ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-3

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ज्ञानरंजन के बहाने - 3


इस सारे अर्से में ज्ञान की उपस्थिति उसी क्षीण-सी स्मृति के रूप में मन के आँगन के किसी ऐसे कोने में रखी प्रतिमा सरीखी बनी रही, जहाँ कभी-कभार ही जाना होता है। लेकिन तभी जब मैंने पुरानी शिक्षा-दीक्षा को किनारे करके, पुराने सहचरों-सम्पर्को से विलग हो कर विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र और वाणिज्य के पीपल से उड़ कर हिन्दी विभाग के बरगद पर नया ठौर ढूँढा; ऐडम स्मिथ, माल्थस, जॉन मिल और स्टैनली जेवन्स की जगह रामचन्द्र शुक्ल, निराला, तुलसीदास, मीरा, जायसी और मुक्तिबोध को घोखना शुरू किया; ज़ोर-शोर से कविताएँ लिखने लगा और एल चीको और क्वॉलिटी की बजाय कॉफ़ी हाउस में नियमित अड्डेबाज़ी शुरू की तो मेरे सुदूर अतीत के साथ-साथ निकट का अतीत भी एकबारगी बदल गया।

दूधनाथ ने इस बीच अपने प्रेम के अंजाम तक पहुँच कर मलयज की बहन निर्मला से विवाह कर लिया था। शादी की रस्म हमारे ही घर पर हुई थी। इसके बाद उम्मीद एक हंगामे की थी, लेकिन शादी के तीसरे या चौथे दिन ही दूधनाथ, अश्क जी की आशंकाओं को सच साबित करता हुआ, यक्ष्मा की चपेट में आ कर तेलियरगंज के सैनेटोरियम में चला गया। उससे अब पाबन्द मुलाकातें ही होतीं, जब कभी मैं अकेले या फिर अपने बड़े भाई के स्कूटर पर निर्मला को बैठा कर उससे मिलने जाता। सुरेन्द्रपाल दूधनाथ की तीमारदारी और अपने जीवन-संघर्ष में फंसे हुए थे। चूँकि बघाड़ा से, जहाँ सुरेन्द्रपाल रहते थे, तेलियरगंज नज़दीक था, इसलिए सुविधा के लिए निर्मला की रिहाइश का प्रबन्ध सुरेन्द्रपाल के घर पर ही कर दिया गया था। बुद्धिसेन शर्मा अपने अबोध, सरल, निर्लिप्त भाव से दुनिया को एक विस्मित किशोर की तरह निहारते, लीडर प्रेस की नीरस नौकरी की काट अपने गीतों की सायास सरसता में ढूँढने की चेष्टाओं में लीन थे। यूँ भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के नये साथी-संगियों और नये परिवेश ने कई तरह की वीथिकाएँ और दीर्घाएँ मेरे सामने खोल दी थीं। ज़ाहिर है, पुरानी दुनिया मुझे एकबारगी ही कुछ छोटी महसूस होने लगी थी।

तभी अचानक कॉफ़ी हाउस में मेरा परिचय हिन्दी के आलोचक विश्वम्भर मानव के बेटे और दूधनाथ के रक़ीब प्रभात रंजन से हुआ। प्रभात शायद दसवीं पास था, या जैसा कि अब लक्ष्मीधर मालवीय ने लिखा है, दसवीं पास भी नहीं था। कौन जाने। साहित्य में डिग्रियाँ कौन देखता है। लेकिन उसने दुनिया-जहान का साहित्य पढ़ रखा था और एज़रा पाउण्ड, रैम्बो और इब्ने सफ़ी का बयकवक़्त मुरीद था, रैम्बो और बॉदलेयर सरीखी बोहीमियन ज़िन्दगी जीना चाहता था, कई क़िस्म के नशे करता था। ज्योतिष में अच्छी-ख़ासी पकड़ रखने का दावा करता था, बहुत ही मार्मिक, गहरी, सम्वेदना से भरी कविताएँ लिखता था, और बड़ी ऊँचाई से दुनिया को देखता था। बहुत जल्द ही प्रभात और मैं हम-निवाला तो नहीं, हम-प्याला हो गये, प्याला चाहे चाय का हो या कॉफ़ी या