जो ख़ौफ़ आँधी से खाते तो / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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वक़्त जैसे घर की दीवारों के दरम्यान रुका हुआ नज़र आता था। इस वक़्त को अनुराधा कितना तो ढकेलती...कितनातो उससे दूर भागने की कोशिश करती। आज़िज़आ चुकी थी वह। दोपहर को स्कूल की नौकरी से थकी हारी लौटती है... भूख पेट से कलेजे तक महसूस करती... लैचखोलते ही बदबू घेर लेती है। आज भी देवदत्त अपने कमरे से वॉशबेसिन तक दीवार पकड़-पकड़ कर चले थे। पूरा रास्ता गू-मूत से लिथड़ा... मुट्ठी में दबाकर लाए गू से ल्हिसी दीवारें... नाक पर दुपट्टा बाँध पहले तो वह रास्ते की सफ़ाई, दीवारों की सफ़ाई में जुटती फिर देवदत्त की सफ़ाई में... सफ़ाई कराते वे इस तरह पेश आते जैसे उस पर एहसान कर रहे हों।

इसके बाद कहाँ भूख शेष रह जाती है। एक गिलास ठंडा पानी पी वह बिस्तर पर कटे पेड़-सी गिर जाती। मन में कुछ पिघल-पिघलकर आँखों की कोरों से बह निकलता। कितनी बार सोचा हैइस कुछ को संजोकर रखेगी। नहींपिघलने देगी। पर हर बार मन दग़ाबाज़ी कर जाता है। चार बजे लता आती है। खाना ढँका हुआ देख झुँझलाई-"आज भी नहीं खाया? मैडम... क्या मरते के साथ मरा जाता है? आपको कौन है देखने वाला।"

वह खाना गरम कर थालीमेंपरोस लाई। बिस्तर पर ही अख़बार बिछा थाली रखती हुई बोली-"थोड़ा-सा खा लो, मैं चाय बनाती हूँ।"

ये सिलसिला पिछले पाँच वर्षों से चल रहा है। देवदत्त को ब्रेन हेमरेज हुआ था। रोग तो ठीक हो गया पर पैरों की ताकत ले गया। दिमाग़ ठिकाने नहीं रहता। न सोच पाते हैं, न बोल पाते हैं। बहुत कोशिश के बाद कुछ छिटपुट टूटे फूटे शब्द ही ज़बान पर ला पाते हैं... घिसट-घिसटकर दीवार का सहारा ले वॉश बेसिनतकजाते हैं। टट्टी, पेशाब कुछ भी कंट्रोल में नहीं। उन्हें पता ही नहीं चलता कब हो गया... फिर हाथ से गू पोंछकर धोने जाते हैं और अनुराधा के लिए मुसीबत खड़ी कर देते हैं।

वह सोचती है उन्हें'ओल्ड ऐज होम' मेंडाल दे पर वहाँ भी चलता फिरता स्वस्थ आदमी लेते हैं। ऐसे बीमार को कौन रहने देगा? फिर उम्र भी साठ वर्ष से कम है। सीनियर सिटीजन होने में अभी छै: साल बाक़ी हैं। लेकिन वह मुक्ति चाहती है... चाहे देवदत्त जाएँ या वह... किसी भी एक के जाने से अनुराधा की मुक्ति संभव है। मुक्ति तो वह उसी दिन से चाह रही है जब शादी के बाद पहली बार पता चला था कि वह ग़लत आदमी से ब्याह दी गई है। जिसकी नज़रों में औरत का कोई वजूद नहीं। वह हाड़-माँस से बनी ऐसी गुड़िया है जिसे पुरुष अपने इशारे पर नचाता है। अनुराधा को तो ख़ुद पर ताज्जुब होता है। वह जो बचपन से ही विद्रोही विचारों की रही है, प्रगतिशील विचारोंके माता-पिता कीसंतान है सो कैसे सहती रही ख़ुद पर इतने जुल्म... कैसे और क्यों? अब जब देवदत्त बीमार हैं वह ही तो कमाकर सब ख़र्च उठा रही है। यह स्वावलंबन तब क्यों नहीं आया जब वह दिन में मज़बूती से ज़िंदग़ी जीतीहर रात टूटकर बिखरी है... हर रात यह सोचकर सोती थी कि क़ाशइस रात की सुबह न हो। पर हर सुबह पाती थी कि आज के जुल्मो सितम को सहन करने की ऊर्जा उसने संजो ली है... बस उसके आँसुओं से तकिया भर तो गीला हुआ है।

शाम होते ही देवदत्त पीना शुरू कर देते थे। देसी दारू की उबकाई वाली बदबू से रात-रात भर कमरा बदबूदार बना रहता। वे कभी कबाब, कभी कलेजी, कभी उबले अंडे अनुराधा से बनवाते और जैसे-जैसे दारू चढ़ती जाती उनके होठों पर भद्दी, भदेस गालियाँ आ धमकती। विरोध करने पर उसके बालों को मुट्ठी में जकड़कर झँझोड़ते, उसे उठाकर पलंग पर पटक देते और तकिए से उसका गला दबाने लगते। कभी-कभी गैस पर से खाना उठाकर खिड़की के बाहर फेंक देते... "लो खाओ अब। मेरी कमाई खा-खाकर दिमाग़ खराब हो गया है तुम्हारा।" वह सुबक पड़ती।

"अब ये आँसू किसी और को दिखाना। रो तो ऐसे रही हो जैसे बापू की कमाई फेंकी हो... सुन लो... अपना कमाता हूँ, अपनाखाता हूँ। तुम्हारे साथ-साथ चार और को खिलाने की ताकत रखता हूँ।"

नहीं, इंसान को कभी बड़े बोल नहीं बोलना चाहिए। वक़्त सबका हिसाब रखता है। अब ऐसी नौबत आ गई है कि देवदत्त को अनुराधा की कमाई खानी पड़ रही है। अपना कमाया तो सब यार दोस्तों में शराब कबाब में उड़ा दिया। शराब ने लीवरख़राब कर दिया था सो सालभर बिस्तर भोग रहे हैं।

"मैडम... घाटकोपर वाले साहब आये हैं।" लता ने सूचना दी।

"बिठाल, पानीवानी दे... आती हूँ अभी।"

घाटकोपर वाले साहब यानी देवदत्त की चचेरी बहन ममता के पति प्रदीप... हाँ उसने उनसे कहा था देवदत्त के लिए कुछ प्रबंध करने को। शायद ख़बर लाए हों।

"नमस्ते भाभी... कैसी हैं? भाई साहब कैसे हैं?"

"कुछ पता किया?"

