झूठा भय और मिथ्या अभिमान / भाग 2 / सहजानन्द सरस्वती

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सौ बातों की एक बात तो यह है कि न तो बाप-दादे सब बातों में अच्छे ही थे और न बुरे ही। इसलिए जो काम उन्होंने बुद्धिमानी के किए उनके लिए वे अच्छे और चतुर कहे जाएँगे और हमें भी उसका गर्व होगा। मगर जो काम उनसे गलती से हो गए उनके लिए वे अवश्य बुरे या मूर्ख हैं, चाहे हम उनका जिक्र भले ही न करें। इसीलिए हमें उन कामों का गर्व हो ही नहीं सकता, चाहे कोई लाख कहे। यह तो कोई बुद्धिमानी नहीं कि जिसके वंश में कई पुश्तों से चोरी या शराबखोरी चली आती हो वह सिर्फ यह कह कर उसके विरुद्ध उपदेश को न माने कि हमारे बाप-दादों ने ऐसा किया था, हम कैसे छोड़ें? या बाप-दादों की उस काली करतूत का उसे गर्व हो। यदि हम लोगों के पूर्वजों के रहते ही भारत का राज्य दूसरों के हाथ गया और चरखे का नाश हो कर यह पराधीनता और कपड़े की महँगी रूपिणी चंडी भारत में नंगी नाच रही है तो इन बातों के लिए किसे गर्व होगा, या कौन अपने पूर्वजों की दुहाई दे कर चरखे और स्वराज्य प्राप्ति का उपदेश न सुनेगा? यह तो कोई कह ही नहीं सकता कि हमारे बाप-दादे सारी बुद्धिमानी और सच्चाई के ठेकेदार थे, इसी से गलती तो कभी कर ही नहीं सकते थे। जब व्यास, वसिष्ठ, विश्‍वामित्र, पराशर और सौभरि आदि, यहाँ तक कि ब्रह्मा और शिव आदि भी गलतियों से न बच सके। हाँ, यह दूसरी बात है कि अपनी सामर्थ्य और तपोबल से उसका पाप उन्हें न लगा। तो फिर हमारी या बाप-दादों की क्या गिनती है? यह भी तो नहीं कि व्यास-वसिष्ठादि ने जो मार्ग बताया या बनाया था उसकी सीमा और रक्षाबंदी किसी ऐसे पदार्थ से कर दी हो कि कभी भी उसमें बुराई आ ही न सके। यदि ऐसा हो तो फिर यह संसार ही न कहावे और न समय-समय पर ऋषि-मुनियों या अवतारों की आवश्यकता ही रह जावे। तो फिर क्या अब हमारा कर्तव्य नहीं हो जाता कि जब-जब हम व्यास-वसिष्ठादि के मार्गों की तरफ चलें तब-तब यह सोच लें कि इसमें कोई काँटे, कीड़े, साँप या रोड़े तो नहीं आ गए हैं, या बीच में कोई उपद्रव तो नहीं हो गया है? और फिर उस काँटे, कीड़े, रोड़े या उपद्रव को छोड़ कर ही हमें चलना चाहिए। हमें बाप-दादों या व्यास-वसिष्ठ की बुद्धि से नहीं चलना है और न उनके कामों का फल हमें मिलना है। हम तो अपने काम के जिम्मेदार हैं और उसका फल हमें भोगना ही होगा। ऐसी दशा में किसी की दोहाई देने का क्या काम? हमें तो अपने ही विचार से काम करना होगा; क्योंकि उसका फल हमें भोगना है, न कि बाप-दादों को। जंगल से जो गाँव का रास्ता है उस पर हम इसीलिए आँखें मूँद कर न चलेंगे कि हमारे बाप-दादे बराबर इस रास्ते से गए हैं। बल्कि उनके लाख जाने पर भी हम अपनी आँखें खोल कर रास्ता देखते चलेंगे। नहीं तो ठोकर खा कर गढ़े में पड़ेंगे और मरेंगे। फिर हमारी समझ में नहीं आता कि कर्तव्य निर्धारण में सब अक्ल, विचार और तर्क को ताक पर रख सिर्फ बाप-दादों की दुहाई का क्या मतलब है। जब नए अवतार, धर्माचार्य या ऋषि-मुनि आ कर सुधार या चलते धर्म में कुछ परिवर्तन करना चाहते हैं तो क्या केवल यही कह कर उनकी बातों पर विचार ही न किया जावे कि हमारे बाप-दादे क्यों ऐसा करते थे? तब तो अवतारों और सुधारकों को खासा उल्लू बनना होगा और वे निरर्थक सिद्ध होंगे। बाप-दादों को धर्म के साक्षात् अवतार मान लेने की यह अनधिकार चेष्टा अच्छी नहीं। उनके मार्ग से जरा भी हटने का नाम लेते ही काँप उठना या उनके कामों की डींगें मारना केवल झूठे भय और मिथ्या अभिमान का फल है। 'हमारे पूर्वजों ने संकल्पपूर्वक पुरोहिती का त्याग किया है। उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि हम या हमारे वंशज भविष्य में