फिर रम का। जहाँ दूधनाथ और सुरेन्द्रपाल मुझसे उमर में बहुत बड़े थे और बुद्धिसेन की अपनी सीमाएँ थीं, वहीं प्रभात आयु में भी और साहित्यिक रुचि में भी मेरे बहुत नज़दीक था। एज़रा पाउण्ड और फ़्रेंच डिकेडेण्ट कवि मेरी भी पसन्द थे। सो, हमारी ख़ूब छनने लगी और प्रभात ही के ज़रिये मेरा परिचय देवकुमार और ज्ञान से हुआ। देवकुमार भी कवि थे और दूधनाथ और प्रभात की मण्डली के एक सितारे। लेकिन अनेक कारणों से यह मण्डली छिन्न-भिन्न हो गयी थी। देवकुमार कविता और पुराने जीवन से धीरे-धीरे नाता तोड़ कर कुछ ज़रिया-ए-रोज़ो-शब की फ़िक्र में थे जो अन्ततः उन्हें ‘माया,’ ‘मनोहर कहानियाँ’ और ‘मनोरमा’ के सम्पादन विभाग में ग़र्क हो जाने की जानिब ले गयी। प्रभात ने पहले ज्ञान को खोजा और फिर मुझे, और फिर हम दोनों को मिलाया। कुछ महीने पहले, थोड़े-थोड़े अन्तर पर ज्ञान की कहानियाँ ‘शेष होते हुए’ और ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ छपी थीं। उनका जादू किस तरह सबके सिर चढ़ कर बोल रहा था, इसे ज्ञान भी शायद आज बयान न कर पाये, न हम जैसे लोग जो उनके चामत्कारिक असर से मबहूत थे। नामवर जी ने भले ही अपनी अखाड़ेबाज़ शैली में उषा प्रियम्वदा आदि को आगे ला कर ‘नयी कहानी’ का नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया था, लेकिन अपने स्वाभाविक आलसीपन की वजह से वे महफ़िल में तब पधारे थे जब विलम्बित भी अन्तिम चरण पर था और नया राग शुरू हुआ चाहता था। ज्ञान की कहानियों ने पहली बार मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मार्कण्डेय जैसे ‘नयी कहानी’ के अलमबरदारों को उनकी सीमाओं का एहसास कराया।

(अब यह तो याद नहीं है कि मार्च 1964 में ‘परिमल’ के कहानी सम्मेलन में ज्ञान मौजूद था या नहीं, क्योंकि मेरे इम्तहान चल रहे थे और मैं ज़्यादा वक़्त उस सम्मेलन को नहीं दे पाया था। बस, इतना याद है कि उसी सम्मेलन के दौरान पहली बार मेरी मुलाकात रवीन्द्र कालिया और गंगा प्रसाद विमल से हुई थी। छै फ़ुट लम्बा रवीन्द्र और उससे छै इंच छोटा विमल आगे-पीछे चलते हुए बड़े दिलचस्प लगे थे, कुछ-कुछ डॉन क्विग्ज़ॉट और सांचो पांज़ा जैसे। यों तो कहानी सम्मेलन में रमेश बक्षी भी आया था, जिससे कुछ ही साल बाद मेरा गहरा परिचय हो जाने वाला था, क्योंकि नरेन्द्र धीर और जगदीश चतुर्वेदी के बाद पहला बड़ा ब्रेक मुझे ‘ज्ञानोदय’ में रमेश ही ने दिया था।) बहरहाल, उस कहानी सम्मेलन में नयी कहानी का बोरिया बँधता नज़र आ रहा था और जिस नये युगबोध का इतना हो-हल्ला ‘नयी कविता’ की तर्ज़ पर ‘नयी कहानी’ का झण्डा खड़ा करके एक नया अखाड़ा खोलने वाले मचा रहे थे, वह उनकी बजाय ज्ञान, कालिया, दूधनाथ और रमेश बक्षी की कहानियों में नज़र आ रहा था। बहरहाल, ज्ञान उस कहानी सम्मेलन में रहा हो या न रहा हो, इतना मुझे याद है कि उस सम्मेलन के कुछ ही महीने बाद मैं उससे मिला था, ‘शेष होते हुए’ और ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ पढ़ने के दौरान। लेकिन ज्ञान की कहानियों से भी ज़्यादा