"हाँ... किया तो है... यहीं नज़दीक में एक ऐसा मिशनरी अस्पताल है जहाँ केवल लाइलाज रोगियों को ही लिया जाता है। बहुत सुंदर, साफ़ सुथरा विदेशी संस्था द्वारा चलाया जा रहा अस्पताल है बल्कि उसे हर उम्र के रोगियों को सुकून देने वाला आश्रम कहें तो ज़्यादा अच्छा है।"

"लेकिन वहाँ देवदत्त को..."

"मैं बात कर आया हूँ। उन्होंने केस हिस्ट्री देखकर दाखिले की परमीशन दे दी है। वहाँ भाई साहब का इलाज़ भी होता रहेगा और खाना पीना यानी कि पूरी देखभाल भी। एक लाख डिपॉज़िट और छै: हज़ार महीना फीस देनी पड़ेगी।"

"यह तो बड़ी अच्छी ख़बर लाए हैं आप। आज ही चलकर देख लेते हैं। लता चाय तो बना। मैं तैयार होकर आती हूँ।"

लता देवदत्त की तीमारदारी में लगी थी। चायबिस्किट खिला रही थी। वे मारे क्रोध के बिफ़रे पड़ रहे थे। लटपटाईआवाज़मेंगालियाँ बक रहे थे-"चुड़ैल, भाग इधर से, इतना मारूँगा कि अक्ल ठिकाने आ जाएगी।"

वह पहुँचे तब तक बिस्किट उन्होंने उसके मुँह पर दे मारे। लता बुरा नहीं मानती थी। हँसते हुए चाय बनाने चली गई।

अस्पताल में वह कमरा बुक कर आई। बाज़ार से देवदत्त के लिए कुरते, लुँगी, तौलिए, नेपकिन, चप्पलें ख़रीद लाई। आज स्कूल से उसने छुट्टी ले ली थी। स्कूलके मालिक और उसके बॉस विकास सिंघानिया ने अपनी गाड़ी भेज दी-"अनुराधा जी, किसी चीज़ की फ़िकर नहीं करना... मैंड्राइवर के हाथ पचास हज़ार का चैक भेज रहा हूँ। औरचाहिए तो तनख्वाह में से धीरे-धीरे कटता जाएगा।"

फिर भी अनुराधा विचलित हो रही थी। एक लंबी उम्र देवदत्त के साथ गिरते, पड़ते, रोते, उठतेगुज़ारी थी, ख़ुद को स्वाहा किया था। मान लिया था कि तमाम जन्मों का हिसाब इस जन्म में चुकता कर दे ताकि अगला जनम साफ़ सुथरा सुकून भरा हो... क्या पता अब दुबारा देवदत्त इस घर में लौटेंगे भी या... न जाने क्यों मन भारी हो उठा। प्रदीप, लताऔर ड्राइवर देवदत्त को उठाकर गाड़ीकी पिछली सीट में बैठा चुके थे। वह उनकी छड़ी लेकर चल पड़ी। देखा, लता कह रही थी-"बाबूजी, अच्छे होकर जल्दी लौटना।" और वे मुट्ठियाँ ताने उसे गुस्से भरी नज़रों से घूर रहे थे। अनुराधा मानती है कि उनकादिमाग शून्य हो चुका है परगुस्सा करना कैसे याद रहता है।

देवदत्त को भरती कर सारी औपचारिकताएँ पूरी कर जब वह प्रदीप के साथ गाड़ी में घर की ओर थी तो प्रदीप ने उसका हाथ पकड़ लिया-"चिंताक्यों करती हैं भाभी... आप अकेली नहीं हैं, मैं हूँ आपके साथ... आपका रखवाला।"

उसने हाथ छुड़ा लिया-"नहीं, मैं कमज़ोर नहीं हूँ प्रदीप जी यह तो वक़्तीउदासी है। सम्हाल लूँगी ख़ुद को।"

प्रदीप रास्ते में ही उतर गये। ड्राइवर ने अनुराधा को घर पर उतारा। अनुराधा ने अपनी सुपरवाइज़र उमा शर्मा को फ़ोन लगाया। उधर से आवाज़ आई-"हाँ, अनुराधाकर आईं एडमिट?"

"हाँ दीदी..." उसका स्वर बुझा था।

"रिलैक्स... तुमने कोई ग़लत क़दम नहीं उठाया है। अगर तुम्हारी जगह देवदत्त होते तो वे पाँच साल इंतज़ार नहीं करते यह करने में... बल्कि पाँच साल तो उनकी दूसरी शादी को हो गये होते।" वे ज़ोरों से हँसी... हँसी-हँसी में वे जिस सच्चाई को कह चुकी थीं उसने उसे आरपार छेद डाला... तोयह औरत ही है जो बीमार, लाचार, नाकमाऊ, आवारा, बदचलन... चाहे जैसा भी हो मर्द... ख़ुद को उसके नाम पर मिटा डालती है। ज़िंदग़ी के बाईस साल अनुराधा ने देवदत्त की शराब, उनकेअत्याचार, उनके क्रोध कीअग्नि में जला डाले... कोई सुख नहीं भोगा उसने। वे जो चाहते थे कर नहीं पाए तो कुंठा से जकड़े उस पर अत्याचार कर ख़ुद को शांत करते रहे। शादी के छै: महीने बाद अनुराधा जब मायके में थी उन्होंने अपने पिता से यह कहकर घर छोड़ दिया था कि"निश्फिक्र रहिए पापा... मुंबई पहुँचकर चंद ही महीनों में मैं आपके चहेते बेटे सोमदत्त से चौगुना कमाकर दिखा दूँगा। अपना घर, अपनी गाड़ी खरीदूँगा और उसी गाड़ी को लेकर यहाँ आऊँगा... उसके पहले नहीं... क़सम है मुझे आपकी।"

अगले महीने ही वे उसे कांदिवली की एक चॉल में ले आए। वह अपने पिता के शानदार बंगले, बाग़ बगीचे, नौकर चाकर, साटन किमख़ाब, दावतें भोज के बीच पली बढ़ी एक कमरे की चॉल में ख़ुद को कैसी महसूस कर रही थी। वहीं एक कोने में खाना पका लो... रसोई से लगी मोरी पर नहा लो, कपड़े धो लो... टॉयलेट कॉमन... शाम को देवदत्त दारू की बोतल और सब्ज़ी लेकर लौटते थे। कभी दोस्त साथ होते, कभी अकेले। वह खाना पकाती, देवदत्त पीते... रात बारह-बारह बजे तक पीते रहते। वह इंतज़ार करते-करते थक जाती। वह कहते-"तुम खाकर सो जाओ... ऐश करो... दिन भर पसीना बहाते हैं... पिएँगेनहीं तो नींद कैसे आयेगी?"

