ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-21

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज्ञानरंजन के बहाने - २१

अधूरी लड़ाइयों के पार- १४

दोस्तो,

"ज्ञानरंजन के बहाने" का यह दूसरा सिलसिला नीचे दी गयी क़िस्त के साथ ही खत्म हो रहा है, लेकिन अभी इस दास्तान में बहुत कुछ बाक़ी है। वह भी लिखा जा चुका है और मैं आज-कल उसी को तरतीब देने की कोशिश में हूं। जल्द ही यह आखिरी हिस्सा भी सामने आयेगा जिसमें 1970 के बाद की कहानी बयान होगी और जिसमें ज्ञानरंजन के ज़रिये ऐसे अनेक दोस्तों से मेरे परिचय और दोस्ती की खट्टी-मीठी यादें दर्ज की जायेंगी, या ज़्यादा सही होगा यह कहना कि दर्ज तो वे हो चुकी हैं, पर आपके सामने आयेंगी। साथ ही पहले से चली आ रही मित्रताओं और उस ज़माने की साहित्यिक हलचलों का क़िस्सा।

इस दूसरे दौर को ख़त्म करते-न-करते एक ऐसा आघात लगा जिसके बारे में मैंने सोचा भी न था। दो दिन पहले मेरे मित्र अजय सिंह का फ़ोन आया कि हमारे पुराने दोस्त अनिल सिन्हा जिनका ज़िक्र पटना-प्रसंग में मैंने किया है, अचानक लखनऊ से पटना जाते समय दिमाग़ की नस फट जाने की वजह से पहले गहरी बेहोशी में गये, फिर गुज़र गये। बीमार तो वह पहले से ही चला आ रहा था --मधुमेह, उच्च रक्त-चाप और कुछ समय पहले फ़ालिज का दौरा जिस से वह बच कर निकल आया था। अपने स्वाभाविक जीवट से उसने इन सभी परेशानियों का मुक़ाबला किया था, लेकिन आख़िरकार शरीर जवाब दे गया होगा।

अनिल से 1970 में पहली बार मुलाक़ात हुई थी -- युवा लेखक सम्मेलन के अवसर पर। यह परिचय जल्द ही दोस्ती में बदल गया था और अब तक क़ायम रहा। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में अनिल से भेंट हुई थी। उसके जाने का यक़ीन अभी तक नहीं होता। अनिल एक ख़ामोश तबियत, लेकिन दृढ़ संकल्प वाला इन्सान था, हमारी असहमतियों, सनकों, उच्छृंखलताओं, खलताओं को तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना मुस्करा के बर्दाश्त करने वाला। ऐसे मित्र बिरले ही मिलते हैं । मेरा दिल बेहद उदास है। मेरे जीवन में दोस्तों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। अपने प्रिय फ़्रांसीसी कवि गिलाम अपौलिनेयर की तरह मैं भी मानता हूं कि दोस्ती वह नदी है जो हमें -- नदी-तट की ज़मीन को, जिसकी उर्वरता की कामना सभी करते हैं -- समृद्ध करती है। मैंने कई बार कहा है कि मां-बाप, भाई-बहन और दूसरे नाते-रिश्तेदार तो हमें जन्म से मिलते हैं, सिर्फ़ दोस्त बनाने में हम अपने चुनाव से काम ले सकते हैं या अगर परिस्थितियां अनुकूल हों तो जीवन-साथी भी। इसलिए दोस्ती को बहुत संभाल कर रखना चाहिए। निराला जी का एक प्रिय वाक्य था -- नो गुड कम्स व्हेन फ़्रेण्ड्स फ़ौल आउट, no good comes when friends fall out -- मेरा इस में पूरा यक़ीन है।

दुखी, भरे हुए दिल से मैं अपने दिवंगत साथी को अपनी एक कविता समर्पित करते हुए उसे याद कर रहा हूँ --

मित्रताएँ

मनुष्यों की तरह
मित्रताओं का भी आयुष्य होता है

यही एक रिश्ता है
बनाते हैं जिसे हम जीवन में
शेष तो जन्म से हमें प्राप्त होते हैं

भूल जाते हैं लोग सगे-सम्बन्धियों को
मित्रों के नाम याद रहे आये हैं

मित्रताओं का भी आयुष्य होता है
मनुष्यों की तरह

कुछ मित्रताएँ जीवित रहीं मृत्यु के बाद भी
आक्षितिज फैले कछार की तरह थीं वे
मिट्टी और पानी का सनातन संवाद

