ज्वाला और जल / हरिशंकर परसाई / पृष्ठ 1

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अब्दुल...नहीं नहीं..विनोद-

लेकिन विनोद भी कैसे ? न अब्दुल, न विनोद-उसे न अब्दुल नाम से याद कर सकता हूँ न विनोद से। हाँ, यह है कि वह अब्दुल था, पर उतना ही सही यह भी है कि वह विनोद भी था। लेकिन न वह केवल अब्दुल था, न विनोद। ब्रह्मा के तीन मुख और शंकर के पाँच मुखों की कल्पना इसलिए की गयी मालूम होती है कि एक ही व्यक्ति में एक से अधिक व्यक्तित्व समाए रहते हैं। वह कभी उनमें से एक होता है, कभी दूसरा। जिस आदमी की कहानी कह रहा हूँ, उसकी प्रतिमा अगर बने तो उसके दो मुख हों-अब्दुल और विनोद। गर्दन ऐंठ कर चलनेवाला, बात की बात में तमाचा जड़ देनेवाला, उद्धत, झगड़ैल गुण्डा-अब्दुल। और सन्ताप से त्रस्त पीड़ा से क्षत-विक्षत ग्लानि से गलित टूटा हुआ, भू-नत-विनोद।

उसकी कल्पना ही विरोधों की कल्पना है।

बहुत योग किये जिन्दगी की राह पर। कई साथ चले; कई हाथ में हाथ डाल साथ चल रहे हैं। कई ऐसे भी, जो अचानक किसी पगडण्डी से आ मिले और फिर न जाने कब किसी पगडण्डी से चुपचाप चल दिये। मैं पुकारूँ तब तक वे किसी झुरमुट में विलीन ! हम थोड़ी देर आवाज लगाकर, आसपास निगाह डाल चल देते हैं-हमें तो खो जाना नहीं है, हमें तो राजमार्ग छोड़ना नहीं है। पर कुछ ऐसे होते हैं, राजमार्ग की चिकनाहट जिनके पाँवों को पसन्द नहीं होती। वे ऊबड़-खाबड़ में भटकते हैं, घायल होते हैं, गिरते हैं, लहूलुहान होते हैं और राह पर रक्त के अंक उछालते चलते हैं।

वह इसी तरह एकाएक किसी पगडण्डी से आकर मिल गया था। कुछ दूर साथ चला और फिर खिसक गया। मैं तो उसी असंख्य पैरों से कुचले, घिसे-पिटे चिकने राजमार्ग पर चल रहा हूँ। वकालत पहले करता था, अब भी करता हूँ। पहले तीन बच्चे थे, अब पाँच हैं। हर साल दीवाली पर घर की पुताई कराता था, अब भी कराता हूँ। हर साल पितरों का श्राद्ध करता था, अब भी करता हूँ। वही मकान, वही मुहल्ला, वही शहर; वे ही रास्ते। घर, कचहरी, क्लब ! चोरी, जालसाजी, मारपीट लेन-देन बेदखली कुर्की वही मुकदमे।

वह साथ था, तो जिन्दगी में एक अजब तनाव था; अब सब ओर शैथिल्य। उसे मित्र ही कहा जा सकता है, यद्यपि पहले उससे मुझे घृणा ही हुई थी; फिर उससे भय भी लगा; फिर वह मेरा छोटा भाई हो गया और अन्त में एक शिशु की तरह उसने अपने जीवन को मेरे सुपुर्द कर दिया।

मन में एक चमक छोड़ कर वह चला गया। अनेक की भीड़ में वह एक मुझे अभी याद है।

बहुत पहले की बात है। एक दिन शाम को मैं, माँ और पत्नी को लेकर सिनेमा गया था। याद नहीं कौन-सी ‘फिल्म’ थी। ‘सपरिवार देखने योग्य’-का मार्का लगाये कोई फिल्म रही होगी, तभी माँ और पत्नी दोनों गयी थीं। मैं मजबूरी में गया था। ‘सपरिवार देखने योग्य’ फिल्म के रूप में जिसका प्रचार किया जाए उस फिल्म को, और ‘सपरिवार के पढ़ने योग्य’ लेबिल कवर पर धारण कर रही पत्रिका को, मैं कभी पसन्द नहीं करता। उस फिल्म में वही होगा-सुन्दरी की मोटर से नायक का घायल होना और फिर प्रेम हो जाना। यह सफेद झूठ। पन्द्रह-बीस सालों से तो मैं खुद भीड़ भरी सड़कों पर सुन्दरियों की सभी सवारियों को कुचलने का आमन्त्रण देता काफी बदहवास हो चुका हूँ। पर मोटर तो क्या, किसी रिक्शे से भी यह अकिंचन नहीं टकराया। और पारिवारिक पत्रिका में ‘प्याज का हवुला’ बनाने की विधि लिखी होगी, जो मेरी पत्नी को सम्पादक और लेखिका से कहीं अधिक अच्छी आती है।

खैर फिल्म कोई भी रही हो, मुसीबत वही थी-टिकिट मिलने की अड़चन। नया चित्र और पहला शो। अपार भीड़। टिकिट घरों की खिड़कियाँ तक तो दिखती नहीं थीं; टिकिट कहाँ से लेता। थर्ड क्लास बन्द था, सेकिण्ड क्लास का पता नहीं था; फर्स्ट और स्पशेल के सामने भी धक्का-मुक्की हो रही थी। बालकनी के लायक पैसे मेरे पास नहीं थे। मैं फर्स्ट या स्पेशल क्लास का इन्तजाम करके चला था। सिनेमा की टिकिट खरीदना एक अलग किस्म का शौर्य है। सिकन्दर ने भले ही दिग्विजय की हो, मगर हमारे किसी टाकीज में वह टिकिट नहीं खरीद सकता।