वह बिना खाए ही सो जाती... आधी रात वे उसे झँझोड़ कर जगाते और उसके शरीर से पति होने का टैक्स वसूलते। इस भावनाहीन, प्यारहीन समर्पण में उसे सौदेबाज़ी की बू आती। डी.एच. लॉरेंसने ठीक ही कहा है-'मैरेज इज ए लीगल प्रॉस्टीट्यूशन... शादी कानूनी मान्यता प्राप्त वैश्यावृत्तिहै।'

उसका मन टूटता गया। ये कैसा बंधन है जो हर बार खुल-खुल जाने को मचल उठता है। चाहता है कि निर्द्वंद्व समूचे आकाश में खुलकर उड़े... पर... पिंजरे का पंछी आख़िर कितना उड़ेगा? क़दम-क़दम पर दबोचे जाने की आशंका... पंख-पंख छितर जाने का डर। सुन रखा था अनुराधा ने कि अकेली औरत किसी दीनकी नहीं रहती... मायका पूछता नहीं... अड़ोस-पड़ोस, समाज इस मुक्ति को आंदोलन नहीं बल्कि हेय दृष्टि से देखता है। कहने को औरत ने तरक्क़ी की बुलंदियों को छुआ है पर उसे लगता है वह जहाँ की तहाँ है। लाचार, बेचारी, पुरुषकी सुरक्षा की मोहताज। बस यहीं आकर मात खा जाती है और ताउम्र एक अनजाने रिश्ते को ढोती है।

एक दिन अनुराधा ने देवदत्त के सामने प्रस्ताव रखा-"तुम कहो तो मैं भी नौकरी कर लूँ। फिर बैंक से लोन लेकर फ़्लैट ख़रीद लेंगे। एक की तनख़्वाहसे घर चलेगा, दूसरा किश्त भरेगा।"

"कैसी नौकरी?" पलभर सोचकर देवदत्त ने कहा।

"टीचिंग की। शादी के पहले भी मैं पढ़ाती ही थी। आख़िर एम.ए.बी.एड। हूँ।"

न हाँ... न ना... बस एक मौन... और देवदत्त ऑफ़िस चले गये लेकिन अनुराधा नियम से अख़बार में वांटेड काकॉलम देखने लगी। जहाँ की नौकरी निकलती एप्लाई कर देती, बुलाए जाने पर इंटरव्यू दे आती। काफीइंतज़ार के बाद आख़िर मीरा रोड केकॉन्वेंटस्कूल में उसकी नौकरी लग ही गई। नियुक्तिपत्र हाथ में आते ही उसका मन बल्लियों उछल पड़ा। उसे मुक्ति दिखाई दी। एककमरे की इस घुटन भरी चॉल से मुक्ति। लगातार दस वर्षों तक कभी कांदिवली, कभी मालाड, कभी अँधेरी, कभी कुर्ला की चॉल या अस्पताल के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के लिए बने क्वार्टर्स में धक्के खाते तंग आ चुकी थी वह... यह नौकरी जैसे इस सबसे छुटकारे का एक विश्वस्त साधन था। लेकिन देवदत्त के लिए यह सूचना कुंठा का एक और कारण बन गयी। उनकी तासीर में ही था कुंठाग्रस्त रहना अनुराधा ने देवदत्त को शायद ही कभी मुक्त होकर हँसते देखा हो जबकि वह जिस माहौल से आई थी वहाँ दुःख में भी सब मुस्कुराते थे। सब हँसते-हँसते अपने ग़म बाँट लेते थे और पता ही नहीं चलता था कि अँधेरा कब उजाले में बदला... कब पतझड़ की टपकन, चरमराहट बहारों की दस्तक में बदली।

नौकरी में स्थाई होते ही अनुराधा ने लोन के लिए एप्लाई कर दिया और मीरा रोड के सृष्टि कॉम्प्लेक्स में जो अब सबसे पॉश इलाक़ा माना जाता है... एक बहुत ही सस्ता फ़्लैट बुक कर लिया। यह फ़्लैट एक टॉवर की सातवीं मंज़िल पर था और किसी बिल्डर ने नहीं बल्कि एक अमीर मातृभक्त ने अपनी माँ की स्मृति में बनवाया था। फ़्लैटफर्निश्डथा और बहुतखूबसूरतबनावट थी उसकी। अनुराधा का मन खिलउठा। पंडितसे मुहूर्त निकलवाकर बाक़ायदागृहप्रवेश का पूजन-हवन कराके जब दोनों उस घर में रहने आए तो बाल्कनी से दिखते घने दरख़्तों के पीछे पहाड़ों की चोटियों पर बिखरती उगते सूरज की सुनहली किरनों ने अनुराधा का मन भी सुनहला कर दिया। देवदत्तदाढ़ी बना रहे थे। वह पास आकर बोली-"देखिए न... कितना सुंदर व्यू है।" "तुम्हीं देखो... इधर जब लोकल ट्रेन में ठूँसकर चर्चगेट जाएँगेतो सारा व्यू रखा का रखा रह जाएगा।"

अनुराधा बुझ गई। कितना प्रेमहीन, अक्खड़ है यह आदमी और ईश्वर ने उसे कितना भावुक, संवेदनशील, प्रेम से लबालब हृदय दिया है। हृदय तो दिया पर हिम्मत नहीं दी... अन्याय, अत्याचारके खिलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं दी... सबकुछ सहते रहने की अपारसहनशीलतादी तो क्या... इस सहनशीलता ने ही उसे भीरु बना दिया है और इस भीरूपन के कारण उसकी कला उभर नहीं सकी वरना वह जीवन में एक बड़ी चित्रकार बनती। शायद यही वज़ह थी कि अपने फ़्लैटकी सूनी दीवारों, दरवाज़ों को देख उसकी सोई हुई कला अंगड़ाईयाँ लेने लगी थी। उसने दरवाज़ों पर कोलाज में मोहक रंग उकेरे। दीवारों पर मूर्त अमूर्त पेंटिंग्स ने पूरे माहौल को स्वप्निल बना दिया। लेकिन देवदत्त उलाहना देने से चूके नहीं-"घर... घर जैसा नहीं लगता... ऐसा लगता है जैसे किसी आर्टगैलरी में आ गये हो।"

