झूले / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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हम सभी एक झूले के सामने ही खड़े हैं। ज़िन्दगी के झूले, रिश्तों के झूले, अहसासों के झूले ...तमाम झूलों के बीच। हम सभी झूलों को कभी आनन्द से देखते हैं तो कभी आश्चर्य से। ज़िन्दगी के मेले में रिश्तों के झूलों पर झूलते-झूलते हमें दुनिया खूब सुन्दर दिखती है और जब झुला रुकता है तो सारी वास्तविकता नजर आ जाती है। हमें झूले वाले ने उतार दिया है और अब वह झूला किसी और को झुला रहा है। ये देख कर हम धीरे-धीरे वापस सड़क पर आ जाते हैं और ये सोच कर खुश होते हैं कि जो अभी आनन्द में, उल्लास में उड़ रहे हैं वह भी हमारी तरह झूले से उतार दिए जायेंगे।

मुझे तो ये झूले, रिश्तों की तरह लगते हैं। बहुत तेजी से खुद के करीब आते से दिखते हैं और पलक झपकने से पहले ही दोगुनी गति से वापस चले जाते हैं। दूर चले जाते हैं। हाथ बढ़ाकर छूना चाहो तो रुक जाते हैं। हम बैठने के लिए लटकती हुई जगह के सामने खड़े ज़रूर रहते हैं और मौका मिलते ही झूले के साथ उड़ते भी हैं। बहुत खुश होते हैं हम। तेजी से लोगों के पास से गुजरना। उन्हें छूना, चिढ़ाना और फिर झटके से दूर चले जाना। कितना रोमांच और उल्लास है झूले की पींगों में। कितना कठिन, कितना मुश्किल है लटकती हुई, आती-जाती हुई जगह को थाम लेना। ये ज़िन्दगी के मेले, रिश्तों के झूले हमेशा सजते रहते हैं। बैठने वाले बदल जाते हैं। हम बदल जाते हैं तुम बदल जाते हो। समय बदल जाता है। कभी-कभी सोचती हूँ क्या कभी कोई-कोई झूला उस बैठने वाले को भी याद करता होगा, जिसने तेज हवाओं और ऊंचाइयों में उड़ते हुए डर कर झूले को अपने हाथों में जोर से थाम लिया होगा और फिर गति रुकने पर झूले के रुकने पर झूले की रस्सियों पर उन हाथों के स्पर्श उभरते होंगे? दूर जाते कदम और ओझल होती आंखें क्या झूले को भी याद आती होगी?