मैं दूर खड़ा था। तैरना न जानने वाला जिस तरह किनारे पर खड़े-खड़े तरंगों की अठखेलियाँ देखता रहता है। मेरे जैसे कई लोग वहाँ खड़े थे-हम लोगों में से कई उसी तरह तरंगों को देखते जिन्दगी गुजार देते हैं। कूद पड़ने की हिम्मत नहीं, इसलिए कूद पड़ने को हम गँवारी और हल्कापन कहकर मुँह बिचकाते रहते हैं।

संसार का सबसे कठिन काम उस समय मुझे टिकिट खरीदना लग रहा था। अगर जनक सीता का स्वयंवर इस जमाने में करते तो शिव के धनुष को उठाने के बदले वे यही घोषणा करते कि जो पहले शो की पाँच टिकिट खरीदकर ले आएगा, उससे विवाह कर देंगे।

कुछ लड़के उस भीड़ में घुसकर इकट्ठे टिकिट खरीद लाते और हम जैसों को दुगनी कीमत पर बेचते। लोग उसी दाम पर खरीदकर जा भी रहे थे।

मैंने पत्नी से कहा, ‘‘चलो, लौट चलें। फिर कभी देखेंगे। अभी तो महीनों चलेगा।’’

पत्नी ने बड़े अनमने भाव से गर्दन हिलायी। माँ तो कुछ बोली ही नहीं।

उन लोगों का निराश होना स्वाभाविक था। बड़ी दूर रहने के कारण हम लोग बहुत कम आ पाते थे। ताँगा किराया ही तीन रुपये लग जाता था। आज माँ और पत्नी बड़ी हविस से आयी थीं। दोपहर से ही खाना बनने लगा था, शाम तक सब काम निबट गया था। अड़ोस-पड़ोस में खबर फैल गयी थी या फैला दी गयी थी कि आज वर्मा जी का सारा परिवार सिनेमा जा रहा है। अब लौटतीं तो मुहल्ले की स्त्रियाँ क्या कहतीं ? कल किसी ने पूछ ही लिया कि कैसी फिल्म थी, तो क्या जवाब देंगी ?

मैंने लौटने की बात दुहराई तो माँ ने कहा,


‘‘अरे बेटा, अब न जाने कब आना होता है। कोई तेरी पहिचान का यहाँ नहीं है ?’’

मैंने कहा,

‘‘भीतर अगर जाता तो पहिचानवाले बहुत मिल जाते। पर भीड़ इतनी है कि पहिचानवाले भी इसी मुसीबत में होंगे।’

इसी समय एक बीस-बाईस साल का अच्छा तगड़ा लड़का वहाँ से चिल्लाता हुआ निकला,

‘‘सिर्फ तीन बची हैं-स्पेशल क्लास ! सवा रुपये की दो रुपये में !’’

मैंने उससे कहा,

‘‘ए भाई, दो रुपया तो बहुत होता है। डेढ़-डेढ़ लेना हो तो तीनों दे जाओ।’’

वह बोला,

‘‘बाबूजी, जान हथेली पर रखकर जाना पड़ता है। चपेट में आ गये, कि मरे ! डेढ़ में तो सुबह तक नहीं मिलेगी। थोड़ी देर बाद ढाई होंगे।’’

माँ को इतनी दूर आकर लौटना ज्यादा अखर रहा था। पर उन्हें मेरे जेब का कोई अन्दाज भी नहीं था। वे बोल उठीं,

‘‘बेटा, तू तो ले ले। इतनी दूर से आये हैं। अब लौटना अच्छा नहीं।’’

मैंने स्पष्ट बात कह दी,

‘‘पैसे लाया हूँ हिसाब के। फिर ताँगे में कम पड़ेंगे।’’

माँ ने कहा,

‘‘अरे, तो धीरे-धीरे घूमते हुए पैदल ही निकल चलेंगे। ठण्डी तो रात है। है ही कितनी दूर।’’

वह लड़का माँ की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था। माँ की अन्तिम लाचारी की बात सुनकर वह बोला,

‘‘अच्छा, माँ देख लो। जो देना हो, दे देना ! काहे को लौटती हो !’’

मैंने हिसाब लगाकर कहा,

‘‘भाई, डेढ़ से ज्यादा न देंगे।’’

वह बोला,

‘‘अरे मुझे नहीं चाहिए डेढ़-वेढ़ तीन टिकटों में नहीं कमाया तो क्या हुआ। लाओ तीन टिकटों के पौने चार। हाँ, हटाओ; एक धन्धा बिना मुनाफे का ही सही।’’

टिकट खरीदे। माँ ने प्रसन्नता से उसे आशीर्वाद भी दे दिया-

‘‘बेटा, तेरी बड़ी उमर हो।’’

इण्टर-वेल में वह चाय बेचता हम लोगों की तरफ आया। हमारे पास आकर बोला,

‘‘बाबूजी, कुछ चाय-वाय ?’’ सिनेमा की रद्दी

चाय पीने की किसी की इच्छा नहीं थी। मैंने मना कर दिया और सहज ही पूछा,

‘‘तुम यहाँ चाय भी बेचते हो ?’’

वह बोला, ‘‘नहीं जी, मेरा एक दोस्त बचेता है। आज वह बीमार है, तो मैं उसका काम कर देता हूँ। दोस्त के काम न आये, तो दोस्ती कैसी ?’’

वह आगे बढ़ गया।