वह देवदत्त का चेहरा देखती रह गई। उस रात उसे सरफ़राज़ आलम मास्टरजी बहुत याद आए।

महत्त्वकांक्षी देवदत्त ने सपने तो ऊँचे-ऊँचे देख डाले थे पर उनके ईगो ने उन सपनों को दीमक की तरह चरना शुरू कर दिया था। वे फ़िल्मी लेखक बनना चाहते थे। रातों रात स्टार बनना चाहते थे पर उसके लिए आदमी को थोड़ी चतुराई और समझ चाहिए जो उनमें बिल्कुल नहीं थी। किसी के आगे झुकना तो उन्होंने जाना ही नहीं। उन्हें लगता काम के प्रति उनकी ईमानदारी उन्हें सफलता दिलाएगी। एक दिन पहले मिले कहानी के ऑफर को स्वीकार कर वे रात-रात भर जागकर स्क्रिप्ट तैयार कर दूसरे दिन स्टूडियो में हाज़िर हो जाते। निर्माता झुँझला जाता-"यार तुम आदमी हो या तूफानमेल... ऐसे तो तुम फ़िल्मी दुनिया को ले डूबोगे। फ़िल्म बनानेवाला तुम्हें टटपुँजिया समझेगा। थोड़ा वक़्त लगाओ, तकाज़े सुनो, अपनी ज़रुरत जगाओ, तब आओ... यह फ़िल्मी दुनिया है हुजूर, यहाँ नखरा बिकता है।"

घर लौटकर देवदत्त शराब में डूब जाते... बड़बड़ाते-'होगी, एक दिन मेरी डिमांड होगी, तब देखना।' इसमें कोई शक नहीं है कि वे मेहनती थे। पार्ट टाइम नौकरी के साथ-साथ निर्माताओं के चक्कर काटना... देर रात घर लौटनाउनकी दिनचर्या बन गया। वे अपनी असफलताओं की झुँझलाहट अनुराधा पर निकालते... इसमेंशराब उनकी उत्तेजना में इज़ाफ़ा करती। यार दोस्तों के साथ महफ़िलें जमतीं... कभी घर पे, कभी बाहर, कभी स्टूडियो में ... बटुवा अक़्सर देवदत्त का ही खाली होता... शराब, कबाब का बिल भरने में उन जैसी मुस्तैदी कोई नहीं दिखाता। नशा चाहे करके आये हों या घर में किया हो भुगतना उसे पड़ता। वह खून के आँसू रोती। उसने हथियार डाल दिये थे। मान लिया था कि यही उसकी नियति है... और जब यह सब होना ही है तो कोई क्या कर सकता है?

एकरस ज़िंदगी जीते-जीते थक चुकी थी अनुराधा। वह देख रही थी कि शराब ने देवदत्त को खोखला कर दिया है। पेट फूल कर मटके का आकार लेता जा रहा है। उसने डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी पर देवदत्त माने नहीं... रोग बढ़ता गया और एक दिन जो बिस्तर पर गिरे तमाम रोगों ने उन्हें घेर लिया। लिवर सिरॉसिस, हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज... एक महीना अस्पताल में बिताकर घर लौटे... डॉक्टर ने ताक़ीद की थी "ज़िंदग़ी चाहिए तो शराब को हाथ भी मत लगाना।"

परमिज़ाज़पुरसीके लिये आये दोस्तों के बीच बोतलतो खुलनी थी और खुलनी थी तो चखनी भी थी। वह मिन्नतें करती-"इन्हें न पिलाइए... अभी-अभी बीमारी से उठे हैं।" दोस्त ठहाका लगाते-"फिकर मत करिए भाभीजी... ये शेर का पट्ठा शराब के लिए ही ज़िंदा लौटा है।"

वह अपमानित महसूस करती ख़ुद को बेडरूम में क़ैद कर लेती।

और यूँ लावजूद अनुराधा की ज़िंदग़ीके लंबे-लंबे बाइस वर्ष यूँ गुज़रे जैसे बाइस बार रेत का घरौंदा बना-बनाकर उसके ढह जाने की पीड़ा भोग रही है वह। उसका मन हाहाकार कर उठा। कोई तेज़ लहर आए और उसे भी बहा ले जाये। वह मिट जाना चाहती है... वह नहीं चाहती जीना... अगर यही ज़िंदग़ी है तो... देवदत्त उसे माँ तक नहीं बना सके... एक शून्य ज़िंदग़ी जीती एक अधूरी औरत बनकर रहने से तो मर जाना बेहतर।

उस रात अपनी तमाम बीमारियोंके बावजूद भी दवा न खाने और शराब पीते रहने की ज़िद्द में देवदत्त ने एक ही घूँट में पूरा गिलास खाली कर भद्दी गाली मुँह से निकाली तो वह पूरी की पूरी टूटकर बिखर गई... अब बर्दाश्त नहीं होता... अब बस... हे ईश्वर... क्या इसी को नर्क कहते हैं। उसने मर चुके मन के संग शरीर को भी ख़त्म कर देने की ठान ली और एक साथ नींद की चार गोलियाँ निगल लीं और मुँह तक चादर ओढ़ थरथराती आवाज़ में ख़ुद से बोली-"जो तुम अब कर रही हो न अनुराधा, यह ज़िंदग़ी से पलायन तुम्हें बाइस साल पहले कर लेना था।"

लेकिन फिर भी मौत नहीं आई। वह सुबह बारह बजे तक सोती रही... उठी तो देखा देवदत्त किचन में मछली ताल रहे थे, गुनगुना रहे थे और आधा पेग कलेजेमें उतार भी चुके थे... यानी उन पर उसकी असहजता का कोई असर नहीं? इतनेवर्षों से सुबह पाँच बजे नियमपूर्वक उठने वाली अनुराधा दोपहर बारह बजे तक सोती रही और देवदत्त पर कोई असर नहीं? कोई घबराहट, अकुलाहट नहीं जबकि उनकी बीमारी की हालत में उसने ज़मीन आसमान एक कर दिया था। साल भर तक बिस्तर भोगने वाले बीमार, नकमाऊ देवदत्त को वह झेलती रही... उनके यार दोस्तों की भी ख़ातिर तवज्जो करती रही, उसका ये सिला? लेकिन वह इस दुःख को बाँटे भी तो किससे? अम्मा बाबू चल बसे, अल्पायु में बड़े भाई और बड़ी बहन भी चल बसी। मायका उजड़ गया... मायके के नाम पर जबलपुर जाते हुए भी वह डरती है। कहीं आधुनिकता की होड़ में पुरानी इमारतें, सड़क, पुल... तालाब, पोखर, अट्टालिकाओंमें न बदल गये हों फिर वह कहाँ खोजेगी अपनेशहर को... एक-एक कर सब कुछ छूटता चला गया। कम-से-कम वह यादें तो अब भी ताज़ा हैं जब जाड़ों में आँगन में धूप सेंकते, कभी किताब पढ़ते, कभी स्वेटर बुनते वह बेर की ज़मीन छूती डालियोंसे खट्टे मीठे बेर तोड़ कर खाती थी। अम्मा चिल्लाती रह जाती थीं-"खाँसी खोखला हो तो हमें मत कहना... और वह हँसते-हँसते अम्मा के मुँह में भी एक बेर ठूँस देती। वे चिल्लाती रह जातीं और धूप आँगन में पत्तों, फूलों के बीच से छन-छन कर रंगोली पूरती रहती। उस धूप की रंगोली में वह तमाम दुनिया की सैर कर लेती... कैसे-कैसे तो दृश्य दिमाग़ में आते। जब तक उन्हें कैनवास में उतार नहीं लेती, चैन नहीं मिलता। बाबू कहते-" कहाँ है हमारी अमृता शेरगिल। "

