जैसे कविता में दिलकश है शहर / प्रमोद कौंसवाल

Gadya Kosh से
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मेरे लिए यह मानना लगभग असंभव सा है कि मैंने गुलाम अली पर अपनी मुलाक़ातों को सहेजने के लिए कुछ शब्द बचाए हुए हैं। मेहदी हसन पर लिखने जाने से पहले मैं कुछ प्रतिलिक्षित संगीत के अपने एलाइड शब्दों को ज़रा देर के लिए अलग रख रहा हूं। अनगढ़ और सुदृढ़ वास्तविकताओं को चाहें जहां से पकड़ूं लेकिन मैं जानता हूं हवा में बहती हज़ारों चीज़ों में से संगीत तरंगों से राग लपकना आसान नहीं है। गुलाम अली हवाओं से राग पकड़ते हैं और इसका कोई दृश्य क़ैद नहीं हो सकता...। अपने फ़टीचर पहनावे और खच्चरी संवेदना के सामने गुलाम अली का ख़ुर्द चेहरा कैसे इत्तेहाद करा सकता था- शायद ये समान-सी चीज़ हों! पता नहीं... मेरे बड़े भाई बड़े शौक़ से गुलाम अली को सुनते थे..आज भी सुनते ही हैं। जब वो सुनते थे तो एक आवाज़ आवारा-सी और पराई लगती थी।

यह 1981-82 की बात है।

मुझे नहीं पता था उसे क्यों सुना जाता था उस आवाज़ को। उन दिनों के आसपास मैं इंटर करके टिहरी शहर आया। और वो शहर चमकते चांद का बंजर में टूटने जैसा था... जिस शहर में पिछले साढ़े तीन दशक से लोगों ने अपने घर कोई दीवार या चटकनी तक न रंगाई थी ना ठीक कराई थी क्योंकि उसे एशिया के एक बड़े बांध की भेंट चढ़ जाना था.. हुआ भी वही... शहर में हर तरह के अंगारे जलते हैं.... कविता में शहर को बड़ा दिलकश और रंगीन कहते हैं... जहां हजारों घर होते हैं... उनमें लोग रहते हैं- जिसे नहीं पता वो अपने ठीये में अकेला और पराया रहता है। कविता की मेरी दुनिया में संगीत का इत्तेहाद इस तरह हुआ होगा। मेरठ आया तो एक फिलिप्स का टूइन वन ख़रीदा... एक वीनाटोन जैसे नाम का टीवी जो कई साल तक चला.. पता चला ये उसी शख़्स की कंपनी का बनाया हुआ है जिससे रेखा ने शादी की... शख़्स तो ख़ुदकुशी कर बैठा लेकिन उसका टीवी, कलर टीवी के ज़माने तक चला। बाजा बचा रहता है, आदमी चला जाता है- जैसे संगीत...। गुलाम अली को लंबी उम्र मिले..। कुछ संगीत ख़रीदा, भाई साहब के लिए गुलाम अली की कैसेट्स थी...। यह प्राक्कथन इसलिए कि इसके बाद चार साल तक मैं छिटक गया गुलाम अली के नाम से और उसके बाद आशिक़ी के मेरे पसंदीदा शहर सिटी ब्यूटीफ़ुल चंडीगढ़ में गुलाम अली से एक के बाद एक छह बार मुलाक़ातें हुईं। तीन इंटरव्यू की शक़्ल में जो मैं जनसत्ता नाम के तब के ज़माने को बदल देने का माद्दा रखने वाले इस पेपर के लिए लेने लगा। संगत ऐसी चीज़ है जो ज़्यादा दिन हो जाए तो इश्क़ में तब्दील हो जाती है। गुलाम अली से इसी तरह की मोहब्बत हुई। अब हुई तो हुई...।

