ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-7

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आज तो लक्ष्मण सिंह बटरोही नैनीताल में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन है और गाहे-बगाहे लेखादि लिख कर अपने लेखक होने की आबरू बचाये हुए है, पर उन दिनों वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च करता था और शैलेश मटियानी ने अपनी स्वाभाविक उदारता और पर्वत-पुत्रों के प्रति प्रेम के कारण उसे अपने घर में आसरा दे रखा था। जैसा कि उन्होंने पहाड़ से आये चित्रकार-कवि सईद को दे रखा था। बटरोही गंगा प्रसाद विमल जैसे सातवें दशक के बरबाद कथाकारों के प्रभाव में कहानियाँ लिखता था जिनका किसी भी तरह की वैचारिकता से या ज़िन्दगी से कोई नाता न होता और लगे हाथ ‘विकल्प’ के सम्पादन में शैलेश मटियानी की मदद करता था। लेकिन जिस क़िस्से का वीरेन को मलाल है, वह इससे पहले का है जब बटरोही इलाहाबाद की टोह लगाने के लिए आया था।

हुआ यों कि उन्हीं दिनों कमलेश्वर ने बटरोही को ‘डिस्कवर’ किया और उसकी कहानी ‘नई कहानियाँ’ में छापी। यहाँ तक कोई एतराज़ की बात नहीं थी। लेकिन कमलेश्वर ने कहानी के साथ जो प्रशस्ति गा रखी थी, उससे कुछ ऐसी गन्ध आती थी मानो वे एक नया चेला तैयार कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें खेल कमलेश्वर ही का रहा हो, पर बटरोही ने उस यात्रा में एक ओर जिस तरह उस कहानी के छपने को भुनाने की कोशिश की और दूसरी ओर इलाहाबाद से साहित्यकारों से ‘चिपकने’ की, उसका कोई बहुत अच्छा असर नहीं पड़ा था। ऐसे ही में एक दिन जब ज्ञान, प्रभात, मैं और एकाध कोई और दोपहर बाद कॉफ़ी हाउस में बैठे गप लड़ा रहे थे तो बटरोही नमूदार हुआ। उसके साथ एक युवक भी था। एक ख़ुशामदी-सी हँसी हँसते हुए बटरोही आ कर हमारी ही मेज़ पर बैठ गया। उस ज़माने में कॉफ़ी हाउस के कई क़िस्म के दस्तूर थे। पहला दस्तूर ‘परिमल’ वालों और ‘शनिवारी समाज’ का था। एक में साही, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि थे, दूसरे में भैरव जी और उनके साथी। ये सब अपनी-अपनी कॉफ़ी के पैसे ख़ुद चुकाते थे। दूसरा दस्तूर हम लोगों का था। जिसके पास पैसे हुए, उसने चुका दिये या फिर अपनी-अपनी क्षमता से सबने कम-ज़्यादा योग दे दिया। ज्ञान के साथ यह था कि अक्सर पैसे वही देता था। जब वह नहीं होता था तो कई बार प्रभात के पैसे मैं देता था। या फिर चार-छै दिन बाद जब मुझे लगता था कि ज्ञान को यह न महसूस हो कि वही अकेला चाय-कॉफ़ी के लिए ज़िम्मेदार है तो मैं बिल चुका देता था। एक अघोषित नियम यह था कि जो कॉफ़ी के लिए कहेगा, वही पैसे भी देगा। हम लोग शायद कॉफ़ी के लिए कह चुके थे, या शायद कॉफ़ी अभी-अभी आयी थी जब बटरोही आया, पूरा ब्योरा तो अब याद नहीं, पर बटरोही ने आते ही बैरे को दो कॉफ़ी लाने के लिए कहा। गप-शप चलती रही। कॉफ़ी पी गयी। जब उठने का समय आया तो मैंने बटरोही की तरफ़ देखा। ज़ाहिर है, कॉफ़ी के पैसे चुकाने थे, मगर बटरोही इस बात को अनदेखा कर रहा था। वह इस फेर में था कि हमीं में से कोई उनके पैसे भी चुका दे। मुझे बुरा इस बात का लगा कि एक तो वह हम रोज़ के उठने-बैठने वालों में से नहीं था, दूसरे उसने आते ही इस बात का इन्तज़ार भी नहीं किया था कि कोई कॉफ़ी के लिए पूछे और बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी मँगवा ली थी, फिर वह हम पर लदने की कोशिश कर रहा था। जो युवक नैनीताल से एक और बन्दे को अपने साथ लिये-लिये इलाहाबाद आ सकता है, वह इतना ‘खुक्ख’ होगा कि कॉफ़ी के पैसे न दे सके, यह यक़ीन करने को जी न चाहता था। अगर वह सीधे-सीधे भी कह देता तो भी एक बात थी, पर वह तो एक दयनीय काइयाँपने से दुबका बैठा था। कुछ पल बाद वातावरण बड़ा बोझिल होने लगा। शायद मैंने बिल के बारे में कुछ कहा भी। पर तभी ज्ञान ने उठते हुए बैरे को बुलाया और पैसे अदा कर दिये।