"क्यों बाबू, अमृता शेरगिल क्यों? मैं हूँ अनुराधा वर्मा... भविष्य की मशहूर चित्रकार... मैं किसी के बनाए रास्ते पर क्यों चलूँ, मैं अपना रास्ता ख़ुद गढ़ूँगी।" बाबू पीठ ठोक देते-"यही जज़्बा चाहिए।"

कॉलेज रूटीन से फारिग हो वह चित्रकारी में जुट जाती। एक मिनट की फुरसत नहीं। बारह बजे रात को बिस्तर पर जाते ही रंगों का हुजूम उसकी मुँदी पलकों पर दस्तक देता। रंग उससे बोलते, बतियाते... वह रंगों में ख़ुद को पाती... डूबी-डूबी... उभरने का नाम ही नहीं। एक दिन उसके ड्रॉइंग मास्टर सरफ़राज़ आलम उसके घर आए-"बहुत बढ़िया ख़बर लाया हूँ वर्मा जी। प्रदर्शनी के लिए मई के पहले सप्ताह में आर्ट गैलरी हफ़्ते भर के लिए मिलगईहै। अब अनुराधा को कड़ी मेहनत करनी है।"

उसका मन फूलों से लदी रातरानी-सा महमहा उठा। उसने मास्टरजी के पैर छुए। वे दिव्य पुरुष-सा मुस्कुरा रहे थे। मानो कह रहे हों कि आज तुम्हें रंगों को इतने दिनों के अभ्यास का हिसाब देना है। वह चित्रों की दुनिया में तहेदिल से उतर गई।

पर तभी देवदत्त उसकी बेदखल दुनिया में दखल कर शादी का प्रस्ताव लेकर प्रगट हुए। यह वह समय था जब वह कॉलेज में परीक्षाओं के कारण बेहद व्यस्त थी और जब वर्षों का सपना सच होना था। उसके बनाए चित्रों की प्रदर्शनी होने वाली थी जिसका निमंत्रण पत्र उसने बेहतरीन डिज़ाइन किया था और जिसका उद्घाटन शहर की मेयर नीलिमा चटर्जी करने वाली थी जो ख़ुद भी एक ज़माने में चित्रकार थी। सरफ़राज़ आलम मास्टरजी के लिए तो यह प्रदर्शनी एक चुनौती थी क्योंकि अनुराधा उनकी वह पहली शिष्या थी जिसके चित्र प्रदर्शित होने वाले थे। देवदत्तसे उसकी शादी आनन-फानन में तय हो गई और मई की 15 तारीखशादी के लिए मुकर्रर हो गई। मास्टरजीका चेहरा बुझ गया-"अभी तो अनुराधा की कला के उठान के दिन हैं... एक कलाकार को अभी से घर गृहस्थी की झँझट में?"

आर्ट गैलरी में उसके चित्र हाथों हाथ बिक रहे थे... हर सुबह दैनिक अख़बार इस प्रदर्शनी की ख़बरों से भरा रहता... उसके हाथ में ऐन तभीकॉलेज की स्थाई नौकरी का पत्र भी आ गया... पिछले आठ महीनों से वह अस्थाई नौकरी पर थी... और इन सुनहले पलों में वह दुल्हन बन गई। नाते रिश्ते की बहनों, भाभियों ने उसके सोलह शृंगार किए... सतरंगे भारी काम वाला लहंगा, ब्लाउज़, दुपट्टा... मैचिंग गहने, मेंहदी में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। तीन घंटे तक आईने के सामने बैठी शृंगार कराती वह थक चुकी थी। रोली और सफेद रंग कीबूँदों से उसका माथा सजातेहुए जब आँखों की कोर तक लाइन आई तो उसका फ़ोन बज उठा... सरफ़राज़ आलम थे-"मैं बहुत खुश हूँ अनुराधा, आज आख़िरी चित्र भी बिक गया। यह तुम्हारी महान सफलता है, बधाई... "

उसकी आँखें सुन रही थीं, क्योंकि वह और कुछ भी देखना नहीं चाहती थीं... यह कैसी ख़ुशी मिली उसे कि बहारों ने फूलों भरी डालियाँअपनीतरफ़ मोड़ लीं? पहाड़ों से छलकते दूधिया झरने पहाड़ों में ही वापिस लौट गये।

अनुराधा बेहद खूबसूरत है... उसके मुकाबले देवदत्त बिल्कुल साधारण... गहरे साँवले रंग के... साधारण कद काठी वाले। देवदत्त पर जुनून था मुंबई में रहकर फ़िल्मी लेखक बनने का... सो उन्हें सेक्रेटेरियट की नौकरी नहीं भाई... अनुराधा तब मायके में अपने बिखराव को समेट रही थी जब वे मुंबई आगए थे। कॉलेज कीनौकरी से इस्तीफ़ा... चित्रकारी को एक बक्से में समेटने का बेहूदा प्रयास... जब वह बड़े भाई के साथ मुंबई रवाना हुई तो सरफ़राज़ आलम स्टेशन छोड़ने आए-"चित्रकारी करती रहना अनुराधा, कोई भी कला अभ्यास से ही निखरती है।"

उसनेउनके चरण स्पर्श करते हुए डबडबाई आँखों को झुका कर कहा-"हाँ, मास्टर जी... "

पर अपनी कलानगरी को उजाड़कर उसे क्या मिला? दो वक़्त चैन से खाने तक तो नहीं दिया देवदत्त ने। वह उनकी कुंठाओं की आँच में सिंकती, चिटकती, दरकती रही। बल्कि उस कुंठित, सैडिस्ट पुरुष के भीतर सुलगते दावानल के लिए मशीन बनकर रह गई वह। कैसे... कैसे? आख़िरसह गई इतना कुछ? क्यों नहीं विरोध केलिए मुँह खोला? क्यों नहीं छोड़पाई उस नर्क को? ... उसके बनाए चित्र रात बिरात मुँह उठा-उठाकर उससे सवाल करने लगे... और जब 'औरत' विषय को लेकर आठ अलग-अलग चित्रों की रचना ने मुँह बाया... 'क्या इसीलिए हमें चित्रित किया था कि जानते बूझते उस अग्नि में ख़ुद को होम कर दो... जिस अग्नि को बुझाने की कोशिश रंगों और ब्रशों द्वारा की थी?' वह लस्थ पड़ जाती है बिल्कुलशून्य बनकर... जैसे उसके अंदर सब कुछ पथरा गया है। उसकी ज़िंदग़ी से बीते समय की ख़स्ताहालदीवारों का प्लास्टर एक साथ क्यों नहीं गिरजाता? यूँआहिस्ता-आहिस्ता झरते हुए आख़िर अब और कितना दम घोंटेगा उसका?