साफ़ कर दूं.... लगता है अब सलामत रहेगी ग़ज़ल। पटियाला घराने की गुलाम अली परंपरा बड़े गुलाम अली ख़ान की तैयार किए रास्ते में गुलाम अली ने अपना बहुत जोड़ा है.. उनको पाकिस्तान से अक़्सर एक कवि और कविता प्रेमी रविंद्र जाखू भारत बुलाते हैं। अक़्सर अपनी ही लिखी एक ग़ज़ल उन्हें गाने को ज़रूर टिका देते हैं। संगीत की चाहे कितनी कचरा संस्कृतियां जन्में ग़ज़ल कभी ख़त्म नहीं की जा सकेगी, ऐसा गुलाम अली बार बार जताने की कोशिश में रहते हैं। ग़ज़ल एक मुश्किल विधा है पर युगों से जीवित है। 34 साल से मैं ही गा रहा हूं... अल्लाह ने चाहा है- लोग भी चाहते हैं। पाकिस्तान में ग़ज़ल गायकी का पहले से बहुत अच्छा माहौल बना है। वहां के कलाकारों के साथ तो कभी ऐसा न हुआ पर एक दौर ज़रूर विपरीत है। ज़माने की रफ़्तार की तरह कई चीज़ें ज़माने की ही मोहताज़ हो जाती हैं। पर ग़ज़ल एक ताक़तवर चीज़ है, इसलिए कभी ख़त्म नहीं हुई। अच्छी चीज़ें लगातार चलती है। उन पर कोई बाहरी असर देर तक नहीं टिकता। ग़ज़ल का बचा रहना हम लोगों के ऊपर है कि हम उसे किस तरह से पेश करते हैं। अल्लाह की दुआ से पाकिस्तानी गायकों ने ख़ूब ताक़त लगाई है। गुलाम अली को तो देखकर तो ऐसा लगता है सांस जब तक जितना ऊंचा साथ देगी, वह सुनाते ही रहेंगे। बोले, ग़ज़ल पर फ़िल्मी संगीत का असर हुआ है। ऐसे संगीत में तनाव नहीं होता ऐसी गायिकी ग़ैर सजीदा है पर गायक जानते हैं इसमें वाहवाही बहुत है। हीरो जल्दी बना जा सकता है, वे सोचते हैं कि रंग भर देते हैं। लेकिन ये रंग जितनी तेजी के साथ खिलता है, उससे कहीं ज़्यादा रफ्तार के साथ के साथ उतर भी जाता है...। सुरों की धीमी रफ़्तार से उठाने वाले और शब्दों को उनके मायनों के साथ गाकर सनसनी पैदा करने वाले इस दौर के सरल स्वभाव गुलाम अली के हर एक गाने की अपनी पहचान होती है। गुल्लू कोशिश करते हैं कि साज़ कम चलें, गायिकी ऊपर रहे। गला होना चाहिए, गीत होना चाहिए पिछले तीन दशक से गा रहे हैं। लोग क्यों सनते है..? सुरों की शास्त्रीयता की लहर में लोगों को रमना उन्हें आता है.... शब्दों के हिसाब से सुर लगते हैं। आपके पास पैसा हो, और ये समझ न हो कि कपड़े कैसे पहनते हैं तो पैसे भी किस काम के... सुनने वाले बेहतर बता सकते हैं लेकिन उन्होंने शास्रीयता पर ज़ोर रखा। फ़र्ज़ महसूस किया। दुनिया में फ़नकार की तरह सुनकार की भी कमी है। एक वर्ग है जो जानता है किस तरह गाया गया है। इसकी पहचान रखता है। हिंदुस्तान में घर घर में सुने जाते हैं। गुलाम अली मुस्कराते हुए बोले- जो घर बचे रह गए हैं, उनमें ही सुना जाऊं- यही सोचता हूं। ऊपर वाले की रहमत है इसीलिए सुनते हैं...। यक़ीनन देखा जाए तो संगीत हमारे रूह की ताक़त है, और उसमें गुलाम अली की जगह है।

