झरे हरसिंगार का सौन्दर्य / सुधा गुप्ता

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साहित्य-जगत में एक सुपरिचित, सुख्यात नाम है- श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , लघु कथाकार, कवि, व्यंग्यकार, बाल-गीतकार, समीक्षक, वैयाकरण, आदर्श शिक्षक और कुशल प्रबंधन के लिये प्रसिद्ध रहे 'हिमांशु' । इस सब के बाद और साथ ही सम्पादन तथा संयोजन का गुरुतर भार वहन करने में निष्णात। अन्तर्जाल पर संयुक्त रूप से डॉ-हरदीप कौर सन्धु के साथ संचालित ब्लॉग 'हिन्दी हाइकु' और 'त्रिवेणी' के प्रसारण के लिए लोकप्रिय 'हिमांशु' । अनगिनत काव्य प्रेमियो / युवा रचनाकारों के प्रेरणास्रोत, उन्हें आगे बढ़ने के लिए उत्साहवर्धन कर, रचना कर्म को प्रकाश में लाने वाले 'हिमांशु' —-आज के इस स्वार्थ में डूबे आपा-धापी के युग में ऐसा सहृदय व्यक्तित्व दुर्लभ है। गुणावली में एक प्रमुख, विशिष्ट रूप और भी हैं हाइकुकार 'हिमांशु' जी सन् 1982 के आसपास से हाइकु लिखते-छपते रहे। सेवा-निवृत्ति के पश्चात् जब सन् 2008 में स्थायी रूप से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में आ गए तो स्वयं को हाइकु पर केन्द्रित किया। फलतः प्रथम हाइकु संग्रह 'मेरे सात जनम' जिसमें 500 से अधिक हाइकु हैं, (अयन प्रकाशन, दिल्ली, प्र-सं-2011) सुधी पाठकों को भेंट किया, साथ ही, 18 हाइकुकारों के हाइकु अपनी रुचि से चुन कर एक संकलन 'चन्दनमन' का सम्पादन किया (प्रकाशक वही, वर्ष वही) । जापानी काव्य-शैली ताँका और चोका ने भी आपको आकृष्ट किया। वर्ष 2011 में ही 'हिमांशु' और डॉ-हरदीप कौर सन्धु का सहयोगी ताँका-चोका संग्रह 'मिले किनारे' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में 'हिमांशु' जी के 96 खूबसूरत ताँका आए। ये ताँका सात खण्डों में विभाजित थे- (1) अधरों का कम्पन (2) झील का जल (3) शूलों का बिछौना (4) प्यार की सौगात (5) आँसू की बोली (6) सबको गले लगा और (7) दो बूँद पानी। वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टि से खरे उनके ताँका पर्याप्त प्रसिद्धि और लोकप्रियता प्राप्त करने में सफल रहे। आपने ताँका काव्य-शैली के प्रचार-प्रसार हेतु अन्तर्जाल पर 'त्रिवेणी' में लगातार सक्रियता बनाए रखी। डॉ-भावना कुँअर के सह-सम्पादकत्व में 'भाव-कलश' शीर्षक ताँका-संकलन (प्र-सं-2012) प्रकाशित किया, जिसमें 29 ताँकाकारों के 587 ताँका संकलित हैं।

हाइकु, ताँका, चोका (हाइगा भी) में सतत सृजनरत 'हिमांशु' जी की नवीनतम प्रस्तुति है ताँका-संग्रह 'झरे हरसिंगार' जिसमें 178 ताँका है। 'हिमांशु' की कविता की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी सकारात्मक सोच, एक सनातन आशावादी स्वर-उनकी कविता का 'स्थायी भाव' है मनुष्य की जिजीविषा को जाग्रत करना, कभी न हाने और जीवन-युद्ध में सदा संघर्षरत रहने की प्रेरणा देना, यदि इसी को सूत्र रूप में कहा जाए तो कह सकते हैं- (1) लोक-मंगल की भावना (2) प्राणिमात्र के प्रति करुणा और मानव को क्षुद्र भावनाओं से ऊपर उठाकर उसकी सच्ची 'मानवीयता' से परिचय कराना।

प्रस्तुत संग्रह भी आठ खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड 'सूरज उगाएँँगे' उनकी अदम्य जिजीविषा और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचायक है-

1-वे दर्द बाँटे / बोते रहे हैं काँटे / हम क्या करें? बिखेरेंगे मुस्कान / गाएँ फूलों के गान 2-काटें पहाड़ / झरना बहाएँँंगे / भोर-लालिमा चेहरे पर लाएँँगे। सूरज उगाएँँंगे।

3-इस गाँव में / आना नहीं दुबारा / विष क्यों घोले मीठे ही बोल बोलें / खुशी के द्वार खोलें

किन्तु यह तो एक पक्षीय सोच है! वास्तविकता बहुत क्रूर और कठोर है जहाँ क़दम रखते ही हमारे सारे सपने चूर-चूर होकर धूल में मिल जाते हैं——आदर्शवाद धरा रह जाता है!