अकेला घर जैसे सहरा-सहरा हो उठा। रेत के बगुले उसे चारों ओर से घेरने लगे... वह मुक्ति चाहतीथी, तो अब कैसी तड़प? गुज़र चुके वक़्त पर स्यापा करना चाहती है क्या वह? ... वह बोझिल क़दमों से उठी और जाकर शॉवर के नीचे खड़ी हो गई। ढलकतीजलबूँदोंके संग मन का अवसाद भी घुल गया।

अब नहीं टीसता पर तब हज़ारहा आँसू रोई थी वह जब देवदत्त को लगातार बिगड़ती हालत और महँगे इलाज़ की वज़ह से उसे अपना सपनों-सा सुंदर फ़्लैट बेचना पड़ा था, सारा सामान बेचकर वह जहाँ जो कहता इलाज़ के लिए देवदत्त को लेकर जाती। डॉक्टर, वैद्य, होम्योपेथी, नेचरोपेथी के तमाम महँगे कोर्स कराती दर-दर भटकती वह देवर, ननद, बहनोई सबकोआज़माती... सब जगह से देवदत्त के बुरे व्यवहार के कारण दुत्कारी जाती वह घड़ी भर सुकून पाने को ठहर जाना चाहती थी पर ऐसा नहीं। दुनियादारी के तमाम तक़ाजों के बाद भी एक आबनूसी ठठरी जैसी मृत्यु के बोझ को वह अपनी अंतरात्मा के कंधों से उतार नहीं पाई थी। चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाई थी। और जब चारों ओर ज़िंदग़ी के बिखर जाने का प्रगाढ़ अंधकार था ऐसे में आगे क़दम बढ़ाने को रोशनी बनकर उभरे विकाससिंघानिया। अरबपति विकास सिंघानिया के सिंघानिया ट्रस्ट का शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान रहा है। यहट्रस्ट कई कॉलेज, कई स्कूल और तमाम आधुनिक कोर्सेज केइंस्टिट्यूट चलाती है। अख़बार में ड्राइंग टीचर के रिक्त पद के लिए आवेदन करते समय उसनेसपने में भी नहीं सोचा था कि विकास सिंघानिया न केवल उसे नौकरी दे देंगे बल्कि उस बनजारिन को अँधेरी के पॉश इलाके में एक शानदार फ़्लैट भी दे देंगे। देवदत्त की दुर्बलदेह को कंधों पर उठाए जब स्कूल के चपरासी ने पलंग पर लाकर लिटाया तो सहसा उसे यक़ीन ही नहीं हुआ था कि उसके दुर्भाग्य को ठेलता अच्छा वक़्त अब उसके सामने है। इस वक़्त मुस्कुराना चाहिए था पर वह घुटनों में मुँह छुपाए देर तक रोती रही थी। नदीकी धुँध को चीरती नौका के समान यादोंकी नौका भी उसके बहते आँसुओं कीनदी में आहिस्ता-आहिस्ता बढती रही थी।

धीरे-धीरे वह देवदत्त के बिना रहने की आदत डालने लगी। सोच ही रही थी कि आज आठ दिन हो गये देवदत्त को भरती किये... वह तो नहीं जायेगी लेकिन प्रदीप को भेजेगी खोज ख़बर लेने। विकास सिंघानिया के आग्रह पर उसने चित्रकला का समर कैंप स्कूल कैंपस में आयोजित किया था। वहीं जाने के लिए वह तैयार हो रही थी कि अस्पताल से डॉक्टर का फ़ोन आया-"अनुराधाजी, आप जल्दी आ जाइए... देवदत्त जी की हालत बहुत गंभीर है।"

"अरे... अचानक कैसे?"

"उनकी किडनी फेल है... आपने बताया नहीं... उनकी तो दोनों किडनियों में कैंसर है। लास्ट स्टेज में आप यहाँ लाई।" उसने तुरंत विकास सिंघानिया को फ़ोन लगाया। उन्होंने तुरंत गाड़ी भेजने का आश्वासनदिया। प्रदीप को फ़ोन लगाते ही पता चला कि वह अँधेरी में ही अपने किसी बिज़नेस क्लाइंट के पास है, अंदर दस मिनट में पहुँच रहा है। जब तक वे दोनों अस्पताल पहुँचे देवदत्त का हार्ट सिंक करने लगा। ऑक्सीजनमास्क लगा था। वह सिरहाने बैठ गई। प्रदीप तलुए रगड़ने लगा। उस समय दिन के ग्यारह बजेथे। पूरा दिन और पूरी रात अस्पताल में ही गुज़री। प्रदीप एक बार अपने घर हो आया। विकास सिंघानिया और उमा दीदी लगातार फ़ोन परसंपर्क रखे हुए थे। सुबह छै: बजे देवदत्त ने अंतिम साँस ली। उसने देवदत्त के सीने पर हाथ रखा जो अब धड़कन विहीन था... हाथ आहिस्ते से हटाकर वह दो क़दम पीछे हटी... प्रदीप ने सम्हाल लिया-"शांति रखें, यह तो होना ही था।"

विकास सिंघानिया ने दो चपरासी रुपये लेकर दौड़ाए। इस सूचना के साथ कि "बॉडी घर न लाएँ... परेशान हो जाएँगी... अस्पतालसे ही सब काम निपटाकर आएँ।"

श्मशान घाट पर वह हाथ बाँधे खड़ी थी। कैसी विडंबना थी कि यार दोस्तों के जमघट में रहने वाले देवदत्त को बस चार लोग नसीब हुए। प्रदीप, अनुराधाऔर दोनों चपरासी। किसी का भी आना संभव न था... वक़्त कहाँ था उसके पास? चिता की लपटें जैसे आँखों के गिर्द लपलपा रही थीं। प्रदीपने उसके कंधे पर हाथ रखा-"उदास हैं?" "नहीं... उदास क्यों होऊँगी मैं? जो काम मैं नहीं कर सकी, डॉक्टर नहीं कर सके वह मौत ने कर दिखाया। उन्हेंतमाम दर्दों से मुक्ति दिला दी। बहुत भुगत रहे थे वे।"