उसके स्वभाव की गर्मजोशी ने मुझे खींचा। ज्ञान में जाने कैसी मोहिनी है कि आज भी, उसके साथ अनेक कटु प्रसंगों से गुज़रने के बाद भी, जब वह सामने आता और मुस्कराता है तो मन सारे गिले-शिकवे भूल जाता है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मेल-मुलाकात पहले की तरह अक्सर होती रहती तो शायद बात दूसरी होती, इतने गिले-शिकवे इकट्ठे ही न हो पाते। क्योंकि यह कहना भी मन को बहुत तसल्ली नहीं देता कि मैं बहुत भाव-प्रवण हूँ।

इससे अहम्मन्यता के अलावा दूसरों के प्रति तिरस्कार भी झलकता है। और वैसे भी यह एक छल है जो हम ख़ुद से करते हैं। भावप्रवण तो सभी होते हैं। अलबत्ता, वयस्कता की मात्रा अलग-अलग हो सकती है जिससे धक्कों को सहने और शिकवों-शिकायतों को किनारे करने की शक्ति में अन्तर आता है। वैसे भी, अपने पुराने मित्र (मैं तो मित्र ही कहूँगा, बहरहाल) रामजी राय के साथ एक बार मैत्री पर बातचीत के दौरान यह बात सामने आयी थी कि यही एक रिश्ता है जिसे हम सायास बनाते हैं, बाक़ी नातेदारियाँ तो हमें जन्मना मिलती हैं। इसलिए भी मित्रताओं को बचा कर रखना चाहिए। मैं, शायद बचपन में बहुत अकेला रहने के कारण (मेरे भाई मुझसे ग्यारह वर्ष बड़े थे), मित्रता को ले कर कुछ अधिक ही सचेत और सम्वेदनशील रहा हूँ और इसीलिए ज्ञान की सहज ऊष्णता ने मुझे एकबारगी अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। उन दिनों वह जबलपुर के सेकसरिया कॉलेज से (जहाँ वह हिन्दी न पढ़ाने की कोशिश करता था) लम्बी छुट्टी पर इलाहाबाद आया हुआ था। जहाँ तक मेरा ख़याल है, वह सुनयना से अपनी कोर्टशिप के दौर से गुज़र रहा था और इस प्रेम-प्रसंग को उसकी वाजिब मंज़िल तक पहुँचाने के प्रयास कर रहा था। बीच-बीच में वह जबलपुर जा कर कॉलेज में अपनी शकल दिखा आता था, मगर रहता वह ज़्यादा वक़्त इलाहाबाद में ही था। शायद जिस नाभिनाल से वह इलाहाबाद से जुड़ा हुआ था, वह अभी पूरी तरह कट नहीं पायी थी। ज़ाहिर है, ज्ञान के पास बहुत वक़्त ख़ाली था, जिसे वह सुनयना से प्रेम करने, इलाहाबाद की सड़कों पर मटरगश्ती करने, तीन पत्ती खेलने, कॉफ़ी हाउस और मुरारी स्वीट होम में अड्डेबाज़ी करने और इन सारे मशग़लों से वक़्त बचने पर कहानी लिखने में लगाता था। ज्ञान में उन दिनों अद्भुत जीवनी-शक्ति थी जिसके बल पर वह इन बहुविध गतिविधियों को एक साथ साध सकता था। वक़्त की मेरे पास भी भरमार थी और कविता मेरे लिए नये मुल्ले का प्याज़। जल्दी ही ज्ञान की और मेरी पट गयी और ज्ञान ने मुझे उन चीज़ों से परिचित कराना शुरू कर दिया जो उसकी दिनचर्या में शामिल थीं। 0 एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञान लूकरगंज में रहता था। साठ के दशक का लूकरंगज इलाहाबाद में अपनी तरह का अनोखा मुहल्ला था। दारागंज, अहियापुर, ख़ुशहाल पर्वत और अतरसुइया को देख कर बनारस की याद आती थी, तो ख़ुल्दाबाद, नख़ास कोहना, या रानी मण्डी को देख कर दिल्ली के चाँदनी चौक, बल्लीमारान और खारी बावली की। इलाहाबाद के अपने ख़ास मुहल्लों में लूकरगंज हिरावल दस्ते में शामिल था। खुली सड़कें, नफ़ासत से बने बँगले, साफ़-सुथरी फ़िज़ा और हरियाली। यहाँ कुछ पुराने ईसाई परिवार रहते थे, जो उन्नीसवीं सदी की अन्तिम चौथाई में यहाँ आ बसे थे जब रेलवे लाइन नैनी से जमुना पार करके दिल्ली की ओर बढ़ गयी थी; एक बंगाली टोला था और कुछ ठेठ क़िस्म के इलाहाबादी। 