संग्रह की एक बड़ी खूबसूरती है यथार्थ के धरातल पर रचे हुए ताँका का वह 'मर्म स्पर्शी' और 'सार्वजनीन' सत्य जिससे हम सभी को कभी न कभी 'दो-चार होना' ही पड़ता है, यही इस दुनिया की रीत है! यहाँ 'देना' बहुत ज़्यादा होता है 'पावना' बहुत कम। व्यक्तिनिष्ठ सत्य, जब समष्टिगत बन जाता है, तो वह निर्वैैयक्तिक हो जाता और उसकी संवेदना सहज संप्रेष्य होने के साथ ही वह सत्य (कड़वा या मीठा) समाज का, समष्टि का सत्य बन जाता है। पाठक उसे अपनी बात मानकर, समझकर ग्रहण करता है। आन्दोलित / आह्लादित होता और उससे तादात्म्य स्थापित कर पाता है-यही साधारणीकरण का रहस्य है। यही किसी भी रचनाकार की चरम सफलता भी!

1-जब भी सोचा / अब सुधा मिलेगा / विष ही मिला

दो चार बूँद नहीं / भर-भर गागर

2-दुःख न कर / मेरे पागल मन / यही जीवन

हैं बबूल बहुत / कम यहाँ चन्दन

3-बीती उमर / समझौते करते / जीते मरते

िज़द ठानी उन्होंने / न समझेंगे कुछ

4-जितना झुके / न टूटे यह घर / उतना टूटे

बुरी तरह दोनों / हम और घर भी

5-वन से लौटे / घर में भी पाया है / घना बीहड़

निर्जन-सा सन्नाटा / कोई नहीं अपना

6-दिल दुखाना / अपना या पराया / हमें न भाया

इतने क़्फ़ुसूर का / दण्ड मिला सवाया

7-दिल में छेद / बन बाँसुरी बहे / दर्द की नदी

समझेगा भी कौन / जीवन बना मौन

8-जीवन भर / रस ही पीते रहे / वह तो जिए

हम तो मर-मर / घाव ही सीते रहे

इतना सब कुछ होने के बावजूद 'अप्राप्य' का असंतोष 'हिमांशु' के मन में अवसाद को स्थायी नहीं होते देता-'चिर ऊर्जस्वित' प्राण एक विवेक भरी सोच देता है-

9-सुख की शÕया / है किसका जीवन / सोचो दो पल

वनवास राम को / रथ हाँके कन्हैया।

और इस 'बबूल' के काँटों भरी दुनिया में वह अपना मार्ग चुन लेता है-सब की राहों में निरन्तर फूल बिछाते चलना, सबको प्यार और आशीष देते चलना-कभी किसी का दिल न दुखना, यह 'शिव' तत्त्व का 'आराधन' में बड़े सुंदर रूप में शब्दों में अंकित हुआ है-

1-धरा-गगन / या गहरे सागर / ठौर न पाऊँ

सपने में भी यदि / अपनों को सताऊँ

2-मेरे पास थीं / सिर्फ़ कुछ दुआएँ / बाँटी बरसों

तिलभर न घटीं / और भरा दामन

3-विदा कर दें / नप़फ़रतें दिल से / प्यार बसाएँ

इस दुनिया को ही / ज़न्नत-सी बनाएँ

ताँका-संग्रह के आठ खण्डों में प्रेम का यह गाढ़ा रंग अनेक रूपों में मुखरित हुआ है-प्रेम जो एक शाश्वत भाव है मानव मन की सृष्टि का-प्रेम, जिसके बिना मानव अपूर्ण है, उसका जीवन नीरस छूँछ मात्र है! 'हिमांशु' के रचना-संसार में प्रेम का यह प्रसार अपनी इन्द्रधनुषी आभा बिखेर रहा है, सामान्यतः यदि इसे दो भागों में बाँट दें तो समझने में सुविधा हो सकेगी-

1-प्रकृति के प्रति प्रेम, जीव मात्र के प्रति करुणा, पशु-पक्षियों के प्रति हार्दिक संवेदना