मैं यह क़िस्सा भूल भी गया था, लेकिन वीरेन को याद था, क्योंकि बटरोही के साथ उस दिन वही था। तो भी इस प्रसंग को काफ़ी समय बीत गया था और इस पहले सफ़र के बाद बटरोही की असलियत से वीरेन वाकिफ़ हो चुका था, इसलिए हम दोनों ही इस किस्से को किनारे करके निकट आते चले गये।

उन दिनों ये दोनों, वीरेन और रमेन्द्र, गंगानाथ झा छात्रावास के एक ही कमरे में रह कर गाँजा पीने, कविता करने, बाहर से आये लोगों (मसलन पंकज सिंह) को इलाहाबाद ‘दिखाने,’ यदा-कदा दारू पीने, मेरी जावा मोटरसाइकिल पर तीन सवारी आवारागर्दी करने, दुनिया को अंग विशेष पर रखने और बचे हुए समय में प्रेम की सम्भावनाएँ तलाशने और मजाज़ की नज़्म ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूँ’ को ऊँची आवाज़ और सुर-बेसुर में गाने में अपने जीवन का सदुपयोग करते थे। चूँकि शैलेश मटियानी गंगानाथ झा छात्रावास के नज़दीक कटरा में रहते थे और ‘विकल्प’ के नाम से हिन्दी की पहली भीमकाय ‘लघु पत्रिका’ निकाल रहे थे, लिहाज़ा हम लोग कभी-कभी वहाँ चले जाते। मैं इनमें से एकमात्र शादी-शुदा था। लेकिन तब तक मुझ पर ज्ञान रंजन का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ था। इसलिए जिस तरह शादी करने और कालिया की संगत करने पर भी ज्ञान अपनी मलंगई नहीं छोड़ पाया था, वैसे ही मैं अपने ज्ञान साईं के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपना ठाठ फ़कीरी कायम किये हुए था।

चुनांचे मैंने वीरेन और रमेन्द्र को भी ‘युवा लेखक सम्मेलन’ में पटना चलने के लिए राज़ी कर लिया और नवल जी को लिख दिया कि मेरे साथ इन दोनों के यात्रा-व्यय और रिहाइश की भी व्यवस्था कर दें।

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1970 का ‘युवा लेखक सम्मेलन’ जैसा हुआ, वह आज अकल्पनीय लगता है। न सिर्फ़ शिरकत और उसमें उठी बहसों के लिहाज़ से, बल्कि उस प्रबल और दीर्घकालीन प्रभाव के चलते भी जो उसने आगे के लेखन पर छोड़ा। इसी सम्मेलन के दौरान मुझे ज्ञान के चरित्र के कुछ अन्य पहलू नज़र आये जिन्होंने मुझे चकित कर दिया।