कभी पुरोहिती न करेंगे, अत: पुरोहिती करने पर हमें प्रतिज्ञाभंग का दोषभागी होना पड़ेगा' यह कथन सोलहों आना निर्मूल एवं कपोलकल्पित है। बाप-दादों को न तो ऐसा करने का अधिकार ही था और न वे इतने उल्लू ही थे कि हमारी ओर से भी किसी अशास्त्रीय और धर्मविरुद्ध बात की प्रतिज्ञा करें। उन्हें क्या हक था कि हमारे धर्म को बिना कारण और बिना पैसे-कौड़ी के दूसरों को सौंप दें और हमारी तरफ से उससे बाजीदावा (तिलकनामा) लिख दें? यदि वे जानकार थे तब तो ऐसा कर ही न सकते थे। और यदि मूर्ख थे तो फिर उनकी मूर्खता को हम क्यों ढोते फिरें? इसलिए अपनी आत्मदुर्बलता को इस प्रकार बाप-दादों के सिर लादने का बहाना करना और उसके द्वारा समाज को एक अंग रहित करने का यत्‍न महाकुत्सित और निंदित है।

अब केवल एक शंका रह जाती है जिसका निराकरण जरूरी है। वह यह कि आखिर आजकल भीख माँगनेवालों की जो संख्या है उनमें अधिकांश वर्तमान पुरोहित समाज के लोगों की है और शेष भी अन्य समाजवाले उन्हीं के अनुकरण से ऐसा कर रहे हैं। इसका क्या प्रतीकार है? निस्संदेह यह बात है - वर्तमान पुरोहित समाज भिक्षावृत्ति प्रधान प्रतीत होता है और देखा जाता है कि ब्रह्मभोजादि के अवसर पर पाँच के बुलाने से पचीस दौड़े आते हैं, आदि-आदि। पर, इसे देख कर भी मैं इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि आपके समाज को पुरोहिती अवश्य करना चाहिए जिससे यह भयंकर बुराई दूर हो। क्योंकि यह पुरोहिती का परिणाम नहीं है। देखने से साफ मालूम होगा कि इन भिक्षावृत्तिजीवी और पाँच की जगह पचीस आनेवालों में अधिकांश वही हैं जिनकी जीविका और इस समय पुरोहिती नहीं है। हाँ, यह ठीक है कि कुछ पुरोहिती करनेवाले भी ऐसा कहीं करते हैं और यह भी संभव है कि जो ऐसे अधिकांश हैं वह भी कभी पुरोहिती करते रहे हों या पुरोहिती कभी न भी करने पर पुरोहितों के सम्बन्ध से ही उनमें यह आदत आ गई हो। क्योंकि एक बार परान्न भोजन की आदत पड़ने पर उसका छूटना कठिन हो जाता है। मगर विचारना तो यह है कि यह जो कुछ भी हुआ वह सिर्फ इसीलिए कि अब सच्चे पुरोहित रह नहीं गए। अब तो आप लोगों ने और आपके ही साथ औरों ने भी पुरोहिती और गुरुवाई को बना दिया है! फल यह हुआ कि गुरु पुरोहित लोग मूर्ख, दुराचारी, दुश्‍चरित्र, केवल पेट पूजक और परद्रव्यापहारी हो गए! क्योंकि मौरूसी जायदाद के लिए माथा मारने का कौन काम? 