जुगत / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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"अरे शर्मा बंधू सुना तुमने?" परिहार बाबू तंबाकू मलते हुए कहने लगे।


"अपने श्रीवास्तवजी तो अंदर हो गये। आज के अखबार में¸ पकड़कर ले जाते हुए का फोटो है उनका।"


"लेकिन ये गँवई भी आजकल बड़े चालाक हो चले है। वो किसनिया नहीं? नोट में रंग लगाकर ले आया पट्‌ठा!" शर्माजी की मुखमुद्रा दर्शनीय थी।


"तुम भी सम्हलकर रहना भैये। "डाईरेक्ट" में हो। अपना तो पर्सेंटेज वाला विभाग है। मिल गये तो ठीक¸ न मिले तो ठीक। सिर पे ठीकरा नहीं फूटने का। अपनी पहले से ही जुगत भिड़ी है।" परिहार बाबू खुश हो लिये।


"हाँ खैर! आपका काम अलग है।" शर्माजी अनमने से होकर कुछ जुगत भिड़ाने लगे। इन दिनों उनके घर में बेटी के ब्याह की तैयारियाँ चल रही थी। दो तीन मोटे ग्राहकों से उन्होने काम करवाकर देने के बदले में हॉल¸

गार्डन¸ हलवाई आदी की सैटिंग भी कर रखी थी।


"लेकिन इस तरीके से चलता रहा तो भारी पड़ेगा।" वे मन ही मन बुदबुदाए। तभी उनकी नजर अखबार के एक छोटे से शीर्षक पर पड़ी। "कर्मचारी स्थानांतरण शीघ्र संभाव्य।" जाने क्या सोचकर वे मन ही मन मुस्काने लगे थे।


दो तीन हफ्तों के बाद परिहार बाबू के हाथ उनका स्थानांतरण पत्र आया। उनकी बदली "डाईरेक्ट" वाले स्थान पर कर दी गई थी। और अब उनके पर्सेंटेज वाले स्थान पर आने वाले थे शर्मा बंधु।


"सबकी मिली भगत है।" परिहार बाबू दाँत पीसते रह गये...