों की चहचहाट से समूचा वातावरण संगीतमय हो उठा और देखते ही देखते अनेक रंगों की छटा से आकाश रंगीन हो उठा था। रंगों का अद्भुत संयोजन देखकर दंग रह गए थे। रात अपनी सलमा-सितारों वाली काली-कमली उतारकर रंगों के सागर में उतरकर डुबकी लगाने लगी थी। सहसा उन्हें कविवर प्रसाद की ये पंक्तियाँ याद हो आईं, जो उन्होंने प्रकृति की इस अनुपम संुदरता और दृश्यों को देख कर लिखी होंगी।


बीती विभावरी जाग री। अंबर पनघट में डुबो रही। ताराघट उषा नागरी।

खगकुल-कुल सा बोल रहा। किसलय का अंचल डोल रहा।

लो यह लतिका भी भर लाई। मधु मुकुल नवल रस गागरी।

आँखों में राग अमंद पिये। अलकों में मलयज बंद किए।

तू अब तक सोई है आली। आँखों में भरी विहाग री।


कवि की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए वे मानव जीवन में बिखरे रंगों के बारे में सोचने लगे थे।

परमपिता परमेश्वर ने आदमी को मन-मस्तिष्क और आँखें उपहार में महज इसलिए दी है कि वह हर रस से उत्पन्न होने वाले विभिन्न भावों से उत्पन्न रंगों की छटाओं को देख सके।

मन-मस्तिष्क और आँखें मिलकर एक ऐसा त्रिकोण (केलेडेस्टकोप) का निर्माण करती है...उन्हें आकर्षक बनाती है। हर रस की अनुभूतियों को अपनी शक्ति और सामर्थ्य से देख सकने वाले इन्सान को वे अलग-अलग रंग-रूप व छटा दिखाती है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने तप और ज्ञान के बल पर यह खोज निकाला कि मानव शरीर के अंदर भी रंगों का अद्भुत संयोजन हुआ है। इन रंगों के तालमेल में, जरा सा भी परिवर्तन उसके आरोग्य पर गहरा प्रभाव डालता है।

क्राउनचक्र (सहस्त्रार चक्र) में बैंगनी, पिय्यूटरीचक्र (आज्ञाचक्र) में गहरा नीला, थायराइड (विशुद्ध चक्र) में हल्का नीला, थाईमस (हृदयचक्र) में चमकदार हल्का हरा, सोलर प्लेक्सस (मणिपुर) तीव्र पीला, स्वाधिष्ठान चक्र अथवा हारा चक्र में गुलाबी-नारंगी एवं रूटचक्र (मूलाधारचक्र) में लाल रंग समाहित है।

उजाला फैलने लगा था। भुवन-भास्कर अपने दिव्य-रथ पर आरूढ़ होकर निकल चुके थे। उनका रथ सहस्त्रों-किरणों की आभा में जगमगा रहा था।

उन्होंने सिर झुकाकर नमन किया और जानकी के शीघ्र रोगमुक्त होने की मंगल कामना के लिए प्रार्थना की और सीढ़ियाँ उतरने लगे थे।

वे सीढ़ी के अंतिम पायदान पर आकर खड़े हुए ही थे कि नर्स ने उन्हें सूचना दी कि जानकी को होश आ गया है और अब वे उससे मिल सकते हैं।

खबर सुनते ही उन्हें लगा कि खुशियों के हजारों-हजार रंग-बिरंगे दीप एक साथ जल उठे हैं।