'जो पढ़तव्यं तो पूजतव्यं, न पढ़तव्यं तो पूजतव्यं, माथापच्ची क्यों करतव्यं'? वे लोग तो जानते ही हैं कि पढ़े या न पढ़ें, हम तो पूजे जाएँगे ही, हमारा 'पाँव तो पखारा' जावेगा ही, हमारे खुरनारविंद की पूजा तो होगी ही और हमें भरपूर दक्षिणा और पूड़ी तो मिलेगी ही। फिर क्यों 10-12 वर्ष शास्त्रों के अध्य्यन में मगज मारें? और जब इस प्रकार शास्त्रों का पढ़ना गया तो उसमें सच्चा स्वाभिमान, आत्मगौरव, कर्तव्य बुद्धि, प्रतिष्ठा और लज्जा का भाव कैसे आ सकता है? वह कैसे समझ सकते हैं कि अमुक काम हमारी प्रतिष्ठा, धर्म या गौरव के विपरीत अतएव अपमानजनक है? क्योंकि 'श्रुतिस्मृती च विप्राणां चक्षुषी देवनिख्रमते। काणस्तत्रौकया हीनो द्वाभ्यामंध: प्रकीत्तात:' (हारीत 1/25) 'वेद और धर्मशास्त्र यही दो आँखें ब्राह्मणों की हैं। इनमें एक के बिना काने और दोनों के बिना अंधे होते हैं' के अनुसार वे तो अंधे ठहरे। फिर उन्हें सच्चा मार्ग सूझे कैसे? वह कैसे जानें कि यह पूड़ी की हायधुन और भिक्षावृत्ति पाप कर्म है, नीच काम है? फिर उसमें क्यों न सहर्ष प्रवृत्त हों? साथ ही, खिलानेवालों को भी यह नशा बना रहता है कि ब्राह्मण नामधारी ज्यादा खिलाए जाएँ। फिर तो पतितों को छोड़ और मिलेगा ही कौन? इस अन्ध ब्राह्मणभक्‍ति ने तो और भी नाश किया है। यजमानों की मूर्खता ने पुरोहितों को और भी चौपट बना दिया है। पर, यदि गुरुवाई, पुरोहिती मौरूसी न हो कर योग्यता पर ही रहे, तो फिर यह अनर्थ और अंधाधुंध अपने आप मिट जावे। पुरोहित लोग शास्त्रज्ञ, सच्चरित्र, आत्मगौरव संपन्न होने लग जाएँ। वे नीच कर्मों से दूर रहें जैसे कि वसिष्ठ, गर्ग और विश्‍वरूप आदि रहते थे। जैसे उन्होंने विवश हो कर पुरोहिती स्वीकार की थी, उसी प्रकार जब केवल जाति और धर्म की रक्षाबुद्धि से यह पुरोहिती की जावेगी तो संसार मंगलमय होगा और भिक्षुकों एवं पेटुओं का नामोनिशान भी न रह जावेगा, जिससे पुरोहिती कलंकित की जा सके। विशेष कर आपका समाज तो इस कड़वे अनुभव के बाद जब पुरोहिती में प्रवृत्त होगा तो फिर यथार्थ और उज्ज्वल पुरोहिती होगी, न कि कलंक कालिमा कलुषिता। यदि आप शुरू से ही इस बात का ध्यान रखेंगे कि