कई सालों में बहुत कम समय के अंतराल में तीन बार चंडीगढ़ में शाम-ए-ग़ज़ल जमा चुके हैं गुलाम अली। वो सिर्फ़ अपने लिए नई ग़ज़लें लेकर आए बल्कि पुरानों को भी नए अंदाज़ में पेश किया। ताज़ा ग़ज़लों में दम है। इनमें एक मोहसिन एहसान की लिखी है- रेत पर लिखकर मेरा नाम ना मिटाया करो- बलावल थाट में बंधी इस ग़ज़ल में वो हंगामा है क्यों बरपा- की तरह उठाते हैं और ख़ुश करते हैं। भुला जा उसे जो बात हो गई, भुला भी उसे जो बात हो गई प्यारे.... नए चिराग़ जला रात हो गई प्यारे.. हबीब जातिब लिखी इस ग़ज़ल पर गौड़ सारंग का रंग है। इसके कई लाइनें ग़लुाम अली संजीदगी से पेश करते हैं। इन दोनों ग़ज़लों को क्योंकि वो क़रीब एक घंटे तक गाते हैं इसलिए श्रोताओं से फ़रमाइश का दौर शुरू हो जाता है। अपनी मशहूर ग़ज़ल -जिनके ओठों पे हसीं पांव में छाले होंगे- में अपना अंदाज है। इसमें सालों पहले वे दूसरी पंक्ति में ढ़ूंढने की जगह चाहने इस्तेमाल करते थे। लेकिन यह परिवर्तन भी बुरा नहीं है। इस पर श्रोताओं की ओर से ख़ूब दाद मिलती है। गुलाम अली पंजाबी की गीतनुमा ग़ज़लें भी ख़ूब रस लेकर गाते हैं। पत्ता लगा मैनूं, हुंदी की जुदाई जदों दा मेरा माही रुसियां के अलावा शिव बटालवी की- की पुछदे हो हाल फकीरा दां को सुनने वाले दाद देते हैं। चुपके-चुपके रात दिन ग़ज़ल को वह ख़ूब तरंग में आज भी पेश करते हैं। क्या करें आज के संगीत श्रोता को बोझ बर्दाश्त नहीं है। उसे बहुत कठिन सुनना पंसद नहीं है। एक समय उनकी ग़ज़लें हंगामा है क्यों बरपा... चुपके चुपके... वगैरह इसलिए मशहूर हुई कि कभी कभी श्रोता को कोई नई आवाज़ यकायक मिल जाती है। इसके बाद ऐसा नहीं है कि उनकी कोई ग़ज़ल हिट हुई। ग़ज़ल गायन को उन्होंने कभी गीत में नहीं ढाला... जैसे अल्फ़ाज़ मिले उन्हें वैसे सुर में पेश कर दिया-लेकिन मशहूरी में कई चीज़ों की ताक़त काम करती है। किसी ग़ज़ल को राग दरबारी में ढालेंगे तो लोग उसे लंबे समय तक सुनेंगे। ग़ालिब को गाएंगे तो वहां हमेशा शब्दों की ताक़त सब पर असरदार होगी। संगीत की बुनियाद शास्त्रीय संगीत है। लेकिन लोक संगीत को शास्त्रीय संगीत से भी पुराना कहा जाएगा। गायन के लिए शास्त्रीय और लोक संगीत कच्चे माल की तरह हैं। कलाकार बहुत तेज़ होता है। महफ़िल की इच्छा अनिच्छा को वह फ़ौरन भांप लेता है। जैसे गुलाम अली कहते हैं- निजी तौर पर मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ जब मैंने श्रोताओं से बिना पूछे ही उनका पसंदीदा गायन किया। उनके पिता बड़े गुलाम अली के बड़े मुरीद रहे हैं इसलिए उन्होंने उनका नाम गुलाम अली रखा। पटियाला घराने की गायिकी में गुलाम अली ने अपनी ख़ूबियों से भारत पाकिस्तान के अलावा दुनिया के तमाम मुल्क़ों में जगह बनाई है। गुलाम अली को पंजाबी होने का बड़ा गर्व है। पंजाबी उनकी मातृभाषा- मांबोली- है इसलिए उनको उससे स्वाभाविक प्यार है। न सिर्फ़ पाकिस्तान बल्कि भारत के लखनऊ और आगरा जैसे शहर में उनके पंजाबी गीतों को जैसी वाहवाही मिली, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पाकिस्तान में उर्दू के मुक़ाबले पंजाबी को स्थापित करने के आंदोलन को समर्थन देने के सवाल पर गायक गुलाम अली ने मुझसे कहा- उनका पंजाबी के प्रति काम करने वालों से हमेशा सहानुभूति और सम्मान रहा है। पाकिस्तान में वारिस शाह मेले में उन्होंने कभी नहीं गाया, पर शाह के कलाम उन्होंने चाव के साथ गाए हैं।