जैकलीन फर्नांडिस की 'भय की परिभाषा' / जयप्रकाश चौकसे

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जैकलीन फर्नांडिस की 'भय की परिभाषा'
प्रकाशन तिथि :09 नवम्बर 2015


हॉलीवुड की फिल्म 'डेफिनेशन ऑफ फीयर' 5 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाई जाने वाली है। इस फिल्म की नायिका जैकलीन फर्नांडिस श्रीलंका में जन्मी हैं और उनकी पढ़ाई ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुई है। इसके पूर्व प्रियंका चोपड़ा 'क्वांटिको' नामक अमेरिकन सीरियल में केंद्रीय भूमिका कर चुकी हैं।

जैकलीन फर्नांडिस ने अमिताभ बच्चन अभिनीत 'अलादीन' (2009) से शुरुआत की परंतु इस असफल फिल्म के बाद महेश भट्‌ट की 'मर्डर 2' में उन्होंने काम किया परंतु सितारा हैसियत उन्हें 'हाउसफुल' और सलमान खान अभिनीत 'किक' से प्राप्त हुई। सितारे सरहद पार जाकर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। इस समय एक करोड़ चौतीस लाख भारतीय विदेशों में काम कर रहे हैं और इस दर्शक संख्या ने बॉक्स ऑफिस पर असर डाला है। साथ ही भारतीय कलाकारों की प्रतिभा के लिए उन्हें रुपए के बदले डॉलर मिल रहे हैं। रुपए की खरीदने की ताकत घट रही है तथा डॉलर व पाउंड का मूल्य बढ़ रहा है। भारत में बनी चीजों से अधिक मांग विदेशों में भारतीय कला एवं संस्कृति की है, जिसे 'सॉफ्ट पावर' माना जाता है परंतु देश में इसी उदात्त संस्कृति की संकुचित परिभाषा के कारण इसके विकृत स्वरूप उभर रहे हैं। भारत का यह विलक्षण मिजाज है कि यहां अन्याय व असमानता आधारित समाज में भी प्रतिभाशाली लोग हर क्षेत्र में कमाल कर रहे हैं। भारत की सांस्कृतिक जमीन बहुत उर्वर है और वह मौसम आधारित भी नहीं है। उसकी फसल बारहमासी है।

जैकलीन फर्नांडिस अभिनीत फिल्म का नाम 'डेफिनेशन ऑफ फीयर' विचारोत्तेजक है परंतु समाचार है कि यह हॉरर फिल्म है। यह भी गौरतलब है कि आम दर्शक भयभीत होने और चीखने के लिए पैसा खर्च करता है। मनोरंजन के विविध रूपों में यह भी रूप है। हमारे हास्य भूमिकाओं के लिए प्रसिद्ध किशोर कुमार को भी हॉरर फिल्में देखने का बहुत शौक था और अपनी विदेश यात्राअों मंे वे नई हॉरर फिल्मों के वीडियो खरीदते थे और उनका अजीबोगरीब अवचेतन कुछ ऐसा था कि हॉरर फिल्मों के जिन दृश्यों पर लोगो की चीखें निकल जाती है, किशोर कुमार को हंसी आती थी। फिल्म जितनी अधिक डरावनी होती, किशोर कुमार उतने अधिक ठहाके लगाते थे। दशकों पूर्व एक फिल्म बनी थी, जिसमें डर का प्रतीक एक कीड़ा था और वह जब दर्शक के हाथ या पैर पर चढ़ता है तो दर्शक के चीखने से वह कीड़ा नीचे गिर जाता है गोयाकि आवाज से भय कम हो जाता है। क्या हम इसका यह अर्थ निकालें कि समाज में भी भय के वातावरण में आवाज बुलंद करने से वह घट जाता है या उसका लोप हो जाता है। शायद इसीलिए दुष्यंत कुमार ने लिखा, 'वे मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए' विज्ञान भी कहता है कि ध्वनि कभी मरती नहीं। वह अपनी गूंज या गूंगेपन के बावजूद जीवित रहती है। कल्पना कीजिए कि आज से कई सौ वर्ष पश्चात का समाज अपने विगत को केवल ध्वनि के माध्यम से ही जान सकता है और उसने ऐसे उपकरण खोज लिए हैं, जिनमें विगत की ध्वनियां रिकॉर्ड हो सकती है, तो उसे कितनी मूर्खतापूर्ण बातें सुनने को मिलेगी और इस युग के नेताओं के कर्कश और तर्कहीन भाषणों से वह हमारे बारे में क्या धारणा बनाएगा। हमें अपने पूर्वजों से क्या मिला इस पर उदासीन है हम और इससे भी बेखबर हैं कि हम क्या विरासत छोड़कर जा रहे हैं आगामी पीढ़ियों के लिए। हम कितने अभागे हैं कि हमें अपने पूर्वजों के संस्कार नहीं मिले और हम आगामी पीढ़ियों के लिए श्राप छोड़कर जाएंगे। कई बुद्धिमान बोलने के पहले सोचते हैं, कुछ जल्दबाज बोलने के बाद सोचते हैं और हम उस कालखंड में जीने के लिए अभिशप्त हैं, जिसमें सोचना ही बंद कराया जा रहा है। हम निरंतर विचारहीनता को अपरोक्ष रूप से बढ़ावा दे रहे हैं।

डर एक मनोवैज्ञानिक मसला है, वास्तव में यह होता ही नहीं। डर घातक भी है। अंधकार में मनुष्य का पैर रस्सी पर पड़ता है और उसका भीरू मन उसे सांप समझता है तथा इसी भय से उसके प्राण निकल जाते हैं। आज पोस्टमार्टम के ऐसे विशेषज्ञ हो गए हैं, जो रस्सी द्वारा 'डंसे' गए व्यक्ति की आंतों में सांप के जहर के प्रमाण तक देने लगे हैं। हमने अमूर्त डर को मर्त रूप में दे दिया है। मनोरंजन जगत में हिचकॉक डरावनी फिल्मों के विशेषज्ञ हुए हैं। उनकी 'साइको' में बहादुर दर्शकों की भी चीख निकल जाती थी और इस महान फिल्मकार का असली मूल्यांकन फ्रांस के फिल्म समीक्षकों ने किया। ज्ञातव्य है कि चार्ली चैपलिन की 'डिक्टेटर' फिल्म देखकर कई लोगों के मन से हिटलर का भय मिट गया था। कल्पना कीजिए कि किसी हॉरर फिल्म का पहला दृश्य है कि भूत-पिशाच खाने की मेज पर बैठे हैं और धरती के मनुष्यों के मृत शरीर का भोजन करके वे बीमार पड़ जाते हैं कि इस धरती के प्राणी ने मिलावट का भोजन किया, उसकी सांसों में प्रदूषित हवा थी और कुछ ने दिवाली पर अशुद्ध मावे की मिठाई खाई थी। चंद नेताओं का मांस खाकर सारे भूत-पिशाच मर गए! यह कुछ कम कल्याणकारी नहीं होगा।