यह वृत्ति कलुषित हो कर भिक्षावृत्ति के विस्तार का कारण न हो जावे और इसकी ताकीद समय-समय पर करते रहेंगे तो सब ठीक ही होगा। जैसे फेफड़ों की लापरवाही के कारण दमा आदि रोग होने पर जब किसी प्रकार आदमी नीरोग हो कर सजग हो जाता है तो फिर फेफड़ों को बिगड़ने नहीं देता। यही बात यहाँ भी लागू होगी। इस पुरोहिती में जो विकार इस समय आ गया है वह भी वर्तमान पुरोहितों के करते दूर नहीं हो सकता। कारण, वे पतित हो चुके हैं। उनकी दशा तब तक निराशापूर्ण ही रहेगी जब तक दूसरे लोग आदर्श पुरोहिती का चमत्कार उनकी आँखों के सामने पेश न करें, जिससे लालच में आ कर वे भी उसके लिए यत्‍नशील हों। सारांश, उनका भी उद्धार आपके ही भावी पुरोहितों के हाथ है, जिन्हें आपका समाज और सभा आप में से ही तैयार करे और जिनके सामने केवल जाति, धर्म और मानव समाज का उद्धार ही एकमात्र लक्ष्य हो। वैसे ही पुरोहितों से आपका और देश का मुख उज्ज्वल होगा, आपकी ब्राह्मणता की रक्षा होगी। उन्हीं के द्वारा आप इन आक्षेपों का सच्चा उत्तर देने में समर्थ होंगे कि 'आप में ब्राह्मणों के यजन, याजनादि का नितान्त अभाव है' न कि लेखों, प्रस्तावों और व्याख्यानों द्वारा।' क्योंकि आत्मगौरव संपन्नों की ओर से तो 'क्रिया केवलमुत्तरम' 'जो मैं राम तो कुल सहित, कहहि दशानन जावे'। न कि पुरोहिती के वर्तमान दोषों को देख कर उसका बहिष्कार कथमपि उचित है। यह तो ऐसा ही है जैसा कि ऊपर भूसी देख कर धन को फेंक देना और भूखों मरना, या भिखमंगों के भय से रसोई ही न बनाना! दुनिया में कौन-कौन चीज़ें निर्दोष हैं? 'सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृता:' (गीता,18/48)। इसलिए दोष से बचने की फिक्र करते हुए अपने स्वाभाविक कर्मों को कभी न छोड़ना चाहिए, चाहे उनमें दोष भी क्यों न प्रतीत होते हों - 'सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्' (गीता 18/48)। अत: इस सिद्धांत का पुरोहिती का-समाज में प्रचार कर के समाज को स्वावलंबी, आत्मगौरव संपन्न और जीवित बनाने का संकल्प कर तदनुसार काम करने में प्रवृत्त हो जाना प्रत्येक समाजहितेच्छु का पवित्र कर्तव्य है। इसमें अब आना-कानी की गुंजाइश है ही नहीं। नहीं तो 'फिर पछितैहसि अन्त अभागी'। इस काम में ईश्‍वर आपका साथ देगा।