1947 से कुछ पहले या बाद में हालाँकि सिन्धियों ने भी यहाँ सदल-बल बसने का फ़ैसला किया था, पर वे भी इसे उस तरह शरणार्थी मुहल्ला नहीं बना पाये थे, जैसे मीरापुर को पंजाबी शरणार्थियों ने बना दिया था। लूकरगंज की फ़िज़ा शरणार्थियों की उद्वेलन-भरी उदग्रता और आगे बढ़ने की मारा-मारी से अछूती थी। वैसे तो यहाँ एक ज़माने में खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि माने जाने वाले श्रीधर पाठक रहा करते थे। लूकरगंज मैदान के पास ही उनकी ‘पद्मकोट’ नाम की कोठी थी और उनके बारे में क़िस्सा मशहूर था कि उनकी बग्घी कवि सुमित्रा नन्दन पन्त को लेने ऐलनगंज जाती थी। पन्त जी उस पर बैठ कर लूकरगंज आते थे और श्रीधर पाठक के साथ कुछ समय चर्चा में बिता कर, फिर बग्घी में बैठ ऐलनगंज लौट जाते थे। लेकिन श्रीधर पाठक की स्मृति क्षीण हो चुकी थी। हालाँकि उनका बँगला साठ और सत्तर के दशक तक मौजूद था। बाद में लूकरगंज के उत्तर-पूर्वी कोने में, जहाँ से लाटूश रोड शुरू होती है और आटा मिल होती हुई जी.टी. रोड में जा मिलती है, लीडर प्रेस में रायकृष्ण दास द्वारा स्थापित ‘भारती भण्डार’ बिरला बन्धुओं की मिल्कियत बन कर आ गया। वहीं से ‘संगम’ पत्रिका निकली जिसके सम्पादक इलाचन्द्र जोशी और सहायक सम्पादक धर्मवीर भारती और रमानाथ अवस्थी थे। शुरू-शुरू में लूकरगंज आ बसने वाले साहित्यकारों में ज्ञान के पिता और अपने ज़माने के जाने-माने साहित्यकार रामनाथ ‘सुमन’ और हमारा परिवार था। फिर भैरव प्रसाद गुप्त स्टैनली रोड छोड़ कर आये, शेखर जोशी आये, नरेश मेहता आये, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, दूधनाथ सिंह, नर्मदेश्वर उपाध्याय, प्रसिद्ध चित्रकार सुप्रभात नन्दन, सुरेश सिन्हा आदि प्रभृति साहित्यकार। अस्थायी निवासियों में रेणु, नागार्जुन और मोहन राकेश जैसे लोग थे। लूकरगंज एक विराट शरण्य था। एक समय ऐसा भी आया, जब लूकरगंज में एक साथ इतने साहित्यकार पाये जाते थे जितने इलाहाबाद के किसी और मुहल्ले में नहीं। और यह सब सहजिया भाव से हुआ था। यह नहीं कि सरकारी ग़ैर-सरकारी प्रयासों से एक कालोनी बसा दी, जैसा कि भोपाल में भदभदा रोड का नाम दुष्यन्तकुमार मार्ग करके उसके एक छोर पर निराला नगर बसाया गया है। लोगों को जिनका मुखड़ा देखना गवारा नहीं, उनका पिछवाड़ा देखना पड़ रहा है। हवा में सुनी न जा सकने वाली गालियों का कम्पन महसूस होता रहता है। इतनी सारी कला एक जगह। काल बनी हुई। बिम्ब और प्रतीक टकरा रहे हैं। वस्तु और रूप की चिनगारियाँ उड़ रही हैं। हर वक़्त कवियाए हुए लोग भात की तरह खदक रहे हैं। आज तो ख़ैर, वक़्त की मार ने लूकरगंज को काफ़ी जीर्ण-जर्जर कर दिया है, बँगले बिक गये हैं, उनकी