2-मानवीय रिश्तों के प्रति अटूट लगाव

हिमांशु जी की काव्य-रचना, चाहे कोई भी विधा हो, इसमें प्रकृति थी पर्याप्त साझेदारी रहती है-यही बात मुझे उनके सर्जन के प्रति विशेष रूप में आकृष्ट करती है। नए उपमान, नवीन उत्प्रेक्षाएँ, नवीन कल्पनाएँ हाथ बाँधे खड़ी रहती हैं उनकी मोहक चित्रशाला को सजाने सँवारने के लिए-

1-भौंर-गुंजन / कोकिल की कुहुक / वासन्ती रूप

शीत काल की धूप / प्यार से गुनगुनी

2-ब्रह्म मुहूर्त / गूँजे साम के गान / मुमूर्षु करे

ज्यों अमृत का पान / खुल जाते नयन

3-रात ढली है / चाँद लेता उबासी / ऊँघते तारे

प्यार की थपकी दे / लोरी सुनाए हवा

4-जागे हैं चूल्हे / घाटी की गोद बसे / घर-घर में

तान रहा ताना / धुँए से बुनकर

एक से बढ़ कर एक मनोरम कल्पनाएँ मोहक चित्र उपस्थित करने में सक्षम हैं! चाँद का उबासी लेना बुनकर (जुलाहे) का धुएँ से 'ताना' तानना-अनूठी अनछुई अभिव्यंजना है। नन्हें जीवों की क्रिया-कलाप को कवि कितने गहरे से महसूस और व्यक्त करता है-

5-औचक चीख / रात में टिटिहरी / चीरती चुप्पी

देख के अजनबी / ताल के तट पर

6-कुजों की डार / क्रें-क्रे-क्रें बतियाती / उड़ती नभ

आतुरता छलके / बच्चों से मिलने की

7-नभ में किसे / कुररी तू पुकारे? यूँ रो-रो कर

कौन तेरा खो गया? दर्द बीज बो गया

ध्यातव्य है कि सामान्यतया घर के चारों ओर पाए जाने वाले चिड़ियाँ-मैना-तोता-गिलहरी जैसे नन्हें जीव तो प्रायः काव्य में स्थान पा जाते हैं किन्तु 'टिटिहरी' की चीख़, आकाश में उड़ती 'कुंज' पक्षी की पंक्ति का आतुर बतियाना और 'कुररी' का करुण विलाप कोई-कोई कवि ही देख-सुन पाता है! वही, जिसकी संवेदनाएँ जीव मात्र के साथ जुड़ी हों——मानवीय संसार में कवि एक निश्छल अनुराग के साथ गहरे तक डूब कर सच्चे मोती निकाल लाया है। प्रेम के विषय में उसी धारणा हैः

नाम क्या दे दूँ / प्रेम होता अनाम / धरा से नभ इसका है विस्तार / जीवन का है सार

मैं हिमांशु जी की कविता के विषय में पहले भी कहीं कह चुकी हूँ कि उनके प्रेम की विशिष्टता एक ख़ास तरह की 'पावनता' की अनुभूति है, उनका प्रेम नाना रिश्तों और सम्बन्धों में रूपयित होता है; किन्तु प्रत्येक स्थिति में यह एक उदात्त धरातल पर निवसित है, दैहिक आसक्ति नहीं, मानसिक सामीप्य की उत्कट अभिलाषा, प्रिय के दुःखों में सहभागिता की अधीर इच्छा ही यहाँ बार-बार ध्वनित-गुंजरित होती रहती है।

कवि के उपमान-चयन में भी यही भावना परिलक्षित होती है, प्रायः पूजा के उपकरण-दीपक, अर्घ्य, आरती, चरणामृत, आचमन, चन्दन, अमृत आदि शब्दों का प्रयोग ताँका को एक नई ऊँचाई देता हैः

1-पूजा में बैठूँ / याद तुम आती हो / आरती बन

अधरों पर छाती हो / भक्ति-गीत पावन

2-अमृत होगा / तुम्हारे नयन का / आँसू खुशी का

एक क़तरा बहुत / आचमन के लिए

3-समाती गई / साँसों में वह खुशबू / मिटे कलुष तन

बना चन्दन / मन हुआ पावन

4-आज मैं जाना / मन जब पावन / खुशबू भरे

ये मलय-पवन / ये तुम्हारे चरन

भारतीय संस्कृति में, ईश्वर के बाल रूप की वन्दना बहु-प्रचलित तथा लोक-प्रिय रही है। शिशु साक्षात् 'ब्रह्म' स्वरूप माना जाता है। हिमांशु जी भी छोटे बच्चे को बाहों में झुलाकर अपनी नैैत्यिक पूजापाठ भूल जाते हैंः