एक बात और रह जाती है जिस पर प्रकाश डालना अत्यावश्यक है। ब्रह्मर्षि वंशविस्तर' तथा 'ब्राह्मण समाज की स्थिति' में और इस पुस्तिका के आरंभ में भी हजारीबाग के चौपारन और इटखोरी थाने के कुछ भूमिहार ब्राह्मणों का बार-बार वर्णन आया है कि वे पुरोहिती पहले से ही करते आए हैं और यह काम अब तक उनमें जारी है। परंतु इस बात का विशेष विवरण नहीं दिया जा सका है। एतदर्थ वहाँ स्वयं जा के हमें इसकी जाँच करनी पड़ी है। उसके फलस्वरूप उनका और उनकी पुरोहिती का संक्षिप्त विवरण देते हैं जो बड़ा मनोरंजक, उपदेशपूर्ण और काम का है।

गया जिले की सीमा से मिला हुआ हजारीबाग का जो सब-डिवीजन चतरा कहलाता है उसी के उत्तरी भाग में दो थाने चौपारन और इटखोरी नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हीं दोनों में पुरोहिती को अब तक बराबर करनेवाले ये भूमिहार ब्राह्मण प्राय: बीस ग्रामों में बसते हैं। जो बादशाही सड़क या ग्रैंड ट्रंक रोड गया से होती हजारीबाग जिले में प्रवेश करती और इसरी, नीमिया घाट होती हुई पारसनाथ पहाड़ के पास से ही कलकत्ता चली जाती है उसी पर चौपारन थाना है और उसी से दक्षिण इटखोरी। ये दोनों ही चय परगने में हैं और इनकी सीमा लेढ़िया नाम का नाला या नदी है जिसके दक्षिण इटखोरी और उत्तर चौपारन का इलाका है। दोनों जगह डाकखाने भी हैं। इटखोरी के पोस्ट मास्टर पं. खेमनारायण पांडे हैं जिनका घर वहीं है और यह भी उन्हीं पुरोहित भूमिहार ब्राह्मणों में एक हैं। इटखोरी में साल वगैरह लकड़ी का जंगल प्रसिद्ध है और दूर-दूर के व्यापारी कटवा के ले जाते हैं। गया और हजारीबाग के बीच जो लारियाँ चला करती है वे प्राय: एक रुपए में गया से चौपारन पहुँचा देती हैं। हजारीबाग से भी प्राय: यही किराया लगता है। परंतु चौपारन जाने के लिए कोडरमा स्टेशन भी ठीक है, जहाँ से चौपारन होती हुई इटखोरी तक लारियाँ जाया करती है। कोडरमा से 11 कोस चौपारन और वहाँ से 4 कोस इटखोरी है। चौपारन से ही एक सड़क इटखोरी, चतरा को चली जाती है। इटखोरी से दक्षिण 11 कोस चतरा है। कोडरमा से दक्षिण 14 मील तक एक छोटी सड़क जा के ग्रैंड ट्रंक रोड में मिलती है जहाँ से 4 कोस पश्‍चिम चौपारन है। कोडरमा और हजारीबाग रोड इन दोनों स्टेशनों से हजारीबाग शहर 42 मील है और कोडरमा से प्राय: 8-10 कोस पूर्व हजारीबाग रोड स्टेशन सरिया ग्राम में है।

यह तो हुई प्रासंगिक बात। कहते हैं कि गया से पूर्व उसी जिले के फतेहपुर थानांतर्गत पहाड़पुर स्टेशन से प्राय: एक कोस पर जयपुर में किसी गौड़ ब्राह्मण राजा का पुराना गढ़ अब भी धवस्त दशा में है। उसका नाम कोई-कोई जंगरेस बहादुर कहते हैं। उसी गढ़ से मिला हुआ पूर्व और पांडेगढ़ नाम का दूसरा धवस्त गढ़ है जो राजा के आचार्य और पुरोहित ब्राह्मणों का है। किंवदंती है कि चौपारन, इटखोरी के इन पुरोहित भूमिहार ब्राह्मणों के मूल पुरुष ही उस पांडे गढ़ के मालिक एवं राजा के सर्वमान्य थे। कहा जाता है कि पश्‍चिम बक्सर की ओर से कौशिक गोत्र दो ब्राह्मण जगन्नाथ की यात्रा करने को जयपुर आए और अपने विद्या एवं तप के बल से राजा के परम मान्य हो गए। इनके नाम कोई सागर पांडे और वसंत पांडे या राय कहते हैं और कोई कुछ और बताते हैं। वहाँ से पुरी की यात्रा के बाद एक भाई तो घर गए, पर दूसरे सागर पांडे जयपुर ही रह गए। फिर काल पा के राजा के वंश का लोप हो गया। उसके प्रिय पात्र मन्त्री और वीर दो बन्दौत क्षत्रिय जागो खाँ तथा ताज खाँ थे। राजा ने उन्हें अपना राज्य इसी शर्त पर सौंप दिया कि हमारे आचार्य एवं पुरोहित सागर पांडे के ही वंशजों को आचार्य पुरोहित बनाना होगा और जो तुम्हारे उत्तराधिकारी होंगे वह भी यही करेंगे। इसके बाद वे दोनो बन्दौत क्षत्रिय हजारीबाग के ताजपुर और जागोडीह में बसे और उनके ही नामों से वे दोनों नाम पड़े। इनने या इनके वंशधरों ने पीछे से रामगढ़ के खैरवारों से विवाह सम्बन्ध कर लिया। इस समय जागोडीह पद्मा के ही अधीन है।