प्लॉटिंग हो गयी है, नये-नये बाशिन्दे इतनी तेज़ी से आ कर बसे हैं कि उन्हें लूकरगंज की फ़िज़ा में दीक्षित करना ही सम्भव नहीं रहा और यह सब बेहद बदहवास बेतरतीबी से हुआ है, लोग और मकान एक-दूसरे पर गिरे पड़ रहे हैं, सड़कें ड्रॉइंग रूमों में घुसी चली आ रही हैं, ज़मीनों के दलाल लकड़बग्घों की तरह सूंघते फिरते हैं। शरण्य अब अरण्य बन गया है। लेकिन उन दिनों सड़कें भी सलामत थीं और सन्नाटा भी। इलाहाबाद अगर साहित्यिक राजधानी थी तो लूकरगंज उसका कैपिटल हिल। इलाहाबाद के लगभग सभी युगों की एक समग्र सांस्कृतिक झाँकी। ज्ञान के पूरे तेवर को निर्मित करने में लूकरगंज की वही भूमिका थी जो सिकन्दर के सिलसिले में एथेन्स की। ज्ञान से मेरी अभिन्नता के पीछे लूकरगंज का भी बहुत बड़ा हाथ था। एम.ए. की दहलीज़ पार कर लेने के बाद तो यह साथ सुबह से रात तक का हो गया था। अक्सर मैं सुबह उठ कर नाश्ते के बाद ज्ञान के घर चला जाता। कई बार नाश्ता भी वहीं करता। (सूजी का हलवा इतनी बार उसके यहां मैंने खाया कि उमर भर के लिए मन उससे भर गया, अब देखता हूँ तो बुख़ार आने लगता है।) वहीं साहित्य पर बातें होतीं, रचनाएँ सुनी-सुनायी जातीं, सिर्फ़ साहित्य ही पर नहीं, दुनिया-जहान की चीज़ों पर चर्चा होती। मैं इसी अर्से में ज्ञान की कहानियों ‘छलाँग’ और ‘सम्बन्ध’ का पहला पाठक बना, उसका किसी हद तक राज़दार भी। अक्सर हम सिविल लाइन्ज़ की तरफ़ निकल जाते, शुतुर-बे-मुहारों की तरह घूमते-फिरते, वहीं प्रभात आ मिलता और दूसरे साहित्यिक ग़ैर-साहित्यिक लोग, कॉफ़ी हाउस और मुरारी’ज़ में अड्डेबाज़ी होती। ज्ञान का स्वर उन दिनों बहुत अच्छा था। वह फ़ैज़ की ‘दस्ते-सबा’ की ग़ज़लें या ‘वंशी और मादल’ के गीत या केदार नाथ अग्रवाल की कविताएँ बड़े अन्दाज़ से सुनाता। कई बार मैं और वह एक-दूसरे का हाथ थामे, सिविल लाइन्ज़ के पत्थर गिरजे के गिर्द टहलते और ज्ञान ‘वंशी न बजाओ माझी मेरा मन डोलता’ या फिर ‘गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले’ गा कर सुनाता। 0 आरम्भिक ज्ञानरंजन पर बीटनिक आन्दोलन का गहरा असर था। चारों तरफ़ के मध्यमवर्गीय छल-कपट, पाखण्ड और छद्म के विरुद्ध एक तीखा, काटता व्यंग्य उसका प्रमुख स्वर था। हालाँकि शुरुआत उसकी, लगभग सभी की तरह, रूमानीपन से हुई थी। मुझे उसकी कुछ कविताओं की झीनी-सी याद है जो ‘कादम्बिनी’ में छपी थीं। जिनमें ‘कत्थई शामों’ और ‘कितने यौवनों की दुलहनों की भादों की रात’ के बिम्ब थे और एक कहानी जिसमें शकुन नाम की किसी लड़की को सम्बोधित एक भावुक एकालाप था। मुझे इन रचनाओं को पढ़ कर अचरज नहीं हुआ था, वैसे ही जैसे ‘उत्कर्ष’ में मंगलेश डबराल का एक गीत ‘मंगलेश मयंक’ के नाम से छपा देख कर। उलटे एक तसल्ली ही मिली थी कि मैं कोई अकेला यायावर नहीं था जो भावुकता की सुरम्य घाटियों से यथार्थ के बीहड़ में चला आया था। इसीलिए शायद ज्ञान एक ओर फ़ैज़ और ठाकुर प्रसाद सिंह के रूमानीपन की ओर आकृष्ट होता, दूसरी ओर गिन्सबर्ग, कोर्सो, फ़रलिंगेटी, जैक केरुआक और विलियम बरोज़ के