कुछ मित्रताएँ नश्वर थीं वनस्पतियों की तरह
दिवंगत हुईं वे
जीवित बचे रहे मित्र

कहना न होगा कि वह सारा परिवर्तन जो १९७० के बाद घटित हुआ, कुछ जादू की तरह आनन-फानन नहीं, बल्कि धीरे-धीरे घटित हुआ। इस पूरे दौर में ज्ञानरंजन भी अपनी पुरानी बोहीमियन फक्कड़ई के बावजूद ख़तरों के प्रति ज़्यादा संजीदा हो कर उभरा। उसने ’घण्टा’ में जिस अराजक दौर का चित्रण किया था, उससे आगे बढ़ कर उसने ’बर्हिगमन’ में वक़्त से कहीं पहले उन तब्दीलियों के संकेत दिये जो 1970 के दशक के अन्त में दिखायी देने लगी थीं। 1972 में छपी उसकी कहानी ’अनुभव’ कहने को फ़्लौप गयी और उसके बाद ज्ञान ने कोई कहानी लिखी भी नहीं, लेकिन आज ’अनुभव’ को पढ़ते हुए एक बार फिर ज्ञान की बारीकबीनी की तारीफ़ करनी पड़ती है जो उसके तीनों साथियों -- दूधनाथ, काशीनाथ और रवीन्द्र कालिया -- में बिरले ही नज़र आती है। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी काम जो इस नये दौर में ज्ञान ने किया -- वह था बीटनिक आन्दोलन से किनारा करके मार्क्सवाद और ’प्रगतिशील लेखक संघ’ से जुड़ना और ’पहल’ जैसी पत्रिका प्रकाशित करना, जिसने पिछले लगभग तीस वर्षों से व्यर्थ के वैचारिक मतभेदों को नज़रअन्दाज़ करके सार्थक लेखन को सामने लाने का काम किया है।

ज़ाहिर है, बड़ी ख़ामोशी से अंजाम दिया गया ज्ञानरंजन का यह काम भी उसके साथियों और अग्रजों को कहीं-न-कहीं कचोटता रहा है, वरना ’आलोचना’ के यशस्वी सम्पादक, डॉ. नामवर सिंह को ’पहल’ और ज्ञान पर चोट करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ती।

’तद्भव’ के दसवें अंक में नामवर के छोटे भाई काशीनाथ सिंह का एक लम्बा संस्मरण अपने अग्रज के बारे में छपा है - ’घर का जोगी जोगड़ा।’ उसके एक अंश में काशीनाथ ने लगे हाथ कई लोगों से हिसाब चुकता करने की जुगुत बैठायी है। दूधनाथ पर नामवर जी के हवाले से एक चोट करने के बाद काशी ने ज्ञान को भी ठिकाने लगाने का बहाना खोज ही लिया। लिखते हैं और वह भी किसी भी प्रसंग के बिना --

’एक दोपहर ज्ञानरंजन का सर्कुलर आया -- आजमगढ़ में होने वाले ’लघु पत्रिका आन्दोलन’ के दूसरे अधिवेशन के बारे में। वे (नामवर जी) खाना खा रहे थे, बोले -- ’संगठन, आन्दोलन वग़ैरह तो ठीक, लेकिन डेढ़ कहानियों के कहानीकार ज्ञानरंजन मिलें तो उनसे पाँच प्रश्न करूँगा और कहूँगा कि उनके उत्तर ख़ुद को दो, मुझे या किसी और को नहीं।

’एक - पहल में प्रकाशित तीन कहानियों के नाम बताओ जिनके लिए पहल को याद किया जाय।

’दो - तीन कहानीकारों के नाम जिन्हें सामने लाने का श्रेय पहल को हो।

’तीन - किसी ऐसी पुस्तक की रिव्यू जिसे अनुल्लेखनीय समझा गया हो और पहल ने उसे उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण रेखांकित किया हो।

’चार - दरिदा, एजाज़, लुकाच का अनुवाद नहीं, कोई ऐसा मौलिक वैचारिक लेख छापा हो जिसने पाठकों को उत्तेजित किया हो।

’पाँच - कोई ऐसा सम्पादकीय जिसके लिए पहल याद की जाय’।’

इस बात के बावजूद कि यह संस्मरण इस मानी में अनूठा है कि इसमें काशी ने अपने बड़े भाई की तारीफ़-ही-तारीफ़ की है, या शायद यह लिखा भी इसी उद्देश्य से गया है कि हाल के वर्षों में नामवर जी से अनेक लोगों को जो मोहभंग हुआ है, उसकी लीपा-पोती की जाये, वरना किसी व्यक्ति में एक साथ इतने सारे गुणों का होना, उसे देवता से भी ऊपर की गद्दी पर बिठाने के काबिल है। इस संस्मरण की विशेषता यह भी है कि इसमें नामवर जी का गुणगान करने के साथ-साथ अनेक साथियों और विरोधियों के साथ हिसाब भी रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश साफ़ नज़र आती है।