मेहमान, जमघट, हवन, तेरहवीं, पिंडदान, ब्रह्मभोज, हजारों रुपियों का कर्मकांड... सब विकास सिंघानिया ने वहन किया... वह सोचती और मदद पहुँच जाती। प्रदीप सारा इंतज़ाम करने को तत्पर, वह सामान की लिस्ट बना ही रही थी कि प्रदीप ने उसे कसकर बाहुपाश में जकड़ लिया-"इतनीउदास क्यों हैं अनुजी, मैं हूँ न।"

वह अक़बका गई। उसे छूने का, उसका नाम लेने का दुस्साहस प्रदीप ने पहली बार किया था... उधर विकास सिंघानिया हर घड़ी फ़ोन पर अपनी मौजूदगी जताते। ये सब आख़िर हो क्या रहा है उसके साथ? यह किन परिस्थितियों में उलझती जा रही है वह? उसे लगा वह ऐसी अंधी सुरंग से गुज़र रही है... जहाँ चारों ओर चट्टानों का नुकीला पथरीला फैलाव है और जब बाहर निकलती है तो बीहड़ का कँटीला मार्ग क़दमों को छील-छील देता है।

प्रदीपका आना लगातारबढ़ता जा रहा था। जब भी आता कुछ-न-कुछ उपहार उसके लिए लाता-"यह सब आप क्यों कर रहे हैं... मेरी ज़रूरतें ही कितनी हैं?" उसनेतटस्थता से कहा।

"मुझे अच्छा लगता है... आपके लिए कुछ लाना, कुछ करना। मैं उन बीते पलों को लौटाना चाहताहूँजो आप खो चुकी हैं।"

"मगर क्यों?"

"मैं आपको खुश देखना चाहता हूँ।" कहते हुए प्रदीप ने उसे बाँहों में भरकर उसके होंठ चूम लिए। वह कसमसा उठी। प्रदीप का बंधन कसता गया-"मैं आपको प्यार करने लगा हूँ अनु जी।"

वह प्रदीप के बंधन से ख़ुद को छुड़ा सोफे पर बैठ गई-

"यह सब मुझसे न होगा... मैं अब किसी छलना में नहीं पड़ना चाहती। मैं पुरुष जाति से दूर रहना चाहती हूँ।" अंदर से एक चीत्कार उठी और विकास? विकास सिंघानिया जो तुम्हें पाना चाहते हैं? तुम्हारे आगे रुपियों का चारा फेंक तुम्हें जाल में फँसाना चाहते हैं? तुम्हारी हर ज़रुरत वे बिन माँगे पूरी करते हैं? कैसेनिपटोगी उनसे? अचानक उसे लगा... उसे चाहिए... एक कोई ऐसा जो उसकी रक्षा कर सके। जब तक देवदत्त थे... भले ही मुट्ठी भर की अपनी बीमार देह लिए बिस्तर पर थे पर किसी की हिम्मत नहीं थी उसकी ओर देखने तक की और अब सब चीटे की तरह उससे चिपटने को आतुर हैं। उसे लगा उसके जीवन में प्रदीप की भूमिका अहम है... पर वह अपने मन को कैसे समझाए? कैसे ख़ुद को इस परिस्थिति के लिए तैयार करे? वह अब आज़ाद रहना चाहती है।

"प्रदीप दिन में कई-कई बार फ़ोन करता... वह झुँझला जाती। यह शख़्स तो चैन से जीने तक नहीं दे रहा है। आख़िर इतनी दखलंदाजी क्यों? फ़ोन पर वह कभी उग्रहो जाती, कभी नम्र और कभी औपचारिकता से टाल देती। जब वह उग्र होती तो प्रदीप बुरा मान जाता... कहता... देखिए अनु जी, हम तो आपका हालचाल जानने के लिए फ़ोन करते हैं कि आप अच्छी भली हैं, ज़िंदा हैं।"

उसका मन कसैला हो उठता। यह कैसी बात कह दी प्रदीप ने? हम जिसे चाहते हैंक्या उसका मरना सोचते हैं? नहीं... शायद प्रदीप ही ठीक है क्योंकि यह भी तो सच है कि हम जिसे चाहते हैं उसके प्रति मन सदा आशंकित रहता है। उसकी अनुपस्थिति अनिष्ट की आशंका जगा देती है। तो क्या प्रदीप उसेसचमुच प्यार करने लगा है... वह क्यों नहीं इस प्यार को स्वीकार कर लेती? ज़िंदग़ी भर तो तरसी है प्यार के लिए... अब जब कोई चाहने वाला मिला है तो तवज्जो नहीं दे रही।

उसे लगा वह ऐसे भँवर में फँस गई है जिसमें से निकलना आसान नहीं। दिल करता कहीं भाग जाए। किसी छोटे से अनजान शहर में एक कमरा लेकर चैन की ज़िंदग़ी गुजारे पर यहीं तो वह मात खा जाती है। इतना हौसला होता तो देवदत्त की ज़्यादती क्यों सहती?

आँधी बारिश के आसार थे... एक गहरा सन्नाटा-सा क्षितिज तक फैला था। आम, जामुन के पेड़ जैसे स्तब्ध से थे... अडोल... तभी प्रदीप आया। वह स्कूल से लौटकर खाना खाकर दोपहर की झपकी लेने के मूड में थी। अभी वह खाने की टेबिल पर से बर्तन समेट ही रही थी कि प्रदीप... "बहुत थकान लगा रही है आज" कहते हुए अधिकारपूर्वक उसके बेडरूममें पलंग पर जा लेटा। तभी तेज़ आँधी चली। खिड़कियों के पल्ले बजने लगे... शीशेखड़कने लगे-"लगता है बारिश होगी...आइए न अनु जी... कितना रोमेंटिक मौसम है।"

वह अपना तकिया उठाकर जाने लगी-"आप आराम करिए, मैं हॉल में सोफे पर लेटती हूँ। आप थके हैं, झपकी लेलें। चार बजे लता आ जाएगी तब चाय पिएँगे।"

प्रदीप ने उसका हाथ पकड़कर पलंग पर घसीट लिया... "लेटिए न यहाँ... मौसम तो देखिए कितना जानलेवाहो गया है।" और उसके होठों का गहरा चुंबन ले लिया।

"आपको पता है अनुजी, आप कितनी खूबसूरत हैं? लेकिनभाई साहब ने आपकी क़दर नहीं की, मैं आपको फूल की तरह सहेजकर रखूँगा।"

उसकासर्वांगकाँप उठा। प्रदीप के लौहपाश से मुक्ति के लिएवह छटपटा उठी। घटाटोपबादलोंने पूरे कमरे का उजाला चुरा लिया था। क्या उसका हौसलाभी यह लौहपाश चुरा रहा है? क्या वह इतनी गई गुज़री हो गई है कि अनचाहा बोझ उस पर हावी हो जाए? दीवार पर लगे आईने में अपना और प्रदीप का गुत्थम गुत्था शरीर बड़ा डरावना लग रहा था जैसे एक बहुत बड़ा मगरमच्छ एक नाजुक-सी मछली को निगले जा रहा है। जिस्म की पूरी ताकत लगाकर उसने प्रदीप को पलंग से नीचे ढकेला। ख़ुद को सम्हालते हुए वह उठा-"क्या हुआ? क्यों इतनी नाराज़ हो रही हैं?"