विद्रोही, लीक-तोड़ू तेवर की ओर। ‘एवरग्रीन रिव्यू’ जैसी पत्रिका से मेरा परिचय ज्ञान ही ने कराया था और उसके पुराने अंक मुझे दिये थे। आज तो कोई इनका नाम भी नहीं लेता, पर उन दिनों इनकी धूम थी। दिलचस्प बात यह है कि उस ज़माने में इन लेखकों ने और जोन बाएज़ और बॉब डिलन जैसे गायकों ने अमरीकी गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ एक बड़ी भूमिका अदा की थी। वियतनाम युद्ध, परमाणु-बम ऐसी अनेक अमरीकी करतूतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी थी। उनमें जो अराजकता हम हिन्दी वालों को, जो अंग्रेज़ों की विक्टोरियन जकड़बन्दी और पाखण्ड-भरे शुद्धतावाद से उबर नहीं पाये थे, महसूस होती थी, वह भी एक ऐसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत थी जो उत्तरोत्तर नृशंस, अमानवीय और दमनकारी होती जा रही थी। यह भी दिलचस्प है कि जहाँ ज्ञान को इन सबके व्यवस्था-विरोध ने आकर्षित किया, वहाँ उसके सहपाठी और सहकर्मी दूधनाथ सिंह को उनकी अराजकता और अनास्था ने। इसीलिए ‘शेष होते हुए’ से शुरू होने वाली ज्ञान की कहानियों में सामाजिक सरोकार की गहरी अन्तर्धारा मौजूद थी, जो दूधनाथ की उस समय की कहानियों और कविताओं में नहीं नज़र आती। ‘अमरूद का पेड़’ हो या ‘फ़ेंस के इधर और उधर,’ ज्ञान की उस समय की कहानियों में खीझ, अवसाद और विद्रोह-भरे अस्वीकार के बावजूद, समाज से एक गहरी संलग्नता झलकती थी। अकारण नहीं है कि जब साठ का दशक बीतते ही चीज़ें ज़्यादा साफ़ हुईं और ज्ञान और उसकी पीढ़ी के अनेक साहित्यकार वामपन्थी विचारधारा की ओर आये, यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी शामिल हुए, तो ज्ञान के सिलसिले में कम-से-कम मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) तो जैसे वह पेट्रोला था जहाँ ज्ञान को अन्ततः पहुँचना ही था। यह अलग बात है कि कुन्दन सरकार की तरह वह किसी ‘गेलार्ड’ से निकाला नहीं गया था। 0

वैसे, ज्ञान का एक बहुत बड़ा मण्डल ठेठ ग़ैर-साहित्यिक लोगों का था। इनमें रज्जू, सन्त कुमार सक्सेना, देवदास, गणेश जैसे ज्ञान के सहपाठी या मुहल्ले के मित्र थे, जिनकी दिलचस्पी तीन पत्ती की साप्ताहिक फड़ या गाहे-बगाहे पीने-पिलाने, मौज उड़ाने और सामान्य रूप से धींगामस्ती करने में थी। कई बार तीन पत्ती की फड़ रात-रात भर चलती। एक बार जब ऐसी ही एक ‘गोष्ठी’ से मैं रात भर नहीं लौटा और मेरे भाई मुझे ढूंढते हुए सुबह के पाँच बजे दूधनाथ के घर गये, जो इस बीच रोग-मुक्त हो कर तेलियरगंज के सैनेटोरियम से लूकरगंज में डॉक्टर बैनर्जी की क्लिनिक के पीछे एक मकान में रहने लगा था, तो उसने मुँह से चादर हटाते हुए बस इतना कहा था कि घबराइए नहीं, वह ज्ञान के यहाँ जुए की फड़ पर बैठा होगा, पहुँच जायेगा। घर वाले अगर मेरे इस तरह ज्ञान के इर्द-गिर्द मंडरात्वे रहने को ले कर चिन्तित रहे हों तो कम-से-कम मुझे इसका आभास कभी नहीं मिला। वैसे, मुझे इसकी बहुत परवाह भी नहीं थी। मैं तो ज्ञान के यहाँ कुछ इस जा धमकता था जैसे वयःसन्धि की दहलीज़ पर खड़ा कोई युवक किंचित वयप्राप्त किसी युवती के इर्द-गिर्द प्रणय-भाव से मँडराता रहता है। ज्ञान के साथ-संग में साहित्यिक और साहित्येतर सक्रियता की ऐसी रोमांचक सनसनीख़ेज़ कॉकटेल पीने को मिलती थी कि इलाहाबाद का बाक़ी साहित्यिक समुदाय उन दिनों बरसात के ख़रबूज़े जैसा फीका मालूम देता था। 