सागर पांडे के वंशज जयपुर के पांडे गढ़ से आ के चौपारन से एक मील पूर्व बारा में पहले पहल बसे और वहीं से धीरे-धीरे (1) बारा, (2) कुबरी, (3) दैहर, (4) इंगुनियाँ, (5) पूड़ो, (6) बनौ, (7) फुलवरिया, (8) ककरौला, (9) ठुट्ठी, (10) बड़ागाँव, (11) गंभरिया, (12) बेलखोरी, (13) नरियाही, (14) सदाफर, (15) इटखोरी, (16) सौनियाँ, (17) बलिया, (18) तिलरा, (19) पण्डरिया आदि गाँवों में जा बसे। इनमें प्रथम के नौ गाँव चौपारन में और शेष इटखोरी में हैं। इन सभी गाँवों के प्रधान तथा मूल निवासी कौशिक गोत्र ब्राह्मण ही हैं, जिनका सम्बन्ध गया जिले के नवादा सब-डिवीजन में विशेष रूप से पाया जाता है। परंतु इनके सिवाय कहीं-कहीं इनके नातेदार भी धीरे-धीरे उत्तराधिकारी हो के आ बसे हैं, जो हरितकिया, , दुमटिकार, गौतम, सोनभदरिया, किनवार, मौआर, दिघवैत कहाते हैं। ये सभी बनौ ग्राम में हैं, सिर्फ दिघवैत पंडरिया में बारा में हैं। यद्यपि पुरोहिती प्रधानतया कौशिक गोत्रियों के ही हाथ में है, फिर भी कहीं-कहीं किनवार वगैरह भी पुरोहित हैं। जैसे बेलखोरी के पं. हरिलाल पांडे, खीरू पांडे। इनके प्रधान यजमान बन्दौत हैं। मगर खैरवार भी कहीं-कहीं हैं और बढ़ई तथा कोइरी भी। माहुरी वैश्य यजमान बताए जाते हैं। परंतु बंदौतों के बाद स्थान कायस्थों का है जो इनके यजमान विशेष रूप से हैं। यद्यपि इटखोरी से मिले हुए परौका ग्राम के मुंशी जगन्नाथ सहाय बी.ए. वगैरह इनके यजमान हैं तथा और भी बहुतेरे गाँवों के कायस्थ हैं जो चौपारन तथा इटखोरी में ही हैं। लेकिन हजारीबाग से एक कोस दक्षिण असधिर के कायस्थ और गया के फतेहपुर थाना परगना महेर के कवला के भी कायस्थ यजमान हैं। वहाँ के मुंशी टीकमलाल गया में मुखतार हैं। ठुट्ठी के मुंशी देवकी प्रसाद लाल वगैरह भी यजमान हैं। बंदौतों के तो ग्राम पचासों-सैकड़ों हैं। मगर फुलांग के बाबू गौरी सिंह अच्छे जमींदार हैं और वे बारा के पं. लालधारी पांडे, पं. गोवर्धन पांडे, पं. मखौली पांडे वगैरह के यजमान हैं। हरपुर, कसियाँडीह, करमा, एकतारा, पननी, ढोंढी, मेन्हैनियाँ और हजारीबाग थाने के धावैया के बन्दौत तथा बोंगा, सिंहपुर, चपटी, केन्दुवा, महुदी, तेतरिया, रानिक, कोल्हुवा, अमझर, मोंगला, बानाजान, गणेशपुर, देवसर, कुम्हारी, जोकट, परसावा, कोइली, नरचाही, थवई, पकरिया, बेला, चोरकारी, हड़ाही, खरहुआँ, हारपुर, पथरियाँ, सिरमा, केदली, पुरैनी, करनी, घूमना, तेंदर आदि गाँव बन्दौतों के प्रसिद्ध हैं। महथा तेजो सिंह, महज्जर सिंह, रूप लाल सिंह, नूनू सिंह, जीवलाल सिंह, ज्ञान सिंह वगैरह अच्छे बन्दौत हैं। कुबरी के भीखन पांडे के यजमान हजारीबाग से पच्छिम एक मील मण्डई घुघुरिया के मुंशी ठाकुर प्रसाद वगैरह कायस्थ, बन्दौत; घुघुरिया, सेलहरा के कोइरी, सिरवा के बढ़ई और पंडरिया वगैरह के खैरवार भी हैं।