"सारे मर्द एक जैसे होते हैं। भूखे भेड़िये। मौका पाते ही नोचने खसीटने लगते हैं। मेरे मन में आपके लिए एक अलग ही छवि थी। एक झटके से ख़त्म कर दी आपने।"

वह बिना कुछ कहे रसोई की ओर चला गया। थोड़ी देर में कॉफी की ख़ुशबू उसके नथूनों में समाने लगी। वह खिन्न मन से सोफे पर आकर बैठ गई। मौसम की आँधी थम चुकी थी लेकिन उसे लगा वह आँधी उसके अंदर समाकर उसका तन-मन झँझोड़े डाल रही है। ऐसी ज़िंदग़ी तो उसने नहीं ही चाही थी। देवदत्त के बाद अपने एकाकी जीवन को वह बहुत सलीके से जीना चाहती थी। उसे लगा था देवदत्त की मृत्यु से उसकी पीड़ाओं का, यातनाओं का, तनाव का, अनचाहे साथ का अंत हो गया है... अब वह मुक्त है। वह ख़ुद के साथ है। ज़िंदग़ी के लिए यह ज़रूरी है कि हम ख़ुद के साथ हों। अब सारा समय उसका है। सारे दोस्त केवल उसके हैं। अब वह मैं को जिएगी और ऐसा करते औरों के हित एक विराट फलक अपने आप रचता चला जाएगा।

विकास सिंघानिया ने कहा भी था-"अब आप अपने लिए सोचिए। अपना स्वर्णिम काल तो आपने एक फ्रस्टेटेडव्यक्ति के साथ रहकर गँवा दिया... लेकिन आप अब भी खूबसूरत हैं, प्रेजेंटबिल हैं... अपनी प्रतिभा को पहचानिए। मैं स्कूल में ही थर्ड फ़्लोरके हाल में आपकी ड्राइंग, पेंटिंगका इंस्टिट्यूट शुरू करवा देता हूँ। उनकीफीस में से आप सिर्फ़ बीस परसेंट ट्रस्ट को दीजिए।"

अपनी कुर्सी पर गोल घूम गये थे वे-"वक़्त को एंजॉय कीजिए अनुराधा जी... इंडिया का चौथे नंबर का अमीर यह विकास सिंघानिया आपको पसंद करता है। क्या आप नहीं जानतीं? यह बात सब उस वक़्त से जानते हैं जब मैंने आपको नौकरी के साथ-साथ फ़्लैट भी दिया। आपको मैंने सिर्फ़ अपने लिए चुना है।"

उसकेदिल में नुकीले काँटों वाले नागफनी ने सिर उठाया... यानी कि रखैल? वह हवा में पत्ते-सी थरथरा उठी थी।

अब भी थरथरा रही है वह... जिस जाल में वह फँस चुकी है उससे कैसे छुटकारा पाए। अगर वह विकास सिंघानिया को ठुकराती है तो नौकरी के साथ-साथ फ़्लैटभीहाथ से चला जाएगा। तबवह क्या करेगी? कहाँ जाएगी? मुंबई में पेट भरना आसान है पर रहने के लिए ठिकाना मिलना बड़ा कठिन?

"कितने टेंशन में नज़र आ रही हैं आप... बताइए... कॉफी कैसी बनी है?"

प्रदीप ने प्याला उसके होठों से लगाने की कोशिश की। उसने प्याला पकड़ लिया-"पीती हूँ न मैं।"

"अनु जी... यह आपका चाहने वाला... दुनिया भर की खुशियाँ आपके क़दमों में निछावर करने वाला... बस इतना ही तो चाहता है आपसे कि हम तन और मन से एक रहें। आप मुझे संतुष्ट करती रहें... यह दीवाना आपके एक इशारे पर सौ जान से कुर्बान। ममता महीनों से बीमार है। कोई सेक्स रिलेशन नहीं। बीवी के हाथ की रोटी खाए अरसा गुज़र गया। आपको पता है रोज़ मैं तंदूर से रोटियाँ खरीदकर लाता हूँ।"

उसके अंदर झन्न से कुछ टूटा। तो इसलिए प्रदीप आगे पीछे घूम रहा है? उसे पाने की कोशिश कर रहा है। उसने मन को समेटकर कॉफी की घूँट भरी।

"प्रदीप जी... मैं बहुत शॉक्ड हूँ आपकी बातों से। अभी तो मैं अपने ग़म से, हादसे से उबर भी नहीं पाई हूँ और आप अपनी ज़रुरत लेकर मेरे सामने आ गये। क्या आप ममता को इस बीमारी की हालत में मेरे ख़ातिर तलाक दे देंगे?"

"अरे नहीं अनुजी।" प्रदीप ने बड़े सपाट लहज़े में कहा-"यह संभव नहीं। मुझे फेमिली का टूटना गवारा नहीं। आप खुशगवार पलों को क्यों बोझिल बना रही हैं? मैं अंत तक आपका साथ देने को तैयार तो हूँ।"

वह सन्न रह गई... क्या अंतर रह गया विकास सिंघानिया और प्रदीप में? दोनों ही उसकी देह चाहते हैं। दोनों ही उसे रखैल बनाकर रखना चाहते हैं। किसी में कूबत नहीं उसे सम्माननीय दर्ज़ा देने की। तो उसे भी ऐसे रिश्तों से इंकार है-"इनफ़... जाइए आप...अब हम कभी नहीं मिलेंगे, ध्यान रखिएगा।"

उसने सुलगती आँखें प्रदीप पर बेबाक़ी से गड़ा दी। प्रदीप चुपचाप उठकर चला गया। कमरे का धुँधलापनछँट चुका था। ढलते सूरज की नरम धूप में उसे सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था। वह पैड उठा लाई और विकास सिंघानिया को नकारती नौकरी से इस्तीफे का पत्र लिखने लगी। पत्र लिखकर उसने इत्मीनान से आँखें मूँदी, यह जानते हुए भी कि वह फिर सड़क पर आ जाएगी। लेकिन इससे क्या... अब वह चल तो पाएगी अपने वजूद को क़ायम रखते हुए... पूरीउन्मुक्तता से।