जौनस्ट्रेची की किताब / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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कुछ दिनों बाद उनने हमें मि. जौनस्ट्रेची की एक ताजी किताब अंग्रेजी में लिखी भेज दी जिसका नाम हम भूलते हैं। उनने कहा कि हमने जो आशंका जाहिर की थी उसी पर उस किताब में विस्तृत विवेचन है। हम उसे गौर से पढ़ गए। दरअसल उसके लेखक मि. स्ट्रेची पहले कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। मगर लड़ाई केसंबंध में पार्टी का और लोगों का क्या रुख हो यही बात ले कर उनका पार्टी के साथ गहरा मतभेद हो गया और उनने पार्टी से अलग होकर यह पुस्तक लिखी। उनका कहना था कि युध्द विरुध्द युध्द का युग चला गया। फासिज्म के इस युग में आँख मूँदकर उसे मानना खतरनाक है। आज तो उसके विपरीत ही काम करने की जरूरत है। कल्पना कीजिए कि लेनिन के समय में गत युध्द के वक्त कैसर की जगह हिटलर होता और उसकी ऐसी ही तैयारी रहती जैसी आज है। तो क्या लेनिन जारशाही के विरुध्द युध्द छेड़कर उसके युध्दोद्योग में बाधा पहुँचाता ? वह हर्गिज ऐसा न करता। क्योंकि इसका नतीजा यही होता कि जार को पछाड़कर लेनिन या सोवियत के शासन की जगह हिटलर का ही शासन हो जाता। फलत: लेनिन को लेने के देने पड़ते और रूस की आजादी युग-युगांतर के लिए खटाई में पड़ जाती। लेनिन को जार तथा कैसर दोनों की ही ताकतों का ज्ञान था और वह मानता था कि यदि जार की गद्दी खाली हो जाए तो उस पर आ धमकने की शक्ति कैसर में नहीं है। साम्राज्यवादी युग में ऐसा देखा नहीं गया था। फिर भी लेनिन को संकटों का सामना करना ही पड़ा। लेकिन फासिज्म के युग में तो दूसरी ही बात है। यदि आज जार वहाँ रहता और उसे रूसी जनता पछाड़ती तो आसानी से हिटलर अपना अव वहाँ जमा लेता। वह तो यों भी जमाते-जमाते ही न जाने कैसे फिसल गया। यही खतरा आज युध्द के विरुध्द युध्द के नारे में है। इसलिए आज तो हमारा फर्ज है कि वैसा न करके उसके उलटा करें ताकि फासिज्म का चंगुल कहीं जमने न पाए। नहीं तो जनता की खैर नहीं। उनसे पुन: पिंड छूटना प्राय: असंभव है। साम्राज्यवादियों से तो पीछे भी निपट सकते हैं।

मेरे दिमाग में ये बातें बैठ गईं और मेरी बेचैनी जाती रही। मैं तो इसी ढंग से खुद सोच भी रहा था। मगर मेरा साथी कोई न था। अब मिस्टर स्ट्रेची जैसा संगी मिल गया। मेरे ये विचार दिनोंदिन पक्के हो गए और मैं जेल में सोचा करता था कि अब मौका आने पर हम ब्रिटिश सरकार को युध्दोद्योग में सहायता भी कर सकते हैं। इसमें कोई अनौचित्य मुझे न दीखता था। प्रत्युत राजनीतिक दूरंदेशी का तकाजा यही मालूम होता था। आखिर जब भारतीयों का विरोध सफल होता और अंग्रेजी सरकार यहाँ से भागती तो हिटलर या तोजो की ही सरकार यहाँ बनती , न कि गाँधी , नेहरू या आजाद की। हमारे वे निहत्थे नेता उनकी अस्त्र-शस्त्र से सर्वात्मना सुसज्जवाहिनी के सामने टिक कैसे पाते ? और अगर हमारा विरोध विफल हो तो अंग्रेजी सरकार हमें पीस ही देती। फलत: दोनों ही तरह से हमारी हानि ही हानि थी।

मैं यह सोच ही रहा था कि सन 1941 ई. के आखिरी दिनों में श्री इंदुलाल याज्ञिक का एक पत्र मुझे जेल में एकाएक मिला। उसमें भी कुछ ऐसी ही बातें थीं। फिर तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा कि हम दोनों ही पुराने साथी एक ही ढंग से सोच रहे हैं , सो भी एक-दूसरे से बहुत दूर बैठे-बिठाए। मैंने भी उन्हें उत्तर देकर उनके विचारों का तहेदिल से समर्थन किया। उसके बाद सन1942 ई. की फरवरी में नागपुर में केंद्रीय किसान कौंसिल की होनेवाली बैठक का एक प्रस्ताव प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया था कि युध्दोद्योग में बाधावाली नीति छोड़ दी जाए। युध्द में सहायता देने के बारे में कोई स्पष्ट बात उसमें न थी। सिर्फ सोवियत रूस को सहायता देने की बात थी। दरअसल प्रस्ताव पास करनेवाले बाहरी स्थिति से पूर्ण परिचित थे। फलत: उनने युध्दोद्योग में सहायता करने की बात खतरनाक समझ उसे तय नहीं किया ─ छोड़ दिया। गो मैं यह रहस्य समझ न सका। फिर भी प्रस्ताव पढ़कर प्रसन्न हो गया।