0 उन दिनों ज्ञान को खाने-पीने का बहुत शौक था। आज तो ख़ैर, तरह-तरह की बीमारियों ने उस पर दसियों बन्धन लगा दिये हैं, पर उन दिनों उसकी रसना एक बेलगाम छुट्टा बछेड़ा थी। कई बार वह सुबह-सवेरे आता और कहता चलो, और मुझे लोकनाथ ले जाता। गरम-गरम जलेबियाँ खिलाने। सर्दियों में गाजर के हलवे पर धावा बोला जाता। ज्ञान के लिए ये चीज़ें आवारागर्दी के बहाने थे, क्योंकि जलेबियाँ, गाजर का हलवा या ऐसी ही कोई और चीज़ खा कर घर लौटने की बजाय हम आगे की यायावरी पर निकल जाते - कभी भारती भवन पुस्तकालय के पास नगीने बेचने वाले मेरे सहपाठी डी.के. जौहरी उर्फ़ बब्बू भैया की लनतरानियाँ सुनते जो नगीने बेचने के पुश्तैनी काम से थोड़ा हट कर एक अधिक ‘सम्मानित’ पेशे के रूप में वकालत की डौल बिठा रहा था, लेकिन वक़्त पड़ने पर नगीने बेचने से ले कर पुराने सिक्के, ऐण्टीक झाड़-फ़ानूस, तलवारें, पियानो और फ़र्निचर बेचने, यहाँ तक कि हाथ की रेखाएँ देख कर भविष्य बताने तक, कई क़िस्म के सन्दिग्ध व्यवसाय करता था। कभी हम जानसेनगंज में ज्ञान के मित्र फ़ोटोग्राफ़र के यहाँ बैठकी जमाते। मेरा ख़याल है कि उसके स्टूडियो का नाम ‘स्वॉन स्टूडियो’ था और किसी ज़माने में ‘ग्लैमर स्टूडियो’ और ‘अर्गल फ़ोटोग्राफ़र्स’ की तरह उसकी भी बड़ी धाक थी। कभी उधर ही से हम सिविल लाइंस चले जाते। 0 अमरीकी उपन्यासकार जॉन स्टाइनबेक ने अपने एक आरम्भिक और बहुचर्चित उपन्यास ‘टॉर्टिया फ़्लैट’ में मेक्सिकन मूल के उन लोगों की तस्वीर खींची है जो ‘पैसानो’ कहलाते हैं। पैसानो यानी हमवतन, साथी। उपन्यास का नायक डैनी और उसके दोस्त ऐसे ही मस्त-मौला, फक्कड़ लोग हैं जो कैलिफ़ोर्निया की सालिनास घाटी में ‘टॉर्टिया फ़्लैट’ नामक कस्बे के छोटे-छोटे लकड़ी के मकानों में रहते हैं। लूकरगंज उन दिनों हमारे लिए टॉर्टिया फ़्लैट ही था और हमारी मध्यवर्गीय ख़रमस्तियाँ डैनी और उसके यारों की मज़दूरवर्गीय ख़रमस्तियों जैसी ही थीं। लूकरगंज का ज्ञानमण्डल एक जैव धड़कती इकाई था, जैसा कि फिर इलाहाबाद में नहीं देखा गया। लेकिन एक आलोचक ने समुद्री जीव-विज्ञान के आधार पर टॉर्टिया फ़्लैट का विश्लेषण करते हुए डैनी और उसकी बिन्दास मित्र-मण्डली को एक ‘ऑर्गनिज़्म’ के रूप में देखा है जिसका एक सुनिश्चित जीवन-चक्र होता है। यहाँ भी शायद कुछ वैसा ही था। सभी अच्छी चीज़ों की तरह इन अच्छे दिनों का अन्त तो होना ही था। हालाँकि मैं तीन-साढ़े तीन वर्ष के अल्प, लेकिन घनघोर, साहचर्य के चलते ख़ुद को ज्ञान के नज़दीक समझने लगा था, हक़ीक़त भर्तृहरि का श्लोक थी। सारी अन्तरंगता, ‘कैमाराडरी’ और सखा-भाव के बाद भी एक पर्दादारी थी जिसका मुझे अन्दाज़ा नहीं था। और जब अन्दाज़ा हुआ तो एक धक्का-सा लगा।