जूते चिढ़ गए हैं / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जूते चिढ़ गए हैं इन दिनों। कहते हैं, यह हमारी तौहीनी है। ये क्या कि हमें जिस-तिस पर उछाल दिया, जैसे हमारी कोई इज्जत ही नहीं।

बात सही है कि चिरकाल से हमारा निवास आदमी वेफ पैरों में ही है और लोगों वेफ सिर पर उछाली जाने वाली स्थिति हमारे लिए सुखद ही होनी चाहिए. आप डपटकर कह सकते हैं कि सदियों से पैरों से लगे घिसटते रहे, ध्ूल-ध्क्कड़ पफाँकते रहे और आज हम तुम्हें लोगों के सिरों पर उछाल रहे हैं तो कृतकृत्य होने वेफ बदले आपत्ति दर्ज करा रहे हो? शुक्र करो कि हमने तुम्हेंं जमीन से उठाकर पाँच पफीट उफपर उछाल दिया। टीवी तक में ध्माकेदार एन्ट्री हो गई. दनादन चैनलों में फ्रलैश हो रहे हो ...और क्या चाहिए आदमी को, यानी तुम जूतों को।

लेकिन जूते अपनी जिद पर अड़े हैं। जूते हैं न! आदमी होते तो ऐसी पब्लिसिटियों पर मर मिटते लेकिन जूते इन्हें अपनी नोक पर लेते हैं। कहते हैं, यह जूतागरी तुम आदमियों को ही मुबारक हो। हमारी तो रूखी-सूखी यानी ध्ूल-गर्द ही भली लेकिन देश-दुनिया वेफ साथ मजाक करने वालों वेफ साथ अपना नाम जोड़े जाना हमें मंजूर नहीं। दूसरी बात, हम जूते ज़रूर हैं, लेकिन जूतमपैजारी में हमारा विश्वास नहीं। आदमी हो तो आदमी की तरह प्रतिरोध् करना सीखो। जूतों वेफ बहाने गुस्से का इजहार क्यों? हम ऐसे पफेंवेफ जाते हैं जैसे कोई सबसे गई-गुजरी बेगैरत चीज हो। अपमान और अवहेलना वेफ प्रतीक। पता नहीं दलित खेमे वेफ लोग अभी तक इस मुद्दे पर शांत वैफसे बैठे हैं।

जूते यह भी कहते हैं कि आप समझते हो, आपका एक बार उछाला जूता तो मीडिया में घंटे में सैकड़ों वेफ हिसाब से उछाला जा रहा है, वह आपका गुस्सा आपका प्रतिरोध् व्यक्त करने वेफ लिए? लोगों तक आपका असंतोष और आक्रोश पहुँचाने वेफ लिये? जी नहीं, आपका उछाला जूता चैनलों की किस्मत का सितारा बुलंद करेगा, टीआरपी वेफ लिए राशन-पानी जुटायेगा। तो बाज आइये, जूतों की आड़ में न्याय की गुहार लगाने और यह सोचकर निश्चिंत हो जाने से आपने यथासमय दूध् का दूध्, पानी का पानी कर दिया।

सोचने की बात है, आपवेफ उद्देश्य की संजीदगी लोगों तक पहुँचाने की मंशा होती तो समाचार चैलन्स जूतों को कम, आपको ज़्यादा दिखाते न...लेकिन जानते हैं कि आज आदमी से ज़्यादा जूता, संवेदना से ज़्यादा सनसनी बिकती है सूचना क्रांति वेफ बाज़ार में, इसलिए जूतागिरी का कारोबार दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की पर है।

ऐसा नहीं है कि आपकी बात हम; यानी जूतेद्ध समझते नहीं। जब चारों तरपफ वेफ हालात बरदाश्त वेफ बाहर हो जाते हैं तो आप ही नहीं, हम खुद आपवेफ पैरों में कसमसाने लगते हैं, पिफर आप तो दिलो-दिमाग से दुरुस्त इंसान ठहरे, कहाँ तक काबू रखें! उबाल आता ही होगा कि आखिर ये जूते किस दिन वेफ लिए पहन रखे हैं, अब नहीं तो कब चलाएँगे! अरे एक पर निशाना चूका और दूसरे पर भी लग गया तो भी क्या बुरा...क्योंकि उस पर भी आज न सही, कल पड़ने ही वाले हैं। हम नहीं चलाएँगे तो कोई और चला देगा। आगे-पीछे सबकी बारी आनी ही आनी।

इतना ही क्यों, आपने एक पर चलाया और दूसरे को छोड़ा, तो भी लोग उँगलियाँ उठाने से बाज नहीं आयेंगे कि पफलाँ को क्यों बख्शा! उस पर तो इस वाले से भी पहले चलाना था। वादा करो, अगली बार चलाओगे न उस पर! छोड़ना मत। तो ये वादा रहा!

दरअसल खाने वालों से ज़्यादा समस्या चलाने वालों की है। किस पर चलाएँ किस पर नहीं। डिमांड ज़्यादा है सप्लाई कम। अपनी आध्ी से ज़्यादा जनसंख्या तो पावर्टी लाइन वेफ नीचे पाँव पयादे चलती है। चलाने वेफ लिए जूते कहाँ से लायेगी। मन मसोसकर रह जाती है कि जाने दो, होते तो भी पहनने वेफ कम, चलाने वेफ काम ज़्यादा आते।

यूँ आदमी की देखा देखी इध्र जूतों में भी अवसरवादिता बढ़ी है। मंदिरों तथा अन्य धर्मिक, सामाजिक स्थलों वेफ बाहर इकट्ठे जूते टोह ले रहे हैं...गाँध्ी मैदान वाली सभा में चलने वेफ चांसेस हैं क्या। टीवी में कवरेज की कितनी संभावना है। आप वाली पार्टी गड़बड़ियों वेफ लिए कुख्यात है। जब जहाँ ज़रूरत हो हमें चला दीजिए. इस बार हमें सेवा का अवसर दीजिएगा। यह हमारी बहन कोल्हापुरी भी है। किसी छोटे-मोटे रोल में इसे भी डाल दीजिए. आजकल विजुअल का जमाना है। ख्याति-कुख्याति वेफ पचड़े में नहीं पड़ना हमें।

और इन्हें देखकर जूतों की पुरानी पीढ़ी सिर ध्ुन रही है कि देखो इन नालायकों को, एक हमारी पीढ़ी थी! महापुरुषों वेफ चरणों में निष्ठापूर्वक रहते हुए उनवेफ माध्यम से स्वयं भी प्रतिष्ठा प्राप्त करने में विश्वास करती थी। लोग उनकी चरणों की ध्ूल लेने वेफ बहाने उनवेफ जूतों को भी इज्जत बख्शते थे। भरत तो राम की पादुका माथे से लगाए-लगाए अयोध्या तक ले आए. आसीन कर दी सिंहासन पर। एक दो नहीं, पूरे चौदह वर्षों तक शासन चलता रहा। राम की पादुका वेफ अध्ीनस्थ है किसी देश का इतिहास, जिसमें मनुष्य तो मनुष्य उसवेफ पदत्राणों को इतना सम्मान मिला हो। अब कहाँ रहे वे लोग! और कहाँ वे पादुकाएँ!

...और जूते अपनी गौरवपूर्ण परंपरा की इस दर्दनाक परिणति पर एक गहरी निःश्वास भरकर रह जाते हैं।