कौन नहीं जानता कि जो चार-पाँच साठोत्तरी कथाकार उभरे थे, उनमें काशीनाथ सिंह टेलीविज़न की भाषा में कहें तो ’सबसे कमज़ोर कड़ी’ थे। ज्ञानरंजन और दूधनाथ सर्वाधिक चर्चित थे और उनके बाद काशीनाथ सिंह का नहीं, बल्कि रवीन्द्र कालिया का ही नाम लिया जाता था, जब तक कि ज्ञान ने कहानियाँ लिखना बन्द नहीं कर दिया और कालिया अपनी पुरानी रविश बदल कर चालू कहानियाँ नहीं लिखने लगा। इसीलिए शायद नामवर जी के मुँह से ’पहल’ को दो लात लगवाने के साथ-साथ काशी ने इस बात का इन्तज़ाम कर लिया था कि ज्ञानरंजन को ’डेढ़ कहानियों के कहानीकार’ कह कर उसे उसकी औकात बता दी जाये। यह बात दीगर है कि ’घण्टा’ और ’बर्हिगमन’ में ज्ञानरंजन जहाँ पहुँच गया था, वहाँ पहुँचने के लिए अपने भाई की सनदें काशी के काम नहीं आयेंगी, उसके लिए एक कठिन आत्म-संघर्ष दरकार है, क्योंकि कला एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ ताल-तिकड़म से बहुत देर काम नहीं सधता। पूरे ’काशी का अस्सी’ में केवल एक प्रसंग याद रह जाता है -- जिसमें एक पण्डित विदेशी महिला को किरायेदार रखने के लिए अपने ठाकुरद्वारे को तोड़वा कर शौचालय बनवा देता है। बाकी सब कुछ और चाहे जो हो, अस्सी की असलियत नहीं है और न उससे अस्सी जैसी अनोखी जगह को ले कर कोई अन्तर्दृष्टि ही प्राप्त होती है।

रही बात ’पहल’ की, तो यह ऐन सम्भव है कि किसी पत्रिका को देखने का जो निकष नामवर जी ने तय किया हो, वह निकष ही उस पत्रिका के सन्दर्भ में नाकाफ़ी हो या अनुपयुक्त। यह जगह नामवर जी की उस टिप्पणी का उत्तर देने की नहीं है। यह तो चूँकि प्रसंग उठा, इसलिए चन्द बातें दर्ज कर दी गयी हैं। जानने वाले, अगर अंग्रेज़ी मुहावरे का सहारा लिया जाय तो, पंक्तियों के बीच पढ़ना बख़ूबी जानते हैं और इस बात का कयास लगा सकते हैं कि ऊपर का प्रसंग ’घर का जोगी जोगड़ा’ में किस उद्देश्य से शामिल किया गया और नामवर जी के तमाम फ़तवों के बावजूद गत 30-35 वर्षों के दौरान ’पहल’ का क्या योगदान रहा है, और इसमें, बकौल डॉ. नामवर सिंह, ’डेढ़ कहानियों वाले कहानीकार’ ज्ञानरंजन की क्या भूमिका रही है।

लेकिन 1970 के दशक में डॉ. नामवर सिंह को ख़ुद ’आलोचना’ की सूरत और सीरत में भारी तबदीलियाँ करनी पड़ी थीं। कारण यह कि 1970 के बाद की नयी चेतना अभिव्यक्ति के नये रास्ते खोज रही थी और उसके कदम के साथ कदम न मिलाना किसी भी पत्रिका को ग़ैर ज़रूरी बना देता। इस समय तक राज्याश्रय ही नहीं, सेठाश्रय के ख़िलाफ़ भी एक आन्दोलन शुरू हो चुका था और छोटी पत्रिकाओं की एक बाढ़-सी उमड़ी आ रही थी। 60 के दशक में देश के भीतर और बाहर जो उथल-पुथल और हलचल मची रही थी, और जिसने एक अराजकता भी पैदा की थी, वह अब जैसे थम कर आगे बढ़ने की दिशा खोज रही थी। 1970 का युवा लेखक सम्मेलन एक तरह से उस अराजकतावादी युग की पूर्णाहुति था। उसके बाद एक नया दौर ही शुरू हो सकता था। नयी सुबह की तरह। नयी चुनौतियों, ख़तरों, आशाओं, आकांक्षाओं, सपनों और सच्चाइयों के साथ। जो हुआ। और अब भी जारी है।