इन ब्राह्मणों को जागोडीह, रामपुर और पद्मा के राजाओं की ओर से पाँच गाँव ब्रह्मोत्तर में मिले हैं जिनकी मालगुजारी नहीं लगती। ये पाँच गाँव हैं बारा, बनो, पूड़ो, फुलवरिया और इंगुनियाँ। कहते हैं कि इयुनियाँवालों के पूर्वज रामपुर रसोइयादारी करते थे। अत: उस गाँव के दानपत्र में 'रसोइयाँ ब्राह्मण' और शेष चार गाँव के दानपत्र में 'पुरोहित ब्राह्मण' कर के लिखा गया है। अब भी इनके यजमान बन्दौत वगैरह जब पत्र लिखते हैं तो 'पुरोहित जी या पांडे जी प्रणाम' यही लिखते हैं। हालाँकि ये लोग अब अपने को कहीं-कहीं पांडे की जगह 'सिंह' कहने लगे हैं, यद्यपि पुराने कागजों में 'पांडे' ही लिखा है। बन्दौत लोग इनके घर जाने पर इनकी हाँड़ी का भात बलात माँग के खाया करते थे और अब भी करते हैं, हालाँकि अब कहीं-कहीं श्रोत्रियों और शाकद्वीपियों के बहकाने से इनकार करने लगे हैं। इसी तरह इस इलाके के शाकद्वीपी, श्रोत्रिय और जोशी लोग इनके घरों की कच्ची रोटी बराबर खाते चले आते हैं, यद्यपि अब पक्की रोटी खाने का प्रश्‍न वे लोग भी पैदा करना चाहते हैं।

गया जिले के भूमिहार ब्राह्मणों के साथ ही इन लोगों का विवाहादि होने के कारण उन्हीं के दबाव से धीरे-धीरे पांडे की जगह सिंह कहने और पुरोहिती छोड़ने की प्रवृत्ति इनमें भी हो रही थी। मगर अब रुक गई है। इनमें संस्कृत तथा अन्य विद्या का वैसा ही अभाव है जैसा कि अन्य पुरोहितों में। फिर भी ये लोग अपने यजमानों का काम स्वयं कराते हैं। सिर्फ दो-चार लोगों की ओर से (गुरु) बारा के मीना गुरु शाकद्वीपी और एकाध श्रोत्रिय भी गुमाश्ते का काम करते हैं और पुरोहिती करवाने के नाते चौथाई दक्षिणा भी लेते हैं। दो-एक ने अपने यजमान इन्हीं मीना गुरु और रनजीता के गिरधारी पांडे श्रोत्रिय को दान कर दिया है। परंतु अब भविष्य में कोई ऐसा न करेगा। अब ये तैयार हैं। पुरोहिती के आंदोलन ने उन्हें भी उत्साहित और दृढ़ कर दिया। जहाँ पहले वे लोग इसमें अपमान समझ गैरों के सामने छिपाना चाहते थे, तहाँ अब प्रतिष्ठा समझने लगे हैं। जिन भूमिहार ब्राह्मणों के अधिक यजमान हैं उनमें इंगुनियाँ के पं. सीबी पांडे, बनौ के पं. चेतलाल पांडे, बलिया के पं. बैजू पांडे, इटखोरी के पं. निरंजन पांडे, पं. भूहिल पांडे, कुबरी के पं. भीखन पांडे, बड़गाँव के पं. झनकू-पांडे, वगैरह गंभरिया के पं. लट्टू पांडे, बेलखोरी के पं. भरथू पांडे, तिलरा के पं. निरपू पांडे और इटखोरी के पं खेमनारायण पांडे वगैरह हैं। इनमें किसी-किसी के 100 से ज्यादा और अधिकांश के 50-60 घर तक यजमान हैं। कुछ के 25-30 घर भी हैं। ये सभी स्वयं पुरोहिती सिर्फ सीबी पांडे और झनकू के दायादा जोबा पांडे के गुमाश्ता कराते हैं। सीबी के मीना और जोबा के कोई श्रोत्रिय हैं। भीखन पांडे बड़े उत्साही और तत्पर हैं।