5-नन्हा-सा बच्चा / बाँहों में झूला मेरी / मैं भूला सब

पूजा न याद रही / नमाज़ें भूल गया।

'हिमांशु' जी के जीवन का एक अविभाज्य अंग है 'बहन' के प्रति उनका असीम लगाव, यह रिश्ता इतना मजबूत और उनके रक्त में गहरे रचा-बसा है कि उनके रचना-संसार में भी बहुत-सा स्थान घेर लेता है, इस रिश्ते की सुगन्धि अगरू-गंध-सी तिरती रहती है। कवि अपने पावन स्नेह को बारम्बार नाना प्रकार से व्यक्त करता है, यहाँ तक कि उसकी कामना हैः

6-जब जन्म हो / इस धरती पर / मुझको मिलो

प्यार मेरी बहना / बन के हर बार

7-ख़ुशी छलकी / पलक-कौन पर / ढुलक आईं

बूँदें गंगाजल की / द्वारे पहुँचा भाई

इसी भाव-शृंखला में क्रम-संख्या 1 2 2 4 5 6 7 12 के ताँका भी उल्लेखनीय तथा द्रष्टव्य है।

खण्ड 5, 'ये नूर की बूँद' इस दृष्टि से अनूठा है कि कवि ने आँसू सम्बन्धी अनछुई कल्पनाओं को शब्दों में बाँधा है, ये ताँका पढ़कर हटात् खड़ी बोली के 'उत्तुंग शिखर' श्री प्रसाद का अमर खण्ड काव्य 'आँसू' (विरह) याद आ जाता है———-आँसू को हिमांशु जी केवल पानी नहीं, 'पावन गीत' कहते हैं, कहीं 'ये नूर की बूँद' है, कहीं 'मन का उजाला' है, आँसू 'बीती मधु ऋतु का हास' है, 'सागर का जल' है, कहीं 'डरे-डरेआँसू' कवि-मन को विचलित कर जाते हैं———-सबसे बढ़कर 'आँसू' की 'ख़ासियत' यह है कि संसार में वह सार्वभौम एकता एवं व्याप्ति का प्रतीक हैः

राजा या रानी / या कुटिया का वासी / सदा दर्द की / चुगली कर देता / आँखों से गिरा पानी

इस खण्ड के सभी सोलह ताँका यादग्राही बन पड़े हैं किन्तु भूमिका के दीर्घ कलेवर होने की आशंका से अधिक उद्धृत नहीं किए जा रहे। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति चिन्तित ताँका कार सामान्य घरेलू पक्षी गौरैया की कथा के माध्यम से (163, 164, 165, 90) अपनी चिन्ता सशक्त रूप में व्यक्त करता है।

'जीवन की किताब' शीर्षक खण्ड के सभी चौदह ताँका मनोहारी हैं, इनमें छह बन्द किताब और आठ खुली किताब के पन्ने हैं-इन्हें पाठक क्रमशः अतीत और वर्तमान थे सुन्दर चित्रें के रूप में ग्रहण कर सकता है। उनका एक खूबसूरत ताँका हैः

खुली किताब / नज़र आया वही / लाल गुलाब

गले लग तुमने / दिया पहली बार

इसे पढ़कर मुझे अपने हाइकु-संग्रह 'कूकी जो पिकी' (प्र-सं-2000) का एक हाइकु बरबस याद आ गया-भूलता नहीं / एक सूखा गुलाब / बन्द किताब

कवियों की रचनाओं में भाव-साम्य तो प्रायः मिल ही जाता है जो नितान्त स्वाभाविक है; किन्तु फिर भी भावबोध में अन्तर है——मेरी किताब बन्द, गुलाब सूखा——स्मृति शेष———केवल कैशोर्य से मधुर अतीत का एक पीला पड़ा पन्ना———— 'हिमांशु' की किताब खुली, गुलाब लाल सुर्ख़——-ताज़ा दम——-मिलन के क्षणों को पुनरुज्जीवित करता—-हो भी क्यों न? हिमांशु जी स्वयं सब की राहों में फूल बिछाते जो चलते हैं, 'लोक-मंगल' की भावना उनकी लेखनी की रग-रग में समाई हैः

सुबह शाम / हो सुखों की बारिश / रंग हज़ार

हर्षित हो धरती / नगर और ग्राम

जहाँ 'शिव' हो, 'सत्य' और 'सुन्दर' स्वयं अग़ल-बग़ल आकर अवस्थित हो जाते हैं। प्रस्तुत ताँका-संग्रह 'झरे हरसिंगार' सत्य शिव सुन्दर का ऐसा संगम है_ जिसको पढ़कर सहृदय पाठक रस-निमज्जित होंगे, रस-विभोर होंगे।


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