ये लोग यद्यपि साधारण और गरीब हैं, जैसे कि प्राय: अन्य पुरोहित भी हुआ करते हैं, फिर भी खाने के लिए दुखिया नहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि साधारण और गरीब होते हुए भी शायद ही कोई अविवाहित हो, जहाँ कि मगध, तिरहुत और युक्‍त प्रांत में अविवाहित भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक पहुँच गई है। पुरोहिती के विरोधियों को इसका भी ध्यान रहना चाहिए। फुलवरिया के वृद्ध पं. त्रिलोकी पांडे साधारणतया संपन्न और इन सबों के नेता हैं। वे बड़े उत्साही हैं। इसी प्रकार (महुदो) बारा के पं रामधन पांडे भी बड़े तत्पर हैं। बारा ग्राम ग्रैंड ट्रंक रोड पर चौपारन से दो मील पूर्व है।

अन्त में इस पुरोहिती प्रकरण को पूरा करने से पूर्व हमें एक बात और कहनी है और वह है भी नितान्त आवश्यक। अभी तक इसका आंदोलन अपने ही समाज तक प्राय: सीमाबद्ध है। जो नए पुरोहित हुए और हो रहे हैं वह अपने ही समाज की पुरोहिती करते हैं और कहीं कभी शायद ही ऐसा मौका आता है कि क्षत्रियादि की पुरोहिती करें। इसकी कोई ऐसी आवश्यकता भी नहीं है कि खामख्वाह इस पुरोहिती को एकमात्र धन और पूड़ी का साधन बना के वर्तमान पुरोहितों की तरह नए पुरोहित भी उसी के पीछे परेशान रहें। नए पुरोहितों में अनेकानेक की यह धारणा भी है कि जब तक अन्य समाज की पुरोहिती न की जावेगी और जब तक क्षत्रियादि भूमिहारों को कान्यकुब्जादि को तरह न पूजेंगे और मानेंगे तब तक समाज का निस्तार न होगा। यद्यपि इस बात की कोई मनाही नहीं है कि क्षत्रियादि की पुरोहिती न की जावे, प्रत्युत समयानुसार और आवश्यकतानुसार वह की ही जाती है जैसा कि हजारीबागवाले करते ही हैं और जैसा कि 'पुरोहिती पर काशी राजकुमार' में महाराज कुमार काशी का यह वाक्य है कि 'चाहे स्वजाति की करें, चाहे अन्य जाति की। यह ब्राह्मण का कर्म है। इसमें कोई क्षति नहीं।' फिर भी इसका लक्ष्य सदा यही होना चाहिए कि समाज में स्वाभिमान आवे। क्योंकि जब तक समाज में ब्राह्मणत्व का सच्चा अभिमान न होगा तब तक किसी के भी द्वारा पूजे जाने से निस्तार नहीं हो सकता। जब भूमिहारों में स्वाभिमान की मात्रा इतनी हो जावेगी कि वे किसी के भी सामने न झुकेंगे और जब कान्यकुब्ज मैथिलादि विवश हो के इन्हें सिर नवावेंगे एवं पूजेंगे तभी सच्चा निस्तार होगा इस पुरोहिती आंदोलन का यही सच्चा रहस्य है और इसी के लिए सदा प्रयत्‍न होना चाहिए।

प्राणनागांकचंद्राख्ये वैक्रमेऽब्देऽसिते दले।
चतुर्दश्यां बुधो पौषे ग्रन्थोऽसौ पूर्णतामगात्॥1॥

रचित: सहजानन्दसरस्वत्याख्यदंडिना।
अमुना पार्वतीजानि: प्रीयतां पृथिवीपति:॥2॥

इति वाराणसेयदशाश्‍वमेधाघट्टस्थमठभूतपूर्वालङ्कारश्रीमद्विश्‍वरूपसरस्वतीपूज्यपादविनेयपरम्पराप्रविष्ट

श्रीमत्स्वामिवर्याद्वैतानन्दसरस्वतीपूज्यचरणाम्बुजभृयमाणस्वामि-सहजानन्दसरस्वतीविरचियोऽयं ग्रन्थ:।